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प्रस्तुत आलेख के माध्यम से 62 हज़ार भारतीय सैनिकों की मौत व 67 हज़ार सैनिकों के प्रथम विश्व युद्ध में घायल होने की ज़िम्मेदारी महात्मा गांधी जी पर डाली गई है। नाम इतिहास का लिया जा रहा है। इतिहास तो यह भी है कि संभवतः गांधी जी को ही इस 'हिंदुस्तान' का सर्व प्रथम संपादक घनश्याम दास बिड़ला जी द्वारा बनवाया गया था जिसके प्रधान संपादक महोदय आज गांधी जी को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं। केवल व्यापारी नहीं थे घनश्याम दास जी बल्कि साहित्य जगत में भी उनका उसी प्रकार मान-सम्मान था जिस प्रकार सेठ गोविंद दास जी का था। कृष्ण कुमार बिड़ला साहब भी साहित्यिक हस्तियों व राजनेताओं का सम्मान करते थे। कभी विहिप द्वारा सब्सिडाइज़ 'आज',आगरा के स्थानीय संपादक रहे पंडित जी जब हिंदुस्तान के प्रधान संपादक बन गए तो गांधी जी से भी महान हो गए जो उनको अपने संस्थापक संपादक पर हमला बोलते तनिक भी संकोच नहीं हुआ।
इतिहासकार तो 'सत्य ' का अन्वेषक होता है उसकी पैनी निगाहें भूतकाल के अंतराल में प्रविष्ट होकर 'तथ्य ' के मोतियों को सामने लाती हैं।
किन्तु प्रस्तुत संपादकीय गांधी जी के प्रति तथ्यात्मक दृष्टिकोण नहीं अपनाता है। इसका प्रमुख कारण यह है कि आज इस अखबार का वह उद्देश्य नहीं रह गया है जिस उद्देश्य के लिए घनश्याम दास बिड़ला जी ने गांधी जी को इससे सम्बद्ध करवाया था। आज यह कारपोरेट घराने के मुनाफा कमाने वाला एक प्रोडक्ट है।ग्रामीण कुटीर उद्योगों के चहेते गांधी जी को भला कारपोरेट घराना क्यों महत्व देने लगा?
गांधी जी के ही प्रांत-राज्य के वह मोदी साहब अब सरकार के मुखिया हैं जो गांधी जी के हत्यारे से सहानुभूति रखने वाले संगठन और पार्टी से ताल्लुक रखते हैं। लिहाजा संपादकीय द्वारा गांधी जी को भारतीय सैनिकों की क्षति के लिए उत्तरदाई ठहराना राजनीतिक कलाबाजी है न कि ऐतिहासिक सच्चाई।
वस्तुतः 28 जून 1914 को आस्ट्रिया के राजकुमार की हत्या की गई थी जिसके बाद युद्ध की चिंगारी सुलग उठी थी ।जर्मन सम्राट विलियम कौसर द्वितीय का प्रधानमंत्री बनने के बाद प्रिंस बिस्मार्क ने जर्मनी को ब्रिटेन के मुक़ाबले श्रेष्ठ साबित करने और जर्मन साम्राज्य स्थापित करने में बाधक 'प्रशिया' प्रांत को जर्मनी से निकाल दिया था जबकि प्रशियन जर्मनी में बने रहना चाहते थे और इस हेतु संघर्ष छेड़ दिया था। जर्मनी साम्राज्य स्थापना करके ब्रिटेन के लिए चुनौती न प्रस्तुत करे इसलिए ब्रिटेन ने 04 अगस्त 1914 को जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी थी ।
उस समय के प्रभावशाली कांग्रेस नेता बाल गंगाधर तिलक मांडले जेल मे कैद थे और मोहनदास करमचंद गांधी अफ्रीका से भारत आ गए थे और गोपाल कृष्ण गोखले के स्वर मे स्वर मिलाने लगे थे । लाला हरदयाल(माथुर ) साहब ने विदेश में जाकर गदर पार्टी की स्थापना देश को आज़ाद कराने हेतु की थी जिसको सिंगापुर मे सफलता भी मिली थी।गांधी जी ने ब्रिटिश सरकार को इस आश्वासन के बाद युद्ध में सहयोग किया था कि युद्ध समाप्त होते ही भारत को आज़ाद कर दिया जाएगा। 1857 की क्रांति की विफलता और गदर पार्टी को जनता का व्यापक समर्थन न देख कर गांधी जी ने 'सत्य ' और 'अहिंसा ' के नए शस्त्रों से आज़ादी के संघर्ष को चलाने की पहल की थी और उन्होने शासकों पर भरोसा किया था। जब द्वितीय महायुद्ध के दौरान गांधी जी ने 'अंग्रेजों भारत छोड़ो' का आह्वान किया था तब भी अनेकों भारतीय ब्रिटिश फौज में भर्ती हुये थे। बेरोजगारी ने उनको मजबूर किया था विदेशी फौज में रोजगार पाने के लिए। यदि गांधी जी 1914 में भी फौज में भर्ती का विरोध करते तो क्या भूख से बेहाल गरीब फौज की सेवा में न जाकर रोजगार से वंचित होता? काबिल संपादक महोदय इस तथ्य को क्यों नज़रअंदाज़ कर गए? ज़ाहिर है उनके समक्ष राजनीतिक चापलूसी करके अपने कारपोरेट घराने के लिए आर्थिक लाभ कमाना उद्देश्य था -गांधी जी पर प्रहार करना।
1917 में जब नील की खेती में गोरों ने भारतीय किसानों पर अत्याचार ढाना शुरू किया था तब गांधी जी 'चंपारण ' गए थे। आदिवासी किसानों के बीच की घोर गरीबी उनको तब दिखाई दी थी जब एक परिवार की माँ और पुत्री के बीच एक ही साड़ी होने तथा बारी-बारी से उसका प्रयोग करने की बात उनको पता चली थी। उस दिन से उन्होने खुद भी आधी धोती पहनने का व्रत लिया जिसका आजन्म निर्वहन किया। क्या गांधी जी को आरोपित करने वाले अपने देश की जनता के लिए कुछ भी त्याग कर सकते हैं?
बहुत खतरनाक स्थिति है यह जब साहित्य व समाचारों के माध्यम से सत्ता राजनीति के साथ कदमताल मिलाई जा रही हो। निर्भीक और जागरूक लोगों का कर्तव्य है कि वे 'सत्य ' को कुचले जाने की प्रक्रिया का तीव्र विरोध करें।
~विजय राजबली माथुर ©
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प्रस्तुत आलेख के माध्यम से 62 हज़ार भारतीय सैनिकों की मौत व 67 हज़ार सैनिकों के प्रथम विश्व युद्ध में घायल होने की ज़िम्मेदारी महात्मा गांधी जी पर डाली गई है। नाम इतिहास का लिया जा रहा है। इतिहास तो यह भी है कि संभवतः गांधी जी को ही इस 'हिंदुस्तान' का सर्व प्रथम संपादक घनश्याम दास बिड़ला जी द्वारा बनवाया गया था जिसके प्रधान संपादक महोदय आज गांधी जी को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं। केवल व्यापारी नहीं थे घनश्याम दास जी बल्कि साहित्य जगत में भी उनका उसी प्रकार मान-सम्मान था जिस प्रकार सेठ गोविंद दास जी का था। कृष्ण कुमार बिड़ला साहब भी साहित्यिक हस्तियों व राजनेताओं का सम्मान करते थे। कभी विहिप द्वारा सब्सिडाइज़ 'आज',आगरा के स्थानीय संपादक रहे पंडित जी जब हिंदुस्तान के प्रधान संपादक बन गए तो गांधी जी से भी महान हो गए जो उनको अपने संस्थापक संपादक पर हमला बोलते तनिक भी संकोच नहीं हुआ।
इतिहासकार तो 'सत्य ' का अन्वेषक होता है उसकी पैनी निगाहें भूतकाल के अंतराल में प्रविष्ट होकर 'तथ्य ' के मोतियों को सामने लाती हैं।
किन्तु प्रस्तुत संपादकीय गांधी जी के प्रति तथ्यात्मक दृष्टिकोण नहीं अपनाता है। इसका प्रमुख कारण यह है कि आज इस अखबार का वह उद्देश्य नहीं रह गया है जिस उद्देश्य के लिए घनश्याम दास बिड़ला जी ने गांधी जी को इससे सम्बद्ध करवाया था। आज यह कारपोरेट घराने के मुनाफा कमाने वाला एक प्रोडक्ट है।ग्रामीण कुटीर उद्योगों के चहेते गांधी जी को भला कारपोरेट घराना क्यों महत्व देने लगा?
गांधी जी के ही प्रांत-राज्य के वह मोदी साहब अब सरकार के मुखिया हैं जो गांधी जी के हत्यारे से सहानुभूति रखने वाले संगठन और पार्टी से ताल्लुक रखते हैं। लिहाजा संपादकीय द्वारा गांधी जी को भारतीय सैनिकों की क्षति के लिए उत्तरदाई ठहराना राजनीतिक कलाबाजी है न कि ऐतिहासिक सच्चाई।
वस्तुतः 28 जून 1914 को आस्ट्रिया के राजकुमार की हत्या की गई थी जिसके बाद युद्ध की चिंगारी सुलग उठी थी ।जर्मन सम्राट विलियम कौसर द्वितीय का प्रधानमंत्री बनने के बाद प्रिंस बिस्मार्क ने जर्मनी को ब्रिटेन के मुक़ाबले श्रेष्ठ साबित करने और जर्मन साम्राज्य स्थापित करने में बाधक 'प्रशिया' प्रांत को जर्मनी से निकाल दिया था जबकि प्रशियन जर्मनी में बने रहना चाहते थे और इस हेतु संघर्ष छेड़ दिया था। जर्मनी साम्राज्य स्थापना करके ब्रिटेन के लिए चुनौती न प्रस्तुत करे इसलिए ब्रिटेन ने 04 अगस्त 1914 को जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी थी ।
उस समय के प्रभावशाली कांग्रेस नेता बाल गंगाधर तिलक मांडले जेल मे कैद थे और मोहनदास करमचंद गांधी अफ्रीका से भारत आ गए थे और गोपाल कृष्ण गोखले के स्वर मे स्वर मिलाने लगे थे । लाला हरदयाल(माथुर ) साहब ने विदेश में जाकर गदर पार्टी की स्थापना देश को आज़ाद कराने हेतु की थी जिसको सिंगापुर मे सफलता भी मिली थी।गांधी जी ने ब्रिटिश सरकार को इस आश्वासन के बाद युद्ध में सहयोग किया था कि युद्ध समाप्त होते ही भारत को आज़ाद कर दिया जाएगा। 1857 की क्रांति की विफलता और गदर पार्टी को जनता का व्यापक समर्थन न देख कर गांधी जी ने 'सत्य ' और 'अहिंसा ' के नए शस्त्रों से आज़ादी के संघर्ष को चलाने की पहल की थी और उन्होने शासकों पर भरोसा किया था। जब द्वितीय महायुद्ध के दौरान गांधी जी ने 'अंग्रेजों भारत छोड़ो' का आह्वान किया था तब भी अनेकों भारतीय ब्रिटिश फौज में भर्ती हुये थे। बेरोजगारी ने उनको मजबूर किया था विदेशी फौज में रोजगार पाने के लिए। यदि गांधी जी 1914 में भी फौज में भर्ती का विरोध करते तो क्या भूख से बेहाल गरीब फौज की सेवा में न जाकर रोजगार से वंचित होता? काबिल संपादक महोदय इस तथ्य को क्यों नज़रअंदाज़ कर गए? ज़ाहिर है उनके समक्ष राजनीतिक चापलूसी करके अपने कारपोरेट घराने के लिए आर्थिक लाभ कमाना उद्देश्य था -गांधी जी पर प्रहार करना।
1917 में जब नील की खेती में गोरों ने भारतीय किसानों पर अत्याचार ढाना शुरू किया था तब गांधी जी 'चंपारण ' गए थे। आदिवासी किसानों के बीच की घोर गरीबी उनको तब दिखाई दी थी जब एक परिवार की माँ और पुत्री के बीच एक ही साड़ी होने तथा बारी-बारी से उसका प्रयोग करने की बात उनको पता चली थी। उस दिन से उन्होने खुद भी आधी धोती पहनने का व्रत लिया जिसका आजन्म निर्वहन किया। क्या गांधी जी को आरोपित करने वाले अपने देश की जनता के लिए कुछ भी त्याग कर सकते हैं?
बहुत खतरनाक स्थिति है यह जब साहित्य व समाचारों के माध्यम से सत्ता राजनीति के साथ कदमताल मिलाई जा रही हो। निर्भीक और जागरूक लोगों का कर्तव्य है कि वे 'सत्य ' को कुचले जाने की प्रक्रिया का तीव्र विरोध करें।
~विजय राजबली माथुर ©
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