*इस प्रकार की परस्पर प्रतिद्वंदिता ने सम्प्रदायवाद ,जातिवाद और धार्मिक वितंडावाद को जन्म दिया अतः ये सब भ्रष्टाचार की ही परिधि में आते हैं .हमने देखा कि समाज में धनवान बनने की होड़ आर्थिक ,राजनीतिक ,साम्प्रदायिक ,जातीय ,भाषाई -भ्रष्टाचार और भड़कते विग्रह की जड़ है .
*जब तक मंदिर में चढावा और मज़ार पर चादर चढाने की प्रवृत्तियाँ रहेंगी तब तक हर लेन -देन में काम के बदले धन देने को गलत सिद्ध करना मुश्किल रहेगा
[विशेष:यह आलेख 16 नवम्बर 1987 को पाक्षिक समाचारपत्र 'फीरोजाबाद केसरी' में प्रकाशित हो चुका है.]
गौतम बुद्ध ने कहा था -दुःख है ,दुःख का कारण है ,दुःख दूर हो सकता है ,दुःख दूर करने का उपाय है .आज हम निसंकोच कह सकते हैं भ्रष्टाचार है ,भ्रष्टाचार का कारण है ,भ्रष्टाचार दूर हो सकता है ,भ्रष्टाचार दूर करने का उपाय है .तो आईये पहले जानें भ्रष्टाचार है क्या बला .भ्रष्टाचार =भ्रष्ट +आचार .अर्थात गलत आचरण चाहे वह आर्थिक ,राजनीतिक क्षेत्र में हो या सामाजिक ,पारिवारिक क्षेत्र में चाहे वह धन से सम्बंधित हो चाहे मन से -भ्रष्टाचार है .आज भ्रष्टाचार सार्वभौम सत्य के रूप में अपनी बुलंदगी पर है ,बगैर धन दिए आप आज किसी से काम नहीं करा सकते .पहले भ्रष्टाचार नीचे बहता था तो ऊपर बैठे लोगों का डर भी था पर अब तो भ्रष्टाचार सिर पर चढ़ा है -यथा राजा तथा प्रजा .ईमानदारी आज सबसे बड़ा अपराध है और वह दण्डित हुए बगैर रह नहीं सकती .तो साहब भ्रष्टाचार तो है ---सर्वव्यापी उसका कारण क्या है ? यह भी जान लिया जाये .
समयांतर के साथ आज हमारा समाज एक कलयुग अर्थात कळ (मेकेनिकल )+युग (एरा ) में चल रहा है . आज हर कार्य तीव्र गति से और अल्प -श्रम द्वारा किया जा सकता है .जब थोड़े श्रम से अत्यधिक उत्पादन होगा और उत्पादित माल के निष्पादन अर्थात बिक्री की समस्या होगी तो उत्पादक तरह -२ के प्रलोभन कमीशन डिस्काउंट ,रिबेट -रिश्वत आदि का प्रयोग करता है .यह प्रयोग ही भ्रष्टाचार है .आज हर कार्य धन से संपन्न होता है और धनार्जन चाहे जिस स्त्रोत से हो इसकी बाबत ध्यान दिए बगैर ही आपको सम्मान आपके द्वारा अर्जित धन के अनुपात में ही आपको प्राप्त होगा . ऐसी स्थिति धन -संग्रह की प्रवृति को जन्म देती है और धन प्राप्ति के लिए नाना -विधियाँ विकसित होती जाती हैं .शीघ्रतिशीघ्र धनवान बनने की लालसा में ही दहेज़ प्रणाली विकसित की गई क्या यह भ्रष्टाचार नहीं है ? फिर दहेज़ के लिए वधु का दाह भीषण भ्रष्टाचार क्यों नहीं है ? आप एक डा . एक वकील या एक व्यापारी हैं ,आपको अपनी दुकान चलने के लिए ग्राहकों की आवश्यकता है आपने अपनी मेकेनिकल (कलयुगी )बुद्धी से अपनी जाति ,धर्म अथवा सम्प्रदाय के उत्थान का बीड़ा उठा लिया और आप उस सम्बंधित वर्ग के ग्राहकों के बलबूते अपने क्षेत्र में सफल हो गए .इस प्रकार की परस्पर प्रतिद्वंदिता ने सम्प्रदायवाद ,जातिवाद और धार्मिक वितंडावाद को जन्म दिया अतः ये सब भ्रष्टाचार की ही परिधि में आते हैं .हमने देखा कि समाज में धनवान बनने की होड़ आर्थिक ,राजनीतिक ,साम्प्रदायिक ,जातीय ,भाषाई -भ्रष्टाचार और भड़कते विग्रह की जड़ है .
इससे नतीजा निकलता है कि जब तक समाज में धन का महत्त्व इसी प्रकार बना रहेगा तब तक भ्रष्टाचार भी बना रहेगा .धन के महत्त्व पर आधारित अर्थव्यवस्था और तदनुरूप राजनीतिक प्रणाली को बदले बगैर भ्रष्टाचार का खात्मा नहीं हो सकता .
जब तक मंदिर में चढावा और मज़ार पर चादर चढाने की प्रवृत्तियाँ रहेंगी तब तक हर लेन -देन में काम के बदले धन देने को गलत सिद्ध करना मुश्किल रहेगा क्योंकि जब विधाता ही बगैर किसी आश्वासन के कुछ करने को तैयार
नहीं तब मनुष्य तो मन का कलुष है ही .
जब भ्रष्टाचार दूर किया जा सकता है तो उसका उपाय भी मौजूद है ---धन आधारित समाज अर्थात पूंजीवाद का विनाश .पूंजीवाद को समाप्त कर जब श्रम के महत्त्व पर आधारित समाज व्यवस्था को स्थापित कर दिया जायेगा तो भ्रष्टाचार स्वतः ही समाप्त हो जायेगा .परन्तु समाजवाद पर आधारित व्यवस्था कौन स्थापित करेगा ,कैसे करेगा जब सभी राजनीतिक दल तो समाजवाद को अपना अभीष्ट लक्ष्य घोषित करते हैं .आज क्या इंदिरा (राजीव ) कांग्रेस क्या भा .ज .पा. और जन -मोर्चा सभी तो समाजवाद के अलमबरदार हैं फिर क्यों नहीं आया समजवादी समाज आजादी के चालीस वर्षों बाद भी .निश्चय ही प्रयास नहीं किया गया ,नहीं किया जा रहा और न ही किया जायेगा .कौन है जो प्राप्त सुविधा को स्वेच्छा से छोड़ देगा ,इसलिए जनता को गुमराह करने के लिए समाजवाद का नाम लेकर दरअसल पूंजीवाद को ही सबल किया गया है .तभी पनडुब्बी ,तोप आदि के भ्रष्टाचार चल सके हैं और कामयाब हो रहे हैं .
यदि हम मनसा -वाचा -कर्मणा भ्रष्टाचार दूर करना चाहते हैं .तो हमें मन ,वचन और कर्म से ही उन समाजवादियों का साथ देना होगा जिन्होंने इस धरती के आधे भाग पर और आबादी के एक तिहाई भाग पर वास्तविक समाजवादी समाज की स्थापना की है .
( इस ब्लॉग पर प्रस्तुत आलेख लोगों की सहमति -असहमति पर निर्भर नहीं हैं -यहाँ ढोंग -पाखण्ड का प्रबल विरोध और उनका यथा शीघ्र उन्मूलन करने की अपेक्षा की जाती है)
आपने सही कहा --भ्रष्टाचार हर क्षेत्र में हो सकता है । मन का भ्रष्टाचार तो हमें स्वयं ही मिटाना पड़ेगा ।
ReplyDeleteबढ़िया आलेख ।
माथुर साहब, बहुत लाजमी बात कही आपने , लेकिन अफ़सोस की आज के हमारे समाजवाद के ये तथाकथित सिपहसलार इतने मुलायम हो गए की शर्म भी इनपर पड़ने से फिसल जाती है ! मैं यूरोप में फ्रांस को एक समाजवादी व्यवस्था के रूप में देखता था , लेकिन वह भी धीरे-धीरे लगता है भारत का पशचिम बंगाल बनने की राह पर है ! तर्क और वितर्क इसके लिए बहुत सारे है मगर यह भी सत्य है की आज की ये तथाकथित लोकतान्त्रिक सरकारे पहले भरष्ट तरीके अपना कर राजकोषीय घाटा बढ़ा देती है और फिर उसे ठीक करने के नाम पर युवा पीढी का हक़ मारती है! अब इस देश में ही देख लीजिये, अगर सीवीसी के एक आंकलन को आधार माना जाए तो राष्ट्रमंडल खेलों के निर्माण और आयोजन में ३३% आबंटित धन लूट लिया गया ! यानी कुल ७७ हजार करोड़ रूपये का २५ हजार करोड़ रुपया लूट की भेंट चढ़ा ! यानी अगर इस देश का एक भी व्यक्तिगत करदाता २ साल तक टैक्स नहीं देता तो उस रकम से क्षतिपूर्ति की जा सकती थी ! और उठाकर उस धन को ले गए स्वेत्जर्लैंड वासियों के ऐशो-आराम करने के लिए क्योंकि ब्याज कमा कर तो वो लोग खा रहे है इस काले धन पर ! और उप[आर से यह सरकार कल दिल्ली में हर फ्लाइओवर के ऊपर चुंगी लगा देती है ( जैसा की पहले सुनने में आया था ) तो एक तो हमारे टैक्स की रकम से इन्होने चोरी की, पुल बनाया और अब उसी पुल पर हमसे टैक्स लेकर अपना घाटा पूरा करेंगे , तो विद्रोह लाजमी है !
ReplyDeleteडॉ टी एस दराल जी की बातों से सहमत हूँ..... विचारणीय प्रश्न उठाती पोस्ट....
ReplyDeleteमेरे असहमत होने का तो सवाल ही नहीं उठता .... !!
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