Wednesday, February 14, 2018

फ़ाईनेंशल लव : पैसों की अहमियत चौंकाने वाली ------ भावना श्रीवास्तव






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 ~विजय राजबली माथुर ©

Tuesday, February 13, 2018

शिव को समझते नहीं पूजा के नाम पर ढोंग में फँसते हैं ------ विजय राजबली माथुर



इससे पूर्व लेख के जरिये विद्व्जनो के उपरोक्त निष्कर्ष प्रस्तुत किए थे। लेकिन लोग मनन किए बगैर पुरोहित - व्यापारी गठजोड़ द्वारा निरूपित पद्धति को ढोते जा रहे हैं। वस्तुतः ' शिव ' हमारा भारत वर्ष देश है , इस देश की प्रकृति ' पार्वती ' है और उनके पुत्र गणेश से अभिप्राय इस देश के राष्ट्रपति से है। 
गणेश = गण + ईश = जनता का नायक अर्थात राष्ट्रपति। 
' लिंग ' स्वरूप का अभिप्राय यह है कि , यदि हम अखिल ब्रह्मांड को एक मानव आकृति के रूप में लें तो हमारी ' पृथ्वी ' का स्थान ब्रह्मांड में वही है जो मानव शरीर में लिंग/ योनि  का होता है। सृजन या सृष्टि का हेतु होने के कारण मानव शरीर में लिंग/ योनि  एक महत्वपूर्ण  स्थान रखता है। देश के निवासियों से यह अपेक्षा है कि वे अपने इस देश की रक्षा उसी प्रकार करें जिस प्रकार शरीर में लिंग / योनि की करते हैं। 
परंतु बुद्धि, ज्ञान , विवेक को प्रयोग न करके लोग लिंग की स्थापना करके उसे शिव मानते हुये पूजते हैं बजाए संरक्षण करने के , यह मात्र ढोंग है और पूजा नहीं है। 
बेलपत्र को सामग्री में मिला कर आहुती देने से उदर - विकार दूर होते हैं किन्तु ढोंगवाद में बजाए हवन में आहुती देने के बेल - पत्र को व्यर्थ नष्ट कर दिया जाता है। वात - पित्त - कफ आदि जब तक शरीर को धारण करते हैं तब तक ' धातु 'और जब मलिन करने लगते हैं तब ' मल ' एवं जब दूषित करने लगते हैं तब ' दोष ' कहलाते हैं। ये त्रिदोष शरीर को शूल करते हैं। इनसे बचने के लिए अर्थात  ' त्रिशूल ' निवारण के लिए तीन फ़लक वाले बेलपत्र से आहुती का विधान रखा गया था लेकिन चित्रकारों ने ' त्रिशूल ' हथियार बना कर शिव, पार्वती और गणेश का मानवीकरण करके प्रस्तुत कर दिया और ब्राह्मण - व्यापारी गठजोड़ ने उसी स्वरूप की पूजा में गण - जनता को उलझा दिया। 
शिवरात्रि के अर्थ को समझ कर शिव की आराधना की जाए तब ही जन - कल्याण संभव है अन्यथा वही ढाक के तीन पात। 
 ~विजय राजबली माथुर ©

Monday, February 12, 2018

शिव रात्रि : दयानंद बोद्धोत्सव ------ विजय राजबली माथुर




फेसबुक फ्रेंड बहन सीमा उपाध्याय जी ने फेसबुक मेसेज के जरिये शिव- पार्वती , ब्रह्मा और गणेश के प्रतीकों वाला यह चित्र प्रेषित किया है। पार्वती इस देश की प्रकृति का द्योतक हैं। ब्रह्मा के चार मुख चार दिशाओं के द्योतक हैं। गणेश = गण = ईश अर्थात जनता का नायक = राष्ट्रपति। शिव हस्त में ॐ का चिन्ह है जो अ + उ + म का संयुक्त उच्चारण है। ओ3म का उच्चारण करने से शरीर के मध्य भाग नाभि की कसरत ( व्यायाम ) होती है जिससे शरीर में रक्त - संचरण सुचारू रूप से सम्पन्न हो जाता है।  

शिव अर्थात भारतवर्ष : 
"ॐ नमः शिवाय च का अर्थ है-Salutation To That Lord The Benefactor of all "यह कथन है संत श्याम जी पाराशर का। अर्थात हम अपनी मातृ -भूमि भारत को नमन करते हैं। वस्तुतः यदि हम भारत का मान-चित्र और शंकर जी का चित्र एक साथ रख कर तुलना करें तो उन महान संत क़े विचारों को ठीक से समझ सकते हैं। शंकर या शिव जी क़े माथे पर अर्ध-चंद्राकार हिमाच्छादित हिमालय पर्वत ही तो है। जटा से निकलती हुई गंगा -तिब्बत स्थित (अब चीन क़े कब्जे में) मानसरोवर झील से गंगा जी क़े उदगम की ही निशानी बता रही है । नंदी(बैल)की सवारी इस बात की ओर इशारा है कि, हमारा भारत एक कृषि -प्रधान देश है। क्योंकि ,आज ट्रेक्टर-युग में भी बैल ही सर्वत्र हल जोतने का मुख्य आधार है। शिव द्वारा सिंह-चर्म को धारण करना संकेत करता है कि, भारत वीर-बांकुरों का देश है। शिव क़े आभूषण(परस्पर विरोधी जीव)यह दर्शाते हैंकि, भारत "विविधताओं में एकता वाला देश है।" यहाँ संसार में सर्वाधिक वर्षा वाला क्षेत्र चेरापूंजी है तो संसार का सर्वाधिक रेगिस्तानी इलाका थार का मरुस्थल भी है। विभिन्न भाषाएं बोली जाती हैं तो पोशाकों में भी विविधता है। बंगाल में धोती-कुर्ता व धोती ब्लाउज का चलन है तो पंजाब में सलवार - कुर्ता व कुर्ता-पायजामा पहना जाता है। तमिलनाडु व केरल में तहमद प्रचलित है तो आदिवासी क्षेत्रों में पुरुष व महिला मात्र गोपनीय अंगों को ही ढकते हैं। पश्चिम और उत्तर भारत में गेहूं अधिक पाया जाता है तो पूर्व व दक्षिण भारत में चावल का भात खाया जाता है। विभिन्न प्रकार क़े शिव जी क़े गण इस बात का द्योतक हैं कि, यहाँ विभिन्न मत-मतान्तर क़े अनुयायी सुगमता पूर्वक रहते हैं। शिव जी की अर्धांगिनी -पार्वती जी हमारे देश भारत की संस्कृति (Culture )ही तो है। भारतीय संस्कृति में विविधता व अनेकता तो है परन्तु साथ ही साथ वह कुछ  मौलिक सूत्रों द्वारा एकता में भी आबद्ध हैं। हमारे यहाँ धर्म की अवधारणा-धारण करने योग्य से है। 


शिव का अर्थ है ‘कल्याण ' : 


शिव का अर्थ है ‘कल्याण ' अर्थात मानव मात्र के कल्याण हेतु जो संदेश दे वही शिव है। शिव बुद्धि,ज्ञान व विवेक का द्योतक है। 
हमारे विद्वान बुद्धिजीवी जिनमे बामपंथी भी शामिल हैं 'धर्म ' का अर्थ ही नहीं समझते और न ही समझना चाहते हैं। पुरोहितवादियो ने धर्म को आर्थिक शोषण के संरक्षण का आधार बना रखा है और इसीलिए बामपंथी पार्टियां धर्म का विरोध करती हैं। जब कि वह धर्म है ही नहीं जिसे बताया और उसका विरोध किया जाता है।
 धर्म का अर्थ  : 
 धर्म का अर्थ समझाया है 'शिवरात्रि ' पर बोध प्राप्त करने वाले मूलशंकर अर्थात दयानंद ने। उन्होने 'ढोंग-पाखंड ' का प्रबल विरोध किया है उन्होने 'पाखंड खंडिनी पताका' पुस्तक द्वारा पोंगापंथ का पर्दाफाश किया है। 
दयानन्द ने आजादी के संघर्ष को गति देने हेतु 1875 मे  'आर्यसमाज ' की स्थापना की थी , उसे विफल करने हेतु ब्रिटिश शासकों ने 1885 मे  कांग्रेस की स्थापना करवाई तो आर्यसमाँजी उसमे शामिल हो गए और आंदोलन को आजादी की दिशा मे चलवाया।1906 मे अंग्रेजों ने मुस्लिम लीग स्थापित करवाकर देश मे एक वर्ग को आजादी के आंदोलन से पीछे हटाया। 1920 मे हिन्दू महासभा की स्थापना करवा कर दूसरे वर्ग को भी आजादी के आंदोलन से पीछे हटाने का विफल प्रयास किया। 1925 मे साम्राज्यवादी हितों के पोषण हेतु आर एस एस का गठन करवाया जिसने मुस्लिम लीग के समानान्तर सांप्रदायिकता को भड़काया और अंततः देश विभाजन हुआ। आर्यसमाज के आर  एस एस के नियंत्रण मे जाने के कारण राष्ट्रभक्त आर्यसमाजी जैसे स्वामी सहजानन्द ,गेंदा लाल दीक्षित,राहुल सांस्कृत्यायन आदि 1925 मे स्थापित 'भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ' मे शामिल हुये जिसका गठन आजादी के क्रांतिकारी आंदोलन को गति देने हेतु हुआ था। सरदार भगत सिंह,राम प्रसाद 'बिस्मिल ' सरीखे युवक 'सत्यार्थ प्रकाश 'पढ़ कर ही क्रांतिकारी कम्युनिस्ट बने थे। 

यदि हम अपने देश  व समाज को पिछड़ेपन से निकाल कर, अपने खोये हुए गौरव को पुनः पाना चाहते हैं, सोने की चिड़िया क़े नाम से पुकारे जाने वाले देश से गरीबी को मिटाना चाहते हैं, भूख और अशिक्षा को हटाना चाहते हैं तो हमें "ॐ नमः शिवाय च "क़े अर्थ को ठीक से समझना ,मानना और उस पर चलना होगा तभी हम अपने देश को "सत्यम,शिवम्,सुन्दरम"बना सकते हैं। आज की युवा पीढी ही इस कार्य को करने में सक्षम हो सकती है। अतः युवा -वर्ग का आह्वान है कि, वह सत्य-न्याय-नियम और नीति पर चलने का संकल्प ले और इसके विपरीत आचरण करने वालों को सामजिक उपेक्षा का सामना करने पर बाध्य कर दे तभी हम अपने भारत का भविष्य उज्जवल बना सकते हैं। काश ऐसा हो सकेगा?हम ऐसी आशा तो संजो ही सकते हैं। 
" ओ ३ म *नमः शिवाय च" कहने पर उसका मतलब यह होता है। :-
*अ +उ +म अर्थात आत्मा +परमात्मा +प्रकृति 
च अर्थात तथा/ एवं / और 
शिवाय -हितकारी,दुःख हारी ,सुख-स्वरूप 

नमः नमस्ते या प्रणाम या वंदना या नमन ******

'शैव' व 'वैष्णव' दृष्टिकोण की बात कुछ विद्वान उठाते हैं तो कुछ प्रत्यक्ष पोंगापंथ का समर्थन करते हैं तो कुछ 'नास्तिक' अप्रत्यक्ष रूप से पोंगापंथ को ही पुष्ट करते हैं। सार यह कि 'सत्य ' को साधारण जन के सामने न आने देना ही इनका लक्ष्य होता है।  शिव रात्रि  तथा सावन या श्रावण मास में सोमवार के दिन 'शिव ' पर जल चढ़ाने के नाम पर, शिव रात्रि पर भी तांडव करना और साधारण जनता का उत्पीड़न करना इन पोंगापंथियों का गोरख धंधा है। 

'परिक्रमा' क्या थी ?: 
वस्तुतः प्राचीन काल में जब छोटे छोटे नगर राज्य (CITY STATES) थे और वर्षा काल में साधारण जन 'कृषि कार्य' में व्यस्त होता था तब शासक की ओर से राज्य की सेना नगर राज्य के चारों ओर परिक्रमा (गश्त) किया करती थी और यह सम्पूर्ण वर्षा काल में चलने वाली निरंतर प्रक्रिया थी जिसका उद्देश्य दूसरे राज्य द्वारा अपने राज्य की व अपने नागरिकों की सुरक्षा सुनिश्चित करना था। कालांतर में जब छोटे राज्य समाप्त हो गए तब इस प्रक्रिया का औचित्य भी समाप्त हो गया। किन्तु ब्राह्मणवादी पोंगापंथियों ने अपने व अपने पोषक व्यापारियों के हितों की रक्षार्थ धर्म की संज्ञा से सजा कर शिव के जलाभिषेक के नाम पर 'कांवड़िया ' प्रथा का सूत्रपात किया जो आज भी अपना तांडव जारी रखे हुये है। क्या दमित, क्या, पिछ्ड़ा, क्या महिलाएं सभी इस ढोंग को प्रसारित करने में अग्रणी हैं। 



अफसोस की बात यह है कि पोंगापंथ का पर्दाफाश करने के बजाए 'नास्तिकवादी' विद्वान भी पोंगापंथ को ही बढ़ावा दे रहे हैं और सच्चाई का विरोध कर रहे हैं।ऐसे ही लोग विविधता और मत- वैभिन्यता का विरोध करते हैं । ' शिव रात्रि ' पर्व दयानन्द बोद्धोत्सव का पर्व भी है , देखिये कवि प्रदीप ने अपनी ओजस्वी वाणी से महर्षि दयानन्द गाथा में क्या बताया है। कवि प्रदीप स्वामी दयानंद के संबंध में हिन्दू शब्द का उल्लेख कर गए हैं जबकि वस्तुतः स्वामी दयानंद ने आर्य = आर्ष = श्रेष्ठ की बात कही है हिन्दू की नहीं जो कि फारसी भाषा की एक गंदी गाली है। : 



वस्तुतः स्वामी विरजानन्द जी ने स्वामी दयानन्द सरस्वती जी को जो शिक्षा दी वह सम्पूर्ण मानवता को श्रेष्ठ =आर्ष=आर्य बनाने की थी और उसी पर दयानन्द जी चले भी। यह आर्य न कोई जाति है न धर्म न ही नस्ल न ही किसी मजहब की शाखा या प्रशाखा। न ही किसी क्षेत्र विशेष से संबन्धित। विश्व का कोई भी वह मनुष्य जो श्रेष्ठ कर्म करे वह आर्य है। अश्रेष्ठ या निकृष्ट कर्म करने वाला अनार्य । 
स्वामी दयानन्द जी का जन्म मूल शंकर तिवारी के रूप में हुआ था अर्थात प्रचलित ब्राह्मण जाति में लेकिन उन्होने घर-परिवार और दुनिया में जो देखा व अपने गुरु विरजानन्द जी से जो समझा-सीखा उससे वह जिस निष्कर्ष पर पहुंचे थे उनके ही शब्दों में प्रस्तुत है। ('सत्यार्थप्रकाश' : सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा , नई दिल्ली- 2 से प्रकाशित के पृष्ठ- 262 व 263 पर ) :
"जब ब्राह्मण लोग विद्द्याहीन हुए तब क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के अविद्वान होने में तो कथा ही क्या कहनी? जो परंपरा से वेदादि शास्त्रों का अर्थसहित पढ़ने का प्रचार था वह भी छूट गया। केवल जीविकार्थ पाठमात्र ब्राह्मण लोग पढ़ते रहे, सो पाठ्मात्र भी क्षत्रिय आदि को न पढ़ाया। क्योंकि जब अविद्वान हुये गुरु बन गए तब छल, कपट, अधर्म भी उनमें बढ़ता चला । ब्राह्मणों ने विचारा कि अपनी जीविका का प्रबंध बांधना चाहिए। सम्मति करके यही निश्चय कर क्षत्रिय आदि को उपदेश करने लगे कि हम हीं तुम्हारे पूज्यदेव हैं। बिना हमारी सेवा किए तुमको स्वर्ग या मुक्ति न मिलेगी। किन्तु जो तुम हमारी सेवा न करोगे तो घोर नरक में पड़ोगे। जो-जो पूर्ण विद्या वाले धार्मिकों का नाम ब्राह्मण और पूजनीय वेद और ऋषि-मुनियों के शास्त्र में लिखा था, उसको अपने मूर्ख, विषयी, कपटी, लमपट,अधर्मियों पर घटा बैठे। भला वे आप्त विद्वानों के लक्षण इन मूरखों में कब घट सकते हैं? परंतु जब क्षत्रियादी यजमान संस्कृत विद्या से अत्यंत रहित हुये तब उनके सामने जो-जो गप्प मारी, सो-सो बिचारों सब मान ली। जब मान ली तब इन नाम मात्र ब्राह्मणों की बन पड़ी। सबको अपने वचन जाल में बांध कर वशीभूत कर लिया और कहने लगे कि :--- 
ब्रह्मवाक्यं जनार्दन:  :। । 

अर्थात जो कुछ ब्राह्मणों के मुख से वचन निकलता है, वह जानों साक्षात भगवान के मुख से निकला। जब क्षत्रियादी वर्ण 'आँख के अंधे और गांठ के पूरे ' अर्थात भीतर विद्या की आँख फूटी हुई और जिनके पास धन पुष्कल है, ऐसे-ऐसे चेले मिले, फिर इन व्यर्थ ब्राह्मण नामवालों को विषयानंद का उपवन मिल गया। यह भी उन लोगों ने प्रसिद्ध किया कि जो कुछ पृथिवी में उत्तम पदार्थ हैं, वे सब ब्राह्मणों के लिए हैं। अर्थात जो गुण,कर्म,स्वभाव से ब्राहमणादि वर्णव्यवस्था थी, उसको नष्ट कर जन्म पर रखी और मृतक पर्यंत का भी दान यजमानों से लेने लगे। जैसी अपनी इच्छा हुई वैसा करते चले "   
स्वामी दयानन्द जी ने महाभारत काल के बाद से वैदिक व्यवस्था का पतन माना है जो ऐतिहासिक रूप से भी सत्य है। राम और कृष्ण के समय में उनके लिए 'आर्यपुत्र' शब्द प्रयुक्त होता था। बाद में बौद्धों के विहार व मठ उजाड़ने वालों को ( हिंसा देने वालों को  बौद्धों द्वारा )हिन्दू  कहा गया। जब ईरानी यहाँ आए तो अपनी फारसी भाषा की एक गंदी और भद्दी गाली के रूप में यहाँ के निवासियों को 'हिन्दू' कह कर पुकारा तब से ही यह शब्द प्रचलन में आया है जिसको ब्रिटिश शासकों ने एक राजनीतिक विचारधारा के रूप में पोषित किया था। 
स्वामी दयानन्द जी ने भी सन 1857 ई ॰ की क्रान्ति में सक्रिय भाग लिया था और क्रांति के विफल होने पर 1875 में उन्होने 'आर्यसमाज ' की स्थापना पूर्ण स्वराज्य प्राप्ति के हेतु की थी और उसकी प्रारम्भिक शाखाएँ ब्रिटिश छवानी वाले शहरों में स्थापित की थीं। 

एम एम अहलूवालिया साहब ने अपनी पुस्तक :FREEDOM STRUGGLE IN INDIA के पृष्ठ 222 पर लिखा है-

"The Government was never quite happy about the Arya Samaj. They disliked it for its propaganda of self-confidence,self-help and self-reliance.The authorities,sometimes endowed it with fictitious power by persecuting to members whose Puritanism became political under intolerable conditions." 

अर्थात-"आर्यसमाज से सरकार को कभी भी खुशी नहीं हुई। शासकों ने आर्यसमाज को इसलिए नहीं चाहा कि यह आत्मविश्वास,स्व-सहाय और आत्म-निर्भरता का प्रचार करता था। कभी-कभी तो अधिकारियों ने इसकी शक्ति को इतना अधिक महत्व दिया कि उसके सदस्यों को दंडित किया और असहनीय दशाओं में उनके सुधारवादी आंदोलन ने राजनीतिक रूप ले लिया। "
 ब्रिटिश शासकों ने महर्षि दयानन्द को 'क्रांतिकारी सन्यासी' (REVOLUTIONARY SAINT) की संज्ञा दी थी। आर्यसमाज के 'स्व-राज्य 'आंदोलन से भयभीत होकर वाईस राय लार्ड डफरिन ने अपने चहेते अवकाश प्राप्त ICS एलेन आकटावियन (A. O.)हयूम के सहयोग से वोमेश चंद्र (W.C.)बेनर्जी जो परिवर्तित क्रिश्चियन थे की अध्यक्षता में 1885 ई .में  इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना ब्रिटिश साम्राज्य के 'सेफ़्टी वाल्व'के रूप मे करवाई थी। किन्तु महर्षि दयानन्द की प्रेरणा पर आर्यसमाजियों ने कांग्रेस में प्रवेश कर उसे स्वाधीनता आंदोलन चलाने पर विवश कर दिया। 'कांग्रेस का इतिहास' नामक पुस्तक में लेखक -डॉ पट्टाभि सीता रमईय्या ने स्वीकार किया है कि देश की आज़ादी के आंदोलन में जेल जाने वाले 'सत्याग्रहियों 'में 85 प्रतिशत आर्यसमाजी थे।  यही वजह है कि आज भी 'साम्राज्यवाद' के हितैषी लोग समय-समय पर महर्षि स्वामी दयानन्द पर हमले करते रहते हैं। दयानंद जी को 'महान हिन्दू ' घोषित करना ब्राह्मणवादी षड्यंत्र के सिवा और कुछ नहीं है । आर्यसमाज प्रभावित गांधी जी के असहयोग आंदोलन को छिन्न -भिन्न करने हेतु प्रयासों में  (मुस्लिम लीग : स्थापित 1906 , हिंदूमहासभा : स्थापित 1920 ) विफल रहने के उपरांत 1925 में आर एस एस की स्थापना ब्रिटिश साम्राज्य की सुरक्षा हेतु करवाई गई थी जो तब 'दंगों की भट्टी ' में देश को झोंक कर 1947 में साम्राज्यवादी विभाजन कराने में सफल रहा था और आज यू एस ए के साम्राज्यवादी हितों की रक्षा में अग्रणी और पुनः देश के कई विभाजन कराने की ओर अग्रसर है।  ऐसे संगठन की हौसला अफजाई का ही काम करेगा दयानन्द जी को हिन्दू घोषित करने का घृणित अभियान । आज आर्यसमाज पर भी वह आर एस एस जो उसके विरोध में गठित हुआ था हावी है इसलिए उस ओर से प्रतिरोध की आवाज़ उठने की संभावना क्षीण है जिससे दयानन्द के निंदकों व विरोधियों के हौसले बुलंद हैं जो उनको हिन्दू का खिताब दे डाला। 


 ~विजय राजबली माथुर ©

Saturday, February 10, 2018

लाफ एंड द वर्ल्ड विल लाफ विद यू : वीप एंड यू वीप एलोन ------ अङ्ग्रेज़ी कहावत

जैसा कि  माना जाता है द्रौपदी द्वारा दुर्योद्धन की मूर्खता पर हंसने के कारण ' महाभारत ' हुआ था जिसमें दुर्योद्धन का कौरव पक्ष समूल नष्ट हो गया था। राज्यसभा  में कांग्रेसी सांसद श्रीमती रेणुका चौधरी द्वारा प्रधानमंत्री महोदय की किसी असम्बद्ध ( इर रिलेवेंट ) बात पर हंस दिया गया जिस पर रामायण सीरियल का ज़िक्र हुआ था। 
किन्तु  परिस्थितिजन्य वासतिवक्ता के चलते  महाभारत का उल्लेख होना चाहिए था। 









~विजय राजबली माथुर ©

Tuesday, February 6, 2018

एक साथ चुनाव की सोच निरंकुशता का प्रतीक ------ राम शिरोमणि शुक्ल




बिलकुल सटीक आंकलन है तभी तो वित्तमंत्री साहब पीछे हटते नज़र आ रहे हैं : 





 ~विजय राजबली माथुर ©