प्रस्तुत आलेख मूल रूप से आगरा से प्रकाशित साप्ताहिक सप्तदिवा क़े २७ अक्तूबर १९८२ एवं ३ नवम्बर १९८२ क़े अंकों में दो किश्तों में पूर्व में ही प्रकाशित हो चुका है तथा इस ब्लॉग पर भी पहले प्रकाशित किया जा चुका है.पूर्व में प्रकाशित इस आलेख की अशुद्धियों को यथासम्भव सुधारते हुए तथा पाठकों की सुविधा क़े लिये यहाँ ४ किश्तों में पुनर्प्रकाशित किया जायेगा.
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आज से दो अरब वर्ष पूर्व हमारी पृथ्वी और सूर्य एक थे.अस्त्रोनोमिक युग में सर्पिल,निहारिका,एवं नक्षत्रों का सूर्य से पृथक विकास हुआ.इस विकास से सूर्य के ऊपर उनका आकर्षण बल आने लगा .नक्षत्र और सूर्य अपने अपने कक्षों में रहते थे तथा ग्रह एवं नक्षत्र सूर्य की परिक्रमा किया करते थे.एक बार पुछल तारा अपने कक्ष से सरक गया और सूर्य के आकर्षण बल से उससे टकरा गया,परिणामतः सूर्य के और दो टुकड़े चंद्रमा और पृथ्वी उससे अलग हो गए और सूर्य की परिक्रमा करने लगे.यह सब हुआ कास्मिक युग में.ऐजोइक युग में वाह्य सतह पिघली अवस्था में,पृथ्वी का ठोस और गोला रूप विकसित होने लगा,किन्तु उसकी बहरी सतह अर्ध ठोस थी.अब भरी वायु –मंडल बना अतः पृथ्वी की आंच –ताप कम हुई और राख जम गयी.जिससे पृथ्वी के पपडे का निर्माण हुआ.महासमुद्रों व महाद्वीपों की तलहटी का निर्माण तथा पर्वतों का विकास हुआ,ज्वालामुखी के विस्फोट हुए और उससे ओक्सिजन निकल कर वायुमंडल में HYDROGEN से प्रतिकृत हुई जिससे करोड़ों वर्षों तक पर्वतीय चट्टानों पर वर्षा हुई तथा जल का उदभव हुआ;जल समुद्रों व झीलों के गड्ढों में भर गया.उस समय दक्षिण भारत एक द्वीप था तथा अरब सागर –मालाबार तट तक विस्तृत समुद्र उत्तरी भारत को ढके हुए था;लंका एक पृथक द्वीप था.किन्तु जब नागराज हिमालय पर्वत की सृष्टि हुई तब इयोजोइक युग में वर्षा के वेग के कारण उससे अपर मिटटी पिघली बर्फ के साथ समुद्र तल में एकत्र हुई और उसे पीछे हट जाना पड़ा तथा उत्तरी भारत का विकास हुआ.इसी युग में अब से लगभग तीस करोड़ वर्ष पूर्व एक कोशीय वनस्पतियों व बीस करोड़ वर्ष पूर्व एक कोशीय का उदभव हुआ.एक कोशिकाएं ही भ्रूण विकास के साथ समय प्रत्येक जंतु विकास की सभी आवश्यकताओं को पूरा करते हैं.सबसे प्राचीन चट्टानों में जीवाश्म नहीं पाए जाते,अस्तु उस समय लार्वा थे,जीवोत्पत्ति नहीं हुई थी.उसके बाद वाली चट्टानों में (लगभग बीस करोड़ वर्ष पूर्व)प्रत्जीवों (protojoa) के अवशेष मिलते हैं अथार्त सर्व प्रथम जंतु ये ही हैं.जंतु आकस्मिक ढंग से कूद कर(ईश्वरीय प्रेरणा के कारण ) बड़े जंतु नहीं हो गए,बल्कि सरलतम रूपों का प्रादुर्भाव हुआ है जिन के मध्य हजारों माध्यमिक तिरोहित कड़ियाँ हैं.मछलियों से उभय जीवी (AMFIBIAN) उभय जीवी से सर्पक (reptile) तथा सर्पकों से पक्षी (birds) और स्तनधारी (mamals) धीरे-धीरे विकास कर सके हैं.तब कहीं जा कर सैकोजोइक युग में मानव उत्पत्ति हुई।(यह गणना आधुनिक विज्ञान क़े आधार पर है,परतु अब से दस लाख वर्ष पूर्व मानव की उत्पत्ति तिब्बत ,मध्य एशिया और अफ्रीका में एक साथ युवा पुरुष -महिला क़े रूप में हुई)
अपने विकास के प्रारंभिक चरण में मानव समूहबद्ध अथवा झुंडों में ही रहता था.इस समय मनुष्य प्रायः नग्न ही रहता था,भूख लगने पर कच्चे फल फूल या पशुओं का कच्चा मांस खा कर ही जीवन निर्वाह करता था.कोई किसी की समपत्ति (asset) न थी,समूहों का नेत्रत्व मातृसत्तात्मक (mother oriented) था.इस अवस्था को सतयुग पूर्व पाषाण काल (stone age) तथा आदिम साम्यवाद का युग भी कहा जाता है.परिवार के सम्बन्ध में यह ‘अरस्तु’ के अनुसार ‘communism of wives’ का काल था (संभवतः इसीलिए मातृ सत्तामक समूह रहे हों).इस समय मानव को प्रकृति से कठोर संघर्ष करना पड़ता था.मानव के ह्रास –विकास की कहानी सतत संघर्षों को कहानी है.malthas के अनुसार उत्पन्न संतानों में आहार ,आवास,तथा प्रजनन के अवसरों के लिए –‘जीवन के लिए संघर्ष’ हुआ करता है जिसमे लेमार्क के अनुसार ‘व्यवहार तथा अव्यवहार’ के सिद्दंतानुसार ‘योग्यता ही जीवित रहती है’.अथार्त जहाँ प्रकृति ने उसे राह दी वहीँ वह आगे बढ़ गया और जहाँ प्रकृति की विषमताओं ने रोका वहीँ रुक गया.कालांतर में तेज बुद्धि मनुष्य ने पत्थर और काष्ठ के उपकरणों तथा शस्त्रों का अविष्कार किया तथा जीवन पद्धति को और सरल बना लिया.इसे ‘उत्तर पाषाण काल’ की संज्ञा दी गयी.पत्थारों के घर्षण से अग्नि का अविष्कार हुआ और मांस को भून कर खाया जाने लगा.धीरे धीरे मनुष्य ने देखा की फल खा कर फेके गए बीज किस प्रकार अंकुरित होकर विशाल वृक्ष का आकर ग्रहण कर लेते हैं.एतदर्थ उपयोगी पशुओं को अपना दास बनाकर मनुष्य कृषि करने लगा.यहाँ विशेष स्मरणीय तथ्य यह है की जहाँ कृषि उपयोगी सुविधाओं का आभाव रहा वहां का जीवन पूर्ववत ही था.इस दृष्टि से गंगा-यमुना का दोआबा विशेष लाभदायक रहा और यहाँ उच्च कोटि की सभ्यता का विकास हुआ जो आर्य सभ्यता कहलाती है और यह क्षेत्र आर्यावर्त.कालांतर में यह जाती सभ्य,सुसंगठित व सुशिक्षित होती गयी.व्यापर कला-कौशल और दर्शन में भी यह जाति सभ्य थी.इसकी सभ्यता और संस्कृति तथा नागरिक जीवन एक उच्च कोटि के आदर्श थे.भारतीय इतिहास में यह काल ‘त्रेता युग’ कें नाम से जाना जाता है और इस का समय ६५०० इ. पू. आँका गया है(यह गणना आधुनिक गणकों की है,परन्तु अब से लगभग नौ लाख वर्ष पूर्व राम का काल आंका गया है तो त्रेता युग भी उतना ही पुराना होगा) .आर्यजन काफी विद्वान थे.उन्होंने अपनी आर्य सभ्यता और संस्कृति का व्यापक प्रसार किया.इस प्रकार आर्य जाति और भारतीय सभ्यता संस्कृति गंगा-सरस्वती के तट से पश्चिम की और फैली.लगभग चार हजार वर्ष पश्चात् २५०० इ.पू.आर्यों ने सिन्धु नदी की घटी में एक सुद्रण एवं सुगठित सभ्यता का विकास किया.यही नहीं आर्य भूमि से स्वाहा और स्वधा के मन्त्र पूर्व की और भी फैले तथा आर्यों के संस्कृतिक प्रभाव से ही इसी समय नील और हवांग हो की घाटियों में भी समरूप सभ्यताओं का विकास हो सका.भारत से आर्यों की एक शाखा पूर्व में कोहिमा के मार्ग से चीन,जापान होते हुए अलास्का के रास्ते राकी पर्वत श्रेणियों में पहुच कर पाताल लोक(वर्तमान अमेरिका महाद्वीपों में अपनी संस्कृति एवं साम्राज्य बनाने में समर्थ हुई.माय ऋषि के नेत्रतव में मायाक्षिको (मेक्सिको) तथा तक्षक ऋषि के नेत्रत्व में तक्शाज़ (टेक्सास) के आर्य उपनिवेश विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं कालांतर में कोलंबस द्वारा नयी दुनिया की खोज के बाद इन के वंशजों को red indians कहकर निर्ममता से नष्ट किया गया.
जारी.......
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गहन शोध से उपजी पोस्ट!! जारी रखें!!
ReplyDeleteमाथुर साहब , आपका यह बढ़िया लेख पढ़कर अपने प्री मेडिकल के दिन याद आ गए । evolution of man मुझे सबसे ज्यादा बोर सब्जेक्ट लगता था । लेकिन आज विस्तार से पढ़कर बड़ा आनंद आया ।
ReplyDeleteयुगों की अवधि में मुझे हमेशा शक सा रहा है । गीता अनुसार चारों युगों की अवधि ४३ लाख वर्ष के करीब बताई गई है । फिर त्रेता युग ६५०० इ पु कैसे हो सकता है ।
आर्यों के बारे में जानकर बहुत अच्छा लगा ।
डाक्टर साहब,
ReplyDeleteवेदों के अनुसार कालखंड पर एक लेख पूर्व में लिखा जा चुका है जो इस लिंक पर आप देख सकते हैं-
http://krantiswar.blogspot.com/2010/09/blog-post_24.html
फिर भी आप की सुविधा के लिए उसका एक अंश प्रस्तुत कर रहा हूँ-
"यजुर्वेद 40/5 के अनुसार तद दूरे तदवान्तक अथार्त सम्पूर्ण ब्रह्मांड में विद्यमान होने के कारण परमात्मा दूर से भी दूर व पास से भी पास है.यजुर्वेद 31 -3 के अनुसार परमात्मा के 1 /4 भाग में यह ब्रह्मांड विद्यमान है अतः ब्रह्मांड के 3 /4 भाग में परमात्मा है.परमात्मा अथार्त ब्रह्मा का दिन और रात कितने समय का है वह इस गणना से स्पष्ट होगा:-
कलयुग-4 लाख 32 हज़ार वर्ष
द्वापर युग (कल*2 )-8 लाख 64 हज़ार वर्ष
त्रेता युग (कल*3 )-12 लाख 96 हज़ार वर्ष
सत युग (कल*4 )-17 लाख 28 हज़ार वर्ष
एक चतुर्युगी=43 लाख 20 हज़ार वर्ष
एक हज़ार चतुर्युगी=43 लाख 20 हज़ार*1000
अथार्त 4 अरब 32 करोड़ वर्ष का ब्रह्मा का एक दिन और इतना ही समय रात का होता है.
दिन अथार्त सृष्टि और रात अथार्त प्रलय.
वर्तमान समय में इस सृष्टि का 1 अरब 97 करोड़ 29 लाख 49 हज़ार 110 वां वर्ष चल रहा है अथार्त अभी भी २ अरब ३४ करोड़ ७० लाख ५० हज़ार ८९० वर्ष यह सृष्टी चलेगी"
लेख वैज्ञानिक अनुसंधानों पर आधारित है.
वह लेख वैज्ञानिक अनुसंधानों पर आधारित है.
पृथ्वी और उसमें रहने वाले जीवों की उत्पत्ति और विकास के संबंध में विस्तार से जानकारी इस आलेख में पढ़ने को मिली।
ReplyDeleteआगामी कड़ियों की प्रतीक्षा रहेगी।
इस सार्थक लेख के लिए आपके प्रति आभार।
वाह जी बहुत अच्छी जानकारी मिली आप के ब्लाग पर, हमारी हमेशा उत्सुकता रहती हे पहाडो, टीलो को देख कर, ओर लगता हे इन्हे देख कर कि कभी ना कभी यहां सब ओर पानी ही पानी रहा होगा, धन्यवाद इस अच्छॆ लेख के लिये.
ReplyDeleteयह गायत्री मत्र किसी गोरे की आवाज मे हे,शायद इस्कोन मै किसी ने रिकार्ड किया हो
aadarniy sir
ReplyDeletebahut hi gyanvardhak aur shabhi ke liye pathniy aapka yah aalekh vastutah bahut si jankariyo ko samete hue hai.
isase nischay hi hamari jankari me vriddhi hui ,jo thoda bahut ham bhul chuke the.aage bhi intjaar rahega.
bahut hi badhiya prastuti
dhanyvaad sahit----------
poonam