मानव जीवन की भांति ही देश क़े जीवन में भी कभी -कभी कुछ घटनाएँ घट जाया करती हैं.मानव जीवन की कहानी एक निरन्तर संघर्ष की कहानी है.जहाँ-जहाँ प्रकृति ने उसे राह दी वहां-वहां वह आगे बढ़ गया और जहाँ प्रकृति की विषमताओं ने रोका वहीं वह रुक गया.आज भी कई जातियां काफी पिछड़ी हुई तथा आदिम अवस्था में रहती हैं.जिस प्रकार जंगल में धुंए को देख कर हम कह सकते हैं कि कहीं ज़रूर आग लगी है.इसी प्रकार इन पिछड़ी हुई जातियों को देख कर हम यह अंदाज़ लगा सकते हैं कि संसार की सभी जातियां पहले ऐसे ही रही होंगी.प्रकृति क़े साथ सतत संघर्षों क़े परिणाम स्वरूप आज वे इस अवस्था को पहुँच सकी हैं.विकसित सभ्य और सुसंस्कृत होते हुए भी मानव दुःख रहित नहीं है.उसका समस्त जीवन दुखों से घिरा पड़ा हुआ है.महात्मा बुद्ध का कथन है कि जन्म ही दुःख है ,ज़रा भी दुःख है.जब मानव जीवन दुखमय है तो उनसे बने देश या राज्य का दुःख रंजित होना ,आश्चर्य की बात नहीं है.विशेष कर हमारा भरत देश अत्यंत दुखी है और यही उसका दुर्भाग्य है.देश क़े दुर्भाग्य का रोना लेकर महात्माओं,समाजवेत्ताओं ,राजनीतिक चिंतकों ने साहित्य को इससे भर दिया है.अनेक महात्मा गण देश क़े इस दुर्भाग्य को दूर करने क़े लिये कृत-कृत उपाय पेश कर रहे हैं.इसी सम्बन्ध में १६ फरवरी १९६९ क़े "धर्मयुग " में आचार्य रजनीश क़े उदगार प्रस्तुत किये गये थे और ०२ मार्च क़े "साप्ताहिक हिंदुस्तान"में उन्हीं क़े विचार पुनः प्रस्तुत किये गये .इनके द्वारा देश में एक नवीन-क्रांति क़े विचारों को प्रोत्साहित किया गया ,जीवन को आधुनिकता से पूर्ण करने की बात कही गई.आचार्य रजनीश जीवन में क्रांति लाकर देश क़े दुर्भाग्य को दूर करना चाहते हैं.समझ में नहीं आता कि आचार्य जी का क्रांति से क्या तात्पर्य है?उनके उद्गारों से यह पता चलता है कि वह पाश्चात्य नमूने क़े जीवन दृष्टिकोण को भरत में प्रसरित करना चाहते हैं.किन्तु यह नहीं पता कि वह क्रांति से क्या समझते हैं?
क्रांति की बात करने से पहले हमें यह सोच लेना चाहिए कि "विद्रोह"या "क्रांति"ऐसी कोई चीज़ नहीं जिसका विस्फोट एकाएक होता है.बल्कि इसके अनन्तर समाज की अर्ध- जाग्रत अवस्था में अन्तर क़े तनाव को बल मिलता रहता है.मानव ह्रदय शंका और समाधान क़े विचारों क़े मध्य मंडराता रहता है और कोई छोटी सी घटना उस सजे-सजाये बारूद क़े ढेर में चिंगारी का काम करती है.बस लोग इसी को क्रांति कह देते हैं.आचार्य रजनीश जिस क्रांति की बात कहते हैं उसके अन्तराल में अन्तर क़े तनाव को बल न मिल रहा हो ऐसी कोई बात नहीं.लोग आज नहीं बहुत पहले से जीवन क़े वर्तमान दृष्टिकोण को परिवर्तित करने को उद्यत रहे हैं और समय-समय पर यह आन्दोलन तीव्र गति होता गया है जो ब्रह्म समाज,आर्य समाज,राम-कृष्ण मिशन क़े रूप में प्रस्फुटित हुआ है.परन्तु किसी भी आन्दोलनकारी ने यह नहीं कहा कि भरत का अतीत वर्तमान को निष्क्रय बना रहा है.आचार्य रजनीश इसके विपरीत अपना अलग राग अलापते हैं ,वह कह रहे हैं कि,भरत अतीत की ओर लौट रहा है.वह प्रगति नहीं कर पा रहा है.यथार्थ में भरत का अतीत(यदि उसे वास्तविक रूप में देखा जाये)वर्तमान को वह प्रेरणा दे सकता है जो आचार्य रजनीश का पश्चात्य्वादी दृष्टिकोण स्वप्न में भी नहीं दे सकता है जो सूर्य हमेशा पूर्व में निकलता है और पश्चिम में अस्त होता है ,आचार्य रजनीश देश को पश्चिम में ले जाकर डुबाने नहीं जा रहे हैं क्या? यदि उन्हीं की विचारधारा पर चल कर देश लुढ़क पड़े तो निस्संदेह यह समूल नष्ट हो जायेगा.पश्चिम क़े अन्न ,वस्त्र और शस्त्र ने ही देश की मिट्टी पलीद कर रखी है तब तो उसका नामोनिशान ही मिट जायेगा.अभी सन १८९० ई. तक भरत परतंत्र होते हुए भी,हमारा सितारा बुलंद था.पाश्चात्य वादी सत्याग्रह,आन्दोलन और अहिंसा ने देश क़े नौजवानों को पंगु,कायर और भीरु बना दिया है.इसी क़े कारण उसके मस्तिष्क का हनन हुआ है.स्वतंत्रता क़े बाईस वर्षों में (अब ६३ वर्ष) पश्चिम पर निर्भर रह कर देश क़े कर्णधारों ने दुर्भाग्यपूर्ण पतन की गहराई को समीप ला दिया है.यदि हवा पश्चिम से पूर्व की ओर चलती रही तो निश्चय ही प्रलय हो जायेगी.
आचार्य रजनीश ने भरत क़े अतीत को आँखें खोल कर नहीं देखा ,पश्चिम की सुरा ने उनके मस्तिष्क को विकृत कर दिया है,और विकृत कर दिया है नौजवान मानस पटलों को.आचार्य रजनीश जी डाक्टर. मजुमदार की भांति गर्व क़े साथ कहते हैं कि भारत ने इतिहास को कोई महत्त्व नहीं दिया.सही ह्रदय से वे यह कह सकें कि इतिहास को भारत में पंचम-वेद का स्थान नहीं दिया गया तो उनकी बात नशीली दुनिया क़े लिये ठीक हो सकती है.आज हमारे देश का इतिहास वेदोपनिषद,पुरानों और स्मृतियों में सुरक्षित है.यह बात अलग है कि निरन्तर अवांतर घटनाओं क़े समावेश से उनका नियमबद्ध एवं क्रमबद्ध तारतम्य टूट गया है.स्वामी दयानंद सरस्वती ने तो दृढ विश्वास क़े साथ नारा दिया था-'वेदों की ओर चलो'-वेद हमारे अतीत की देन नहीं हैं क्या?जो वेद हमें यह उपदेश देते हैं कि -
वे वेद पतन उन्मुख नहीं हो सकते हैं.वे 'एकला चलो रे' की शरारत नहीं सिखाते.अतीत की देन वेद कहते हैं राष्ट्र क़े साथ चलो ,व्यक्तित्व का विकास राज्य क़े विकास में रोड़ा न बने.राष्ट्र मनुष्यों से बनता है.अर्थात वेद सिखाते हैंकि मानव-धर्म का पालन करो.वे सिखाते हैं मनुष्य को मनुष्य से मिल कर चलना.वे बताते हैं राज्य की उन्नति में -मनुष्यों को सामूहिक उन्नति में व्यक्ति की उन्नति का मार्ग.तब आचार्य रजनीश क्या सोच कर यह कहने का दम्भ करते हैं कि भारत का मनुष्य अपने विकास में 'स्व'पर केन्द्रित है और यह अतीत क़े कारण है.वह अहिंसा की जो बात कहते हैं वह भी अतीत की देन न होकर ,वह है किसी पाश्चात्य वादी महात्मा क़े दिमाग का फितूर जो उसने 'अहिंसा'क़े माने 'नान-वायेलेंस' बतलाये.हमारे अतीत की देन वेद कभी भी नहीं कहते कि शत्रु क़े समक्ष भीरुता प्रदर्शन करो;दूसरा गाल भी चांटा खाने क़े लिये प्रस्तुत करो.वेद कहते हैं कि निर्भीकता पूर्वक शत्रु का सामना करो.अतीत अहिंसा क़े नाम पर कायर बनने की प्रेरणा नहीं देता-
हमारा अतीत हमें भीरु अहिंसा की सीख नहीं देता ;वह हमें 'स्व'पर केन्द्रित नहीं करता .अतीत कहता है-
'सर्वभूत हिते रतः' और कहता है-'वसुधैव कुटुम्बकम'
वस्तुतः आचार्य रजनीश आचार्यत्व क़े महत्त्व को भी घटा रहे हैं.सच तो यह है कि जिस दिन हमारा देश पश्चिम की ओर न बह कर अपने पूर्व की ओर -अतीत की ओर कदम बढ़ने लगेगा तो हमारे जीवन दृष्टिकोण में स्वतः नवीन आभा मुखरित हो उठेगी.और हमारे देश का यह कल्पित दुर्भाग्य हवा क़े महल की भांति धाह जायेगा.पश्चिम को तिलांजली देकर पूर्व में अतीत में देखें तभी देश का मनुष्यमात्र का कल्याण होगा.-
'पाछे पछताए होत क्या जब चिड़ियाँ चुग गईं खेत'
इसलिए देश क़े नौजवानों और महानुभावों वक्त रहते समय क़े भीतर वस्तुस्थिति को समझो ,पाश्चात्य क़े झोंके में मत उड़ो अपने पूर्व को पहचानो अतीत को देखो तभी देश क़े कल्पित दुर्भाग्य का अंत होगा.
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यह लेख सन १९७० ई. में बी.ए.की पढ़ाई क़े दौरान लिखा गया था और मुझे आज भी यह सटीक ही लगता है,इसलिए इस अप्रकाशित लेख को अब दे रहा हूँ.
* १३ जन २०११ का डा.मोनिका शर्मा का आलेख मुझे मनुस्मृति क़े इस श्लोक क़े सन्दर्भ में पूर्ण न्यायोचित प्रतीत होता है.
(भारतीयता की भ्रामक व्याख्या प्रस्तुत करने वाली पार्टी क़े उस विधायक क़े साथ किया गया सलूक मनु महाराज की व्याख्या क़े अनुसार सही था)
राष्ट्र गान एवं राष्ट्र गीत से सभी परिचित हैं यहाँ हम आप को आज ६१ वें गणतंत्र की चला चली तथा ६२ वें गणतंत्र दिवस की पूर्व बेला पर अपनी प्राचीन राष्ट्रीय प्रार्थना जो यजुर्वेद अध्याय २२ क़े २२ वें मन्त्र द्वारा ऋषियों ने की है उसके भवानी दयाल संन्यासी द्वारा किये गये भावानुवाद से परिचित करा रहे हैं-
(इस ब्लॉग पर प्रस्तुत आलेख लोगों की सहमति -असहमति पर निर्भर नहीं हैं -यहाँ ढोंग -पाखण्ड का प्रबल विरोध और उनका यथा शीघ्र उन्मूलन करने की अपेक्षा की जाती है)
क्रांति की बात करने से पहले हमें यह सोच लेना चाहिए कि "विद्रोह"या "क्रांति"ऐसी कोई चीज़ नहीं जिसका विस्फोट एकाएक होता है.बल्कि इसके अनन्तर समाज की अर्ध- जाग्रत अवस्था में अन्तर क़े तनाव को बल मिलता रहता है.मानव ह्रदय शंका और समाधान क़े विचारों क़े मध्य मंडराता रहता है और कोई छोटी सी घटना उस सजे-सजाये बारूद क़े ढेर में चिंगारी का काम करती है.बस लोग इसी को क्रांति कह देते हैं.आचार्य रजनीश जिस क्रांति की बात कहते हैं उसके अन्तराल में अन्तर क़े तनाव को बल न मिल रहा हो ऐसी कोई बात नहीं.लोग आज नहीं बहुत पहले से जीवन क़े वर्तमान दृष्टिकोण को परिवर्तित करने को उद्यत रहे हैं और समय-समय पर यह आन्दोलन तीव्र गति होता गया है जो ब्रह्म समाज,आर्य समाज,राम-कृष्ण मिशन क़े रूप में प्रस्फुटित हुआ है.परन्तु किसी भी आन्दोलनकारी ने यह नहीं कहा कि भरत का अतीत वर्तमान को निष्क्रय बना रहा है.आचार्य रजनीश इसके विपरीत अपना अलग राग अलापते हैं ,वह कह रहे हैं कि,भरत अतीत की ओर लौट रहा है.वह प्रगति नहीं कर पा रहा है.यथार्थ में भरत का अतीत(यदि उसे वास्तविक रूप में देखा जाये)वर्तमान को वह प्रेरणा दे सकता है जो आचार्य रजनीश का पश्चात्य्वादी दृष्टिकोण स्वप्न में भी नहीं दे सकता है जो सूर्य हमेशा पूर्व में निकलता है और पश्चिम में अस्त होता है ,आचार्य रजनीश देश को पश्चिम में ले जाकर डुबाने नहीं जा रहे हैं क्या? यदि उन्हीं की विचारधारा पर चल कर देश लुढ़क पड़े तो निस्संदेह यह समूल नष्ट हो जायेगा.पश्चिम क़े अन्न ,वस्त्र और शस्त्र ने ही देश की मिट्टी पलीद कर रखी है तब तो उसका नामोनिशान ही मिट जायेगा.अभी सन १८९० ई. तक भरत परतंत्र होते हुए भी,हमारा सितारा बुलंद था.पाश्चात्य वादी सत्याग्रह,आन्दोलन और अहिंसा ने देश क़े नौजवानों को पंगु,कायर और भीरु बना दिया है.इसी क़े कारण उसके मस्तिष्क का हनन हुआ है.स्वतंत्रता क़े बाईस वर्षों में (अब ६३ वर्ष) पश्चिम पर निर्भर रह कर देश क़े कर्णधारों ने दुर्भाग्यपूर्ण पतन की गहराई को समीप ला दिया है.यदि हवा पश्चिम से पूर्व की ओर चलती रही तो निश्चय ही प्रलय हो जायेगी.
आचार्य रजनीश ने भरत क़े अतीत को आँखें खोल कर नहीं देखा ,पश्चिम की सुरा ने उनके मस्तिष्क को विकृत कर दिया है,और विकृत कर दिया है नौजवान मानस पटलों को.आचार्य रजनीश जी डाक्टर. मजुमदार की भांति गर्व क़े साथ कहते हैं कि भारत ने इतिहास को कोई महत्त्व नहीं दिया.सही ह्रदय से वे यह कह सकें कि इतिहास को भारत में पंचम-वेद का स्थान नहीं दिया गया तो उनकी बात नशीली दुनिया क़े लिये ठीक हो सकती है.आज हमारे देश का इतिहास वेदोपनिषद,पुरानों और स्मृतियों में सुरक्षित है.यह बात अलग है कि निरन्तर अवांतर घटनाओं क़े समावेश से उनका नियमबद्ध एवं क्रमबद्ध तारतम्य टूट गया है.स्वामी दयानंद सरस्वती ने तो दृढ विश्वास क़े साथ नारा दिया था-'वेदों की ओर चलो'-वेद हमारे अतीत की देन नहीं हैं क्या?जो वेद हमें यह उपदेश देते हैं कि -
अभि वर्धतां पयत्वअभि राष्ट्रेण वर्धताम .
रय्यां सहस्रका से मौ स्तामनु पक्षितौ..
(अथर्व वेद ६/७८ /२)
अर्थात-"ये वर वधु दूध पी कर पुष्ट हों,वे अपने राष्ट्र क़े साथ उन्नत होते रहें.वे अनेक तरह की संपत्तियों से युक्त होकर तेजस्वी बन कर कभी भी अवनत न हों."
वे वेद पतन उन्मुख नहीं हो सकते हैं.वे 'एकला चलो रे' की शरारत नहीं सिखाते.अतीत की देन वेद कहते हैं राष्ट्र क़े साथ चलो ,व्यक्तित्व का विकास राज्य क़े विकास में रोड़ा न बने.राष्ट्र मनुष्यों से बनता है.अर्थात वेद सिखाते हैंकि मानव-धर्म का पालन करो.वे सिखाते हैं मनुष्य को मनुष्य से मिल कर चलना.वे बताते हैं राज्य की उन्नति में -मनुष्यों को सामूहिक उन्नति में व्यक्ति की उन्नति का मार्ग.तब आचार्य रजनीश क्या सोच कर यह कहने का दम्भ करते हैं कि भारत का मनुष्य अपने विकास में 'स्व'पर केन्द्रित है और यह अतीत क़े कारण है.वह अहिंसा की जो बात कहते हैं वह भी अतीत की देन न होकर ,वह है किसी पाश्चात्य वादी महात्मा क़े दिमाग का फितूर जो उसने 'अहिंसा'क़े माने 'नान-वायेलेंस' बतलाये.हमारे अतीत की देन वेद कभी भी नहीं कहते कि शत्रु क़े समक्ष भीरुता प्रदर्शन करो;दूसरा गाल भी चांटा खाने क़े लिये प्रस्तुत करो.वेद कहते हैं कि निर्भीकता पूर्वक शत्रु का सामना करो.अतीत अहिंसा क़े नाम पर कायर बनने की प्रेरणा नहीं देता-
आततायिनमायान्तुं हन्यदिवा विचारयन.
नाततायो वधे दोषों हन्तुर्भवती कश्चन*
(मनुस्मृति)
अर्थात - "यदि कोई आततायी को सामने से आता हुआ देखे तो बिना किसी सोच-विचार क़े उसे मार दे.उसके वध से वध करने वाले को कोई पाप नहीं लगता."
हमारा अतीत हमें भीरु अहिंसा की सीख नहीं देता ;वह हमें 'स्व'पर केन्द्रित नहीं करता .अतीत कहता है-
'सर्वभूत हिते रतः' और कहता है-'वसुधैव कुटुम्बकम'
वस्तुतः आचार्य रजनीश आचार्यत्व क़े महत्त्व को भी घटा रहे हैं.सच तो यह है कि जिस दिन हमारा देश पश्चिम की ओर न बह कर अपने पूर्व की ओर -अतीत की ओर कदम बढ़ने लगेगा तो हमारे जीवन दृष्टिकोण में स्वतः नवीन आभा मुखरित हो उठेगी.और हमारे देश का यह कल्पित दुर्भाग्य हवा क़े महल की भांति धाह जायेगा.पश्चिम को तिलांजली देकर पूर्व में अतीत में देखें तभी देश का मनुष्यमात्र का कल्याण होगा.-
'पाछे पछताए होत क्या जब चिड़ियाँ चुग गईं खेत'
इसलिए देश क़े नौजवानों और महानुभावों वक्त रहते समय क़े भीतर वस्तुस्थिति को समझो ,पाश्चात्य क़े झोंके में मत उड़ो अपने पूर्व को पहचानो अतीत को देखो तभी देश क़े कल्पित दुर्भाग्य का अंत होगा.
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यह लेख सन १९७० ई. में बी.ए.की पढ़ाई क़े दौरान लिखा गया था और मुझे आज भी यह सटीक ही लगता है,इसलिए इस अप्रकाशित लेख को अब दे रहा हूँ.
* १३ जन २०११ का डा.मोनिका शर्मा का आलेख मुझे मनुस्मृति क़े इस श्लोक क़े सन्दर्भ में पूर्ण न्यायोचित प्रतीत होता है.
(भारतीयता की भ्रामक व्याख्या प्रस्तुत करने वाली पार्टी क़े उस विधायक क़े साथ किया गया सलूक मनु महाराज की व्याख्या क़े अनुसार सही था)
राष्ट्र गान एवं राष्ट्र गीत से सभी परिचित हैं यहाँ हम आप को आज ६१ वें गणतंत्र की चला चली तथा ६२ वें गणतंत्र दिवस की पूर्व बेला पर अपनी प्राचीन राष्ट्रीय प्रार्थना जो यजुर्वेद अध्याय २२ क़े २२ वें मन्त्र द्वारा ऋषियों ने की है उसके भवानी दयाल संन्यासी द्वारा किये गये भावानुवाद से परिचित करा रहे हैं-
(इस ब्लॉग पर प्रस्तुत आलेख लोगों की सहमति -असहमति पर निर्भर नहीं हैं -यहाँ ढोंग -पाखण्ड का प्रबल विरोध और उनका यथा शीघ्र उन्मूलन करने की अपेक्षा की जाती है)
बड़े ही उच्च विचार व्यक्तकिये गये हैं इस लेख में और सही कहा आपने आज भी सामयिक प्रतीत होते हैं!!आभार आपका, इस ब्लॉग के माध्यम से नित नवीन ज्ञान प्राप्त होता है!!
ReplyDeleteभारतीय मनीषा का इतिहास दृष्टिकोण, पाश्चात्य से भिन्न रहा है.
ReplyDeleteजिस दृष्टिकोण को आपका आलेख प्रस्तुत करता है वो आज भी प्रासंगिक है और हमेशा रहेगा..... सार्थक आलेख.... आभार मुझसे सहमति प्रकट करने का..... सादर
ReplyDeleteगणतंत्र दिवस की मंगलकामनाएं....सादर
ReplyDeleteश्रेष्ठ चिंतनपरक आलेख के लिए धन्यवाद।
ReplyDeleteवेदों और उपनिषदों में भारत का गौरवशाली अतीत सुरक्षित है।
हमें अपना वर्तमान और भविष्य संवारने के लिए वेदों और उपनिषदों की ओर पुनः निहारना होगा।
रजनीश की क्रांति से मैं भी सहमत नहीं हूं।
आपको गणतंत्र दिवस की हार्दिक मंगलकामनाएं।
.महात्मा बुद्ध का कथन है कि जन्म ही दुःख है ,ज़रा भी दुःख है.जब मानव जीवन दुखमय है
ReplyDeleteयह कथन तो सत्य है ही। साथ ही यह भी सत्य है कि मानव जीवन की तरह देश के जीवन में भी घटनाएं घटती रहती हैं।
सार्थक आलेख
आप सभी के गणतंत्र दिवस की बधाई....
आज के युवाओं को सचेत करता एक सार्थक लेख ।
ReplyDeleteगणतंत्र दिवस की शुभकामनायें माथुर जी ।
इस लेख में आप ने बड़े ही ऊँचे विचार ब्यक्त किए हैं| धन्यवाद|
ReplyDeleteआपको गणतंत्र दिवस की हार्दिक मंगलकामनाएं।
प्रेरक संदेश। समयानुसार प्रासंगिक भी। युवाओं को इससे प्रेरणा लेनी चाहिए।
ReplyDeleteवाह, यह तो बहुत सुन्दर पोस्ट है..अच्छा लगा यहाँ आकर. गणतंत्र दिवस पर आपको हार्दिक बधाई..
ReplyDeleteसार्थक,प्रासंगिक और विचारोत्तेजक आलेख !
ReplyDeleteअलेख की हर पँक्ति सार्थक है। बधाई आपको।
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