Thursday, February 27, 2014
जनतंत्र नहीं यह धन-तंत्र है :जनता क्या करे?---विजय राजबली माथुर
जब बहस होते-होते नौबत हाथापाई तक आ गयी और टीना शर्मा ने ‘आप’ के प्रवक्ता एजाज खान को एक जबरदस्त थप्पड़ रसीद कर दिया. दरअसल इंडिया न्यूज़ पर बहस चल रही थी कि केजरीवाल जाति-जुगाड़ की राजनीति कर रहे हैं?
http://www.youtube.com/watch?v=gLMcKHkIhYM
नई लोकसभा के गठन हेतु चुनाव होने ही वाले हैं। परंतु स्थिति कुछ भिन्न होगी ऐसी कोई संभावना नहीं है। राज्यसभा सांसद तरुण विजय जी ने बातें तो सटीक कही हैं लेकिन उनको मानने वाले कहाँ हैं?
1978 मे होटल मुगल कर्मचारी संघ के हम छह -सात लोग दिल्ली में होटल मौर्या के ट्रेड यूनियन साथियों से मिल कर आगरा ट्रेन से वापिस लौट रहे थे। एक सज्जन ने दो सीटों पर अवैध कब्जा कर रखा था उनसे हमारे साथियों का विवाद हुआ तो उन्होने सांसद राजेन्द्र कुमारी बाजपेयी (जो यू पी की पूर्व मंत्री भी थीं) की सिक्यूरिटी से सम्बद्ध होने का हवाला दिया और अड़ गए। जब मैंने उनसे बात की तो वह एक सीट छोडने पर राज़ी हो गए और हम लोग एडजस्ट हो गए। दरअसल वह राजेन्द्र कुमारी जी के भांजे अजिताभ बाजपेयी को छोडने आए थे। गाड़ी चलने पर अजिताभ जी अपनी सीट पर आए तब उनसे वार्तालाप हुआ। उनका कहना था अभी वह बिजनेस पर ध्यान दे रहे हैं और पैसा एकत्र करने के बाद राजनीति में उतरेंगे। वह राजनीति में आए या नहीं परंतु उन्होने जो बताया वह महत्वपूर्ण है। उनका कहना था कि आज राजनीति में दो तरह के लोग ही सफल हैं -
1)-एक वे जो खुद पैसे वाले हैं और समर्थक व कार्यकर्ता खरीद सकते हैं।
2)-वे जो खुद फक्कड़ हैं और पैसे वालों के आगे खुद को बेच देते हैं।
उनके कथन की व्यवहारिक सत्यता मैंने काफी निकट से देखी है,नामोल्लेख जानबूझ कर नहीं कर रहा हूँ। यही कारण है कि मेरे जैसा ईमानदारी पर चलने वाला साधारण इंसान राजनीति में पिछड़ा ही रहता है। न तो हम किसी को खरीद सकते हैं न इस बात को पसंद करते हैं और न ही हम बिक सकते हैं इसलिए हमारी बात नक्कारखाने में तूती की आवाज़ बन कर रह जाती है।
जब पैसे वाले खुद या उनके नुमाईन्दे संसद में पहुंचेंगे तो वही होगा जो आजकल हो रहा है। अपने-अपने बिजनेस के हित में सांसद भिड़ते रहेंगे क्योंकि जनहित तो उनके लिए मुद्दा है ही नहीं। जो नए-नवेले आम आदमी के नुमाइंदे हैं वे तो और भी अधिक निकृष्ट एवं भ्रष्ट हैं जैसा कि प्रस्तुत वीडियो से स्पष्ट होता है।
जनता के सामने यदि संसदीय लोकतन्त्र राहत देने में विफल रहता है तो सशस्त्र क्रान्ति के सिवा कोई दूसरा विकल्प नहीं बचता है। किन्तु सशस्त्र क्रांति को देश-द्रोह के नाम पर कुचलना इन धनिकों के लिए और भी सुगम होता है जैसा कि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में देखने को मिल रहा है। इसलिए बेहतर यही है कि सभी जनहितैषी वामपंथी दल परस्पर एकजुट होकर संसदीय चुनावों में भाग लें न कि धनिकों के ही इस या उस गुट के साथ तालमेल करें जैसा कि किया गया है।
~विजय राजबली माथुर ©
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Wednesday, February 26, 2014
जयललिता का जयगान और उसके उल्टे परिणाम ---विजय राजबली माथुर
Digest this: #RajyaSabha MPs Sachin Tendulkar and actress Rekha have spent "zero" rupee on development in their respective adopted areas in the last 2 years.
फिर पटकनी खाएँगे प्रकाश करात :
https://www.facebook.com/cpofindia/photos/a.335629103138331.91488.120263388008238/721068401261064/?type=1&theater
सी पीएम महासचिव खुद को आधुनिक राजनीति का चाणक्य भले ही समझते रहें लेकिन उनको पटकनियाँ खाते रहने की आदत और शौक है। पूर्व प्रधानमंत्री वी पी सिंह के ज्योति बसु को 1996 में प्रधानमंत्री बनाने के सुझाव को ठुकरा कर भी उन्होने पटकनी ही खाई थी जिस पर बाद में कामरेड ज्योति बसु को 'ऐतिहासिक भूल' कह कर स्वीकारना ही पड़ा था।
फिर 2012 में ममता बनर्जी द्वारा प्रणव मुखर्जी के विरोध को वास्तविक मानते हुये राष्ट्रपति चुनाव में उनको समर्थन देकर भी वाह ताज़ातरीन पटकनी खा चुके थे क्योंकि ममता जी ने बड़ी चतुराई से अंतिम क्षणों में प्रणव मुखर्जी साहब को खुला समर्थन दे दिया था।
अपनी गलतियों से कोई सबक न सीखते हुये उन्होने इस बार जयललिता जी को पी एम बनाने का झण्डा बुलंद किया है जबकि जयललिता जी के बारे में एस श्रीनिवासन साहब का निष्कर्ष बिलकुल सटीक और व्यावहारिक है।
CPI के आफ़िशियल पेज पर संलग्न फोटो यह बताता है कि 1964 में स्थापित पार्टी सी पी एम के महासचिव साहब देश की सर्वाधिक पुरानी पार्टी CPI के महासचिव को तुच्छ समझते हैं तभी तो कामरेड सुधाकर रेड्डी साहब को अपने से पीछे की पंक्ति में स्थान दिलवाया है।1885 में स्थापित कांग्रेस के 1977 में जनता पार्टी में विलीन होने के बाद 1925 में स्थापित CPI ही आज सबसे पुरानी पार्टी है । केंद्रीय सत्ता में भागीदार इन्दिरा कांग्रेस की स्थापना तो 1969 ई में ही हुई है।
सी पी आई को पृष्ठभूमि में धकेलना और जयललिता जी से हाथ मिलाना प्रकाश करात साहब को एक नई पटकनी देने वाला ही साबित होने जा रहा है। तामिलनाड में मार्क्सवादी फिल्म निर्माता जेमिनी गनेशन की पुत्री राज्यसभा सदस्य 'रेखा' ,उत्तर-प्रदेश में बसपा-मायावती जी तथा पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के साथ मोर्चा बनाना चाहिए था जो कि करात साहब की ज़िद्द के चलते संभव न हो सकता था।
सी पी एम के समर्थक 'टाईम्स आफ इंडिया' की प्रस्तुति के माध्यम से 'रेखा' को अकर्मण्य सिद्ध कर रहे हैं जिसमें बताया गया है कि पिछले दो वर्षों में उन्होने 'सांसद निधि' का धन व्यय नहीं किया है। वस्तुतः ऐसा करके 'रेखा'जी ने एक आदर्श ही स्थापित किया है। वह कला-क्षेत्र 'फिल्म' से संबन्धित हैं जहां उनको सरकारी धन लगाने की क्या ज़रूरत थी जिसे अन्य जनोपयोगी कार्यों में व्यय किया जा सकता है? किन्तु NGOs चलाने वाले CPM के लोग इसे इसलिए गलत बता रहे हैं कि ऐसा न करके रेखा जी ने IAS अधिकारियों,NGOs संचालकों,सरकारी कर्मचारियों द्वारा 'लूट' किए जाने का मार्ग अवरुद्ध कर दिया है।
जहां CPM के NGOs संचालक सांसद निधि द्वारा लूट में सहयोगी न होने पर 'रेखा' जी की आलोचना कर रहे हैं वहीं CPI के राष्ट्रीय सचिव कामरेड अतुल कुमार अनजान साहब का कहना है-"देश से भ्रष्टाचार खत्म कराने के लिए सांसद व विधायक निधि का समाप्त होना बहुत ज़रूरी है। "
"राज्येश'बुध' की महादशा मे 12 अगस्त 2010 से 23 फरवरी 2017 तक की अंतर्दशाये भाग्योदय कारक,अनुकूल सुखदायक और उन्नति प्रदान करने वाली हैं। 24 फरवरी 2017 से 29 जून 2017 तक बुध मे 'सूर्य' की अंतर्दशा रहेगी जो लाभदायक राज्योन्नति प्रदान करने वाली होगी।
अभी तक रेखा के किसी भी राजनीतिक रुझान की कोई जानकारी किसी भी माध्यम से प्रकाश मे नहीं आई है ,किन्तु उनकी कुंडली मे प्रबल राज्य-योग हैं। जब ग्रहों के दूसरे परिणाम चरितार्थ हुये हैं तो निश्चित रूप से इस राज्य-योग का भी लाभ मिलना ही चाहिए।"
यदि 2014 के चुनावों के बाद 'रेखा' जी अथवा 'ममता' जी की अगुवाई में कांग्रेस एक बार फिर सत्ता पर काबिज होती है तो इसके लिए प्रकाश करात साहब व उनकी सी पी एम ही उत्तरदाई होगी जिसने 'दीवार पर लिखे को ' न पढ़ने की कसंम खा रखी है।
~विजय राजबली माथुर ©
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Sunday, February 23, 2014
चुनावी परिदृश्य में तृणमूल कॉंग्रेस व ममता बनर्जी की स्थिति ---विजय राजबली माथुर
'रेखा जी' के अतिरिक्त एक और महिला( जिनसे वांम मोर्चा नफरत रख रहा है ) ममता बनर्जी का समय भी उनके अनुकूल चल रहा है। रण-नीति का तक़ाज़ा था कि 'गैर भाजापा' और 'गैर कांग्रेस'मोर्चे का नेता ममता जी को स्वीकार करके दोनों को परास्त किया जाता। किन्तु राजनीतिक लाभ को नहीं व्यक्तिगत द्वेष को वरीयता देने से हानि उठानी पड़ सकती है क्योंकि यहाँ भी हो सकता है कि कांग्रेस घोषित न सही तो अघोषित तालमेल ममता जी से बैठा कर लाभदायक स्थिति अपने लिए बना सकती है।
"अखबारी विश्लेषण से अलग मेरा विश्लेषण यह है कि जन्म के बाद ममता जी की 'चंद्र महादशा' 07 वर्ष 08 आठ माह एवं 07 दिन शेष बची थी। इसके अनुसार 03 जूलाई 2010 से वह 'शनि'महादशांतर्गत 'शुक्र' की अंतर्दशा मे 03 सितंबर 2013 तक चलेंगी। यह उनका श्रेष्ठत्तम समय है। इसी मे वह मुख्य मंत्री बनी हैं। 34 वर्ष के मजबूत बामपंथी शासन को उखाड़ने मे वह सफल रही हैं तो यह उनके अपने ग्रह-नक्षत्रों का ही स्पष्ट प्रभाव है।
इसके बाद पुनः 'सूर्य' की शनि मे अंतर्दशा 15 अगस्त 2014 तक उनके लिए अनुकूल रहने वाली है और लोकसभा के चुनाव इसी अवधि के मध्य होंगे। केंद्र (दशम भाव मे )'शनि' उनको 'शश योग' प्रदान कर रहा है जो 'राज योग'ही है।
हाल ही में ममता बनर्जी को अन्ना हज़ारे द्वारा व्यक्त समर्थन से बौखला कर कुछ वामपंथी चिंतकों ने उनको RSS/मोदी समर्थक घोषित कर दिया है जिसका जवाब ममता जी ने इस प्रकार दिया है:
:"ममता ने कहा,किसी भी हाल में मोदी को नहीं दूंगी समर्थन"
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष ममता
बनर्जी ने भाजपा के पीएम पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी को समर्थन
देने से साफ इनकार कर दिया है। ममता ने कहा कि भाजपा दंगे
करवाकर सत्ता में आने वाली पार्टी है। एक समाचार पत्र को दिए
साक्षात्कार में ममता ने कहा कि न भाजपा,कांग्रेस का विकल्प नहीं हो
सकती और न ही कांग्रेस,भाजपा का विकल्प हो सकती है। हम न तो
भ्रष्ट सरकार के साथ रह सकते हैं और न ही दंगे करवाने वाली पार्टी के
साथ जा सकते हैं। ओपिनियन पोल के मुताबिक तृणमूल कांग्रेस
आगामी लोकसभा चुनाव में पश्चिम बंगाल में सबसे बड़ी पार्टी के तौर
पर उभरेगी।केन्द्र में अगले गठबंधन को आकार देने में तृणमूल कांग्रेस
बड़ा फैक्टर हो सकती है। खुद के अगले प्रधानमंत्री बनने को लेकर भी
ममता बनर्जी स्पष्ट नहीं है। तृणमूल कांग्रेस की सुप्रीमो ने कहा कि कई
नेता हैं जो देश के अच्छे नेता हो सकते हैं। लोकतंत्र और जनता ही तय
करेगी कि अगला प्रधानमंत्री कौन होगा। ममता ने कहा कि केन्द्र में
अगली सरकार नया गठबंधन बना सकता है। बकौल ममता,मुझे
लगता है कि अगर चुनाव के बाद भाजपा और कांग्रेस की सीटों को जोड़कर
देखेंगे तो आंकड़ा आधे से भी कम होगा। फेडरल फ्रंट ही भविष्य है।
https://www.facebook.com/photo.php?fbid=664143703631438&set=a.152760088103138.30548.100001074446476&type=1
27 नवंबर 2012 को स्थगित रैली 16 फरवरी 2014 को लखनऊ में आयोजित करवाकर ममता जी ने संकेत दे दिया है कि यदि मुलायम सिंह प्रकाश करात के फेर में फंसे रहे तो वह उनके सहयोग के बगैर ही फेडरल फ्रंट की दिशा में बढ़ सकती हैं।यदि उत्तर-प्रदेश में ममता जी ने मायावती जी से तालमेल बैठा लिया तो यहाँ भी उनको काफी मजबूती मिल जाएगी। सी पी एम में भाजपा के भगौड़ों को शामिल किए जाने से उसके भविष्य की दिशा का खुलासा हो चुका है। इस सूरत में ममता बनर्जी के तर्क जनता को आसानी से ग्राह्य हो सकते हैं। सी पी एम की शुतुरमुरगी चालें वामपंथ को जोरदार झटका दे सकती हैं। तब 'पाछे पछताए होत क्या? जब चिड़ियाँ चुग गईं खेत' । अभी भी बहुत समय है कि सी पी एम को छोड़ कर समस्त वामपंथ एकजुट होकर ममता बनर्जी के नेतृत्व में भाजपा/कांग्रेस/आ आ पा को संयुक्त रूप से चुनावों में परास्त कर सकता है।
~विजय राजबली माथुर ©
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Friday, February 21, 2014
स्वामी दयानन्द :साम्राज्यवादियों के निशाने पर---विजय राजबली माथुर
Dayanand Saraswati ,Maharshi Dayānand Sarasvatī) (12 February 1824 – 30 October 1883)was an important
religious leader of his time. He is well known as the founder of the Arya Samaj, a Hindu reform movement of the Vedic tradition. He was a profound scholar of the Vedic lore and Sanskrit language. He was the first to give the call for Swarajya as "India for Indians" – in 1876, later taken up by Lokmanya Tilak. Denouncing the idolatry and ritualistic worship prevalent in Hinduism at the time, he worked towards reviving Vedic ideologies. Subsequently the philosopher and President of India, S. Radhakrishnan, called him one of the "makers of Modern India," as did Sri Aurobindo.
Those who were influenced by and followed Dayananda included Madam Cama, Pandit Guru Dutt Vidyarthi,Vinayak Damodar Savarkar, Lala Hardayal, Madan Lal Dhingra, Ram Prasad Bismil, Bhagat Singh, Mahadev Govind Ranade Swami Shraddhanand, Mahatma Hansraj, Lala Lajpat Rai and others. One of his most influential works is the book Satyarth Prakash, which contributed to the Indian independence movement. He was a sanyasi (ascetic) from boyhood, and a scholar, who believed in the infallible authority of the Vedas.
Maharshi Dayananda advocated the doctrine of Karma (Karmasiddhanta in Hinduism) and Reincarnation (Punarjanma in Hinduism). He emphasized the Vedic ideals of brahmacharya (celibacy) and devotion to God. The Theosophical Society and the Arya Samaj were united from 1878 to 1882, becoming the Theosophical Society of the Arya Samaj. Among Maharshi Dayananda's contributions are his promoting of the equal rights for women, such as the right to education and reading of Indian scriptures, and his intuitive commentary on the Vedas from Vedic Sanskrit in Sanskrit as well as Hindi so that the common man might be able to read them. Dayanand was the first to give the word of Swadeshi long before Mahatma Gandhi.
https://www.facebook.com/groups/231887883638484/
एम एम अहलूवालिया साहब ने अपनी पुस्तक :FREEDOM STRUGGLE IN INDIA के पृष्ठ 222 पर लिखा है-
"The Government was never quite happy about the Arya Samaj. They disliked it for its propaganda of self-confidence,self-help and self-reliance.The authorities,sometimes endowed it with fictitious power by persecuting to members whose Puritanism became political under intolerable conditions."
अर्थात-"आर्यसमाज से सरकार को कभी भी खुशी नहीं हुई। शासकों ने आर्यसमाज को इसलिए नहीं चाहा कि यह आत्मविश्वास,स्व-सहाय और आत्म-निर्भरता का प्रचार करता था। कभी-कभी तो अधिकारियों ने इसकी शक्ति को इतना अधिक महत्व दिया कि उसके सदस्यों को दंडित किया और असहनीय दशाओं में उनके सुधारवादी आंदोलन ने राजनीतिक रूप ले लिया। "
'भारत का राष्ट्रीय आंदोलन एवं संविधान 'में डॉ पर्मात्माशरण,अध्यक्ष राजनीतिशास्त्र विभाग (जो कार्यवाहक प्राचार्य भी बने),मेरठ कालेज,मेरठ :पृष्ठ -33 पर लिखते हैं---
"स्वामी दयानंद वस्तुतः अपने समय के सबसे महान देशभक्त और बड़े प्रभावशाली वक्ता थे । उन्होने अपने अनुयायियों को दो नारे दिये-
1)-'फिर से वेदों की ओर'
2 )-'भारत भारतीयों के लिए'
उन्होने शिक्षा के क्षेत्र में प्राचीन भारतीय शिक्षा आदर्शों -गुरुकुल प्रणाली का प्रचार किया और स्त्रियॉं की शिक्षा पर भी समान बल दिया। सामाजिक क्षेत्र में उन्होने अछूत कहे जाने वाले भाइयों के उठान के लिए अत्यंत सराहनीय प्रयत्न किया। उन्होने यह भी बताया कि 'जाति' का आधार 'जन्म' नहीं 'कर्म' है। साथ ही उन्होने बहू-विवाह,बाल-विवाह जैसी कुप्रथाओं का विरोध और विधवाओं के लिए 'पुनर्विवाह' का समर्थन किया।
राजनीतिक क्षेत्र में आर्यसमाज ने देश-प्रेम,स्वदेशी,हिन्दी,आत्म-निर्भरता और वैदिक सभ्यता व संस्कृति के पुरुत्थान के लिए विशेष कार्य किया । आर्यसमाज ने एक ओर हिंदुओं में प्रचलित पुरानी कुप्रथाओं ,रूढ़ियों,मूर्ती-पूजा आदि और दूसरी ओर पाश्चात्य सभ्यता व संस्कृति के प्रभाव का विरोध किया।"
अपनी युवावस्था में 1857 की क्रांति में भाग ले चुके (झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के भी संपर्क में रहे थे)महर्षि स्वामी दयानन्द 'सरस्वती' ने 1875 ई .की चैत्र प्रतिपदा को 'आर्यसमाज' की स्थापना की जिसका मूल उद्देश्य 'स्व-राज्य'प्राप्ति था। शुरू-शुरू में आर्यसमाजों की स्थापना वहाँ-वहाँ की गई थी जहां-जहां ब्रिटिश छावनियाँ थीं। ब्रिटिश शासकों ने महर्षि दयानन्द को 'क्रांतिकारी सन्यासी' (REVOLUTIONARY SAINT) की संज्ञा दी थी। आर्यसमाज के 'स्व-राज्य'आंदोलन से भयभीत होकर वाईस राय लार्ड डफरिन ने अपने चहेते अवकाश प्राप्त ICS एलेन आकटावियन (A. O.)हयूम के सहयोग से वोमेश चंद्र (W.C.)बेनर्जी जो परिवर्तित क्रिश्चियन थे की अध्यक्षता में 1885 ई .में इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना ब्रिटिश साम्राज्य के 'सेफ़्टी वाल्व'के रूप मे करवाई थी। किन्तु महर्षि दयानन्द की प्रेरणा पर आर्यसमाजियों ने कांग्रेस में प्रवेश कर उसे स्वाधीनता आंदोलन चलाने पर विवश कर दिया। 'कांग्रेस का इतिहास' नामक पुस्तक में लेखक -डॉ पट्टाभि सीता रमईय्या ने स्वीकार किया है कि देश की आज़ादी के आंदोलन में जेल जाने वाले 'सत्याग्रहियों'में 85 प्रतिशत आर्यसमाजी थे।
यही वजह है कि आज भी 'साम्राज्यवाद' के हितैषी लोग समय-समय पर महर्षि स्वामी दयानन्द पर हमले करते रहते हैं। 'पाखंड खंडिनी पताका' के लेखक-प्रचारक को 'पोंगा-पंडित' का खिताब देना विकृत,विध्वंसक और देश-द्रोही मानसिकता का ज्वलंत उदाहरण है।
~विजय राजबली माथुर ©
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Thursday, February 13, 2014
यह माध्यम पूँजीवादी व्यवस्था-विरोधी सजग चेतना में रूपांतरित हो जाने से रोकता है-----कविता कृष्णपल्लवी
सोशल मीडिया के बहाने जनता, विचारधारा और तकनोलॉजी के बारे में कुछ बातें
--कविता कृष्णपल्लवी
मार्क जुकरबर्ग ने फेसबुक ईजाद करके भूमण्डलीय मीडिया बाजार में एक इजारेदार पूँजीपति के रूप में अपनी जगह बना ली। लेकिन यह केवल मुनाफा कूटने का ही साधन नहीं है, बल्कि विश्व पूँजी के वैचारिक सांस्कृतिक वर्चस्व का भी एक प्रभावी औजार है। सोशल मीडिया को जनता का वैकल्पिक मीडिया समझना या सांस्कृतिक प्रति-वर्चस्व का औजार समझना एक भारी मुगालते में जीना है। हाँ, इस बुर्ज़ुआ संचार माध्यम के कुछ ऐसे अन्तरविरोधों का, कुछ ऐसी प्राविधिक विवशताओं का हम लाभ उठा सकते हैं, जो शासक वर्ग के पूर्ण नियंत्रण के एक हद तक बाहर हैं। यह लाभ भी तभी उठाया जा सकता है जब प्रगतिकामी, जनपक्षधर बौद्धिक जमातें वैचारिक रूप से काफी सजग हों और सोशल मीडिया को लेकर किसी प्रकार के विभ्रम की शिकार न हों। ध्यान रहे कि तब भी हम इसका एक हद तक ही इस्तेमाल कर सकते हैं, यह हमारा मीडिया कदापि नहीं हो सकता।
समाज की एक भारी मध्यवर्गीय आबादी इण्टरनेट-फेसबुक पर बैठी हुई सामाजिक जीवन के यथार्थ से बाहर एक आभासी यथार्थ में जीने का आदी हो जाती है। वह वस्तुत: भीषण सामाजिक अलगाव में जीती है, पर फेसबुक मित्रों का आभासी साहचर्य उसे इस अलगाव के पीड़ादायी अहसास से काफी हद तक निजात दिलाता है। बुर्ज़ुआ समाज की भेड़चाल में वैयक्तिक विशिष्टता की मान्यता का जो संकट होता है, पहचान-विहीनता या अजनबीपन की जो पीड़ा होती है, उससे फेसबुक-साहचर्य, एक दूसरे को या उनके कृतित्व को सराहना, एक दूसरे के प्रति सरोकार दिखाना काफी हद तक राहत दिलाता है। यानी यह भी एक तरह के अफीम की भूमिका ही निभाता है। यह दर्द निवारक का काम करता है और एक नशे का काम करता है, पर दर्द की वास्तविक जड़ तक नहीं पहुँचाता। इस तरह अलगाव के विरुद्ध संघर्ष की हमारी सहज सामाजिक चेतना को यह माध्यम पूँजीवादी व्यवस्था-विरोधी सजग चेतना में रूपांतरित हो जाने से रोकता है। साथ ही, फेसबुक, टि्वटर और सोशल मीडिया के ऐसे तमाम अंग-उपांग हमें आदतन अगम्भीर और काहिल और ठिठोलीबाज भी बनाते हैं।
खुशमिजाजी अच्छी चीज है, पर बेहद अंधकारमय और चुनौतीपूर्ण समय में भी अक्सर चुहलबाजी के मूड में रहने वाले अगम्भीर लोग न केवल अपनी वैचारिक क्षमता, बल्कि अपनी संवेदनशीलता भी खोते चले जाते हैं। आभासी दुनिया में दिखायी जाने वाली खुशमिजाजी वास्तविक सामाजिक जीवन में यदि दिखायी जाये तो यह अलगाव के विरुद्ध एक नागरिक का असरदार प्रतिकार होगा। इसी सन्दर्भ में नोम चोम्स्की का यह कथन विशेष रूप से महत्वपूर्ण और सारगर्भित है कि ''जबतक लोग... एक दूसरे से कटे रहेंगे और गम्भीर आलोचनात्मक विचार-विमर्श पर ध्यान नहीं देंगे, तबतक (शासक वर्ग द्वारा) विचारों को नियंत्रित किया जाना सम्भव बना रहेगा।''
इसलिए मेरा विचार है कि जो राजनीतिक-सांस्कृतिक रूप से जागरूक व्यवस्था-विरोधी नागरिक हैं, उन्हें सोशल मीडिया के आभासी संसार को अपनी समस्त व्यक्तिगत आत्मिक-सांस्कृतिक गतिविधियों का मंच बनाने के बजाय केवल गम्भीर सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक विचार-विमर्श, पूँजी तंत्र द्वारा पार्श्व भूमि में धकेल दी गयी निर्मम-विद्रूप यथार्थ के उदघाटन , विश्व पूँजीवादी सांस्कृतिक-वैचारिक मशीनरी द्वारा इतिहास के विकृतिकरण के भण्डाफोड़ तथा जीवन के सभी क्षेत्रों की पूँजीवादी वैचारिकी की समालोचना के लिए ही इस माध्यम का इस्तेमाल करना चाहिए।
जनता के जनवादी अधिकारों के मसले पर एकजुटता के लिए पारस्परिक संवाद के लिए इस मंच का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। बड़े पैमाने पर सोशल मीडिया के सभी अंगों-उपांगों का विज्ञान, तर्कणा और सही इतिहास बोध देने तथा जनता की कला-साहित्य-संस्कृति के प्रचार के लिए इस्तेमाल किया जाना चाहिए। फेसबुक के धोबीघाट पर ''वामपंथी घरों के गंदे कपड़े धोने'' का दिखावा करने वाले वास्तव में प्रगतिकामी लोग हैं, या प्रतिशोधी आत्मदंभी लोग हैं, या छद्मवेषी घुसपैठिये हैं, इस प्रश्न पर भी सोचना होगा। वैचारिक-दार्शनिक प्रश्नों पर मतभेद कोई गुप्त बात नहीं है, इन पर तीखी से तीखी बहसें हो सकती हैं। पर सांगठनिक या व्यक्तिगत चर्चाएँ, अफवाहबाजी और तोहमतबाजी, गाली-गलौज -- यह सब फेसबुक-ब्लॉग के सार्वजनिक मंचों पर करने वाले लोगों की मंशा क्या है, मक़सद क्या है? राजनीतिक वाद-विवाद और व्यक्तिगत गाली-गलौज के बीच यदि हम अंतर नहीं कर पाते, तब तो वास्तव में हमारी मति मारी गयी है।
हम चाहे जितनी कुशलता से काम करें, सोशल मीडिया का जितना व्यापक इस्तेमाल पूँजी की ताकत से भाड़े के टट्टू खरीदकर हिंदुत्ववादी फासिस्ट कर सकते हैं, बुर्ज़ुआ पार्टियाँ कर सकती हैं, साम्राज्यवादी वित्त-पोषित एन.जी.ओ. सुधारवादी कर सकते हैं, उतना हम नहीं कर सकते। इस मंच पर हम उनसे पार नहीं पा सकते। प्रतिवर्चस्व का हमारा वैकल्पिक मंच अलग होगा। पर यदि दृष्टि, पहुँच और संकल्प की एकजुटता हो, तो इस मंच पर भी बुर्ज़ुआ प्रभाव की काफी प्रभावी काट की जा सकती है, इसका भी काफी इस्तेमाल किया जा सकता है।
प्रगतिशील-जनपक्षधर बुद्धिजीवी वेबसाइट, ब्लॉग, फेसबुक, टि्वटर, ऑरकुट आदि-आदि का इस्तेमाल करते हुए न केवल पूँजीवादी व्यवस्था का एक्सपोजर कर सकते हैं, न केवल ब्लैकआउट की गयी खबरों को सामने लाने और जनता के जनवादी अधिकार के मसलों को उठाने का काम कर सकते हैं, न केवल गम्भीर वैचारिक बहस और विचार-विमर्श कर सकते हैं, न केवल वैज्ञानिक जनपक्षधर दृष्टि से इतिहास और वर्तमान का विश्लेषण प्रस्तुत कर सकते हैं, बल्कि अपने सांस्कृतिक प्रतीकों, अपने महान पूर्वजों के उद्धरणों, प्रगतिशील कलात्मक-साहित्यिक-सांगीतिक कृतियों, चलचित्रों-वृत्तचित्रों आदि-आदि से इन मंचों को ज्यादा से ज्यादा पाटने की कोशिश कर सकते हैं, मित्रों का बड़ा से बड़ा दायरा बनाकर उनतक अपनी बातें पहुँचाने की कोशिश कर सकते हैं। यानी हमें इस आभासी दुनिया में ज्यादा से ज्यादा 'स्पेस' छेंकने की कोशिश करनी चाहिए।
कालांतर में इस तंत्र के नियामक और नियंत्रक तरह-तरह के तकनीकी छल नियोजन से भी जनपक्षधर प्रयासों को निष्प्रभावी बनाने या उनका गला घोंटने की कोशिश करेंगे। कुछ देशों का उदाहरण हमारे सामने है जहाँ आन्दोलनरत जनता ने सोशल मीडिया का जब ज्यादा प्रभावी इस्तेमाल किया तो शासक वर्ग ने वहाँ इस माध्यम को ही काफी हद तक पंगु बना दिया। गौरतलब है कि ये आन्दोलन स्वत:स्फूर्त उभार थे और शासक वर्ग तात्कालिक तौर पर परेशान होने के बावजूद यह भी समझ रहा था कि ये पूरी व्यवस्था को ध्वस्त करने वाली चुनौती नहीं है। जब ऐसी चुनौती उनके सामने होगी तो वे और प्रभावी ढंग से कदम उठायेंगे। लेकिन जब सारी जनता संगठित होकर उठ खड़ी होगी तो वह और भी रास्ते निकाल लेगी। जैसा कि ब्रेष्ट की एक प्रसिद्ध कविता का आशय है, मशीनें चाहे जितनी प्रभावी हों, चलाता उन्हें मनुष्य है। तकनोलॉजी चाहे जितनी प्रभावी और स्वचालित हो, वह मनुष्य के नियंत्रण में ही होती है। तकनोलॉजी का इस्तेमाल शासक वर्ग करता है, पर तकनोलॉजी व्यापक जाग्रत संगठित जनता को काबू नहीं कर सकती। और फिर जनता भी तो अपने संघर्ष में तकनोलॉजी का समांतर इस्तेमाल करती ही है!
बस यह ध्यान रहे कि जनता मुख्य ताकत है, तकनोलॉजी नहीं। और तकनोलॉजी भी हमेशा उसीतरह विचारधारा और राजनीति के मातहत होनी चाहिए, जैसे कि हथियार।
मार्क जुकरबर्ग ने फेसबुक ईजाद करके भूमण्डलीय मीडिया बाजार में एक इजारेदार पूँजीपति के रूप में अपनी जगह बना ली। लेकिन यह केवल मुनाफा कूटने का ही साधन नहीं है, बल्कि विश्व पूँजी के वैचारिक सांस्कृतिक वर्चस्व का भी एक प्रभावी औजार है। सोशल मीडिया को जनता का वैकल्पिक मीडिया समझना या सांस्कृतिक प्रति-वर्चस्व का औजार समझना एक भारी मुगालते में जीना है। हाँ, इस बुर्ज़ुआ संचार माध्यम के कुछ ऐसे अन्तरविरोधों का, कुछ ऐसी प्राविधिक विवशताओं का हम लाभ उठा सकते हैं, जो शासक वर्ग के पूर्ण नियंत्रण के एक हद तक बाहर हैं। यह लाभ भी तभी उठाया जा सकता है जब प्रगतिकामी, जनपक्षधर बौद्धिक जमातें वैचारिक रूप से काफी सजग हों और सोशल मीडिया को लेकर किसी प्रकार के विभ्रम की शिकार न हों। ध्यान रहे कि तब भी हम इसका एक हद तक ही इस्तेमाल कर सकते हैं, यह हमारा मीडिया कदापि नहीं हो सकता।
समाज की एक भारी मध्यवर्गीय आबादी इण्टरनेट-फेसबुक पर बैठी हुई सामाजिक जीवन के यथार्थ से बाहर एक आभासी यथार्थ में जीने का आदी हो जाती है। वह वस्तुत: भीषण सामाजिक अलगाव में जीती है, पर फेसबुक मित्रों का आभासी साहचर्य उसे इस अलगाव के पीड़ादायी अहसास से काफी हद तक निजात दिलाता है। बुर्ज़ुआ समाज की भेड़चाल में वैयक्तिक विशिष्टता की मान्यता का जो संकट होता है, पहचान-विहीनता या अजनबीपन की जो पीड़ा होती है, उससे फेसबुक-साहचर्य, एक दूसरे को या उनके कृतित्व को सराहना, एक दूसरे के प्रति सरोकार दिखाना काफी हद तक राहत दिलाता है। यानी यह भी एक तरह के अफीम की भूमिका ही निभाता है। यह दर्द निवारक का काम करता है और एक नशे का काम करता है, पर दर्द की वास्तविक जड़ तक नहीं पहुँचाता। इस तरह अलगाव के विरुद्ध संघर्ष की हमारी सहज सामाजिक चेतना को यह माध्यम पूँजीवादी व्यवस्था-विरोधी सजग चेतना में रूपांतरित हो जाने से रोकता है। साथ ही, फेसबुक, टि्वटर और सोशल मीडिया के ऐसे तमाम अंग-उपांग हमें आदतन अगम्भीर और काहिल और ठिठोलीबाज भी बनाते हैं।
खुशमिजाजी अच्छी चीज है, पर बेहद अंधकारमय और चुनौतीपूर्ण समय में भी अक्सर चुहलबाजी के मूड में रहने वाले अगम्भीर लोग न केवल अपनी वैचारिक क्षमता, बल्कि अपनी संवेदनशीलता भी खोते चले जाते हैं। आभासी दुनिया में दिखायी जाने वाली खुशमिजाजी वास्तविक सामाजिक जीवन में यदि दिखायी जाये तो यह अलगाव के विरुद्ध एक नागरिक का असरदार प्रतिकार होगा। इसी सन्दर्भ में नोम चोम्स्की का यह कथन विशेष रूप से महत्वपूर्ण और सारगर्भित है कि ''जबतक लोग... एक दूसरे से कटे रहेंगे और गम्भीर आलोचनात्मक विचार-विमर्श पर ध्यान नहीं देंगे, तबतक (शासक वर्ग द्वारा) विचारों को नियंत्रित किया जाना सम्भव बना रहेगा।''
इसलिए मेरा विचार है कि जो राजनीतिक-सांस्कृतिक रूप से जागरूक व्यवस्था-विरोधी नागरिक हैं, उन्हें सोशल मीडिया के आभासी संसार को अपनी समस्त व्यक्तिगत आत्मिक-सांस्कृतिक गतिविधियों का मंच बनाने के बजाय केवल गम्भीर सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक विचार-विमर्श, पूँजी तंत्र द्वारा पार्श्व भूमि में धकेल दी गयी निर्मम-विद्रूप यथार्थ के उदघाटन , विश्व पूँजीवादी सांस्कृतिक-वैचारिक मशीनरी द्वारा इतिहास के विकृतिकरण के भण्डाफोड़ तथा जीवन के सभी क्षेत्रों की पूँजीवादी वैचारिकी की समालोचना के लिए ही इस माध्यम का इस्तेमाल करना चाहिए।
जनता के जनवादी अधिकारों के मसले पर एकजुटता के लिए पारस्परिक संवाद के लिए इस मंच का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। बड़े पैमाने पर सोशल मीडिया के सभी अंगों-उपांगों का विज्ञान, तर्कणा और सही इतिहास बोध देने तथा जनता की कला-साहित्य-संस्कृति के प्रचार के लिए इस्तेमाल किया जाना चाहिए। फेसबुक के धोबीघाट पर ''वामपंथी घरों के गंदे कपड़े धोने'' का दिखावा करने वाले वास्तव में प्रगतिकामी लोग हैं, या प्रतिशोधी आत्मदंभी लोग हैं, या छद्मवेषी घुसपैठिये हैं, इस प्रश्न पर भी सोचना होगा। वैचारिक-दार्शनिक प्रश्नों पर मतभेद कोई गुप्त बात नहीं है, इन पर तीखी से तीखी बहसें हो सकती हैं। पर सांगठनिक या व्यक्तिगत चर्चाएँ, अफवाहबाजी और तोहमतबाजी, गाली-गलौज -- यह सब फेसबुक-ब्लॉग के सार्वजनिक मंचों पर करने वाले लोगों की मंशा क्या है, मक़सद क्या है? राजनीतिक वाद-विवाद और व्यक्तिगत गाली-गलौज के बीच यदि हम अंतर नहीं कर पाते, तब तो वास्तव में हमारी मति मारी गयी है।
हम चाहे जितनी कुशलता से काम करें, सोशल मीडिया का जितना व्यापक इस्तेमाल पूँजी की ताकत से भाड़े के टट्टू खरीदकर हिंदुत्ववादी फासिस्ट कर सकते हैं, बुर्ज़ुआ पार्टियाँ कर सकती हैं, साम्राज्यवादी वित्त-पोषित एन.जी.ओ. सुधारवादी कर सकते हैं, उतना हम नहीं कर सकते। इस मंच पर हम उनसे पार नहीं पा सकते। प्रतिवर्चस्व का हमारा वैकल्पिक मंच अलग होगा। पर यदि दृष्टि, पहुँच और संकल्प की एकजुटता हो, तो इस मंच पर भी बुर्ज़ुआ प्रभाव की काफी प्रभावी काट की जा सकती है, इसका भी काफी इस्तेमाल किया जा सकता है।
प्रगतिशील-जनपक्षधर बुद्धिजीवी वेबसाइट, ब्लॉग, फेसबुक, टि्वटर, ऑरकुट आदि-आदि का इस्तेमाल करते हुए न केवल पूँजीवादी व्यवस्था का एक्सपोजर कर सकते हैं, न केवल ब्लैकआउट की गयी खबरों को सामने लाने और जनता के जनवादी अधिकार के मसलों को उठाने का काम कर सकते हैं, न केवल गम्भीर वैचारिक बहस और विचार-विमर्श कर सकते हैं, न केवल वैज्ञानिक जनपक्षधर दृष्टि से इतिहास और वर्तमान का विश्लेषण प्रस्तुत कर सकते हैं, बल्कि अपने सांस्कृतिक प्रतीकों, अपने महान पूर्वजों के उद्धरणों, प्रगतिशील कलात्मक-साहित्यिक-सांगीतिक कृतियों, चलचित्रों-वृत्तचित्रों आदि-आदि से इन मंचों को ज्यादा से ज्यादा पाटने की कोशिश कर सकते हैं, मित्रों का बड़ा से बड़ा दायरा बनाकर उनतक अपनी बातें पहुँचाने की कोशिश कर सकते हैं। यानी हमें इस आभासी दुनिया में ज्यादा से ज्यादा 'स्पेस' छेंकने की कोशिश करनी चाहिए।
कालांतर में इस तंत्र के नियामक और नियंत्रक तरह-तरह के तकनीकी छल नियोजन से भी जनपक्षधर प्रयासों को निष्प्रभावी बनाने या उनका गला घोंटने की कोशिश करेंगे। कुछ देशों का उदाहरण हमारे सामने है जहाँ आन्दोलनरत जनता ने सोशल मीडिया का जब ज्यादा प्रभावी इस्तेमाल किया तो शासक वर्ग ने वहाँ इस माध्यम को ही काफी हद तक पंगु बना दिया। गौरतलब है कि ये आन्दोलन स्वत:स्फूर्त उभार थे और शासक वर्ग तात्कालिक तौर पर परेशान होने के बावजूद यह भी समझ रहा था कि ये पूरी व्यवस्था को ध्वस्त करने वाली चुनौती नहीं है। जब ऐसी चुनौती उनके सामने होगी तो वे और प्रभावी ढंग से कदम उठायेंगे। लेकिन जब सारी जनता संगठित होकर उठ खड़ी होगी तो वह और भी रास्ते निकाल लेगी। जैसा कि ब्रेष्ट की एक प्रसिद्ध कविता का आशय है, मशीनें चाहे जितनी प्रभावी हों, चलाता उन्हें मनुष्य है। तकनोलॉजी चाहे जितनी प्रभावी और स्वचालित हो, वह मनुष्य के नियंत्रण में ही होती है। तकनोलॉजी का इस्तेमाल शासक वर्ग करता है, पर तकनोलॉजी व्यापक जाग्रत संगठित जनता को काबू नहीं कर सकती। और फिर जनता भी तो अपने संघर्ष में तकनोलॉजी का समांतर इस्तेमाल करती ही है!
बस यह ध्यान रहे कि जनता मुख्य ताकत है, तकनोलॉजी नहीं। और तकनोलॉजी भी हमेशा उसीतरह विचारधारा और राजनीति के मातहत होनी चाहिए, जैसे कि हथियार।
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कल यह पोस्ट-"केजरीवाल के भ्रष्टाचार-विरोधी ''मुहिम'' पर गदगद कम्युनिस्ट मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र का ककहरा भी नहीं जानते----कविता कृष्णपल्लवी" अपने 'साम्यवाद(COMMUNISM)' पर दी थी Jitendra Naruka नामक CPIM के एक साहब जो केजरीवाल के अंध-भक्त हैं को इतनी नागवार गुज़री की उन्होने षड्यंत्र पूर्वक उसे ब्लाक करवा दिया है। इससे पूर्व भी केजरीवाल समर्थक कम्युनिस्ट प्रदीप तिवारी,आनंद प्रकाश तिवारी और प्रेम शंकर पांडे ने इस ब्लाग को ब्लाक करवाया था। इस प्रक्रिया से कविता कृष्णपल्लवी जी का यह दृष्टिकोण कि यह सोशल मीडिया सिर्फ पूंजीवादी हितों का ही संरक्षक है और जनवादी बातों का प्रसार इसके द्वारा नहीं किया जा सकता। किन्तु खेदजनक बात यह है कि खुद को कम्युनिस्ट कहने वाले लोग केजरी/मोदी/मनमोहनी भक्ति के कारण जनहित के मुद्दों को प्रसारित होने से रोकते हैं।
— withJitendra Raghuvanshi and 4 others.इस पोस्ट को यहाँ भी पढ़ा जा सकता है।
Wednesday, February 12, 2014
भ्रष्टाचार के मुद्दे का उपयोग भ्रष्टाचार की जननी पूंजी और पूंजीवादी व्यवस्था के सर्वाधिक प्रतिक्रियावादी स्वरुप को आगे बढ़ाने के लिए किया गया---सर्वहारा समाजवाद जिंदाबाद
अण्णा-केजरीवाल के "जनलोकपाल" का सिद्धांत क्या है? इसका राजनीतिक अर्थशास्त्र क्या है?:
भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के कल के सरताज़ श्री अण्णा हज़ारे तो आज भाजपा-कांग्रेस की गोद में बैठे हैं, लेकिन अरबिंद केजरीवाल अभी भी "जनलोकपाल" के झुनझुने से लोगों को झांसा देने में लगे हुए हैं। भ्रष्टाचार से तंग-तबाह आम जन अण्णा-केजरीवाल के "जनलोकपाल" के झांसे में आ जा रहे हैं, यह स्वाभाविक भी है। "जनलोकपाल" का तथाकथित सिद्धांत क्या है? आइए, इस पर थोडा विस्तार से विचार करें।
अण्णा-केजरीवाल के "जनलोकपाल" के पीछे का तथाकथित व्यवस्थाविरोधी और क्रांतिकारी सिद्धांत यह है कि "भ्रष्टाचार ही हमारी सारी समस्याओं की जड़ है और खासकर अविकास और गरीबी का मूल कारण है।" प्रश्न है, क्या यह विचार अण्णा-केजरीवाल का कोई मौलिक विचार है? हम जैसे ही इस पर विचार करते हैं और कुछ खोजबीन करते हैं तो पाते हैं कि "भ्रष्टाचार ही हमारी सारी समस्याओं की जड़ है" वाला यह सिद्धांत नवउदारवाद के प्रादुर्भाव (जन्म) के समय से ही साम्राज्यवादी थिंक टैंकों (जैसे कि वर्ल्ड बैंक आदि) द्वारा लगातार फैलाई जा रही एक मिथ्या धारणा का भारतीय नवसंस्करण मात्र है। साम्राज्यवादी थिंक टैंकों द्वारा लगातार फैलाई जा रही यह मिथ्या धारणा यह है कि "भ्रष्टाचार आम जनता का दुश्मन नंबर एक है।" लेकिन यह पूरी तरह एक मिथ्या धारणा है, जिसे फ़ैलाने में और इस तरह साम्राज्यवादी थिंक-टैंकों को मदद करने के मामले में अण्णा-केजरीवाल की जोड़ी का कोई जवाब नहीं है। हम जानते हैं कि 1991 के बाद से ही, जब से "नयी आर्थिक नीति" और "नव उदारीकरण-भूमंडलीकरण" की हवा चली, राजकीय-सेक्टर को पूरी तरह से तोड़ देने, पूर्ण निजीकरण-बाज़ारीकरण को आगे बढ़ाने, कृषि, उद्योग और शिक्षा-स्वास्थ्य-बिजली-पानी-सड़क जैसी सामाजिक जरूरतों में निवेश से सरकार द्वारा अपने हाथ पूरी तरह खींच लेने और सभी चीज़ों को पूरी तरह बाज़ार की अंधी और बेरहम शक्तियों के हवाले कर देने की साजिशों को सरंजाम तक पहुंचाने के लिए "राज्य व सरकार के हस्तक्षेप", और "सरकारी उद्यमों व परियोजनाओं" पर भ्रष्टाचार और अक्षमता के हवाले से अँधाधुंध हमले शुरू किये गए। घोषणा की गयी कि सरकारी कार्यालय के भ्रष्टाचार और अक्षमता के कारन ही अविकास और गरीबी बनी हुई है और फैली है। एक सच को (कि सरकारी कार्यालयों में भ्रष्टाचार है) को एक बहुत बड़े झूठ को आगे बढाने, खुले और नग्न पूंजीवादी लूट पर आधारित और साम्राज्यवादी भूमंडलीकरण से प्रेरित नवउदारवाद-बाज़ारवाद-उपभोक्तावाद की मज़बूती से नींव रखने के लिए जनमानस को तैयार करने के काम में लगाया गया। साम्राज्यवादी एजेंटों - एनजीओवादियों और छद्म पूंजीवादी-उदारवादी सुधारकों की अनगिनत टोलियों को हरवों-हथियार के साथ मैदान में उतारा गया। ज्ञातव्य हो कि यह हमला आज भी बदस्तूर जारी है। ध्यान देने वाली बात है कि "अविकास, गरीबी और भ्रष्टाचार" के इस पूरे विमर्श में पूंजीवाद-साम्राज्यवाद द्वारा किये जा रहे मानवताविरोधी नृशंष अपराध कहीं भी शामिल नहीं हैं, बिलकुल ही नहीं। वर्ल्ड बैंक ने 1991 से लगातार अपने द्वारा प्रस्तुत किये गए वर्ल्ड डेवलपमेंट रिपोर्ट में भ्रष्टाचार को सामने रखकर निजी पूंजी और बाज़ार को खुली छूट देने की वकालत की। World Development Report 1991 में इसे सामने रखते हुए एक टोन सेट किया गया, जो अभी तक जारी है और हम पाते हैं कि अण्णा-केजरीवाला की भ्रष्टाचार-विरोधी भाषा और वर्ल्ड बैंक की भ्रष्टाचार-विरोधी भाषा में कोई अंतर नहीं है। वर्ल्ड बैंक की तरह अण्णा-केजरीवाल भी पूंजीवाद के अपराधों पर चुप्पी साध लेते हैं।
World Development Report 1991 में कहा गया था - "[c]orruption can rarely be reduced unless its large underlying causes are addressed.It flourishes in situations where domestic and international competition is suppressed, rules and regulations are excessive and discretionary, civil servants are underpaid, or
the organization they serve has unclear or conflicting objectives."
हम स्वयं देख सकते हैं कि इस रिपोर्ट में किस टोन (स्वर) में भ्रस्टाचार के विरोध की जरूरत को रेखांकित किया गया था। इसमें खुले तौर पर घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पूंजी के खुले निष्कंटक प्रवाह की जरूरत के साथ, 'अतिशय' सरकारी व राजकीय नियंत्रण व नियमन की व्यवस्था को ख़त्म व निरस्त करने की जरूरत के साथ और फिर खुले बाज़ार की शक्तियों के बीच खुली प्रतिस्पर्धा तथा निजीकरण की तथाकथित जरूरत के साथ भ्रष्टाचार विरोध के एजेंडे को जोड़ा गया है, मिलाया गया। भारत में 1991 से लेकर आज तक इसके हुए परिणामो को देखें तो हम पाते हैं कि अक्षरसः यही हुआ और आज भी हो रहा है। इस तरह भ्रष्टाचार के मुद्दे का उपयोग भ्रष्टाचार की जननी पूंजी और पूंजीवादी व्यवस्था के सर्वाधिक प्रतिक्रियावादी स्वरुप को आगे बढ़ाने के लिए किया गया।
हम पाते हैं कि 1991 के बाद से वर्ल्ड बैंक ने लगातार भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर लोगों का ध्यान पूंजीवाद के अपराधों से हटवाया, ताकि बेरोजगारी, गरीबी, भूख, कुपोषण और बदहाली से जूझती अवाम पूंजीवाद को नहीं अपने-अपने देश की सरकारों को निशाना बनाये। हम इसे क्रमवार दिखाते हैं। 1992 में भी, Governance and Development नाम से पेश अपनी रिपोर्ट में एक बार फिर करप्शन विरोध को मुद्दा बनाया गया और टास्क फाॅर्स बनाया गया। 1995 में जब James Wolfensohn इसके अध्यक्ष बने तो 1996 में उन्होंने खुलेआम करप्शन को "कैंसर" कहा और फिर उसके बाद बैंक की बोर्ड में ही इस विषय पर खुलकर बहस होने लगी। जब 1997-98 में East Asian crisis आया, तो फिर वर्ल्ड बैंक ने बड़ी चालाकी से इसका ठीकरा मुख्य रूप से करप्शन पर ही फोड़ा, जब कि यह संकट स्वयं पूंजीवादी-साम्राज्यवादी नीतियों की उपज था।
1997 में ही, वर्ल्ड डेवलपमेंट रिपोर्ट एक बार फिर आयी, जिसमें एक बार फिर करप्शन को मुख्य मुद्दा बनाया गया। इसी साल वर्ल्ड बैंक ने "Helping Countries to Combat Corruption" नामक एक पेपर को अपनी स्वीकृति देकर इसे एक बार फिर मुद्दा बना दिया। Anti-Corruption Reforms: Challenges, Effects and Limits of World Bank Support में कहा गया है -
"The OECD and the United Nations have also developed separate anti-corruption programs to assist governments in tackling the problem.3 Several bilateral development agencies have followed and placed anti-corruption high on their development agendas, including DFID, Norad, Sida, and the USAID.4 Improving governance and reducing corruption are today considered essential to helping poor people to escape poverty and countries to achieve the Millennium Development Goals (MDGs). This is an important change in focus of aid policy, but it remains to be seen whether it is possible for donors to find workable policy instruments to fight corruption."
इस तरह भ्रष्टाचार के खिलाफ जोर-जोर की जा रही चीख पुकार में भ्रष्टाचार की जननी पूंजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था को आम जनता के गुस्से से बचा लेने की छटपटाहट स्पष्ट देखी जा सकती है। हमलोग "जनलोकपाल" की मांग को मनवाने के लिए हुए संघर्ष व आंदोलन के दौरान अण्णा-केजरीवाल के शब्दों पर गौर करें तो ऐसा लगेगा मानो यह अरबिंद केजरीवाल नहीं वर्ल्ड बैंक ग्रुप का चेयरमैन Jim Yong Kim बोल रहा है, जिसने 13 दिसंबर को former World Bank President James D. Wolfensohn, former Chairman of the US Federal Reserve Paul Volcker, Chair of Transparency InternationalHuguette Labelle, and Secretary of Finance for the Philippines Cesar V. Purisima के समक्ष एक मीटिंग में यह कहा -
"the World Bank Group is more committed than ever to continue the fight against corruption -- and that will be a critical part of our work to end extreme poverty and to boost shared prosperity,” ऐसा लगता है, मानो यह वर्ल्ड बॅंक ग्रूप का अध्यक्ष किम नहीं, हमारा केजरीवाल बोल रहा है! केजरीवाल को क्या यह कहते हुए नहीं सुनते हैं कि वे भ्रस्टाचार को खत्म कर के गरीबी मिटा देंगे?और क्या यह महज़ यह संजोग है कि केजरीवाल-अण्णा - किम इन तीनों में से कोई भी मानवहन्ता पूंजीवाद के खिलाफ एक शब्द भी नहीं बोलता है ?
https://www.facebook.com/sarwaharasamajwad/posts/786299681399620
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अजय सिन्हा साहब का प्रस्तुत लेख अन्ना हज़ारे/केजरीवाल की पोल खोलने वाला है लेकिन उनका यह मानना कि हज़ारे भाजपा के साथ और केजरीवाल उनसे अब अलग हैं पर्याप्त नहीं है। हज़ारे/केजरीवाल आज भी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और दोनों की डोर RSS से बंधी हुई है। उपरोक्त समाचार में हज़ारे के बयान से भी इसकी पुष्टि हो जाती है बल्कि इनके पीछे वर्तमान पी एम साहब का ज़बरदस्त वरद हस्त है इसे भी ध्यान रखा जाना चाहिए। हज़ारे/केजरीवाल का भ्रष्टाचार आंदोलन RSS/मनमोहन की मिलीभगत का अंजाम था । मनमोहन और मोदी की अलोकप्रियता के मद्देनजर केजरीवाल को उभारा गया है और सारा नाटक देश की साधारण जनता को उल्टे उस्तरे से मूढ़ने हेतु खेला जा रहा है।
~विजय राजबली माथुर ©
इस पोस्ट को यहाँ भी पढ़ा जा सकता है।
~विजय राजबली माथुर ©
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भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के कल के सरताज़ श्री अण्णा हज़ारे तो आज भाजपा-कांग्रेस की गोद में बैठे हैं, लेकिन अरबिंद केजरीवाल अभी भी "जनलोकपाल" के झुनझुने से लोगों को झांसा देने में लगे हुए हैं। भ्रष्टाचार से तंग-तबाह आम जन अण्णा-केजरीवाल के "जनलोकपाल" के झांसे में आ जा रहे हैं, यह स्वाभाविक भी है। "जनलोकपाल" का तथाकथित सिद्धांत क्या है? आइए, इस पर थोडा विस्तार से विचार करें।
अण्णा-केजरीवाल के "जनलोकपाल" के पीछे का तथाकथित व्यवस्थाविरोधी और क्रांतिकारी सिद्धांत यह है कि "भ्रष्टाचार ही हमारी सारी समस्याओं की जड़ है और खासकर अविकास और गरीबी का मूल कारण है।" प्रश्न है, क्या यह विचार अण्णा-केजरीवाल का कोई मौलिक विचार है? हम जैसे ही इस पर विचार करते हैं और कुछ खोजबीन करते हैं तो पाते हैं कि "भ्रष्टाचार ही हमारी सारी समस्याओं की जड़ है" वाला यह सिद्धांत नवउदारवाद के प्रादुर्भाव (जन्म) के समय से ही साम्राज्यवादी थिंक टैंकों (जैसे कि वर्ल्ड बैंक आदि) द्वारा लगातार फैलाई जा रही एक मिथ्या धारणा का भारतीय नवसंस्करण मात्र है। साम्राज्यवादी थिंक टैंकों द्वारा लगातार फैलाई जा रही यह मिथ्या धारणा यह है कि "भ्रष्टाचार आम जनता का दुश्मन नंबर एक है।" लेकिन यह पूरी तरह एक मिथ्या धारणा है, जिसे फ़ैलाने में और इस तरह साम्राज्यवादी थिंक-टैंकों को मदद करने के मामले में अण्णा-केजरीवाल की जोड़ी का कोई जवाब नहीं है। हम जानते हैं कि 1991 के बाद से ही, जब से "नयी आर्थिक नीति" और "नव उदारीकरण-भूमंडलीकरण" की हवा चली, राजकीय-सेक्टर को पूरी तरह से तोड़ देने, पूर्ण निजीकरण-बाज़ारीकरण को आगे बढ़ाने, कृषि, उद्योग और शिक्षा-स्वास्थ्य-बिजली-पानी-सड़क जैसी सामाजिक जरूरतों में निवेश से सरकार द्वारा अपने हाथ पूरी तरह खींच लेने और सभी चीज़ों को पूरी तरह बाज़ार की अंधी और बेरहम शक्तियों के हवाले कर देने की साजिशों को सरंजाम तक पहुंचाने के लिए "राज्य व सरकार के हस्तक्षेप", और "सरकारी उद्यमों व परियोजनाओं" पर भ्रष्टाचार और अक्षमता के हवाले से अँधाधुंध हमले शुरू किये गए। घोषणा की गयी कि सरकारी कार्यालय के भ्रष्टाचार और अक्षमता के कारन ही अविकास और गरीबी बनी हुई है और फैली है। एक सच को (कि सरकारी कार्यालयों में भ्रष्टाचार है) को एक बहुत बड़े झूठ को आगे बढाने, खुले और नग्न पूंजीवादी लूट पर आधारित और साम्राज्यवादी भूमंडलीकरण से प्रेरित नवउदारवाद-बाज़ारवाद-उपभोक्तावाद की मज़बूती से नींव रखने के लिए जनमानस को तैयार करने के काम में लगाया गया। साम्राज्यवादी एजेंटों - एनजीओवादियों और छद्म पूंजीवादी-उदारवादी सुधारकों की अनगिनत टोलियों को हरवों-हथियार के साथ मैदान में उतारा गया। ज्ञातव्य हो कि यह हमला आज भी बदस्तूर जारी है। ध्यान देने वाली बात है कि "अविकास, गरीबी और भ्रष्टाचार" के इस पूरे विमर्श में पूंजीवाद-साम्राज्यवाद द्वारा किये जा रहे मानवताविरोधी नृशंष अपराध कहीं भी शामिल नहीं हैं, बिलकुल ही नहीं। वर्ल्ड बैंक ने 1991 से लगातार अपने द्वारा प्रस्तुत किये गए वर्ल्ड डेवलपमेंट रिपोर्ट में भ्रष्टाचार को सामने रखकर निजी पूंजी और बाज़ार को खुली छूट देने की वकालत की। World Development Report 1991 में इसे सामने रखते हुए एक टोन सेट किया गया, जो अभी तक जारी है और हम पाते हैं कि अण्णा-केजरीवाला की भ्रष्टाचार-विरोधी भाषा और वर्ल्ड बैंक की भ्रष्टाचार-विरोधी भाषा में कोई अंतर नहीं है। वर्ल्ड बैंक की तरह अण्णा-केजरीवाल भी पूंजीवाद के अपराधों पर चुप्पी साध लेते हैं।
World Development Report 1991 में कहा गया था - "[c]orruption can rarely be reduced unless its large underlying causes are addressed.It flourishes in situations where domestic and international competition is suppressed, rules and regulations are excessive and discretionary, civil servants are underpaid, or
the organization they serve has unclear or conflicting objectives."
हम स्वयं देख सकते हैं कि इस रिपोर्ट में किस टोन (स्वर) में भ्रस्टाचार के विरोध की जरूरत को रेखांकित किया गया था। इसमें खुले तौर पर घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पूंजी के खुले निष्कंटक प्रवाह की जरूरत के साथ, 'अतिशय' सरकारी व राजकीय नियंत्रण व नियमन की व्यवस्था को ख़त्म व निरस्त करने की जरूरत के साथ और फिर खुले बाज़ार की शक्तियों के बीच खुली प्रतिस्पर्धा तथा निजीकरण की तथाकथित जरूरत के साथ भ्रष्टाचार विरोध के एजेंडे को जोड़ा गया है, मिलाया गया। भारत में 1991 से लेकर आज तक इसके हुए परिणामो को देखें तो हम पाते हैं कि अक्षरसः यही हुआ और आज भी हो रहा है। इस तरह भ्रष्टाचार के मुद्दे का उपयोग भ्रष्टाचार की जननी पूंजी और पूंजीवादी व्यवस्था के सर्वाधिक प्रतिक्रियावादी स्वरुप को आगे बढ़ाने के लिए किया गया।
हम पाते हैं कि 1991 के बाद से वर्ल्ड बैंक ने लगातार भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर लोगों का ध्यान पूंजीवाद के अपराधों से हटवाया, ताकि बेरोजगारी, गरीबी, भूख, कुपोषण और बदहाली से जूझती अवाम पूंजीवाद को नहीं अपने-अपने देश की सरकारों को निशाना बनाये। हम इसे क्रमवार दिखाते हैं। 1992 में भी, Governance and Development नाम से पेश अपनी रिपोर्ट में एक बार फिर करप्शन विरोध को मुद्दा बनाया गया और टास्क फाॅर्स बनाया गया। 1995 में जब James Wolfensohn इसके अध्यक्ष बने तो 1996 में उन्होंने खुलेआम करप्शन को "कैंसर" कहा और फिर उसके बाद बैंक की बोर्ड में ही इस विषय पर खुलकर बहस होने लगी। जब 1997-98 में East Asian crisis आया, तो फिर वर्ल्ड बैंक ने बड़ी चालाकी से इसका ठीकरा मुख्य रूप से करप्शन पर ही फोड़ा, जब कि यह संकट स्वयं पूंजीवादी-साम्राज्यवादी नीतियों की उपज था।
1997 में ही, वर्ल्ड डेवलपमेंट रिपोर्ट एक बार फिर आयी, जिसमें एक बार फिर करप्शन को मुख्य मुद्दा बनाया गया। इसी साल वर्ल्ड बैंक ने "Helping Countries to Combat Corruption" नामक एक पेपर को अपनी स्वीकृति देकर इसे एक बार फिर मुद्दा बना दिया। Anti-Corruption Reforms: Challenges, Effects and Limits of World Bank Support में कहा गया है -
"The OECD and the United Nations have also developed separate anti-corruption programs to assist governments in tackling the problem.3 Several bilateral development agencies have followed and placed anti-corruption high on their development agendas, including DFID, Norad, Sida, and the USAID.4 Improving governance and reducing corruption are today considered essential to helping poor people to escape poverty and countries to achieve the Millennium Development Goals (MDGs). This is an important change in focus of aid policy, but it remains to be seen whether it is possible for donors to find workable policy instruments to fight corruption."
इस तरह भ्रष्टाचार के खिलाफ जोर-जोर की जा रही चीख पुकार में भ्रष्टाचार की जननी पूंजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था को आम जनता के गुस्से से बचा लेने की छटपटाहट स्पष्ट देखी जा सकती है। हमलोग "जनलोकपाल" की मांग को मनवाने के लिए हुए संघर्ष व आंदोलन के दौरान अण्णा-केजरीवाल के शब्दों पर गौर करें तो ऐसा लगेगा मानो यह अरबिंद केजरीवाल नहीं वर्ल्ड बैंक ग्रुप का चेयरमैन Jim Yong Kim बोल रहा है, जिसने 13 दिसंबर को former World Bank President James D. Wolfensohn, former Chairman of the US Federal Reserve Paul Volcker, Chair of Transparency InternationalHuguette Labelle, and Secretary of Finance for the Philippines Cesar V. Purisima के समक्ष एक मीटिंग में यह कहा -
"the World Bank Group is more committed than ever to continue the fight against corruption -- and that will be a critical part of our work to end extreme poverty and to boost shared prosperity,” ऐसा लगता है, मानो यह वर्ल्ड बॅंक ग्रूप का अध्यक्ष किम नहीं, हमारा केजरीवाल बोल रहा है! केजरीवाल को क्या यह कहते हुए नहीं सुनते हैं कि वे भ्रस्टाचार को खत्म कर के गरीबी मिटा देंगे?और क्या यह महज़ यह संजोग है कि केजरीवाल-अण्णा - किम इन तीनों में से कोई भी मानवहन्ता पूंजीवाद के खिलाफ एक शब्द भी नहीं बोलता है ?
https://www.facebook.com/sarwaharasamajwad/posts/786299681399620
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अजय सिन्हा साहब का प्रस्तुत लेख अन्ना हज़ारे/केजरीवाल की पोल खोलने वाला है लेकिन उनका यह मानना कि हज़ारे भाजपा के साथ और केजरीवाल उनसे अब अलग हैं पर्याप्त नहीं है। हज़ारे/केजरीवाल आज भी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और दोनों की डोर RSS से बंधी हुई है। उपरोक्त समाचार में हज़ारे के बयान से भी इसकी पुष्टि हो जाती है बल्कि इनके पीछे वर्तमान पी एम साहब का ज़बरदस्त वरद हस्त है इसे भी ध्यान रखा जाना चाहिए। हज़ारे/केजरीवाल का भ्रष्टाचार आंदोलन RSS/मनमोहन की मिलीभगत का अंजाम था । मनमोहन और मोदी की अलोकप्रियता के मद्देनजर केजरीवाल को उभारा गया है और सारा नाटक देश की साधारण जनता को उल्टे उस्तरे से मूढ़ने हेतु खेला जा रहा है।
~विजय राजबली माथुर ©
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Tuesday, February 11, 2014
दिल्ली के तख्त पर तमिल दावेदारी किसकी रेखा अथवा जयललिता की?---विजय राजबली माथुर
"राज्येश'बुध' की महादशा मे 12 अगस्त 2010 से 23 फरवरी 2017 तक की अंतर्दशाये भाग्योदय कारक,अनुकूल सुखदायक और उन्नति प्रदान करने वाली हैं। 24 फरवरी 2017 से 29 जून 2017 तक बुध मे 'सूर्य' की अंतर्दशा रहेगी जो लाभदायक राज्योन्नति प्रदान करने वाली होगी।
अभी तक रेखा के किसी भी राजनीतिक रुझान की कोई जानकारी किसी भी माध्यम से प्रकाश मे नहीं आई है ,किन्तु उनकी कुंडली मे प्रबल राज्य-योग हैं। जब ग्रहों के दूसरे परिणाम चरितार्थ हुये हैं तो निश्चित रूप से इस राज्य-योग का भी लाभ मिलना ही चाहिए।"
19 अप्रैल 2012 को इसी ब्लाग में मैंने यह विश्लेषण दिया था और 26 अप्रैल 2012 को तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल जी ने 'रेखा'जी को राज्यसभा सदस्य मनोनीत करने की घोषणा कर दी थी। इस निष्कर्ष को देखते हुये जयललिता जी की अपेक्षा यदि वांम मोर्चा ने 'रेखा जी' को आगे करके तमिल पी एम की कल्पना की होती तो स्थिति लाभप्रद रहती। किन्तु जब ज्योतिष को मानते नहीं तो उसके निष्कर्ष पर कैसे ध्यान दे सकते थे? अब हो सकता है कि इन्दिरा कांग्रेस रेखा को आगे करके लाभ उठा ले।
'रेखा जी' के अतिरिक्त एक और महिला( जिनसे वांम मोर्चा नफरत रख रहा है ) ममता बनर्जी का समय भी उनके अनुकूल चल रहा है। रण-नीति का तक़ाज़ा था कि 'गैर भाजापा' और 'गैर कांग्रेस'मोर्चे का नेता ममता जी को स्वीकार करके दोनों को परास्त किया जाता। किन्तु राजनीतिक लाभ को नहीं व्यक्तिगत द्वेष को वरीयता देने से हानि उठानी पड़ सकती है क्योंकि यहाँ भी हो सकता है कि कांग्रेस घोषित न सही तो अघोषित तालमेल ममता जी से बैठा कर लाभदायक स्थिति अपने लिए बना सकती है। इसी ब्लाग में इस संबंध में विश्लेषण पूर्व प्रकाशित है:
"अखबारी विश्लेषण से अलग मेरा विश्लेषण यह है कि जन्म के बाद ममता जी की 'चंद्र महादशा' 07 वर्ष 08 आठ माह एवं 07 दिन शेष बची थी। इसके अनुसार 03 जूलाई 2010 से वह 'शनि'महादशांतर्गत 'शुक्र' की अंतर्दशा मे 03 सितंबर 2013 तक चलेंगी। यह उनका श्रेष्ठत्तम समय है। इसी मे वह मुख्य मंत्री बनी हैं। 34 वर्ष के मजबूत बामपंथी शासन को उखाड़ने मे वह सफल रही हैं तो यह उनके अपने ग्रह-नक्षत्रों का ही स्पष्ट प्रभाव है।
इसके बाद पुनः 'सूर्य' की शनि मे अंतर्दशा 15 अगस्त 2014 तक उनके लिए अनुकूल रहने वाली है और लोकसभा के चुनाव इसी अवधि के मध्य होंगे। केंद्र (दशम भाव मे )'शनि' उनको 'शश योग' प्रदान कर रहा है जो 'राज योग' है।"
~विजय राजबली माथुर ©
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Saturday, February 8, 2014
इन दो खबरों की चर्चा क्यों ज़रूरी है ?---विजय राजबली माथुर
Face Book:06 Feb.2014 ---
उपरोक्त तीन चित्रों से ही सारी स्थिति स्पष्ट है। परंतु प्रत्येक व्यक्ति अपनी सोच व समझ के अनुसार अलग-अलग विश्लेषण करता है। जहां एक ओर परस्पर एकजुट 11 दल इसके महत्व को रेखांकित करते हैं वहीं दूसरी ओर इनके विरोधी इनके अंतर्विरोधों को उजागर करते हैं। जहां इन ग्यारह दलों का एका सांप्रदायिकता को रोकने के विरोध में बताया जा रहा है वहीं इस बीच में ही इनमें से एक महत्वपूर्ण दल-भाकपा के लखनऊ -ज़िला मंत्री रह चुके ,बाद में राष्ट्रवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सर्वे-सर्वा बने,मुलायम सिंह मंत्रीमंडल के पूर्व सदस्य कौशल किशोर जी ने अपनी पार्टी का भाजपा में विलय करते हुये भाजपा को कांग्रेस,बसपा व सपा से कम सांप्रदायिक बताया है।
निश्चय ही अपने-अपने स्वार्थों के अनुसार परिस्थितियों का विश्लेषण किया जाएगा। तब भी जो महत्वपूर्ण बात है वह यह है कि भाकपा में महत्वपूर्ण पदाधिकारी रहा व्यक्ति भाजपा में सहर्ष कैसे चला गया? हालांकि पहले भी भाकपा छोड़ कर एक महिला वकील भाजपा सरकार में मंत्री रही हैं । ऐसा क्यों होता है क्या सिर्फ व्यक्तिगत स्वार्थों के कारण ही? फिर कम्युनिस्ट नैतिकता का क्या हुआ? साम्राज्यवाद के विरोधी साम्यवाद का सिपाही कैसे साम्राज्यवाद की सहोदरी सांप्रदायिकता का वरण कर लेता है? इस प्रश्न का जवाब देने से बचने हेतु स्वार्थ-लोलुपता का आरोप लगा देना बेहतर रहता है और वही किया गया है।
चन्द्र्जीत यादव भाकपा छोड़ कर कांग्रेस सरकार में मंत्री बने तब भी यही आरोप था। मित्रसेन यादव और रामचन्द्र बख्श सिंह भाकपा से अलग हुये तब भी यही आरोप था। लेकिन इस आरोप पर भी ध्यान देने की नितांत आवश्यकता है:
Face Book : 06-02-2014 ---
'आत्मालोचना' की चर्चा कम्युनिस्टों में आम बात है। लेकिन दलितों-पिछड़ों की उपेक्षा से संबन्धित आत्मालोचना की आवश्यकता शायद उचित नहीं समझी गई है। डॉ अंबेडकर क्यों नहीं कम्युनिस्ट बन सके इस बात की आत्मालोचना करने के बजाए उनको ही साम्राज्यवाद का पोषक घोषित कर दिया गया है। क्यों डॉ अंबेडकर को यह कहना पड़ा कि हिन्दू के रूप में उनका जन्म न होता यह तो उनके बस में न था किन्तु हिन्दू के रूप में मृत्यु न हो यह उनके बस में है? और इसी लिए मृत्यु से छह माह पूर्व उन्होने 'बौद्ध मत'ग्रहण कर लिया था। गौतम बुद्ध को क्यों प्रचलित कुरीतियों के विरोध में मुखर होना पड़ा और वे कुरीतियाँ क्यों और किसके हित में प्रचलित की गई थीं इस तथ्य पर ध्यान दिये बगैर केवल 'एथीस्ट' कहने या 'मार्क्स' का जाप करते रहने से भारत में 'साम्यवाद' को स्थापित नहीं किया जा सकता -न ही संसदीय लोकतन्त्र के जरिये और न ही सशस्त्र क्रान्ति के जरिये। यदि पारस्परिक फूट से साम्राज्यवाद 1857 की क्रांति को कुचलने में कामयाब न होता तो महात्मा गांधी को 'सत्य-अहिंसा' की आवाज़ न बुलंद करनी पड़ती। जब साम्राज्यवाद विरोधी आपस में भिड़ कर खुद को कमजोर करते जाएँगे तब साम्राज्यवाद को खुद को मजबूत करने का अधिक प्रयत्न भी नहीं करना पड़ेगा और जनता आसानी से गुमराह होती जाएगी।
देशी-विदेशी कारपोरेट/RSS/मनमोहन गठजोड़ ने बड़ी चालाकी से आ आ पा/केजरीवाल को विकल्प के रूप में साम्राज्यवादी हितों के मद्देनजर खड़ा कर दिया है तथा साम्यवादी दलों में शामिल 'ब्राह्मणवादी' खुल कर उनका समर्थन कर रहे हैं । उत्तर-प्रदेश भाकपा का तिवारी/पांडे गुट जो मुलायम सिंह की आड़ में वरिष्ठ कामरेड बर्द्धन जी एवं प्रदेश के ही जुझारू नेता अनजान साहब के विरुद्ध अनर्गल अभियान चलाये हुये था अब आ आ पा /केजरीवाल के समर्थन में अभियान चलाये हुये है। इसी गुट ने दिवंगत कामरेड जंग बहादुर व कामरेड झारखण्डे राय की मूर्तियों का मुलायम सिंह जी द्वारा अनावरण होने से रुकवा दिया जबकि दिवंगत कामरेड सरजू पांडे की मूर्ती का अनावरण मुलायम सिंह जी द्वारा पूर्व में सम्पन्न हो चुका था। इसके पीछे कौन सी मनोदशा हो सकती है समझना कठिन नहीं है। वैसे एथीस्ट कम्युनिस्ट कैसे मूर्ती-पूजक हो गए? यह भी विचारणीय होना चाहिए क्योंकि 'पदार्थ-विज्ञान (MATERIAL-SCIENCE) पर आधारित यज्ञ-हवन का तो मखौल एथीस्ट के नाम पर ही उड़ाया जाता है।
1925 में जबसे भारत में कम्युनिस्ट पार्टी का प्रादुर्भाव हुआ है तभी से ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने अपने हितार्थ RSS का गठन इसकी काट के लिए करवा लिया था। 1930 में डॉ लोहिया/जयप्रकाश नारायण/आचार्य नरेंद्र देव की 'कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी' (जिसकी उत्तराधिकारी आज की 'सपा' है) भी कम्युनिस्ट प्रभाव को क्षीण करने हेतु ही गठित हुई थी। डॉ लोहिया और जयप्रकाश जी की मदद से ही RSS भारतीय राजनीति में प्रभावी भूमिका में आ सका है फिर भी उनके उत्तराधिकारी जिनके संबंध भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह व बाबरी ध्वंस के लिए उत्तरदाई कल्याण सिंह से मधुर बने हुये हैं को साप्रदायिकता का प्रबल प्रतिरोधक बताया जा रहा है क्यों? क्यों केरल की जन्मना ब्राह्मण जयललिता जी को अघोषित रूप से भावी पी एम बनाने की पहल है? क्यों नहीं उनके बजाए मायावती जी को पी एम बनाने की पहल हुई? यह चुनाव एक ऐतिहासिक अवसर लेकर आ रहा है जब कम्युनिस्ट आंदोलन डॉ अंबेडकर की उपेक्षा के आरोप से उबरने हेतु मायावती का समर्थन करके लाभान्वित होने की कोशिश कर सकता था।
तामिलनाड में यदि इन्दिरा कांग्रेस ने राज्यसभा सदस्य रेखा जी जिनका राजनीतिक समय अभी काफी अच्छा चल रहा है को प्रचार में आगे कर दिया तो सी एन अन्नादुराई का 1967 से स्थापित चमत्कार इस बार समाप्त हो सकता है । क्या एक मार्क्सवादी विचारक जेमिनी गणेशन की पुत्री होने के कारण रेखा साम्यवादी दलों का समर्थन नहीं प्राप्त कर सकती थीं?
इसी प्रकार पश्चिम बंगाल में यदि वामपंथी मोर्चा ममता बनर्जी से तालमेल करके चुनाव लड़ता तो वहाँ की सभी सीटों पर जीत हासिल करता। सहृदयता और सादगी की छाप ममता जी में निम्न चित्र में उनकी हस्त-रेखाओं द्वारा स्पष्ट समझी जा सकती है। फिर ब्राह्मण जयललिता के मुक़ाबले ब्राह्मण ममता बनर्जी क्यों कुबूल नहीं हुईं?:
यदि यहाँ भी चतुर कांग्रेस ने ममता बनर्जी से अंदरूनी ही सही तालमेल कर लिया और उत्तर प्रदेश में मायावती से तो क्या स्थिति वही रहेगी जिसकी 11 दलीय मोर्चा की स्थापना में कल्पना की गई है? जनार्दन दिवेदी जी का यह बयान कि 2009 में कांग्रेस को सरकार बनाने की बजाए विपक्ष में बैठना चाहिए था यों ही नहीं दिया गया है। इसके निहितार्थ समझे जाने चाहिए कि इस कार्यकाल में जो कुछ भी गलत हुआ है उसके लिए केवल और केवल मनमोहन जी उत्तरदाई हैं न कि इंदिरा कांग्रेस। 2009 में सोनिया जी ने प्रणव मुखर्जी साहब को पी एम बनाना चाहा था किन्तु मनमोहन जी दुबारा बनने के लिए अड़े हुये थे और भय यह भी था कि वह बदले जाने की स्थिति में भाजपा के समर्थन से डटे रह सकते हैं। बीच में भी जब उनको राष्ट्रपति बनाने की कोशिश हुई तो ममता जी के सहज भाव से प्रेस में कह देने के कारण वह एलर्ट हो गए और जापान से लौटते में विमान में ही पत्रकार वार्ता में कह दिया कि वह जहां हैं वहीं ठीक हैं अर्थात यदि उनको हटाने का प्रयास हुआ तो वह भाजपा के समर्थन से डटे रहेंगे। उन्होने बड़ी चतुराई से हज़ारे द्वारा भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन खड़ा करवा दिया जिसकी उपज आ आ पा/केजरीवाल हैं। उनसे मुक्ति पाने के लिए इस बार कांग्रेस के पास विकल्प किसी अन्य दल के नेता को समर्थन देना ही बचता है और इस दृष्टि से ममता बनर्जी ज़्यादा अनुकूल स्थिति में रहेंगी। इस तथ्य पर ज़रा सा भी गौर नहीं किया गया है।
संसदीय साम्यवादी आंदोलन के कमजोर होने का अर्थ क्रांतिकारी गुटों को सबलता प्रदान करना है जिनको कुचलना कारपोरेट समर्थक सरकारों के लिए बहुत आसान होगा। आने वाले समय में उत्पीड़ित -शोषित जनता यदि इन क्रांतिकारी साम्यवादियों के समर्थन में खड़ी हो जाये तो ये सफलता की ओर भी बढ़ सकते हैं किन्तु उस दशा में कारपोरेट के समर्थन से RSS खुल कर इनके प्रतिरोध में हिंसा भड़का देगा और देश गृह-युद्ध की विभीषिका में फंस सकता है जिसका सीधा-सीधा लाभ अंतर्राष्ट्रीय साम्राज्यवादी शक्तियों को मिलेगा। अभी भी समय है कि संसदीय साम्यवादी आंदोलन समय की नज़ाकत को पहचान कर कदम बढ़ा सकता है और संसदीय लोकतन्त्र व देश की रक्षा कर सकता है।
~विजय राजबली माथुर ©
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Tuesday, February 4, 2014
'नीर में शरीर तो उतारिए!वर्तमान को अभी संवारिए!!' : कहते हैं डॉ डंडा लखनवी जी ---विजय राजबली माथुर
बसंत पंचमी को विद्या की देवी सरस्वती उपासना के साथ भी जोड़ा जाता है। यह संसार एक पाठशाला है और यहाँ निरंतर विद्याध्यन चलता रहता है। यही संसार नित्य परीक्षालय भी है और यहाँ नित्य परीक्षाएं भी चलती रहती हैं। परमात्मा और प्रकृति एक प्रेक्षक (इनविजिलेटर) की भांति प्रत्येक मनुष्य के द्वारा अर्जित ज्ञान के आधार पर प्रत्येक 'कर्म' को देखते हुये भी उसकी परीक्षा के दौरान रोकते -टोकते नहीं हैं। किन्तु यही परमात्मा और प्रकृति उस व्यक्ति के संसार छोडने पर उस व्यक्ति द्वारा सम्पन्न-कर्म(सदकर्म एवं दुष्कर्म) तथा अकर्म के आधार पर उसका एक परीक्षक (एग जामनर) के तौर पर मूल्यांकन करके उसकी आत्मा हेतु आगामी जन्म का निर्धारण करते हैं। कोई भी 'मनुष्य' केवल मनन करने के ही कारण मनुष्य होता है अन्यथा उसमें एवं अन्य प्राणियों में कोई अंतर नहीं है।
मननशील मनुष्यों में परोपकार -परमार्थ के गुण विद्यमान रहते हैं और उनके 'कर्म' स्व पर न केन्द्रित होकर समष्टि -हित पर आधारित होते हैं। ऐसे ही एक विद्वान महापुरुष हैं डॉ डंडा लखनवी जी। डॉ साहब से मेरा परिचय सोशल मीडिया 'फेसबुक' के माध्यम से उनके लेखन के आधार पर हुआ है। लखनऊ में ही रहने के कारण कई गोष्ठियों में उनसे व्यक्तिगत रूप से भी मुलाक़ात होती रही है और हर बार उनसे आत्मीयता का अनुभव होता रहा है। गत वर्ष फेसबुक के माध्यम से ही आदरणीया भाभी जी (श्रीमती सुमन वर्मा) के निधन की सूचना प्राप्त हुई तो स्वंय को उनके घर जाने से न रोक सका हालांकि इससे पूर्व बेहद इच्छा के बावजूद जाना न हो सका था। फिर थोड़ी देर के लिए 'शांति-हवन' के अवसर पर भी उनके घर गया था। तब से फिर डॉ साहब से दोबारा मिलने की सोचते-सोचते 30 जनवरी 2014 को उनके दर्शन प्राप्त करने जा सका। यह डॉ डंडा लखनवी साहब की आत्मीयता ही है कि उन्होने अपनी ज्ञानवर्द्धक पुस्तक 'बड़े वही इंसान' मुझे आशीर्वाद स्वरूप भेंट की। 1995 में प्रकाशित इस पुस्तक के संबंध में स्व.शिवशंकर मिश्र जी ने लिखा है :
'प्रस्तुत संकलन की सभी रचनाएँ एक नए जीवन की सृष्टि करती हैं और एक नई विचार-धारा का सूत्रपात। 'कृतु'के समान इन रचनाओं में कवि ने अपने भावों को नहीं आत्मा को स्वर और स्वरूप दिया है। इस कृति के कुछ गीत और गीतों की टेक गंधमादन के समान आकर्षक और पाठकों को मंत्र मुग्ध करती है। सभी रचनाओं में भारतीय संस्कृति निर्झर्णी बनकर प्रवाहमान है। कवि की इन बहुरंगी कविताओं का चिंतन बिन्दु एक ही है,जिसे भगवान बुद्ध ने अपने ढंग से यूं कहा था-'जब स्व और समष्टि के बीच का भेद दूर हो जाता है तब दोनों के हित एक साथ मिल जाते हैं और फिर विभेद वैसे ही लुप्त हो जाते हैं जैसे वर्षा के आगमन के साथ उष्णता।'..."
डॉ शम्भूनाथ जी ने लिखा है-"श्री लखनवी के प्रस्तुत गीत-संकलन की रचनाएँ जहां अंधकार की शक्तियों से जूझने के लिए जीवटता प्रदान करती हैं ,वहीं मूल्यों एवं मर्यादाओं से संस्कारित उनकी दृष्टि आलोक पथ की ओर बढ्ने हेतु उत्प्रेरित भी करती है। "
डॉ तुकाराम वर्मा जी लिखते हैं-"निश्चित रूप से आपके द्वारा विरचित 'बड़े वही इंसान'-गीत संकलन भावी पीढ़ी के लिए ऊर्जादायक दिशाबोधक तथा साहित्यकारों के लिए प्रेरणा-स्त्रोत सिद्ध होगा। "
और खुद डॉ डंडा लखनवी जी कहते हैं-
"एक गुलामी तन की है,एक गुलामी मन की है।
इन दोनों से जटिल गुलामी ,बंधे हुये चिंतन की है। । "
.......... "जन -जन को यह कृति बड़ा इंसान बनाने में सहायक हो यही आकांक्षा है। "
विद्या पर्व 'बसंत पंचमी ' के अवसर पर उनकी कुछ अत्यावश्यक ज्ञानवर्द्धक रचनाएँ इस ब्लाग के माध्यम से प्रस्तुत करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ:
सोई हुई मानवता को जगाने के लिए उनका यह दिव्य संदेश कितना उत्प्रेरक है ;देखिये:
~विजय राजबली माथुर ©
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मननशील मनुष्यों में परोपकार -परमार्थ के गुण विद्यमान रहते हैं और उनके 'कर्म' स्व पर न केन्द्रित होकर समष्टि -हित पर आधारित होते हैं। ऐसे ही एक विद्वान महापुरुष हैं डॉ डंडा लखनवी जी। डॉ साहब से मेरा परिचय सोशल मीडिया 'फेसबुक' के माध्यम से उनके लेखन के आधार पर हुआ है। लखनऊ में ही रहने के कारण कई गोष्ठियों में उनसे व्यक्तिगत रूप से भी मुलाक़ात होती रही है और हर बार उनसे आत्मीयता का अनुभव होता रहा है। गत वर्ष फेसबुक के माध्यम से ही आदरणीया भाभी जी (श्रीमती सुमन वर्मा) के निधन की सूचना प्राप्त हुई तो स्वंय को उनके घर जाने से न रोक सका हालांकि इससे पूर्व बेहद इच्छा के बावजूद जाना न हो सका था। फिर थोड़ी देर के लिए 'शांति-हवन' के अवसर पर भी उनके घर गया था। तब से फिर डॉ साहब से दोबारा मिलने की सोचते-सोचते 30 जनवरी 2014 को उनके दर्शन प्राप्त करने जा सका। यह डॉ डंडा लखनवी साहब की आत्मीयता ही है कि उन्होने अपनी ज्ञानवर्द्धक पुस्तक 'बड़े वही इंसान' मुझे आशीर्वाद स्वरूप भेंट की। 1995 में प्रकाशित इस पुस्तक के संबंध में स्व.शिवशंकर मिश्र जी ने लिखा है :
'प्रस्तुत संकलन की सभी रचनाएँ एक नए जीवन की सृष्टि करती हैं और एक नई विचार-धारा का सूत्रपात। 'कृतु'के समान इन रचनाओं में कवि ने अपने भावों को नहीं आत्मा को स्वर और स्वरूप दिया है। इस कृति के कुछ गीत और गीतों की टेक गंधमादन के समान आकर्षक और पाठकों को मंत्र मुग्ध करती है। सभी रचनाओं में भारतीय संस्कृति निर्झर्णी बनकर प्रवाहमान है। कवि की इन बहुरंगी कविताओं का चिंतन बिन्दु एक ही है,जिसे भगवान बुद्ध ने अपने ढंग से यूं कहा था-'जब स्व और समष्टि के बीच का भेद दूर हो जाता है तब दोनों के हित एक साथ मिल जाते हैं और फिर विभेद वैसे ही लुप्त हो जाते हैं जैसे वर्षा के आगमन के साथ उष्णता।'..."
डॉ शम्भूनाथ जी ने लिखा है-"श्री लखनवी के प्रस्तुत गीत-संकलन की रचनाएँ जहां अंधकार की शक्तियों से जूझने के लिए जीवटता प्रदान करती हैं ,वहीं मूल्यों एवं मर्यादाओं से संस्कारित उनकी दृष्टि आलोक पथ की ओर बढ्ने हेतु उत्प्रेरित भी करती है। "
डॉ तुकाराम वर्मा जी लिखते हैं-"निश्चित रूप से आपके द्वारा विरचित 'बड़े वही इंसान'-गीत संकलन भावी पीढ़ी के लिए ऊर्जादायक दिशाबोधक तथा साहित्यकारों के लिए प्रेरणा-स्त्रोत सिद्ध होगा। "
और खुद डॉ डंडा लखनवी जी कहते हैं-
"एक गुलामी तन की है,एक गुलामी मन की है।
इन दोनों से जटिल गुलामी ,बंधे हुये चिंतन की है। । "
.......... "जन -जन को यह कृति बड़ा इंसान बनाने में सहायक हो यही आकांक्षा है। "
विद्या पर्व 'बसंत पंचमी ' के अवसर पर उनकी कुछ अत्यावश्यक ज्ञानवर्द्धक रचनाएँ इस ब्लाग के माध्यम से प्रस्तुत करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ:
~विजय राजबली माथुर ©
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