Monday, August 17, 2015

प्रतिवादों से अविचलित अमृतलाल नागर --- संजोग वाल्टर



अमृतलाल नागर, 17 अगस्त, 1916 - 23 फ़रवरी, 1990) हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार थे। इन्होंने नाटक, रेडियो नाटक, रिपोर्ताज, निबन्ध, संस्मरण, अनुवाद, बाल साहित्य आदि के क्षेत्र में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। इन्हें साहित्य जगत में उपन्यासकार के रूप में सर्वाधिक ख्याति प्राप्त हुई तदपि उनका हास्य-व्यंग्य लेखन कम महत्त्वपूर्ण नहीं है।
अमृतलाल नागर का जन्म सुसंस्कृत गुजराती परिवार में 17 अगस्त, 1916 ई. को गोकुलपुरा, आगरा, उत्तर प्रदेश में इनकी ननिहाल में हुआ था। इनके पितामह पण्डित शिवराम नागर 1895 ई. से लखनऊ आकर बस गए। इनके पिता पण्डित राजाराम नागर की मृत्यु के समय नागर जी कुल 19 वर्ष के थे।
अमृतलाल नागर की विधिवत शिक्षा अर्थोपार्जन की विवशता के कारण हाईस्कूल तक ही हुई, किन्तु निरन्तर स्वाध्याय द्वारा इन्होंने साहित्य, इतिहास, पुराण, पुरातत्त्व, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान आदि विषयों पर तथा हिन्दी, गुजराती, मराठी, बांग्ला एवं अंग्रेज़ी आदि भाषाओं पर अधिकार प्राप्त किया।
अमृतलाल नागर ने एक छोटी सी नौकरी के बाद कुछ समय तक मुक्त लेखन एवं हास्यरस के प्रसिद्ध पत्र 'चकल्लस' के सम्पादन का कार्य 1940 से 1947 ई. तक कोल्हापुर में किया इसके बाद बम्बई एवं मद्रास के फ़िल्म क्षेत्र में लेखन का कार्य किया। यह हिन्दी फ़िल्मों में डबिंग कार्य में अग्रणी थे। दिसम्बर, 1953 से मई, 1956 तक आकाशवाणी, लखनऊ में ड्रामा, प्रोड्यूसर, उसके कुछ समय बाद स्वतंत्र लेखन का कार्य किया।
नागर जी अपने व्यक्तित्व और सामाजिक अनुभवों की कसौटी पर विचारों को कसते रहते हैं और जितनी मात्रा में उन्हें ख़रा पाते हैं, उतनी ही मात्रा में ग्रहण करते हैं। चाहे उन पर देशी छाप हो या विदेशी, पुरानी छाप हो या नयी। उनकी कसौटी मूलभूत रूप से साधारण भारतीय जन की कसौटी है, जो सत्य को अस्थिर तर्कों के द्वारा नहीं, साधनालब्ध श्रद्धा के द्वारा पहचानती है। अन्धश्रद्धा को काटने के लिए वे तर्कों का प्रयोग अवश्य करते हैं, किन्तु तर्कों के कारण अनुभवों को नहीं झुठलाते, फलत: कभी-कभी पुराने और नये दोनों उन पर झुँझला उठते हैं। 'एकदा नैमिषारण्यें' में पुराणों और पौराणिक चरित्रों का समाजशास्त्रीय, अर्ध ऐतिहासिक स्वच्छन्द विश्लेषण या 'मानस का हंस' में युवा तुलसीदास के जीवन में 'मोहिनी प्रसंग' का संयोजन आदि पुराण पंथियों को अनुचित दुस्साहस लगता है, तो बाबा रामजीदास और तुलसी के आध्यात्मिक अनुभवों को श्रद्धा के साथ अंकित करना बहुतेरे नयों को नागवार और प्रगतिविरोधी प्रतीत होता है। नागर जी इन दोनों प्रकारों के प्रतिवादों से विचलित नहीं होते। अपनी इस प्रवृत्ति के कारण वे किसी एक साहित्यिक खाने में नहीं रखे जा सकते।
अमृतलाल नागर हिन्दी के गम्भीर कथाकारों में सर्वाधिक लोकप्रिय हैं। इसका अर्थ ही यह है कि वे विशिष्टता और रजकता दोनों तत्वों को अपनी कृतियों में समेटने में समर्थ हुए हैं। उन्होंने न तो परम्परा को ही नकारा है, न आधुनिकता से मुँह मोड़ा है। उन्हें अपने समय की पुरानी और नयी दोनों पीढ़ियों का स्नेह समर्थन मिला और कभी-कभी दोनों का उपालंभ भी मिला है। आध्यात्मिकता पर गहरा विश्वास करते हुए भी वे समाजवादी हैं, किन्तु जैसे उनकी आध्यात्मिकता किसी सम्प्रदाय कठघरे में बन्दी नहीं है, वैसे ही उनका समाजवाद किसी राजनीतिक दल के पास बन्धक नहीं है। उनकी कल्पना के समाजवादी समाज में व्यक्ति और समाज दोनों का मुक्त स्वस्थ विकास समस्या को समझने और चित्रित करने के लिए उसे समाज के भीतर रखकर देखना ही नागर जी के अनुसार ठीक देखना है। इसीलिए बूँद (व्यक्ति) के साथ ही साथ वे समुद्र (समाज) को नहीं भूलते।
नागर जी की जगत के प्रति दृष्टि न अतिरेकवादी है, न हठाग्रही। एकांगदर्शी न होने के कारण वे उसकी अच्छाइयों और बुराइयों, दोनों को देखते हैं। किन्तु बुराइयों से उठकर अच्छाइयों की ओर विफलता को भी वे मनुष्यत्व मानते हैं। जीवन की क्रूरता, कुरूपता, विफलता को भी वे अंकित करते चले हैं, किन्तु उसी को मानव नियति नहीं मानते। जिस प्रकार संकीर्ण आर्थिक स्वार्थों और मृत धार्मिकता के ठेकेदारों से वे अपने लेखन में जूझते रहे हैं, उसी प्रकार मूल्यों के विघटन, दिशाहीनता, अर्थहीनता आदि का नारा लगाकर निष्क्रियता और आत्महत्या तक का समर्थन करने वाली बौद्धिकता को भी नकारते रहे हैं। अपने लेखक-नायक अरविन्द शंकर के माध्यम से उन्होंने कहा है, जड़-चेतन, भय, विष-अमृत मय, अन्धकार-प्रकाशमय जीवन में न्याय के लिए कर्म करना ही गति है। मुझे जीना ही होगा, कर्म करना ही होगा, यह बन्धन ही मेरी मुक्ति भी है। इस अन्धकार में ही प्रकाश पाने के लिए मुझे जीना है।[1] नागर जी आरोपित बुद्धि से काम नहीं करते, किसी दृष्टि या वाद को जस का तस नहीं लेते।
नागर जी किस्सागोई में माहिर हैं। यद्यपि गम्भीर उत्तरदायित्वों का निर्वाह करने के कारण कहीं-कहीं उनके उपन्यासों में बहसों के दौरान तात्विक विवेचन के लम्बे-लम्बे प्रंसग भी आ जाते हैं। तथापि वे अपनी कृतियों को उपदेशात्मक या उबाऊ नहीं बनने देते। रोचक कथाओं और ठोस चरित्रों की भूमिका से ही विचारों के आकाश की ओर भरी गयी इन उड़ानों को साधारण पाठक भी झेल लेते हैं। उनके साहित्य का लक्ष्य भी साधारण नागरिक है, अपने को असाधारण मानने वाला साहित्यकार या बुद्धिजीवी समीक्षक नहीं। समाज में ख़ूब घुल-मिलकर अपने देखे-सुने और अनुभव किये चरित्रों, प्रसंगों को तनिक कल्पना के पुट से वे अपने कथा साहित्य में ढालते रहे हैं। अपनी आरम्भिक कहानियों में उन्होंने कहीं-कहीं स्वछन्दतावादी भावुकता की झलक दी है। किन्तु उनका जीवन बोध ज्यों-ज्यों बढ़ता गया त्यों-त्यों वे अपने भावातिरेक को संयत और कल्पना को यथार्थाश्रित करते चले गये। अपने पहले अप्रौढ़ उपन्यास महाकाल में सामाजिक यथार्थ के जिस स्वच्छ बोध का परिचय उन्होंने दिया था, निहित स्वार्थ के विविध रूपों को साम्राज्यवादी उत्पीड़न, ज़मींदारों, व्यापारियों द्वारा साधारण जनता के शोषण, साम्प्रदायिकतावादियों के हथकंडों आदि को बेनकाब करने का जो साहस दिखाया था, वह परवर्त्ती उपन्यासों में कलात्मक संयम के साथ-साथ उत्तरोत्तर निखरता चला गया।
'बूँद और समुद्र' तथा 'अमृत और विष' जैसे वर्तमान जीवन पर लिखित उपन्यासों में ही नहीं, 'एकदा नैमिषारण्ये' तथा 'मानस का हंस' जैसे पौराणिक-ऐतिहासिक पीठिका पर रचित सांस्कृतिक उपन्यासों में भी उत्पीड़कों का पर्दाफ़ाश करने और उत्पीड़ितों का साथ देने का अपना व्रत उन्होंने बखूबी निभाया है। अतीत को वर्तमान से जोड़ने और प्रेरणा के स्रोत के रूप में प्रस्तुत करने के संकल्प के कारण ही 'एकदा नैमिषारण्ये' में पुराणकारों के कथा-सूत्र को भारत की एकात्मकता के लिए किये गये महान सांस्कृतिक प्रयास के रूप में, तथा 'मानस का हंस' में तुलसी की जीवन कथा को आसक्तियों और प्रलोभनों के संघातों के कारण डगमगा कर अडिग हो जाने वाली 'आस्था के संघर्ष की कथा' एवं उत्पीड़ित लोकजीवन को संजीवनी प्रदान करने वाली 'भक्तिधारा के प्रवाह की कथा' के रूप में प्रभावशाली ढंग से अंकित किया है।
सामाजिक परिस्थितियों से जूझते हुए व्यक्ति के अंतर्मन में कामवृत्ति के घात प्रतिघात का चित्रण भी उन्होंने विश्वसनीय रूप से किया है। काम को इच्छाशक्ति गीत और सृजन के प्रेरक के रूप में ग्रहण करने के कारण वे उसे बहुत अधिक महत्त्व देते हैं। काम अपने आधारों (व्यक्तियों) के सत, रज, तम के अंशों की न्यूनाधिकता के कारण सहस्रों रूप धारण कर सकता है। अपने निकृष्ट रूप में वह बलात्कार या इन्द्रिय भोग मात्र बनकर रह जाता है तो अपने उत्कृष्ट रूप में प्रेम की संज्ञा पाता है। नागर जी ने कंठारहित होकर किन्तु उत्तरदायित्व के बोध के साथ काम कि विकृत (विरहेश और बड़ी, लच्छू और उमा माथुर, लवसूल और जुआना आदि), स्वरूप (सज्जन और वनकन्या, रमेश और रानीवाला आदि) और दिव्य (सोमाहुति और हज्या, तुलसी और रत्नावली) एवं इनके अनेकानेक मिश्रित रूपों की छवियाँ अपनी कृतियों में आँकी हैं। पीड़िता नारी के प्रति उनकी सदा सहानुभूति रही है, चाहे वह कन्नगी के सदृश एकनिष्ठ हो, चाहे माधवी के सदृश वेश्या। स्वार्थी पुरुष की भोग-वासना ही नारी को वेश्या बनाती है। अत: पुरुष होने के कारण उनके प्रति नागर जी अपने मन में अपराध बोध का अनुभव करते हैं। जिसका आंशिक परिमार्जन उन्होंने सदभावना पूर्ण भेंटवार्ताओं पर आधारित ये कोठेवालियाँ जैसी तथ्यपूर्ण कृति के द्वारा किया है।
नागर जी की ज़िन्दादिली और विनोदी वृत्ति उनकी कृतियों को कभी विषादपूर्ण नहीं बनने देती। 'नवाबी मसनद' और 'सेठ बाँकेमल' में हास्य व्यंग्य की जो धारा प्रवाहित हुई है, वह अनन्त धारा के रूप में उनके गम्भीर उपन्यासों में भी विद्यमान है और विभिन्न चरित्रों एवं स्थितियों में बीच-बीच में प्रकट होकर पाठक को उल्लासित करती रहती है। नागर जी के चरित्र समाज के विभिन्न वर्गों से गृहीत हैं। उनमें अच्छे बुरे सभी प्रकार के लोग हैं, किन्तु उनके चरित्र-चित्रण में मनोविश्लेषणात्मकता को कम और घटनाओं के मध्य उनके व्यवहार को अधिक महत्त्व दिया गया है। अनेकानेक एकायामी सफल विश्वसनीय चरित्रों के साथ-साथ उन्होंने बूँद और समुद्र की 'ताई' जैसे जटिल चरित्रों की सृष्टि की है, जो घृणा और करुणा, विद्वेष और वात्सल्य, प्रतिहिंसा और उत्सर्ग की विलक्षण समष्टि है।
कई समीक्षकों की शिकायत रही है कि नागर जी अपने उपन्यासों में 'संग्रहवृत्ति' से काम लेते हैं, 'चयनवृत्ति' से नहीं। इसीलिए उनमें अनपेक्षित विस्तार हो जाता है। वस्तुत: नागर जी के बड़े उपन्यासों में समग्र सामाजिक जीवन को झलकाने की दृष्टि प्रघतन है। अत: थोड़े से चरित्रों पर आधारित सुबद्ध कथानक पद्धति के स्थान पर वे शिथिल सम्बन्धों से जुड़ी और एक-दूसरे की पूरक लगने वाली कथाओं के माध्यम से यथासम्भव पूरे सामाजिक परिदृश्य को उभारने की चेष्टा करते हैं। महाभारत एवं पुराणों के अनुशीलन ने उन्हें इस पद्धति की ओर प्रेरित किया है। शिल्प पर अनावश्यक बल देने को वे उचित नहीं मानते। उनका कहना है कि फ़ॉर्म के लिए मैं परेशान नहीं होता, बात जब भीतर-भीतर पकने लगती है तो वह अपना फ़ॉर्म खुद अपने साथ लाती है। मैं सरलता को लेखक के लिए अनिवार्य गुण मानता हूँ। जटिलता, कुत्रिमता, दाँव-पेंच से लेखक महान नहीं बन सकता। इसीलिए केवल 'फ़ॉर्म' के पीछे दौड़ने वाले लेखक को मैं टुटपँजिया समझता हूँ।
भाषा के क्षेत्रीय प्रयोगों को विविध वर्गों में प्रयुक्त भिन्नताओं के साथ ज्यों का त्यों उतार देने में नागर जी को कमाल हासिल है। बोलचाल की सहज, चटुल, चंचल भाषा गम्भीर दार्शनिक सामाजिक प्रसंगों की गुरुता एवं अंतरंग प्रणय प्रसंगों की कोमलता का निर्वाह करने के लिए किस प्रकार बदल जाती है, इसे देखते ही बनता है। सचमुच भाषा पर नागर जी का असाधारण अधिकार है। नागर जी शिल्प के प्रति उदासीन हैं। अपने पुराने शिल्प से आगे बढ़ने की चेष्टा बराबर करते रहे हैं। 'बूँद और समुद्र' में पौराणिक शिल्प के अभिनव प्रयोग के अनन्तर 'अमृत और विष' में अपने पात्रों की दुहरी सत्ताओं के आधार पर दो-दो कथाओं को साथ-साथ चलाना, 'मानस का हंस' में फ़्लैश बैक के दृश्य रूप का व्यापक प्रयोग करना उनकी शिल्प सजगता के उदाहरण हैं। फिर भी यह सत्य है कि उनके लिए कथ्य ही मुख्य है शिल्प नहीं।
नागर जी को 'बूँद' और 'समुद्र' पर काशी नागरी प्रचारिणी सभा का बटुक प्रसाद पुरस्कार एवं सुधाकर रचत पदक, 'सुहाग के नूपुर' पर उत्तर प्रदेश शासन का 'प्रेमचन्द पुरस्कार', 'अमृत और विष' पर साहित्य अकादमी का 1967 का पुरस्कार एवं सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार 1970 तथा साहित्यिक सेवाओं पर युगान्तर का 1972 का पुरस्कार प्रदान किया जा चुका है।
अमृतलाल नागर जी का निधन सन् 23 फ़रवरी, 1990 ई. में हुआ था। नागर जी की कृतियों ने हिन्दी साहित्य की गरिमा बढ़ायी है। नागर जी के तीन रंगमंचीय नाटक एवं 25 से अधिक रेडियो फ़ीचर और बहुत से निबन्ध हैं, जो अभी तक प्रकाशित नहीं हुए हैं।
नागर जी की हवेली लखनऊ के चौक में मिर्ज़ा टोला है जहाँ उनके परिजन रहते हैं ,श्री लालजी टंडन ने नगर विकास मंत्री के तौर ओ पर नागर जी के नाम पर प्रेक्षाग्रह के साथ एक बाज़ार लखनऊ वासियों को समर्पित किया था

प्रमुख कृतियाँ :

अमृतलाल नागर ने 1928 में छिटपुट एवं 1932 से 1933 से जमकर लिखना शुरू किया। इनकी प्रारम्भिक कविताएँ मेघराज इन्द्र के नाम से, कहानियाँ अपने नाम से तथा व्यंग्यपूर्ण रेखाचित्र-निबन्ध आदि तस्लीम लखनवी के नाम से लिखित हैं। यह कथाकार के रूप में सुप्रतिष्ठित थे। यह 'बूँद और समुद्र' (1956) के प्रकाशन के साथ हिन्दी के प्रथम श्रेणी के उपन्यासकारों के रूप में मान्य हैं।


साभार :
https://www.facebook.com/359121077501161/photos/a.493970777349523.1073741825.359121077501161/504111596335441/?type=1 
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अमृतलाल नागर के ‘ मानस का हंस ‘ के अनुसार मानस की रचना के दौरान तुलसी अयोध्या भी रहे । कैसे रहे ? खुद तुलसी के शब्दों में ‘ माँग के खईबो , मसीद में सोईबो ‘ । मसीद यानी मस्जिद । कहा जाता है
http://kashivishvavidyalay.wordpress.com/2007/08/03/banarastulsi-ghatshambhoo-mallah/
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आज प्रातः 11 बजे उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, हज़रत गंज, लखनऊ में 'अमृतलाल नागर जन्म शताब्दी समारोह' का प्रारम्भ दीप प्रज्वलन,माल्यार्पण और  सरस्वती वंदना से हुआ। मंचस्थ अतिथियों  डॉ प्रभाकर श्रोत्रिय , बंधु कुशावर्ती,डॉ दीप्ति गुप्ता,नासिरा शर्मा,डॉ सूर्य प्रसाद दीक्षित,डॉ अचला नगर ,बेकल उत्साही,उदय प्रताप सिंह का अंग वस्त्र प्रदान कर संस्थान के निदेशक डॉ सुधाकर अदीब ने स्वागत किया। गोष्ठी की अध्यक्षता संस्थान के कार्यकारी अध्यक्ष उदय प्रताप सिंह जी ने तथा  कुशल संचालन डॉ अमिता दुबे जी ने किया। अतिथियों व श्रोताओं का स्वागत भाषण डॉ सुधाकर अदीब जी ने दिया। 


संस्थान की त्रैमासिक पत्रिका 'साहित्य भारती' के अमृतलाल नागर विशेषांक का विमोचन भी अतिथि गण ने किया।सर्व प्रथम लखनऊ दूर दर्शन द्वारा पूर्व प्रसारित एक वृत्त -चित्र भी नागर जी पर दिखाया गया। 
विद्वत जनों ने नागर जी के कहानी,उपन्यास,नाटक,रेडियो नाटक,फिल्मी पट कथा आदि विविध लेखन पर विस्तृत व विशिष्ट प्रकाश डाला। नासिरा शर्मा जी ने श्रोताओं से नागर जी की कहानी 'शकीरा की माँ' पढ़ने का विशेष आग्रह किया। उदय प्रताप जी ने अपने संस्मरण सुनाते हुये अतिथियों व श्रोताओं का धन्यवाद ज्ञापन किया। 
भोजनोपरांत दिवतीय सत्र का संचालन भी डॉ अमिता दुबे जी ने किया  व अध्यक्षता उदय प्रताप जी ने । प्रारम्भ में नागर जी की सुपुत्री डॉ अचला नागर जी अपने पिताजी के व्यक्तिगत संस्मरण याद करते हुये कुछ उन पत्रों को भी पढ़ कर सुनाया  जिनको बचपन में उनके पिताजी ने उनको लिखा था। उनके बाद उनकी भाभीजी - विभा नगर जी ने भी नागर जी के व्यक्तिगत संस्मरणों की चर्चा की। नागर जी के पौत्र पारिजात अत्यंत भावुक हो जाने के कारण स्वम्य न बोल सके किन्तु हिन्दी संस्थान को आयोजन के लिए धन्यवाद ज्ञापन किया। अचला जी के पुत्र सन्दीपन विमलकान्त नागर ने अपने नानाजी के संस्मरण सुनाते हुये उनको नई पीढ़ी का प्रेरणादायक बताया और उनके प्रति मुलायम सिंह जी के आदर भाव का वर्णन करना भी वह न भूले तथा उदय प्रताप जी को इस आयोजन की प्रेरणा देने के लिए उन्होने कृत्यज्ञता व्यक्त की। नागर जी की पौत्री डॉ दीक्षा नागर ने बचपन से उनके साथ के संस्मरणों को बताते हुये यह दुख भी व्यक्त किया कि इस अवसर पर उनके ताऊजी(कुमुद नागर),ताई जी व उनके पिता डॉ शरद नागर जी नहीं हैं (वे पहले ही दिवंगत हो चुके हैं)। लेकिन डॉ दीक्षा ने कहा कि अमृतलाल नागर जी सिर्फ अपने निजी परिवार के ही नहीं थे। उनका परिवार विस्तृत था सारे समाज को ही वह अपना परिवार मानते थे।इस संबंध में उन्होने अपने बचपन का एक किस्सा सुनाया कि एक बार नागर जी चौक में पान खाने निकले थे वह नौ वर्षीय बालिका थीं और उनके साथ थीं। वह एक चने वाले के पास रुक गए जिसका उनको अचरज हुआ फिर नागर जी ने उनको 'शंकर' कह कर संबोधित किया जिसके जवाब में उन्होने नागर जी को 'अमृत' का सम्बोधन दिया जिससे उनको और भी आश्चर्य हुआ। परंतु बाद में पता चला कि वह उनके सहपाठी थे। नागर जी मनुष्य-मनुष्य के बीच भेद नहीं मानते थे।   मोहन स्वरूप भाटिया जी व सोम ठाकुर साहब ने भी अपने संस्मरणों से श्रोताओं को अवगत कराया। 
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 मेरे बाबूजी (स्व. ताजराज बली माथुर ) लखनऊ के  कालीचरण हाईस्कूल  में जब  पढ़ते थे तब खेल  - कूद में सक्रिय थे। टेनिस में सीनियर ब्वायज एसोसियेशन  की ओर से  पंडित अमृत लाल नागर जी  खेलते थे तब   बाबूजी  तत्कालीन छात्र की हैसियत से उनके साथ खेलते  थे ।  पत्रकार राम पाल सिंह जी ( जो नवभारत टाईम्स , भोपाल के संपादक रहे )  भी बाबूजी के खेल के साथी थे। का.भीखा  लाल जी  तो बाबूजी के रूममेट  और सहपाठी थे  जो जब तहसीलदार बने   तो बाबूजी का उनसे संपर्क टूट गया। इन तीनों का ज़िक्र अपने बाबूजी से बचपन से सुनता रहा हूँ। बाबू जी के खेल के मैदान के साथी रहे अमृतलाल नागर जी के जन्म शताब्दी समारोह का अवलोकन करने पर अपने को भाग्यशाली समझता हूँ।
(विजय राज बली माथुर ) 
https://www.facebook.com/vijai.mathur/posts/926781337383843?pnref=story 

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