[By Shaily Sahay]
Some where in the midst of Darkness
I was lost
Alone Alone in the mob
Howling and Shouting for existence and
attention
My prayers and pleas echoed in that
Big arena,
Lost,unheared,unnoticed and ignored
in Vioelence,
Apparently, in that feggy season
Some one unknown,held my hands
Which were stuiched out for help
we sailed through the crowd,
Some where, Some where away from that
lost world
My angel led me to the door from
where brightness of light piered
My eyes ,slowly it enlightened
My dreams, I started living my
dreams, trying to make there true
Approaching with passion and
leest towards the door , I wished
to cross it , before ,before .....
I was bowed down
Alas ! The Angel was lost ,the door
was closed for ever and ever .
Emptiness gazed, Silence prevailed
every where ,
I ,I was sturned and lost again ,
I am lost till now ,
Clinging to the delusion that the
angel will come again.......
(शैली अपनी बुआ श्रीमती पूनम माथुर क़े साथ) |
(इस कविता की हस्तलिखित प्रति जो शैली ने पूनम को भेंट की थी ) |
शैली सहाय (सुपुत्री श्री राजीव रंजन सहाय एवं श्रीमती सविता सिन्हा) मेरी पत्नी की बड़ी भतीजी है जो अब तो Mass Comunication क़े द्वितीय वर्ष में है,परन्तु उसने यह कविता उस समय सन २००८ ई.में लिखी थी जब इन्टर मीडीएट की छात्रा थी. वस्तुतः उसके यहाँ बर्तन मांजने वाली की बेटी को धर्माचार्य जी क़े आश्रम द्वारा संचालित पटना क़े स्कूल में फ्री शिक्षा हेतु कम्पटीशन में सफल रहने क़े बावजूद वायदे क़े अनुसार एडमीशन न मिलने पर शैली क़े मस्तिष्क पर जो प्रभाव पड़ा;उसी की प्रतिक्रिया की अभिव्यक्ति है यह कविता.
आज क्रिसमस क़े अवसर पर जब सान्ताक्लाज़ द्वारा गरीब बच्चों को उपहार देने की चर्चा होगी तो हमारे देश क़े पूज्य धर्माचार्य जी का चरित्र -चित्रण करती यह कविता पुनः प्रकाशित करना मैंने अपना कर्त्तव्य समझा.इससे पूर्व इसी कविता को "जो मेरा मन कहे" पर यशवन्त द्वारा भी प्रकाशित किया गया था.
क्या इनकम टैक्स की बचत हेतु धर्माचार्यों को धन देने वालों द्वारा उनके इस आचरण की ओर भी ध्यान देने की आवश्यकता है अथवा नहीं ?
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From: bihari blogger <chalabihari@gmail.com>
Date: 2010/12/31
Subject: कविता का अनुवाद
To: Vijai Mathur <vijai.jyotish@gmail.com>
माथुर साहब,
अपने सामर्थ्य के अनुसार शैली जी की अंग्रेज़ी कविता का अनुवाद एवम् रूपांतरण करने की चेष्टा की है.
कृपया देख लें कहाँ तक सफल हो पाया हूँ. कोशिश की है कि मूल कविता की आत्मा अक्षुण्ण रहे:
नीम तारीकी के बीच इक रोज़ मैं
गुम हो गया इक भीड़ में
बस चीखता, चिल्लाता, लोगोंको बुलाता
खोजता था मैं वजूद अपना, जो गुम था.
हर दुआ मेरी, युँही बस गूँजती थी
कोई सुनवाई नहीं थी,
और कोई ध्यान भी देता नहीं था.
धुंद के मौसम में तब
चुपचाप एक अनजान ने
थामी मेरी बाहें
लिये मुझको,
निकलता वो गया उस भीड़ से.
अनजान और बेहिस से उस माहौल से
पहुँचा दिया उस दर पे मुझको उस फ़रिश्ते ने
जहाँ था रौशनी का एक दरिया बह रहा
आँखों को मेरी कर रहा रौशन.
वहाँ थे ख़्वाब मेरे..
मैं लगा ख़वाबों को जीने
सच उन्हें करने
इसी ख़्वाहिश में मैंने
जोड़ ली इक और ख़्वाहिश
पार कर लेने की उस दर को
मगर इसके क़बल कि लाँघता दहलीज़ मैं
था वो फ़रिश्ता जा चुका
और बंद थे दर रौशनी के
बस वहाँ पसरा हुआ था
एक ख़ालीपन
और इक ख़ामोशी चारों ओर थी बिखरी पड़ी बस!!
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आशीष बनाए रखें.
सलिल
(इस ब्लॉग पर प्रस्तुत आलेख लोगों की सहमति -असहमति पर निर्भर नहीं हैं -यहाँ ढोंग -पाखण्ड का प्रबल विरोध और उनका यथा शीघ्र उन्मूलन करने की अपेक्षा की जाती है)
माथुर साहब!
ReplyDeleteबच्ची की इस कविता पर मेरी पूरी पोस्ट क़ुर्बान!! यह सम्वेदनाएँ हम अपनी आने वाली को दे सकें, तो देश का भविष्य स्वर्णिम हो पाएगा. आज्ञा देंगे तो इस कविता को एक नज़्म की शक्ल में ढ़ालना चाहुँगा!!
सलिल जी,
ReplyDeleteनमस्ते!
आप बडे शौक और पूरे अधिकार के साथ् इस बच्ची की कविता को जैसे चाहें नज्म मे ढाल सकते हैं और बच्ची को अपना आशीर्वाद देने की कृपा करें.
जाने कितनी ही प्रतिभाएं अवसर न मिलने की वज़ह से अंधकार के गहरे सागर में विलुप्त हो जाती हैं ।
ReplyDeleteशैली की यह कविता मर्मस्पर्शी है और सोचने पर मजबूर करती है ।