कल 30 मई को दिल्ली से चला आंधी तूफान आगरा आदि होते हुये रात्रि में लखनऊ में भी कुछ असर दिखा गया। मौसम विभाग के अनुसार 31 मई और 1 जून को भी बूँदा-बाँदी व आंधी प्रकोप हो सकता है।मई के महीने में उमस भरी गर्मी हो रही है अलबत्ता लू-प्रकोप कुछ कम है। यह सब जलवायु परिवर्तन का ही परिणाम है।
नई दुनिया छोड़ कर जब डॉ राजेन्द्र माथुर साहब ने नवभारत टाईम्स के प्रधान संपादक का दायित्व ले लिया था तब एक सम्पादकीय लेख में उन्होने पर्यावरण के संबंध में चेतावनी दी थी कि यदि ऐसे ही चलता रहा तो अगले बीस वर्षों में देश की जलवायु बदल जाएगी।उनकी चेतावनी से समाज कुछ भी नहीं बदला बल्कि पर्यावरण -प्रदूषण पहले से भी ज़्यादा बढ़ गया है। नदियां अब नालों में परिवर्तित हो चुकी हैं। अति वर्षा,अति सूखा, अति शीत,भू-स्खलन,बाढ़ आदि प्रकोप जीवनचर्या का अंग बन चुके हैं। 'गंगा की सफाई' के लिए स्वामी निगमानंद का बलिदान हो चुका है और अब इज़राईल की दिलचस्पी गंगा की सफाई में है। इज़राईल आर एस एस का प्रिय देश है उसे यह ठेका मिल भी सकता है।
हालांकि प्रगतिशीलता व वैज्ञानिकता की आड़ में बुद्धिजीवियों का एक प्रभावशाली तबका 'ज्योतिष' की कड़ी निंदा व आलोचना करता है। परंतु ज्योतिष=ज्योति +ईश अर्थात ज्ञान -प्रकाश देने वाला विज्ञान। जिस प्रकार ग्रह-नक्षत्रों का प्रभाव मानव समेत सभी प्राणियों व वनस्पतियों पर पड़ता है उसी प्रकार मानवों के कार्य-व्यवहार से ग्रह-नक्षत्र भी प्रभावित होते हैं। इसे एक छोटे उदाहरण से यों समझें:
एक बाल्टी पानी में एक गिट्टी उछाल दें तो हमें तरंगें दीखती हैं परंतु वही गिट्टी नदी या समुद्र में डालने पर हमें तरंगें नहीं दीखती हैं परंतु बनती तो हैं। वैसे ही मानवों के कार्य-व्यवहार से ग्रह-नक्षत्र प्रभावित होते हैं। जिसका पता प्रकृति में होने वाली उथल-पुथल से चलता है। कुम्भ,मेलों की भगदड़,केदारनाथ आदि में ग्लेशियरों का फटना आदि इन मानवीय दुर्व्यवस्थाओं के ही दुष्परिणाम हैं।
प्रकृति के नियमों का पालन करना ही धर्म है। धर्म=धारण करने हेतु आवश्यक । मानव जीवन और मानव समाज को धरण करने हेतु आवश्यक है कि 'सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य का पालन किया जाये -यही धर्म है। परंतु 'एथीस्टवाद' के कारण इसे नकार दिया जाता है और ढोंग-पाखंड-आडंबर को धर्म की संज्ञा दी जाती है जबकि वह तो व्यापारियों/उद्योगपतियों द्वारा जनता की लूट व शोषण के उपबन्ध हैं। किसी भी एथीस्ट व प्रगतिशील में इतना साहस नहीं है कि वह इस ढोंग-पाखंड-आडंबर का विरोध करके वास्तविक 'धर्म' से जनता को परिचित कराये बल्कि जो ऐसा करता है उसी को ये प्रगतिशील व एथीस्ट अपने निशाने पर रखते हैं जिस कारण जनता दिग्भ्रमित होकर अपना शोषण करवाती रहती है।दूसरी तरफ प्राकृतिक विषमता का दुष्परिणाम अलग से समाज को झेलना पड़ता है जिसमें पुनः शोषित जनता का ही सर्वाधिक उत्पीड़न होता है।
डॉ शिखा सिंह ने एक रिपोर्ट द्वारा एक जागरूक नागरिक के प्रकृति अनुकूल स्तुत्य कृत्यों का सराहनीय वर्णन प्रस्तुत किया है। :
जाधव
पायेंग , असम के एक गरीब आदिवासी परिवार में पैदा हुए , महज़ दसवीं पास
शक्सियत , आज "Forest man of India" के नाम से जाना जाता है ! इस वननायक ने
पिछले तीस वर्षों में ब्रह्मपुत्र के बंजर किनारों पर 1360 एकड़ के जंगल
रोपे जिनमें बाघ , चीते , हाथी व कई प्रकार के अन्य पशु पक्षी बसते हैं !
ये है इस देश के आदिवासी समाज की विरासत जिसने सदियों से जल जंगल ज़मीन की
रक्षा की ! जिस दिन दुनिया का बच्चा बच्चा जाधव पायेंग बन जाएगा उस दिन ये
कुरूप धरती दोबारा खिल उठेगी! जाधव पायेंग पर बनी documentary:
https://www.facebook.com/permalink.php?story_fbid=419196404888080&id=100003931716337
~विजय राजबली माथुर ©
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Saturday, May 31, 2014
Tuesday, May 27, 2014
प्रियंका-राहुल को राजनीति में रहना है तो समझ लें उनके पिता व दादी के कृत्यों का प्रतिफल है नई सरकार का सत्तारोहण ---विजय राजबली माथुर
नेहरू जी की 51वीं पुण्य तिथि पर विशेष :
जिस प्रकार किसी वनस्पति का बीज जब बोया जाता है तब अंकुरित होने के बाद वह धीरे-धीरे बढ़ता है तथा पुष्पवित,पल्लवित होते हुये फल भी प्रदान करता है। उसी प्रकार जितने और जो कर्म किए जाते हैं वे भी समयानुसार सुकर्म,दुष्कर्म व अकर्म भेद के अनुसार अपना फल प्रदान करते हैं। यह चाहे व्यक्तिगत,पारिवारिक,सामाजिक,राजनीतिक क्षेत्र में हों अथवा व्यवसायिक क्षेत्रों में। पालक,गन्ना और गेंहू एक साथ बोने पर भी भिन्न-भिन्न समय में फलित होते हैं। उसी प्रकार विभिन्न कर्म एक साथ सम्पन्न होने पर भी भिन्न-भिन्न समय में अपना फल देते हैं। 16 वीं लोकसभा चुनावों में भाजपा की सफलता का श्रेय RSS को है जिसको राजनीति में मजबूती देने का श्रेय इंदिरा जी व राजीव जी को जाता है। आज से 50 वर्ष पूर्व 27 मई 1964 को देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू का निधन हुआ था। कार्यवाहक प्रधानमंत्री गुलज़ारी लाल नन्दा को यदि कांग्रेस अपना नेता चुन कर स्थाई प्रधानमंत्री बना देती तो कांग्रेस की स्थिति सुदृढ़ रहती किन्तु इन्दिरा जी पी एम नहीं बन पातीं। इसलिए समाजवाद के घोर विरोधी लाल बहादुर शास्त्री जी को पी एम पद से नवाजा गया था जिंनका 10/11 जनवरी 1966 को ताशकंद में निधन हो गया फिर कार्यावाहक पी एम तो नंदा जी ही बने किन्तु उनकी चारित्रिक दृढ़ता एवं ईमानदारी के चलते उनको कांग्रेस संसदीय दल का नेता न बना कर इंदिराजी को पी एम बनाया गया। 1967 के चुनावों में उत्तर भारत के अनेक राज्यों में कांग्रेस की सरकारें न बन सकीं। केंद्र में मोरारजी देसाई से समझौता करके इंदिराजी पुनः पी एम बन गईं। अनेक राज्यों की गैर-कांग्रेसी सरकारों में 'जनसंघ' की साझेदारी थी। उत्तर प्रदेश में प्रभु नारायण सिंह व राम स्वरूप वर्मा (संसोपा) ,रुस्तम सैटिन व झारखण्डे राय(कम्युनिस्ट ),प्रताप सिंह (प्रसोपा),पांडे जी आदि (जनसंघ) सभी तो एक साथ मंत्री थे। बिहार में ठाकुर प्रसाद(जनसंघ ),कर्पूरी ठाकुर व रामानन्द तिवारी (संसोपा ) एक साथ मंत्री थे। मध्य प्रदेश में भी यही स्थिति थी। इन्दिरा जी की नीतियों से कांग्रेस को जो झटका लगा था उसका वास्तविक लाभ जनसंघ को हुआ था। जनसंघी मंत्रियों ने प्रत्येक राज्य में संघियों को सरकारी सेवा में लगवा दिया था जबकि सोशलिस्टों व कम्युनिस्टों ने ऐसा नहीं किया कि अपने कैडर को सरकारी सेवा में लगा देते।
1974 में जब जय प्रकाश नारायण गुजरात के छात्र आंदोलन के माध्यम से पुनः राजनीति में आए तब संघ के नानाजी देशमुख आदि उनके साथ-साथ उसमें शामिल हो गए।
1977 में मोरारजी देसाई की जनता पार्टी की केंद्र सरकार में आडवाणी व बाजपेयी साहब जनसंघ कोटे से तो राजनारायन संसोपा कोटे से मंत्री थे। बलराज माधोक तो मोरारजी देसाई को 'आधुनिक श्यामा प्रसाद मुखर्जी' कहते थे। जनसंघी मंत्रियों ने सूचना व प्रसारण तथा विदेश विभाग में खूब संघी प्रविष्ट करा दिये थे।
1977 में उत्तर प्रदेश में राम नरेश यादव (वर्तमान राज्यपाल-मध्य प्रदेश) की जनता पार्टी सरकार में कल्याण सिंह(जनसंघ),मुलायम सिंह(संसोपा ) आदि सभी एक साथ मंत्री थे। पूर्व जनसंघ गुट के मंत्रियों ने संघियों को सरकारी सेवाओं में खूब एडजस्ट किया था।
1975 में संघ प्रमुख मधुकर दत्तात्रेय 'देवरस' ने जेल से बाहर आने हेतु इंदिराजी से एक गुप्त समझौता किया कि भविष्य में संकट में फँसने पर वह इंदिराजी की सहायता करेंगे। और उन्होने अपना वचन निभाया 1980 में संघ का पूर्ण समर्थन इन्दिरा कांग्रेस को देकर जिससे इंदिराजी पुनः पी एम बन सकीं।परंतु इसी से प्रतिगामी नीतियों पर चलने की शुरुआत भी हो गई 'श्रम न्यायालयों' में श्रमिकों के विरुद्ध व शोषक व्यापारियों /उद्योगपतियों के पक्ष में निर्णय घोषित करने की होड लग गई।इंदिराजी की हत्या के बाद 1984 में बने पी एम राजीव गांधी साहब भी अपनी माता जी की ही राह पर चलते हुये कुछ और कदम आगे बढ़ गए । अरुण नेहरू व अरुण सिंह की सलाह पर राजीव जी ने केंद्र सरकार को एक 'कारपोरेट संस्थान' की भांति चलाना शुरू कर दिया था।आज 2014 में नई सरकार कारपोरेट के हित में जाती दिख रही है तो यह उसी नीति का ही विस्तार है।
1989 में उन्होने सरदार पटेल द्वारा लगवाए विवादित बाबरी मस्जिद/राम मंदिर का ताला खुलवा दिया। बाद में वी पी सिंह की सरकार को बाहर से समर्थन देने के एवज में भाजपा ने स्वराज कौशल (सुषमा स्वराज जी के पति) जैसे लोगों को राज्यपाल जैसे पदों तक नियुक्त करवा लिया था। सरकारी सेवाओं में संघियों की अच्छी ख़ासी घुसपैठ करवा ली थी।
आगरा पूर्वी विधान सभा क्षेत्र मे 1985 के परिणामों मे संघ से संबन्धित क्लर्क कालरा ने किस प्रकार भाजपा प्रत्याशी को जिताया वह कमाल पराजित घोषित कांग्रेस प्रत्याशी सतीश चंद्र गुप्ता जी के अलाहाबाद हाई कोर्ट में चुनौती देने से उजागर हुआ। क्लर्क कालरा ने नीचे व ऊपर कमल निशान के पर्चे रख कर बीच में हाथ का पंजा वाले पर्चे छिपा कर गिनती की थी जो जजों की निगरानी में हुई पुनः गणना में पकड़ी गई। भाजपा के सत्य प्रकाश'विकल' का चुनाव अवैध घोषित करके सतीश चंद्र जी को निर्वाचित घोषित किया गया।
ऐसे सरकारी संघियों के बल पर 1991 में उत्तर-प्रदेश आदि कई राज्यों में भाजपा की बहुमत सरकारें बन गई थीं।1992 में कल्याण सिंह के नेतृत्व की सरकार ने बाबरी मस्जिद ध्वंस करा दी और देश में सांप्रदायिक दंगे भड़क गए। 1998 से 2004 के बीच रही बाजपेयी साहब की सरकार में पुलिस व सेना में भी संघी विचार धारा के लोगों को प्रवेश दिया गया।
2011 में सोनिया जी के विदेश में इलाज कराने जाने के वक्त से डॉ मनमोहन सिंह जी हज़ारे/केजरीवाल के माध्यम से संघ से संबंध स्थापित किए हुये थे जिसके परिणाम स्वरूप 2014 के चुनावों में सरकारी अधिकारियों/कर्मचारियों ने भी परिणाम प्रभावित करने में अपनी भूमिका अदा की है :
1967,1975 ,1980,1989 में लिए गए इन्दिरा जी व राजीव जी के निर्णयों ने 2014 में भाजपा को पूर्ण बहुमत तक पहुंचाने में RSS की भरपूर मदद की है। प्रियंका गांधी वाडरा,राहुल गांधी अथवा जो भी भाजपा विरोधी लोग राजनीति में सफलता प्राप्त करना चाहते हैं उनको खूब सोच-समझ कर ही निर्णय आज लेने होंगे जिनके परिणाम आगामी समय में ही मिलेंगे। 'धैर्य',संयम,साहस के बगैर लिए गए निर्णय प्रतिकूल फल भी दिलवा सकते हैं।
~विजय राजबली माथुर ©
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Thursday, May 22, 2014
साम्यवादियों को सफल होने के लिए 'सम्यक' सोच को अपनाना होगा ---विजय राजबली माथुर
प्रस्तुत लेख में वास्तविक स्थितियों का उल्लेख न कर सतही सोच के आधार पर वामपंथ को ढलता सूरज कह दिया गया है। सूरज सांयकाल ढलता है तो प्रातः काल उगता भी तो है। वैसे सच यह है कि न सूरज उगता है और न ढलता ही है। यह तो मात्र हमारी अपनी दृश्यता व अदृश्यता है। सूरज ब्रह्मांड में अवस्थित होकर परिभ्रमण कर रहा है और हमारी पृथ्वी भी। पृथ्वी के जिस भाग में हम सूर्य को नहीं देख पाते तो सूर्य का अस्त होना कह देते हैं और जहां देख पाते हैं वहाँ उदय मान लिया जाता है। वामपंथ और साम्यवाद मूलतः भारतीय अवधारणा है किन्तु अन्य विज्ञानों की भांति ही यह विज्ञान भी हमें विदेश से परावर्तित होकर उपलब्ध हुआ है। एक लंबे समय की गुलामी के कारण लोगों की सोच गुलामों वाली हो चुकी है जो कि राजनीतिक आज़ादी के लगभग 67 वर्ष बाद भी ज्यों की त्यों बनी हुई है। साम्यवाद अथवा वामपंथ के पुरोधा यह मानने को तैयार नहीं हैं कि यह मूलतः भारतीय अवधारणा है और वे विदेशी नक्शे-कदम चल कर इसे भारत में लागू करने की घोषणा तो करते हैं किन्तु खुद ही उन सिद्धांतों का पालन नहीं करते जिंनका उल्लेख अपने प्रवचनों में करते हैं। इसी वजह से जनता को प्रभावित करने में असमर्थ हैं और जिस दिन जाग जाएँगे और सही दिशा में चलने लगेंगे जनता छ्ल-छ्द्यम वालों को रसातल में पहुंचा कर उनके पीछे चलने लगेगी। लेकिन सबसे पहले साम्यवाद व वामपंथ के ध्वजावाहकों को अपनी सोच को 'सम्यक' बनाना होगा।
'एकला चलो रे' की तर्ज़ पर मैं अपना फर्ज़ निबहता रहता हूँ और मैंने आज की परिस्थितियों का आंकलन इसी ब्लाग पर पहले ही दिया था जिसे हू-ब-हू पुनः प्रस्तुत कर रहा हूँ:
http://krantiswar.blogspot.in/2011/09/blog-post_18.html
Sunday, September 18, 2011
बामपंथी कैसे सांप्रदायिकता का संहार करेंगे?
आज संघ और उसके सहायक संगठनों ने सड़कों पर लड़ाई का बिगुल बजा दिया है,बामपंथी अभी तक कागजी तोपें दाग कर सांप्रदायिकता का मुक़ाबला कर रहे हैं;व्यापक जन-समर्थन और प्रचार के बगैर क्या वे संघियों के सांप्रदायिक राक्षस का संहार कर सकेंगे?
भारत विविधता मे एकता वाला एक अनुपम राष्ट्र है। विभिन्न भाषाओं,पोशाकों,आचार-व्यवहार आदि के उपरांत भी भारत अनादी काल से एक ऐसा राष्ट्र रहा है जहां आने के बाद अनेक आक्रांता यहीं के होकर रह गए और भारत ने उन्हें आत्मसात कर लिया। यहाँ का प्राचीन आर्ष धर्म हमें "अहिंसा परमों धर्मा : "और "वसुधेव कुटुम्बकम" का पाठ पढ़ाता रहा है। नौवीं सदी के आते-आते भारत के व्यापक और सहिष्णू स्वरूप को आघात लग चुका था। यह वह समय था जब इस देश की धरती पर बनियों और ब्राह्मणों के दंगे हो रहे थे। ब्राह्मणों ने धर्म को संकुचित कर घोंघावादी बना दिया था । सिंधु-प्रदेश के ब्राह्मण आजीविका निर्वहन के लिए समुद्री डाकुओं के रूप मे बनियों के जहाजों को लूटते थे। ऐसे मे धोखे से अरब व्यापारियों को लूट लेने के कारण सिंधु प्रदेश पर गजनी के शासक महमूद गजनवी ने बदले की लूट के उद्देश्य से अनेकों आक्रमण किए और सोमनाथ को सत्रह बार लूटा। महमूद अपने व्यापारियों की लूट का बदला जम कर लेना चाहता था और भारत मे उस समय बैंकों के आभाव मे मंदिरों मे जवाहरात के रूप मे धन जमा किया जाता था। प्रो नूरुल हसन ने महमूद को कोरा लुटेरा बताते हुये लिखा है कि,"महमूद वाज ए डेविल इन कार्नेट फार दी इंडियन प्यूपिल बट एन एंजिल फार हिज गजनी सबजेक्ट्स"। महमूद गजनवी न तो इस्लाम का प्रचारक था और न ही भारत को अपना उपनिवेश बनाना चाहता था ,उसने ब्राह्मण लुटेरों से बदला लेने के लिए सीमावर्ती क्षेत्र मे व्यापक लूट-पाट की । परंतु जब अपनी फूट परस्ती के चलते यहीं के शासकों ने गोर के शासक मोहम्मद गोरी को आमंत्रित किया तो वह यहीं जम गया और उसी के साथ भारत मे इस्लाम का आगमन हुआ।
भारत मे इस्लाम एक शासक के धर्म के रूप मे आया जबकि भारतीय धर्म आत्मसात करने की क्षमता त्याग कर संकीर्ण घोंघावादी हो चुका था। अतः इस्लाम और अनेक मत-मतांतरों मे विभक्त और अपने प्राचीन गौरव से भटके हुये यहाँ प्रचलित धर्म मे मेल-मिलाप न हो सका। शासकों ने भारतीय जनता का समर्थन प्राप्त कर अपनी सत्ता को सुदृढ़ता प्रदान करने के लिए इस्लाम का ठीक वैसे ही प्रचार किया जिस प्रकार अमीन सायानी सेरोडान की टिकिया का प्रचार करते रहे हैं। जनता के भोलेपन का लाभ उठाते हुये भारत मे इस्लाम के शासकीय प्रचारकों ने कहानियाँ फैलाईं कि,हमारे पैगंबर मोहम्मद साहब इतने शक्तिशाली थे कि,उन्होने चाँद के दो टुकड़े कर दिये थे। तत्कालीन धर्म और समाज मे तिरस्कृत और उपेक्षित क्षुद्र व पिछड़े वर्ग के लोग धड़ाधड़ इस्लाम ग्रहण करते गए और सवर्णों के प्रति राजकीय संरक्षण मे बदले की कारवाइया करने लगे। अब यहाँ प्रचलित कुधर्म मे भी हरीश भीमानी जैसे तत्कालीन प्रचारकों ने कहानियाँ गढ़नी शुरू कीं और कहा गया कि,मोहम्मद साहब ने चाँद के दो टुकड़े करके क्या कमाल किया?देखो तो हमारे हनुमान लला पाँच वर्ष की उम्र मे सम्पूर्ण सूर्य को रसगुल्ला समझ कर निगल गए थे---
"बाल समय रवि भक्षि लियौ तब तींन्हू लोक भयो अंधियारों।
............................ तब छाणि दियो रवि कष्ट निवारों। "
(सेरीडान की तर्ज पर डाबर की सरबाइना जैसा सायानी को हरीश भीमानी जैसा जवाब था यह कथन)
इस्लामी प्रचारकों ने एक और अफवाह फैलाई कि,मोहम्मद साहब ने आधी रोटी मे छह भूखों का पेट भर दिया था। जवाबी अफवाह मे यहाँ के धर्म के ठेकेदारों ने कहा तो क्या हुआ?हमारे श्री कृष्ण ने डेढ़ चावल मे दुर्वासा ऋषि और उनके साठ हजार शिष्यों को तृप्त कर दिया था। 'तर्क' कहीं नहीं था कुतर्क के जवाब मे कुतर्क चल रहे थे।
अभिप्राय यह कि,शासक और शासित के अंतर्विरोधों से ग्रसित इस्लाम और यहाँ के धर्म को जिसे इस्लाम वालों ने 'हिन्दू' धर्म नाम दिया के परस्पर उखाड़-पछाड़ भारत -भू पर करते रहे और ब्रिटेन के व्यापारियों की गुलामी मे भारत-राष्ट्र को सहजता से जकड़ जाने दिया। यूरोपीय व्यापारियों की गुलामी मे भारत के इस्लाम और हिन्दू दोनों के अनुयायी समान रूप से ही उत्पीड़ित हुये बल्कि मुसलमानों से राजसत्ता छीनने के कारण शुरू मे अंग्रेजों ने मुसलमानों को ही ज्यादा कुचला और कंगाल बना दिया।
ब्रिटिश दासता
साम्राज्यवादी अंग्रेजों ने भारत की धरती और जन-शक्ति का भरपूर शोषण और उत्पीड़न किया। भारत के कुटीर उदद्योग -धंधे को चौपट कर यहाँ का कच्चा माल विदेश भेजा जाने लगा और तैयार माल लाकर भारत मे खपाया जाने लगा। ढाका की मलमल का स्थान लंकाशायर और मेंनचेस्टर की मिलों ने ले लिया और बंगाल (अब बांग्ला देश)के मुसलमान कारीगर बेकार हो गए। इसी प्रकार दक्षिण भारत का वस्त्र उदद्योग तहस-नहस हो गया।
आरकाट जिले के कलेक्टर ने लार्ड विलियम बेंटिक को लिखा था-"विश्व के आर्थिक इतिहास मे ऐसी गरीबी मुश्किल से ढूँढे मिलेगी,बुनकरों की हड्डियों से भारत के मैदान सफ़ेद हो रहे हैं। "
सन सत्तावन की क्रान्ति
लगभग सौ सालों की ब्रिटिश गुलामी ने भारत के इस्लाम और हिन्दू धर्म के अनुयायीओ को एक कर दिया और आजादी के लिए बाबर के वंशज बहादुर शाह जफर के नेतृत्व मे हरा झण्डा लेकर समस्त भारतीयों ने अंग्रेजों के विरुद्ध क्रान्ति कर दी। परंतु दुर्भाग्य से भोपाल की बेगम ,ग्वालियर के सिंधिया,नेपाल के राणा और पंजाब के सिक्खों ने क्रान्ति को कुचलने मे साम्राज्यवादी अंग्रेजों का साथ दिया।
अंग्रेजों द्वारा अवध की बेगमों पर निर्मम अत्याचार किए गए जिनकी गूंज हाउस आफ लार्ड्स मे भी हुयी। बहादुर शाह जफर कैद कर लिया गया और मांडले मे उसका निर्वासित के रूप मे निधन हुआ। झांसी की रानी लक्ष्मी बाई वीर गति को प्राप्त हुयी। सिंधिया को अंग्रेजों से इनाम मिला। असंख्य भारतीयों की कुर्बानी बेकार गई।
वर्तमान सांप्रदायिकता का उदय
सन 1857 की क्रान्ति ने अंग्रेजों को बता दिया कि भारत के मुसलमानों और हिंदुओं को लड़ा कर ही ब्रिटिश साम्राज्य को सुरक्षित रखा जा सकता है। लार्ड डफरिन के आशीर्वाद से स्थापित ब्रिटिश साम्राज्य का सेफ़्टी वाल्व कांग्रेस राष्ट्र वादियों के कब्जे मे जाने लगी थी। बाल गंगाधर 'तिलक'का प्रभाव बढ़ रहा था और लाला लाजपत राय और विपिन चंद्र पाल के सहयोग से वह ब्रिटिश शासकों को लोहे के चने चबवाने लगे थे। अतः 1905 ई मे हिन्दू और मुसलमान के आधार पर बंगाल का विभाजन कर दिया गया । हालांकि बंग-भंग आंदोलन के दबाव मे 1911 ई मे पुनः बंगाल को एक करना पड़ा परंतु इसी दौरान 1906 ई मे ढाका के नवाब मुश्ताक हुसैन को फुसला कर मुस्लिम लीग नामक सांप्रदायिक संगठन की स्थापना करा दी गई और इसी की प्रतिक्रिया स्वरूप 1920 ई मे हिन्दू महा सभा नामक दूसरा सांप्रदायिक संगठन भी सामने आ गया। 1932 ई मे मैक्डोनल्ड एवार्ड के तहत हिंदुओं,मुसलमानों,हरिजन और सिक्खों के लिए प्रथक निर्वाचन की घोषणा की गई। महात्मा गांधी के प्रयास से सिक्ख और हरिजन हिन्दू वर्ग मे ही रहे और 1935 ई मे सम्पन्न चुनावों मे बंगाल,पंजाब आदि कई प्रान्तों मे लीगी सरकारें बनी और व्यापक हिन्दू-मुस्लिम दंगे फैलते चले गए।
बामपंथ का आगमन
1917 ई मे हुयी रूस मे लेनिन की क्रान्ति से प्रेरित होकर भारत के राष्ट्र वादी कांग्रेसियों ने 25 दिसंबर 1925 ई को कानपुर मे 'भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी'की स्थापना करके पूर्ण स्व-राज्य के लिए क्रांतिकारी आंदोलन शुरू कर दिया और सांप्रदायिकता को देश की एकता के लिए घातक बता कर उसका विरोध किया। कम्यूनिस्टों से राष्ट्रवादिता मे पिछड्ता पा कर 1929 मे लाहौर अधिवेन्शन मे जवाहर लाल नेहरू ने कांग्रेस का लक्ष्य भी पूर्ण स्वाधीनता घोषित करा दिया। अंग्रेजों ने मुस्लिम लीग,हिन्दू महासभा के सैन्य संगठन आर एस एस (जो कम्यूनिस्टों का मुकाबिला करने के लिए 1925 मे ही अस्तित्व मे आया) और कांग्रेस के नेहरू गुट को प्रोत्साहित किया एवं कम्यूनिस्ट पार्टी को प्रतिबंधित कर दिया । सरदार भगत सिंह जो कम्यूनिस्टों के युवा संगठन 'भारत नौजवान सभा'के संस्थापकों मे थे भारत मे समता पर आधारित एक वर्ग विहीन और शोषण विहीन समाज की स्थापना को लेकर अशफाक़ उल्ला खाँ व राम प्रसाद 'बिस्मिल'सरीखे साथियों के साथ साम्राज्यवादियों से संघर्ष करते हुये शहीद हुये सदैव सांप्रदायिक अलगाव वादियों की भर्तस्ना करते रहे।
वर्तमान सांप्रदायिकता
1980 मे संघ के सहयोग से सत्तासीन होने के बाद इंदिरा गांधी ने सांप्रदायिकता को बड़ी बेशर्मी से उभाड़ा। 1980 मे ही जरनैल सिंह भिंडरावाला के नेतृत्व मे बब्बर खालसा नामक घोर सांप्रदायिक संगठन खड़ा हुआ जिसे इंदिरा जी का आशीर्वाद पहुंचाने खुद संजय गांधी और ज्ञानी जैल सिंह पहुंचे थे। 1980 मे ही संघ ने नारा दिया-भारत मे रहना होगा तो वंदे मातरम कहना होगा जिसके जवाब मे काश्मीर मे प्रति-सांप्रदायिकता उभरी कि,काश्मीर मे रहना होगा तो अल्लाह -अल्लाह कहना होगा। और तभी से असम मे विदेशियों को निकालने की मांग लेकर हिंसक आंदोलन उभरा।
पंजाब मे खालिस्तान की मांग उठी तो काश्मीर को अलग करने के लिए धारा 370 को हटाने की मांग उठी और सारे देश मे एकात्मकता यज्ञ के नाम पर यात्राएं आयोजित करके सांप्रदायिक दंगे भड़काए। माँ की गद्दी पर बैठे राजीव गांधी ने अपने शासन की विफलताओं और भ्रष्टाचार पर पर्दा डालने हेतु संघ की प्रेरणा से अयोध्या मे विवादित रामजन्म भूमि/बाबरी मस्जिद का ताला खुलवा कर हिन्दू सांप्रदायिकता एवं मुस्लिम वृध्दा शाहबानों को न्याय से वंचित करने के लिए संविधान मे संशोधन करके मुस्लिम सांप्रदायिकता को नया बल प्रदान किया।
बामपंथी कोशिश
भारतीय कम्यूनिस्ट,मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट,क्रांतिकारी समाजवादी पार्टी और फारवर्ड ब्लाक के 'बामपंथी मोर्चा'ने सांप्रदायिकता के विरुद्ध व्यापक जन-अभियान चलाया । बुद्धिजीवी और विवेकशील राष्ट्र वादी सांप्रदायिक सौहार्द के प्रबल पक्षधर हैं,परंतु ये सब संख्या की दृष्टि से अल्पमत मे हैं,साधनों की दृष्टि से विप्पन हैं और प्रचार की दृष्टि से बहौत पिछड़े हुये हैं। पूंजीवादी प्रेस बामपंथी सौहार्द के अभियान को वरीयता दे भी कैसे सकता है?उसका ध्येय तो व्यापारिक हितों की पूर्ती के लिए सांप्रदायिक शक्तियों को सबल बनाना है। अपने आदर्शों और सिद्धांतों के बावजूद बामपंथी अभियान अभी तक बहुमत का समर्थन नहीं प्राप्त कर सका है जबकि,सांप्रदायिक शक्तियाँ ,धन और साधनों की संपन्नता के कारण अलगाव वादी प्रवृतियों को फैलाने मे सफल रही हैं।
सड़कों पर दंगे
अब सांप्रदायिक शक्तियाँ खुल कर सड़कों पर वैमनस्य फैला कर संघर्ष कराने मे कामयाब हो रही हैं। इससे सम्पूर्ण विकास कार्य ठप्प हो गया है,देश के सामने भीषण आर्थिक संकट उत्पन्न हो गया है । मंहगाई सुरसा की तरह बढ़ कर सांप्रदायिकता के पोषक पूंजीपति वर्ग का हित-साधन कर रही है। जमाखोरों,सटोरियों और कालाबाजारियों की पांचों उँगलियाँ घी मे हैं। अभी तक बामपंथी अभियान नक्कार खाने मे तूती की आवाज की तरह चल रहा है। बामपंथियों ने सड़कों पर निपटने के लिए कोई 'सांप्रदायिकता विरोधी दस्ता' गठित नहीं किया है। अधिकांश जनता अशिक्षित और पिछड़ी होने के कारण बामपंथियों के आदर्शवाद के मर्म को समझने मे असमर्थ है और उसे सांप्रदायिक शक्तियाँ उल्टे उस्तरे से मूंढ रही हैं।
दक्षिण पंथी तानाशाही का भय
वर्तमान (1991 ) सांप्रदायिक दंगों मे जिस प्रकार सरकारी मशीनरी ने एक सांप्रदायिकता का पक्ष लिया है उससे अब संघ की दक्षिण पंथी असैनिक तानाशाही स्थापित होने का भय व्याप्त हो गया है। 1977 के सूचना व प्रसारण मंत्री एल के आडवाणी ने आकाशवाणी व दूर दर्शन मे संघ की कैसी घुसपैठ की है उसका हृदय विदारक उल्लेख सांसद पत्रकार संतोष भारतीय ने वी पी सरकार के पतन के संदर्भ मे किया है। आगरा पूर्वी विधान सभा क्षेत्र मे 1985 के परिणामों मे संघ से संबन्धित क्लर्क कालरा ने किस प्रकार भाजपा प्रत्याशी को जिताया ताज़ी घटना है।
पुलिस और ज़िला प्रशासन मजदूर के रोजी-रोटी के हक को कुचलने के लिए जिस प्रकार पूंजीपति वर्ग का दास बन गया है उससे संघी तानाशाही आने की ही बू मिलती है।
बामपंथी असमर्थ
वर्तमान परिस्थितियों का मुक़ाबला करने मे सम्पूर्ण बामपंथ पूरी तरह असमर्थ है। धन-शक्ति और जन-शक्ति दोनों ही का उसके पास आभाव है। यदि अविलंब सघन प्रचार और संपर्क के माध्यम से बामपंथ जन-शक्ति को अपने पीछे न खड़ा कर सका तो दिल्ली की सड़कों पर होने वाले निर्णायक युद्ध मे संघ से हार जाएगा जो देश और जनता के लिए दुखद होगा।
परंतु बक़ौल स्वामी विवेकानंद -'संख्या बल प्रभावी नहीं होता ,यदि मुट्ठी भर लोग मनसा- वाचा-कर्मणा संगठित हों तो सारे संसार को उखाड़ फेंक सकते हैं। 'आदर्शों को कर्म मे उतार कर बामपंथी संघ का मुक़ाबला कर सकते हैं यदि चाहें तो!वक्त अभी निकला नहीं है।
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(उपयुर्क्त लेख 'सप्तदिवा ,आगरा' ने 1991 मे छापने से इंकार कर दिया था जिसके बाद से उनसे संपर्क तोड़ लिया था। अभी अन्ना हज़ारे के तानाशाहीपूर्ण देशद्रोही /आतंकवादी आक्रमण जो अमेरिकी प्रशासन के समर्थन एवं उनकी कारपोरेट कंपनियों के दान से चला है और उसमे प्रधानमंत्री महोदय की दिलचस्पी देख(पी एम साहब ने राष्ट्र ध्वज का अपमान करने वाले,संविधान और संसद को चुनौती देने वाले,रात्रि मे राष्ट्र ध्वज फहराने वाले को गुलदस्ता भेज कर तथा पी एम ओ के पूर्व मंत्री और अब महाराष्ट्र के सी एम से कमांडोज़ दिला कर महिमा मंडित किया है ) कर इस ब्लाग पर प्रकाशित कर रहा हूँ क्योंकि परिस्थितियाँ आज भी वही हैं जो 20 वर्ष पूर्व थीं।बल्कि और भी खतरनाक हो गई हैं क्योंकि अब रक्षक (शासक) जनता का नहीं भक्षक का हितैषी हो गया है। जिसे राष्ट्रद्रोह मे सजा मिलनी चाहिए उसे पुरस्कृत किया जा रहा है।
आगामी 28 सितंबर को शहीदे आजम सरदार भगत सिंह का जन्मदिन है और उनकी नौजवान सभा ए आई एस एफ के साथ छात्रों-नौजवानों की शिक्षा-रोजगार आदि की समस्याओं को लेकर उस दिन प्रदेश-व्यापी धरना-प्रदर्शन कर रही है। छात्रों-नौजवानों को देश के सामने आई विकट समस्याओं पर भी विचार करना चाहिए क्योंकि भविष्य मे फासिस्ट तानाशाही से उन्हें ही टकराना पड़ेगा। अतः आज ही कल के बारे मे भी निर्णय कर लेना देश और जनता के हित मे उत्तम रहेगा।*********************
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जैसा 2014 के चुनाव परिणामों से स्पष्ट है कि 1991 में किया मेरा आंकलन कितना सटीक बैठा है क्योंकि कम्युनिस्टों ने अपने अहम में मेरे दिये सुझावों पर विचार करना मुनासिब ही नहीं समझा बल्कि उत्तर-प्रदेश CPI के एक बड़े पदाधिकारी जो हैं तो पोंगापंथी किन्तु खुद को कट्टर 'एथीस्ट कम्युनिस्ट' कहते हैं और यह भी कि सीतापुर जेल में वह पार्टी संस्थापकों में से एक श्रीपाद अमृत डांगे साहब को भोजन पहुंचाया करते थे और कि पूर्व सांसद कामरेड गुरुदास दासगुप्ता जी को हिन्दी सिखाने वाले उनके वह गुरु हैं जो पूर्व राष्ट्रीय महासचिव बर्द्धन जी तथा एक राष्ट्रीय सचिव कामरेड अतुल अंजान के कटु विरोधी हैं तो उनकी निगाह में मेरे लेख कूड़ा-कर्कट के अलावा कुछ नहीं हैं।
मेरा आज भी सुदृढ़ अभिमत है कि यदि कम्युनिस्ट -वामपंथी जनता को 'धर्म' का मर्म समझाएँ और बताएं कि जिसे धर्म कहा जा रहा है वह तो वास्तव में अधर्म है,ढोंग,पाखंड,आडंबर है जिसका उद्देश्य साधारण जनता का शोषण व उत्पीड़न करना है तो कोई कारण नहीं है कि जनता वस्तु-स्थिति को न समझे।लेकिन जब ब्राह्मणवादी-पोंगापंथी जकड़न से खुद कम्युनिस्ट-वामपंथी निकलें तभी तो जनता को समझा सकते हैं? वरना धर्म का विरोध करके व एथीस्ट होने का स्वांग करके उसी पाखंड-आडम्बर-ढोंगवाद को अपनाते रह कर तो जनता को अपने पीछे लामबंद नहीं किया जा सकता है।
धर्म=जो मानव जीवन व समाज को धारण करने हेतु आवश्यक हैं जैसे;'सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य।
अध्यात्म=अपनी 'आत्मा' का अध्यन-अपने कृत कर्मों का विश्लेषण न कि खुराफात का अनुगमन।
भगवान=भ (भूमि)+ग (गगन-आकाश)+व (वायु-हवा)+I(अनल-अग्नि)+न (नीर-जल)।
और चूंकि प्रकृति के ये तत्व खुद ही बने हैं और इनको किसी ने बनाया नहीं है इसलिए ये ही खुदा हैं।
इन तत्वों का कार्य मानव समेत समस्त प्राणियों व वनस्पतियों की उत्पत्ति,पालन,संहार -G(जेनरेट)+O(आपरेट)+D(डेसट्राय)=GOD भी यही हैं।
परमात्मा या प्रकृति के लिए सभी प्राणी व मनुष्य समान हैं और उसकी ओर से सभी को जीवन धारण हेतु समान रूप से वनस्पतियाँ,औषद्धियाँ,अन्न,खनिज आदि-आदि बिना किसी भेद-भाव के निशुल्क उपलब्ध हैं। अतः इस जगत में एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य का शोषण करना परमात्मा व प्रकृति के नियमों के विरुद्ध है और इसी बात को उठाने वाले दृष्टिकोण को समष्टिवाद-साम्यवाद-कम्यूनिज़्म कहा जाता है और यह पूर्णता: भारतीय अवधारणा है। आधुनिक युग में जर्मनी के महर्षि कार्ल मार्क्स ने इस दृष्टिकोण को पूर्ण वैज्ञानिक ढंग से पुनः प्रस्तुत किया है। 'कृणवन्तो विश्वमार्यम' का अभिप्राय है कि समस्त विश्व को आर्य=आर्ष=श्रेष्ठ बनाना है और यह तभी हो सकता है जब प्रकृति के नियमानुसार आचरण हो। कम्युनिस्ट प्रकृति के इस आदि नियम को लागू करके समाज में व्याप्त मानव द्वारा मानव के शोषण को समाप्त करने हेतु 'उत्पादन' व 'वितरण' के साधनों पर समाज का अधिकार स्थापित करना चाहते हैं। इस आर्ष व्यवस्था का विरोध शासक,व्यापारी और पुजारी वर्ग मिल कर करते हैं वे अल्पमत में होते हुये भी इसलिए कामयाब हैं कि शोषित-उत्पीड़ित वर्ग परस्परिक फूट में उलझ कर शोषकों की चालों को समझ नहीं पाता है। उसे समझाये कौन? कम्युनिस्ट तो खुद को 'एथीस्ट' और धर्म-विरोधी सिद्ध करने में लगे रहते हैं।
काश सभी बिखरी हुई कम्युनिस्ट शक्तियाँ दीवार पर लिखे को पढ़ें और यथार्थ को समझें और जनता को समझाएँ तो अभी भी शोषक-उत्पीड़क-सांप्रदायिक शक्तियों को परास्त किया जा सकता है। लेकिन जब धर्म को मानेंगे नहीं अर्थात 'सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य' का पालन नहीं करेंगे 'एथीस्ट वाद' की जय बोलते हुये ढोंग-पाखंड-आडंबर को प्रोत्साहित करते रहेंगे अपने उच्च सवर्णवाद के कारण तब तो कम्यूनिज़्म को पाकर भी रूस की तरह खो देंगे या चीन की तरह स्टेट-कम्यूनिज़्म में बदल डालेंगे। प्रस्तुत कटिंग के लेखक जैसे लोगों को कम्यूनिज़्म-वामपंथ के ढलने की घोषणा करने को प्रेरित करते रहेंगे।
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~विजय राजबली माथुर ©
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Saturday, May 17, 2014
ज्योतिष वाला 'क्रांतिस्वर' ,ये बेवकूफ कौन है?
केजरीवाल भक्त के वचन :
दीवार पर लिखा कुछ को दीख जाता है और कुछ देख कर अनदेखा कर जाते हैं लेकिन दीवार के उस पर क्या लिखा है ? या क्या लिखा जा रहा है? अक्सर सबको न दीख सकता है और न समझ आ सकता है। दीवार के उस पार क्या है ? क्या हो रहा है? क्या हो सकता है? जैसी बातें निसंकोच कह देने वाला इन पंक्तियों का लेखक ही वह बेवकूफ है।
विगत 01 मई को मजदूर दिवस की गोष्ठी के अवसर पर भाकपा कार्यालय में अनौपचारिक वार्ता के दौरान इन पंक्तियों के लेखक ने जिलामंत्री व दोनों सह-जिलामंत्रियों की उपस्थिती में पश्चिम बंगाल में सुश्री ममता बनर्जी की पार्टी को 30-35 सीटों की प्राप्ति का संकेत दिया था और उनको वस्तुतः 34 सीटें प्राप्त हो गई हैं। जबकि अन्य कामरेड्स का दृष्टिकोण था कि वांम -मोर्चा 24 सीटें जीतने जा रहा है जो वस्तुतः 02 सीटों पर सिमटा। संदर्भित आलेख में अब संभावित पी एम का भी विश्लेषण है जो अभी गलत प्रतीत होता है परंतु दीवार के उस पार लिखा जब इस पार आएगा तभी बेवकूफी का खुलासा हो सकेगा।
इस बेवकूफ ने प्रदेश सचिव व राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य डॉ गिरीश (चंद्र शर्मा) जी से अनौपचारिक वार्ता में लगभग दो वर्ष पूर्व ज़िक्र किया था कि यदि वाम-मोर्चा ममता जी के नेतृत्व में लोकसभा चुनाव लड़े तो काफी सफलता प्राप्त कर सकता है। जब एक महान केजरीवाल भक्त तक मुझको बेवकूफ घोषित करता है तो निश्चय ही विद्वान डॉ साहब ने भी उस कथ्य को मूर्खतापूर्ण ही माना होगा। लेकिन चुनाव परिणाम क्या कहते हैं?
इसी ब्लाग में 'एकला चलो रे' की तर्ज़ पर अनेकों लेखों के माध्यम से मैंने भारत में साम्यवाद के जन-प्रिय बनाए जाने के उपाए बताए हैं जिनकी खिल्ली प्रदेश का एक बड़ा पदाधिकारी खुले आम उड़ाता है। उक्त पदाधिकारी वस्तुतः राष्ट्रीयकृत बैंक का कर्मचारी है जो घोषित तो खुद को 'एथीस्ट' करता है परंतु तांत्रिक प्रक्रियाओं से वरिष्ठ नेताओं को 'सम्मोहित' किए रहता है। 20 वर्ष पूर्व भी एक सरकारी शिक्षक तांत्रिक प्रक्रियाओं से वशीभूत करके प्रदेश पदाधिकारी बन गया था और तब प्रदेश में पार्टी का विभाजन हो गया था। सरकारी और अर्द्ध-सरकारी कर्मचारियों को किसी प्रकार की सहानुभूति न तो आम जनता से होती है न ही छोटे कार्यकर्ताओं से अतः वे पार्टी को जनता से दूर बनाए रखने के उपक्रम करते रहते हैं। इन परिस्थितियों में वाम-पंथ का जो हश्र चुनावों में हुआ है वह अपरिहार्य था।
एक तरफ 'संसदीय साम्यवाद' को मानने वाले चुनाव से दूर रहेंगे दूसरी ओर 'संसदीय लोकतन्त्र' के आलोचक क्रांतिकारी सड़कों पर सक्रिय रह कर अपनी ऊर्जा व्यय करते रहेंगे जिनको नक्सलवादी,माओवादी,आतंकवादी कह कर सरकारें कुचलती रहेंगी। लेकिन सभी 'सर्वहारा क्रान्ति' का गुण-गाँन करते रहेंगे -यह सब केवल खुद को धोखा देने के अलावा कुछ नहीं है। जब मार्क्स के हवाले से 'धर्म=सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह,ब्रह्मचर्य' का विरोध किया जाता है तथा पोंगापंडितवाद,ढोंग,पाखंड,आडंबर का विरोध करने का साहस नहीं दिखाया जाता है तभी तो धर्म के नाम पर अधर्म का बोलबाला रहता है जिसका ज्वलंत उदाहरण 2014 के ये संसदीय चुनाव हैं।
तब मार्क्स ने तो यह भी कहा था कि जब जिस देश में सम्पूर्ण औद्योगीकरण हो जाएगा और मजदूर का शोषण चरम पर होगा तब वहाँ 'सर्वहारा क्रान्ति' होगी और सर्वहारा की तानाशाही उत्पादन और वितरण के संसाधनो पर नियंत्रण करके 'प्रत्येक से उसकी क्षमता के अनुसार और प्रत्येक को उसकी आवश्यकता के अनुसार' अवसर व लाभ देगी। तो फिर एक कृषि-प्रधान देश रूस में 1917 में क्रांति क्यों की गई थी? वह तो सर्वहारा क्रांति थी भी नहीं वह तो कई दलों के मोर्चे की बोलेश्विक क्रान्ति थी। इसके नायक एक-दूसरे की काट-छांट में लगे रहे और धर्म न मानने के कारण जनता व कार्यकर्ताओं के शोषण से प्राप्त अवैद्ध धन का संग्रहण करते रहे वे असत्यगामी पार्टी नेता ही आज के रूस के पूंजीपति हैं। 1949 में कृषि-प्रधान देश चीन में भी साम्यवादी क्रांति कर दी गई जो आज 'स्टेट केपिटलिज्म' के रूप में चल रही है।
क्या खूब 'एथीस्ट' तर्क होते हैं कि मार्क्स की एक बात न मान कर अधीरता से क्रांति कर देते है जो बाद में असफल हो जाती है और दूसरी बात के गलत अर्थ लिए जाते हैं। मार्क्स ने कहीं भी धर्म के सद्गुणों का विरोध नहीं किया है। मार्क्स ने यूरोप में प्रचलित -'ओल्ड टेस्टामेंट' व 'प्रोटेस्टेंट' रूपी रिलीजन्स का विरोध किया था जो वाजिब था क्योंकि वे अधर्म थे न कि धर्म। इसी प्रकार हिन्दुत्व,इस्लाम आदि अधर्मी रिलीजन्स का विरोध किया जाना चाहिए न कि धर्म का। 'साम्यवाद' और 'मार्कसवाद' को जब तक वास्तविक धर्म पर नहीं चलाया जाएगा और मजहबों-रिलीजन्स के पोंगापंडितवाद,ढोंग,पाखंड,आडंबर का सार्वजनिक खंडन करके जनता को समझाया नहीं जाएगा तब तक फासीवादी /नाजीवादी शक्तियों को शिकस्त देना संभव ही नहीं है केवल शहादतें दे कर अपनी पीठ थपथपा लेने से क्रांति नहीं आएगी । जन-क्रांति के लिए जनता-जनार्दन के समक्ष जाना होगा केवल सरकारी कर्मचारियों को नेता बना कर उनके भरोसे क्रांति की जाएगी तो असफलता मिलना स्वभाविक है।
~विजय राजबली माथुर ©
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Monday, May 12, 2014
कौन बनेगा प्रधानमंत्री ?---विजय राजबली माथुर
प्रायोजित भविष्यवाणी जो निश्चय ही गलत साबित होगी :
हिंदुस्तान-लखनऊ-03/04/2014 के इस स्कैन को पढ़ने हेतु डबल क्लिक करें।
इस प्रकार के प्रायोजित भविष्यवाणियों का कोई वैज्ञानिक आधार न होकर धनदाता की संतुष्टि मात्र होता है। 2004 के चुनावों में राजग गठबंधन के परास्त होने के बाद 'बाबाजी' नामक पत्रिका ने 15 दिनों के भीतर पुनः बाजपेयी साहब के पी एम बनने की भविष्यवाणी कर दी थी और खुद बाजपेयी साहब पत्रिका संचालक से मिलने पहुँच गए थे लेकिन क्या हुआ?
उपरोक्त मामले में लखनऊ से केवल राजनाथ सिंह व उनके छिपे हुये सहयोगी अभिषेक मिश्रा जी का ज़िक्र हुआ है बाकी उम्मीदवारों का कोई उल्लेख नहीं है। वाराणासी में मोदी की सफलता का कसीदा काढ़ा गया है जबकि वह पश्चिम क्षेत्र से आते हैं। उनके हितैषी मुलायम सिंह जी का ज़िक्र है जो पश्चिम उत्तर प्रदेश के हैं। इस श्रंखला में सुश्री ममता बनर्जी का कोई ज़िक्र नहीं है जो कि वस्तुतः पूर्व-क्षेत्र की वास्तविक प्रतिनिधि हैं।
11-04-2014 को दिया गया मेरा विश्लेषण:
Lucknow ·:08-22pm
https://www.facebook.com/vijai.mathur/posts/671115686283744
इसकी पुष्टि मेरठ के ज्योतिषी साहब के विश्लेषण से भी होती है :
बहुत पहले मैंने यह विश्लेषण दिया था जिसे 23 फरवरी 2014 को दोबारा ब्लाग पर प्रकाशित किया था एक नज़र उसका भी अवलोकन कर लें :
~विजय राजबली माथुर ©
इस पोस्ट को यहाँ भी पढ़ा जा सकता है।
हिंदुस्तान-लखनऊ-03/04/2014 के इस स्कैन को पढ़ने हेतु डबल क्लिक करें।
इस प्रकार के प्रायोजित भविष्यवाणियों का कोई वैज्ञानिक आधार न होकर धनदाता की संतुष्टि मात्र होता है। 2004 के चुनावों में राजग गठबंधन के परास्त होने के बाद 'बाबाजी' नामक पत्रिका ने 15 दिनों के भीतर पुनः बाजपेयी साहब के पी एम बनने की भविष्यवाणी कर दी थी और खुद बाजपेयी साहब पत्रिका संचालक से मिलने पहुँच गए थे लेकिन क्या हुआ?
उपरोक्त मामले में लखनऊ से केवल राजनाथ सिंह व उनके छिपे हुये सहयोगी अभिषेक मिश्रा जी का ज़िक्र हुआ है बाकी उम्मीदवारों का कोई उल्लेख नहीं है। वाराणासी में मोदी की सफलता का कसीदा काढ़ा गया है जबकि वह पश्चिम क्षेत्र से आते हैं। उनके हितैषी मुलायम सिंह जी का ज़िक्र है जो पश्चिम उत्तर प्रदेश के हैं। इस श्रंखला में सुश्री ममता बनर्जी का कोई ज़िक्र नहीं है जो कि वस्तुतः पूर्व-क्षेत्र की वास्तविक प्रतिनिधि हैं।
11-04-2014 को दिया गया मेरा विश्लेषण:
Lucknow ·:08-22pm
नरेंद्र
मोदी की राजनीति व उनके शुभ समय की जोरदार चर्चाये चल रही हैं । NBT
द्वारा एक वर्ष पूर्व प्रकाशित उनकी जन्म कुंडली के अनुसार वह 64वें वर्ष
में चल रहे हैं अर्थात अपनी कुंडली के चौथे भाव में जहां 'गुरु' अपनी शत्रु
राशि में स्थित है। 'गुरु' का गुण यह भी है कि जहां जिस भाव में बैठता है
उसे 'नष्ट' करता है। उनके साथ ऐसा ही रहा भी है विवाहित होकर भी 'विधुर'
जैसा जीवन इसी 'गुरु' की कृपा रही है। अब पत्नी की घोषणा करके भी सुखों पर
हमलों को उन्होने आमंत्रित कर लिया है। जन्म लग्न में भी परस्पर शत्रु
'चंद्र'-'मंगल' स्थित हैं। ये सम्मिलित रूप से उनके मस्तिष्क को प्रभावित
कर रहे हैं जैसा कि उनकी कार्य प्रणाली व वक्तव्यों से सिद्ध होता है। लग्न
का चंद्र मस्तिष्क को व्यथित रखता है।
महादशा-अंतर्दशा उनको 'आर्थिक' लाभ पहुंचाने वाली है इसी लिए कारपोरेट घरानों ने उनके लिए लूट की पूंजी के पिटारे खोल दिये हैं। लेकिन उनके 'कर्म' भाव में बैठ कर 'शनि' उनके कर्मफल को नष्ट कर रहा है। संकेत साफ हैं। वह केवल मोहरा ही रहने वाले हैं सफलता उनसे कोसों दूर रहने वाली है।
महादशा-अंतर्दशा उनको 'आर्थिक' लाभ पहुंचाने वाली है इसी लिए कारपोरेट घरानों ने उनके लिए लूट की पूंजी के पिटारे खोल दिये हैं। लेकिन उनके 'कर्म' भाव में बैठ कर 'शनि' उनके कर्मफल को नष्ट कर रहा है। संकेत साफ हैं। वह केवल मोहरा ही रहने वाले हैं सफलता उनसे कोसों दूर रहने वाली है।
https://www.facebook.com/vijai.mathur/posts/671115686283744
इसकी पुष्टि मेरठ के ज्योतिषी साहब के विश्लेषण से भी होती है :
बहुत पहले मैंने यह विश्लेषण दिया था जिसे 23 फरवरी 2014 को दोबारा ब्लाग पर प्रकाशित किया था एक नज़र उसका भी अवलोकन कर लें :
"अखबारी विश्लेषण से अलग मेरा विश्लेषण
यह है कि जन्म के बाद ममता जी की 'चंद्र महादशा' 07 वर्ष 08 आठ माह एवं 07
दिन शेष बची थी। इसके अनुसार 03 जूलाई 2010 से वह 'शनि'महादशांतर्गत
'शुक्र' की अंतर्दशा मे 03 सितंबर 2013 तक चलेंगी। यह उनका श्रेष्ठत्तम समय
है। इसी मे वह मुख्य मंत्री बनी हैं। 34 वर्ष के मजबूत बामपंथी शासन को
उखाड़ने मे वह सफल रही हैं तो यह उनके अपने ग्रह-नक्षत्रों का ही स्पष्ट
प्रभाव है।
इसके बाद पुनः 'सूर्य' की शनि मे
अंतर्दशा 15 अगस्त 2014 तक उनके लिए अनुकूल रहने वाली है और लोकसभा के
चुनाव इसी अवधि के मध्य होंगे। केंद्र (दशम भाव मे )'शनि' उनको 'शश योग'
प्रदान कर रहा है जो 'राज योग'ही है।
27 नवंबर 2012 को स्थगित रैली 16 फरवरी
2014 को लखनऊ में आयोजित करवाकर ममता जी ने संकेत दे दिया है कि यदि
मुलायम सिंह प्रकाश करात के फेर में फंसे रहे तो वह उनके सहयोग के बगैर
ही फेडरल फ्रंट की दिशा में बढ़ सकती हैं।यदि उत्तर-प्रदेश में ममता जी ने
मायावती जी से तालमेल बैठा लिया तो यहाँ भी उनको काफी मजबूती मिल जाएगी। सी पी एम में भाजपा के भगौड़ों को शामिल किए जाने से उसके भविष्य की दिशा का खुलासा हो चुका है। इस
सूरत में ममता बनर्जी के तर्क जनता को आसानी से ग्राह्य हो सकते हैं। सी
पी एम की शुतुरमुरगी चालें वामपंथ को जोरदार झटका दे सकती हैं। तब 'पाछे
पछताए होत क्या? जब चिड़ियाँ चुग गईं खेत' । अभी भी बहुत समय है कि सी पी एम
को छोड़ कर समस्त वामपंथ एकजुट होकर ममता बनर्जी के नेतृत्व में
भाजपा/कांग्रेस/आ आ पा को संयुक्त रूप से चुनावों में परास्त कर सकता है।
~विजय राजबली माथुर ©
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Saturday, May 10, 2014
संसदीय लोकतन्त्र बचाना है तो 'कारपोरेट कम्यूनिज़्म' से बचना होगा ---विजय राजबली माथुर
वर्ष
2014 में हो रहे 16 वीं संसद के चुनावों की सबसे मत्वपूर्ण और यादगार बात
रहेगी-'कारपोरेट कम्यूनिज़्म' का अभ्युदय । मजदूरों की कमर तोड़ने व
कम्युनिस्ट आंदोलन को बाधित करने हेतु पहले 'कारपोरेट ट्रेड यूनियनिज़्म' को
खड़ा किया गया जिसके अंतर्गत मेनेजमेंट के नुमाइंदे ट्रेड यूनियन में घुस
कर अंदर से मजदूरों की एकता तोड़ देते थे फिर मेनेजमेंट समर्थक यूनियनें
बनने लगीं,उसके बाद जातिगत आधार पर अर्थात श्रमिक एकता छिन्न-भिन्न हो गई।
2011 मे कारपोरेट भ्रष्टाचार के संरक्षण तथा मजदूरों के शोषण को और तीव्र करने हेतु हज़ारे/केजरीवाल आंदोलन खड़ा किया गया जिसका परिणाम AAP/आ आ पा है जिसे JNU के प्रोफेसर एवं छात्र नग्न समर्थन दे रहे हैं और खुद को कम्युनिस्ट वामपंथी भी कह रहे हैं। आ आ पा की टीम संघी मानसिकता के लोगों का जमावड़ा है और उसे कम्युनिस्ट-वामपंथी 'बनारस' में कदमताल करते हुये समर्थन प्रदान कर रहे हैं। इनकी कोशिश बनारस के मुस्लिमों को मूर्ख बना कर केजरीवाल को वोट दिलवाना है जिससे मोदी की जीत सुगम हो जाये। CPM की केरल यूनिट में भाजपाइयों को शामिल करने के बाद अब प्रकाश करात साहब ने आ आ पा /केजरीवाल को अपने मोर्चे में शामिल करने का संकेत भी दे दिया है। यह है-'कारपोरेट कम्यूनिज़्म' का ज्वलंत उदाहरण।
यदि दिल्ली की सड़कों पर कभी कम्युनिस्टों का संघ से संघर्ष होगा तब इन क्रांतिकारी कम्युनिस्टों को संघियों के साथ-साथ कार्पोरेटी कम्युनिस्टों से भी संघर्ष करना होगा। चुनावों से दूर भागने के कारण 'संसदीय साम्यवाद' तब विफल होगा और कमांड सशस्त्र क्रांतिकारी कम्युनिस्टों के हाथों में होगी जिनमें उतावले और अपरिपक्व लोग भी शामिल होंगे। ऐसी क्रांति को आज ही के दिन 10 मई 1857 के दिन प्रारम्भ हुई क्रांति की भांति कुचल देना शासकों के लिए बहुत आसान होगा। अतः 'संसदीय साम्यवाद' के समर्थकों को नितांत जागरूकता के साथ सजग रहना होगा।
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उपरोक्त स्टेटस फेसबुक पर देने का आशय यह था कि समय रहते वस्तु-स्थिति से सबको परिचित करा दिया जाये। एक तरफ तो 'संसदीय साम्यवाद' को तेलंगाना संघर्ष के बाद ही अपना लिया गया है जिसके परिणाम स्वरूप 1952 के प्रथम चुनावों में कम्युनिस्ट पार्टी मुख्य विपक्षी दल बन कर उभरी थी। किन्तु दूसरी ओर आज संसद और विधानसभाओं/स्थानीय निकायों के चुनावों आदि में भागीदारी न करने के कारण संसदीय संस्थानों में कम्युनिस्टों की उपस्थिती नगण्य है। अतः क्रांतिकारी कम्युनिस्ट जो संख्या में चाहे जितने भी हों परस्पर संघर्ष रत रहते हुये सशस्त्र क्रान्ति के स्वप्न देखते रहते हैं।
सशस्त्र क्रांति वाले अपनी इस प्रकार की हरकतों के कारण सही उद्देश्य के बावजूद जनता का समर्थन नहीं हासिल कर सकते हैं। वहीं संसदीय लोकतन्त्र वाले संसदीय चुनावों से दूर रहने के कारण और अपने 'एथीस्ट वाद 'के चलते जनता में लोकप्रियता हासिल करने से वंचित रहते हैं। एथीस्ट्वादी 'धर्म' का विरोध करते हैं क्योंकि उनकी निगाह और ज्ञान के अनुसार पोंगापंडितवाद,ढोंग,पाखंड,आडंबर ही धर्म है।
'धर्म'=सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य।
इन सद्गुणों का महर्षि कार्ल मार्क्स ने किस पुस्तक में विरोध किया है?मार्क्स ने उस समय यूरोप में प्रचलित रोमन केथोलिक और प्रोटेस्टेंट रिलीजन्स का विरोध इसलिए किया है कि वे धर्म नहीं ढोंग-पाखंड-आडंबर हैं। उसी प्रकार हिन्दुत्व,इस्लाम आदि रिलीजन्स का भी विरोध किया जाना चाहिए किन्तु 'धर्म' का विरोध करने का औचित्य क्या है?धर्म वह है जो मनुष्य और मानव समाज को धारण करने हेतु आवश्यक है उसका विरोध करके कैसे मार्क्स वाद लागू किया जा सकता है?और यही वजह है इसके रूस में उखड़ने तथा चीन में 'विकृत' हो जाने की।
धर्म का विरोध करते हुये तथा खुद को नास्तिक-एथीस्ट घोषित करते हुये कम्युनिस्ट विद्वान व नेता गण ढोंग -पाखंड -आडंबर को गले लगाए रहते हैं तथा पोंगापंडितवाद का संरक्षण करते हैं। चाहे क्रांतिकारी हों अथवा संसदीय लोकतन्त्र के समर्थक कभी भी मार्कसवाद को सफल नहीं बना पाएंगे यदि 'धर्म' -वास्तविक पर नहीं चलेंगे तो।
क्रान्ति=क्रान्ति कोई ऐसी वस्तु नहीं होती जिसका विस्फोट एकाएक या अचानक होता है। बल्कि इसके अनंतर 'अन्तर'के तनाव को बल मिलता रहता है।
जैसे कि ब्रिटिश दासता में उत्पीड़ित होते-होते अंततः 22 जून 1857 को उनकी सत्ता को उखाड़ने का निश्चय करके तैयारी चल ही रही थी कि मंगल पांडे के बैरकपुर छावनी में विद्रोह करने व बलिदान देने से भड़के सैनिकों ने 10 मई को मेरठ छावनी से बगावत का बिगुल बजा दिया।'अपरिपक्वता' एवं उतावलेपन के कारण अधूरी तैयारी पर हुई क्रान्ति पारस्परिक फूट के चलते विफल हो गई।
यही भय आज भी विद्यमान है कि सशस्त्र क्रान्ति के पक्षधर कम्युनिस्ट कहीं अधीरता व अपरिपक्वता के कारण असमय क्रान्ति का बिगुल बजा कर असफलता का वरन न कर लें। कम से कम नक्सलियों की कारगुजारियाँ तो ऐसे ही संकेत देती हैं।
अतः आज आवश्यकता इस बात की है कि संसदीय लोकतन्त्र के समर्थक व सशस्त्र क्रांति के समर्थक कम्युनिस्ट आपस में मिल कर रण-नीति व मोर्चा बनाएँ तथा वास्तविक धर्म को पहले खुद समझ कर फिर जनता को बेधड़क समझाएँ कि जिसे शोषकों-उतपीडकों द्वारा धर्म की संज्ञा दी जा रही है वह धर्म नहीं बल्कि ढोंग-पाखंड-आडंबर मात्र है। किन्तु क्या 'क्रान्ति' की बातें करने वाले कम्युनिस्ट समाज और जनता को वास्तविकता समझा पाएंगे जबकि वे खुद ही उलझे हुये हैं? तभी तो नया कारपोरेट कम्यूनिज़्म पनप रहा है।
2011 मे कारपोरेट भ्रष्टाचार के संरक्षण तथा मजदूरों के शोषण को और तीव्र करने हेतु हज़ारे/केजरीवाल आंदोलन खड़ा किया गया जिसका परिणाम AAP/आ आ पा है जिसे JNU के प्रोफेसर एवं छात्र नग्न समर्थन दे रहे हैं और खुद को कम्युनिस्ट वामपंथी भी कह रहे हैं। आ आ पा की टीम संघी मानसिकता के लोगों का जमावड़ा है और उसे कम्युनिस्ट-वामपंथी 'बनारस' में कदमताल करते हुये समर्थन प्रदान कर रहे हैं। इनकी कोशिश बनारस के मुस्लिमों को मूर्ख बना कर केजरीवाल को वोट दिलवाना है जिससे मोदी की जीत सुगम हो जाये। CPM की केरल यूनिट में भाजपाइयों को शामिल करने के बाद अब प्रकाश करात साहब ने आ आ पा /केजरीवाल को अपने मोर्चे में शामिल करने का संकेत भी दे दिया है। यह है-'कारपोरेट कम्यूनिज़्म' का ज्वलंत उदाहरण।
यदि दिल्ली की सड़कों पर कभी कम्युनिस्टों का संघ से संघर्ष होगा तब इन क्रांतिकारी कम्युनिस्टों को संघियों के साथ-साथ कार्पोरेटी कम्युनिस्टों से भी संघर्ष करना होगा। चुनावों से दूर भागने के कारण 'संसदीय साम्यवाद' तब विफल होगा और कमांड सशस्त्र क्रांतिकारी कम्युनिस्टों के हाथों में होगी जिनमें उतावले और अपरिपक्व लोग भी शामिल होंगे। ऐसी क्रांति को आज ही के दिन 10 मई 1857 के दिन प्रारम्भ हुई क्रांति की भांति कुचल देना शासकों के लिए बहुत आसान होगा। अतः 'संसदीय साम्यवाद' के समर्थकों को नितांत जागरूकता के साथ सजग रहना होगा।
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उपरोक्त स्टेटस फेसबुक पर देने का आशय यह था कि समय रहते वस्तु-स्थिति से सबको परिचित करा दिया जाये। एक तरफ तो 'संसदीय साम्यवाद' को तेलंगाना संघर्ष के बाद ही अपना लिया गया है जिसके परिणाम स्वरूप 1952 के प्रथम चुनावों में कम्युनिस्ट पार्टी मुख्य विपक्षी दल बन कर उभरी थी। किन्तु दूसरी ओर आज संसद और विधानसभाओं/स्थानीय निकायों के चुनावों आदि में भागीदारी न करने के कारण संसदीय संस्थानों में कम्युनिस्टों की उपस्थिती नगण्य है। अतः क्रांतिकारी कम्युनिस्ट जो संख्या में चाहे जितने भी हों परस्पर संघर्ष रत रहते हुये सशस्त्र क्रान्ति के स्वप्न देखते रहते हैं।
सशस्त्र क्रांति वाले अपनी इस प्रकार की हरकतों के कारण सही उद्देश्य के बावजूद जनता का समर्थन नहीं हासिल कर सकते हैं। वहीं संसदीय लोकतन्त्र वाले संसदीय चुनावों से दूर रहने के कारण और अपने 'एथीस्ट वाद 'के चलते जनता में लोकप्रियता हासिल करने से वंचित रहते हैं। एथीस्ट्वादी 'धर्म' का विरोध करते हैं क्योंकि उनकी निगाह और ज्ञान के अनुसार पोंगापंडितवाद,ढोंग,पाखंड,आडंबर ही धर्म है।
'धर्म'=सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य।
इन सद्गुणों का महर्षि कार्ल मार्क्स ने किस पुस्तक में विरोध किया है?मार्क्स ने उस समय यूरोप में प्रचलित रोमन केथोलिक और प्रोटेस्टेंट रिलीजन्स का विरोध इसलिए किया है कि वे धर्म नहीं ढोंग-पाखंड-आडंबर हैं। उसी प्रकार हिन्दुत्व,इस्लाम आदि रिलीजन्स का भी विरोध किया जाना चाहिए किन्तु 'धर्म' का विरोध करने का औचित्य क्या है?धर्म वह है जो मनुष्य और मानव समाज को धारण करने हेतु आवश्यक है उसका विरोध करके कैसे मार्क्स वाद लागू किया जा सकता है?और यही वजह है इसके रूस में उखड़ने तथा चीन में 'विकृत' हो जाने की।
धर्म का विरोध करते हुये तथा खुद को नास्तिक-एथीस्ट घोषित करते हुये कम्युनिस्ट विद्वान व नेता गण ढोंग -पाखंड -आडंबर को गले लगाए रहते हैं तथा पोंगापंडितवाद का संरक्षण करते हैं। चाहे क्रांतिकारी हों अथवा संसदीय लोकतन्त्र के समर्थक कभी भी मार्कसवाद को सफल नहीं बना पाएंगे यदि 'धर्म' -वास्तविक पर नहीं चलेंगे तो।
क्रान्ति=क्रान्ति कोई ऐसी वस्तु नहीं होती जिसका विस्फोट एकाएक या अचानक होता है। बल्कि इसके अनंतर 'अन्तर'के तनाव को बल मिलता रहता है।
जैसे कि ब्रिटिश दासता में उत्पीड़ित होते-होते अंततः 22 जून 1857 को उनकी सत्ता को उखाड़ने का निश्चय करके तैयारी चल ही रही थी कि मंगल पांडे के बैरकपुर छावनी में विद्रोह करने व बलिदान देने से भड़के सैनिकों ने 10 मई को मेरठ छावनी से बगावत का बिगुल बजा दिया।'अपरिपक्वता' एवं उतावलेपन के कारण अधूरी तैयारी पर हुई क्रान्ति पारस्परिक फूट के चलते विफल हो गई।
यही भय आज भी विद्यमान है कि सशस्त्र क्रान्ति के पक्षधर कम्युनिस्ट कहीं अधीरता व अपरिपक्वता के कारण असमय क्रान्ति का बिगुल बजा कर असफलता का वरन न कर लें। कम से कम नक्सलियों की कारगुजारियाँ तो ऐसे ही संकेत देती हैं।
अतः आज आवश्यकता इस बात की है कि संसदीय लोकतन्त्र के समर्थक व सशस्त्र क्रांति के समर्थक कम्युनिस्ट आपस में मिल कर रण-नीति व मोर्चा बनाएँ तथा वास्तविक धर्म को पहले खुद समझ कर फिर जनता को बेधड़क समझाएँ कि जिसे शोषकों-उतपीडकों द्वारा धर्म की संज्ञा दी जा रही है वह धर्म नहीं बल्कि ढोंग-पाखंड-आडंबर मात्र है। किन्तु क्या 'क्रान्ति' की बातें करने वाले कम्युनिस्ट समाज और जनता को वास्तविकता समझा पाएंगे जबकि वे खुद ही उलझे हुये हैं? तभी तो नया कारपोरेट कम्यूनिज़्म पनप रहा है।