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आज हमारे स्वाधीनता के प्रथम समर को हुए १५४ वर्ष व्यतीत हो गए हैं और आज इसकी १५५ वीं वर्षगाँठ है परन्तु सरकारी या अखबारी स्तर पर इसे मनाने की कोई हलचल नहीं है.क्रांतिकारियों के बलिदान से आज की या आने वाली पीढी को परिचित करने की कोई पहल नहीं है.सब अपने-अपने में मस्त हैं.अंग्रेजों ने जान-बूझ कर इस क्रांतिकारी आन्दोलन को सिपाही विद्रोह की संज्ञा दी थी.सन १९५७ ई. में इस क्रान्ति की सौंवीं वर्षगाँठ के अवसर पर किसी अखबार में एक कविता निकली थी जो हमें किसी मसाले की पुडिया में मिली थी. मेरी माता जी ने मेरे लगाव को देखते हुए वह पुर्जा मुझे दे दिया था -वह तो अब सुरक्षित नहीं है ,परन्तु मेरी कापी में उसकी नक़ल आज भी मौजूद है ,आप सब की सेवा में प्रस्तुत कर रहा हूँ:-
हम हैं इसके मालिक हिंदुस्तान हमारा |
पाक वतन है कौम का, जन्नत से भी प्यारा ||
ये है हमारी मिल्कियत, हिंदुस्तान हमारा |
इसकी रूहानियत से, रोशन है जग सारा ||
कितनी कदीम, कितनी नईम, सब दुनिया से न्यारा |
करती है जरखेज जिसे, गंगो-जमुन की धारा ||
ऊपर बर्फीला पर्वत पहरेदार हमारा |
नीचे साहिल पर बजता सागर का नक्कारा ||
इसकी खाने उगल रहीं, सोना, हीरा, पारा |
इसकी शानो शौकत का दुनिया में जयकारा ||
आया फिरंगी दूर से, ऐसा मंतर मारा |
लूटा दोनों हाथों से, प्यारा वतन हमारा ||
आज शहीदों ने है तुमको, अहले वतन ललकारा |
तोड़ो, गुलामी की जंजीरें, बरसाओ अंगारा ||
हिन्दू मुसलमाँ सिख हमारा, भाई भाई प्यारा |
यह है आज़ादी का झंडा, इसे सलाम हमारा ||
उस समय (१९५७ में) मैं पांच वर्ष का था और हुसैनगंज लखनऊ की फखरुद्दीन मंजिल में अपने माता-पिता के साथ रहता था.सिर्फ कविता ही लिखी उसके रचयिता और छापने वाले अखबार का नाम नहीं लिखा था.क्योंकि शुरू से ही मेरे विचार क्रांतिकारी रहे हैं मुझे ऐसे लेख और कवितायें भाते थे और माता-पिता मुझे जो उपलब्ध होता था दे देते थे जिस कारण आज ५४ वर्ष बाद मैं उसे पुनः सार्वजानिक करने में सफल रहा.
राजनीतिक कारण-
व्यापारी बन कर आने वाले अंग्रेजों का राज्य स्थापन एवं उसका विस्तार होने से भारतीयों की राजनीतिक स्वतंत्रता का धीरे-धीरे अपहरण होता रहा. डलहौजी की साम्राज्यवादी नीति इस क्रान्ति के लिए सबसे अधिक उत्तरदायी है.
सामाजिक कारण-
शक्तिशाली अंग्रेज अधिकारी भारतीयों से घृणा करते थे.उन्हें अपमानित और लांक्षित करना अंग्रेजों के लिए मामूली बात थी.शासक और शासित के बीच का यह व्यवधान निश्चय ही शांति के लिए अनुकूल नहीं था.अंग्रेजों ने अपनी सभ्यता और संस्कृति का भी प्रसार करने की चेष्टा की जिसने क्रांति की चिंगारी को भड़का दिया.
आर्थिक कारण-
उचित-अनुचित अनेक उपायों के द्वारा अंग्रेज भारत का सोना इंग्लैण्ड भेज रहे थे और इस समृद्धि से हुयी औद्योगिक क्रांति का लाभ उठा कर उन्होंने देशी व्यापर और उद्योग को बहुत धक्का पहुंचाया.राजाओं और नवाबों की संपत्तियों का अबाध अपहरण किया,उनके सैनिक और सेवक बेरोजगार हो गए थे जो आक्रोशित थे और उन्होंने क्रांति में बढ़ -चढ़ कर योग दिया.
धार्मिक कारण-
अंग्रेजों ने ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार में संरक्षण और प्रोत्साहन प्रदान किया.उनके धर्मोपदेशक बड़े अहंकारी और उद्दंड थे.दोनों धर्मावलम्बियों को ईसायिओं ने अपना विरोधी बना लिया था.मौक़ा पाते ही सबने क्रान्ति में सहयोग दिया.
सैनिक कारण -
भारतीय सैनिकों के बल पर ही अंग्रेज भारत के विशाल भू-भाग के स्वामी बन सके थे परन्तु उनको वेतन कम दिया जाता था और उनकी सुख-सुविधा का बिलकुल ख्याल नहीं रखा जाता था जिससे उनमें असंतोष बढ़ता रहा था.चर्बी वाले कारतूस ने बारूद के ढेर में चिंगारी का काम किया.
क्रांति का संगठन-
१८५७ ई. की क्रांति एक पूर्व-नियोजित और संगठित क्रांति थी.'नाना साहब पेशवा' और उनके सलाहकार 'अजीमुल्ला खाँ'मुख्य संगठक थे.सतारा के राजा का मंत्री रंगों बापू जब इंग्लैण्ड गया तो अजीमुल्ला खाँ ने उनसे मिल कर क्रांति का कार्यक्रम निश्चित किया.रंगों बापू ने सतारा लौट कर विद्रोह की आग भड़काने का काम किया और अजीमुल्ला खाँ -रूस,मिश्र,इटली,टर्की आदि से सहानुभूति प्राप्त कर बिठूर लौटे और नाना साहब के साथ तय किया कि,२२ जून १८५७ ई. को सारे देश में एक साथ बहादुर शाह जफ़र के नेतृत्व में क्रांति की जायेगी.'कमल'और 'चपाती'प्रतीक के रूप में जनता में बाँट कर क्रांति का आह्वान किया गया.
समय पूर्व क्रांति-
२९ मार्च १८५७ ई. को बैरकपुर छावनी में चर्बी वाले कारतूसों को लेकर 'वीर मंगल पाण्डेय'ने अपने साथियों के साथ खुल्लमखुल्ला विद्रोह कर दिया घायलावस्था में उन्हें गिरफ्तार करके प्राण-दंड दे दिया गया.देशी पलटनें ख़तम कर दी गयीं.जब ये विद्रोही सिपाही मेरठ पहुंचे तो १० मई १८५७ को वहां से क्रांति शुरू कर दी गयी जिसे २२ जून को शुरू होना था .यह अधूरी तैयारी भी विफलता का कारण बनी और अधीरता भी.क्रांति की सफलता के लिए धैर्य एवं संयम बेहद जरूरी हैं.फिर भी क्रांतिकारियों के त्याग तथा बलिदान को भुलाया नहीं जा सकता और हमें उनसे प्रेरणा एवं कर्तव्य-बोद्ध ग्रहण करना चाहिए.
P . S . : ---
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फेसबुक पर प्राप्त कमेन्ट : 11-05-2015 :
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फेसबुक पर प्राप्त कमेन्ट : 11-05-2015 :
१८५७ की क्रान्ति पर जानकारी देने और अपने आलेख पर टिपण्णी के लिए धन्यवाद |
ReplyDeleteऐतिहासिक कविता पढ़कर अच्छा लगा । जानकारी और समीक्षा भी बढ़िया रही ।
ReplyDeleteबहुत गहन विश्लेषण ...सारे कारणों और कविता को पढ़कर अच्छा लगा..... धन्यवाद
ReplyDelete१० मई और १८५७ की याद में यह पोस्ट बहुत ही उपयोगी और जानकारी से भरा है।
ReplyDeleteआपका आभार, ऐसी पोस्ट के लिये,
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