हमारे देश मे दो प्रकार के भ्रम चल रहे हैं। कुछ लोग धर्म के गलत अर्थ निकालते हुये उसे उपासना पद्धति से जोड़ते हैं। कुछ लोग राजनीति को गंदे लोगों के लिए सुरक्षित छोड़ देते हैं। जैसा कि प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू जी का बयान दिसंबर 1951 मे प्रकाशित हुआ था उसमे उन्होने भी धर्म को प्रचलित मान्यता पर ही माना है लेकिन 'राजनीति'को अच्छे लोगों के लिए ही बताया है।
इसी ब्लाग मे कई लेखों मे स्पष्ट किया है कि 'धर्म' वह नहीं है जो समाज मे माना जाता है बल्कि धर्म वह है जो 'धारण'करता है। इसी प्रकार जो राजनीति देश के धारण करने के मार्ग मे बाधा हो वह भी अधर्म है। किन्तु दुखद बात है कि 'धर्म' के नाम पर देश को एक बार तोड़ा जा चुका है और आए दिन उसी गलत धर्म के नाम पर देश और इसकी जनता को तोड़ने के कुचक्र होते रहते हैं। 20 वर्ष पूर्व धर्म के नाम पर व्यापक सांप्रदायिक वैमनस्य फैलाया गया और जन-धन को हानी पहुंचाई गई। वस्तुतः इस धर्मोन्माद ने काफी लोगों को व्यवसायिक चोट पहुंचाई और सच्च तो यह है कि ऐसे घटनाक्रम चलाये ही जाते हैं कुछ निहित 'आर्थिक-हितों' की रक्षार्थ। यही कारण है कि जन साधारण के हितचिंतक कम्युनिस्ट दल 'धर्म' को त्याज्य मानते हैं क्योंकि वह आम जनता का शोषण-दमन करने का उपक्रम बंताते है। बुद्धिजीवियों का यह कर्तव्य है कि वे जनता को वास्तविक 'धर्म' समझाएँ किन्तु वे शोषणकर्ताओं से उपकृत होने के कारण अपने धर्म-कर्तव्य का पालन नहीं करते हैं। नतीजा समाज मे अव्यवस्था,शोषण-उत्पीड़न,दमन जारी रहने से अशांति ,उपद्रव,आतंक पनपता है और अंततः सभी को अपार कष्टों का सामना करना पड़ता है।
धर्म का गलत अर्थ लेने की वजह से राजनीति भी गलत अर्थों मे ली जाती है और अच्छे लोग इससे विरत रहते हैं। परिणाम यह है कि राजनीति भी 'धर्म' की ही भांति गलत लोगों के हाथों मे पहुँच गई है। देश-हित,समाज-हित की बातें न होकर कुछ लोगों के मात्र आर्थिक-हितों का संरक्षण ही आज की राजनीति का उद्देश्य बन गया है।
अभी उत्तर-प्रदेश मे चुनाव के दो चरण हो चुके हैं तथा पाँच चरण बाकी हैं। यदि बुद्धिजीवी वर्ग आम जनता और देश-हित मे सही कर्तव्य -धर्म का पालन करे तो इन चुनावों के माध्यम से देश और समाज की दिशा को सही दिशा मे मोड़ा जा सकता है। काश 'धर्म' और 'राजनीति' के सही मर्म को बुद्धिजीवी खुद समझ पाते?
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