हरियाली तीज / स्त्रियों की मानसिक दासता का पर्व :
सावन महीने की शुक्ल पक्ष की तृतीया को हरियाली तीज के रुप में मनाया जाता है। यह व्रत अविवाहित कन्याएं योग्य वर पाने की तथा विवाहित महिलाएं अपने पति की लंबी उम्र की चाहत में करती हैं। देश के पूर्वी इलाकों में इसे कजली तीज के रुप में जाना जाता हैं। सवाल है कि पति की लंबी ज़िन्दगी के लिए हमेशा से सिर्फ स्त्रियां ही क्यों ब्रत करती हैं रही ? पतियों में ऐसे कौन से सुर्खाब के पर लगे होते हैं ? कोई ऐसा व्रत हमारे शास्त्रों और परंपराओं में क्यों नहीं है जो हिन्दू पति अपनी पत्नी की लंबी उम्र के लिए भी करता हो ? पति पर आर्थिक रूप से निर्भर और सामंती माहौल में जीने वाली स्त्रियों की पारिवारिक और सामाजिक हैसियत उनके पतियों के जीवन-काल तक ही हुआ करती है। पतियों को लेकर उनका भय और उनकी असुरक्षा की भावना समझ में आती है। लेकिन आज की शिक्षित और आत्मनिर्भर स्त्रियों ने अगर पुरूष अहंकार को ताक़त देने वाले ऐसे ब्रत-त्योहारों का अबतक वहिष्कार नहीं किया है तो इसका सीधा मतलब है कि स्त्रियों के भीतर पुरूष-दासता की जड़ें बहुत गहरी हैं।
क्या तीज जैसे ब्रत नहीं करने वाले आदिवासी समाजों और दूसरे धर्मों के पतियों की उम्र हिन्दू पतियों की उम्र से कम हुआ करती है ?
सावन महीने की शुक्ल पक्ष की तृतीया को हरियाली तीज के रुप में मनाया जाता है। यह व्रत अविवाहित कन्याएं योग्य वर पाने की तथा विवाहित महिलाएं अपने पति की लंबी उम्र की चाहत में करती हैं। देश के पूर्वी इलाकों में इसे कजली तीज के रुप में जाना जाता हैं। सवाल है कि पति की लंबी ज़िन्दगी के लिए हमेशा से सिर्फ स्त्रियां ही क्यों ब्रत करती हैं रही ? पतियों में ऐसे कौन से सुर्खाब के पर लगे होते हैं ? कोई ऐसा व्रत हमारे शास्त्रों और परंपराओं में क्यों नहीं है जो हिन्दू पति अपनी पत्नी की लंबी उम्र के लिए भी करता हो ? पति पर आर्थिक रूप से निर्भर और सामंती माहौल में जीने वाली स्त्रियों की पारिवारिक और सामाजिक हैसियत उनके पतियों के जीवन-काल तक ही हुआ करती है। पतियों को लेकर उनका भय और उनकी असुरक्षा की भावना समझ में आती है। लेकिन आज की शिक्षित और आत्मनिर्भर स्त्रियों ने अगर पुरूष अहंकार को ताक़त देने वाले ऐसे ब्रत-त्योहारों का अबतक वहिष्कार नहीं किया है तो इसका सीधा मतलब है कि स्त्रियों के भीतर पुरूष-दासता की जड़ें बहुत गहरी हैं।
क्या तीज जैसे ब्रत नहीं करने वाले आदिवासी समाजों और दूसरे धर्मों के पतियों की उम्र हिन्दू पतियों की उम्र से कम हुआ करती है ?
ध्रुव गुप्त जी एवं पंकज चतुर्वेदी जी द्वारा उठाए गए प्रश्न प्रासांगिक एवं सामयिक हैं और इन पर गंभीरता से गौर किए जाने की आवश्यकता है।
वस्तुतः आज जितने भी पर्व मनाए जा रहे हैं केवल थोथी आस्था,ढ़ोंगी श्रद्धा एवं दिखावे की होड़ा-हाड़ी के लिए मनाए जा रहे हैं। उनको मनाए जाने की तार्किकता एवं औचित्य पर किसी का भी ध्यान नहीं है। 'बाजारवाद' ने इस सब खुराफात को अपने मुनाफे की खातिर बढ़ाया ही है और खेद की बात है कि तथाकथित 'एथीस्टवादी ' व प्रगतिशील लोग भी सच्चाई को जन-प्रकाश में लाने को तैयार नहीं हैं । वे केवल 'धर्म' को नहीं मानते कह कर अधर्म को बढ़ावा दे देते हैं किन्तु धर्म की सच्ची व्याख्या : सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा ),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य को समझने व बताने के लिए तैयार नहीं हैं जिसका पूरा-पूरा लाभ ढोंगियों,पाखंडियों व आड्मबरकारियों को समाज को सामंती पद्धति पर गुमराह करने हेतु मिलता जाता है। जब तक खुद महिलाएं ही आगे बढ़ कर इस ढोंग व पाखंड का प्रतीकार नहीं करेंगी तब तक समाज का मुक्त होना संभव नहीं है।
~विजय राजबली माथुर ©
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आजकल त्यौहार आस्था या श्रद्धा से नही बल्कि मनोरण्जन के लिये ही मनाये जाते है!ये सोच कर कि चलिये आज बहाने से कुछ मौज मस्ती ही हो जाये1
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