वसंत पंचमी और देवी सरस्वती
प्राचीन आर्य सभ्यता और संस्कृति का केंद्र उत्तर और उत्तर-पश्चिम भारत हुआ करता था। आज की विलुप्त सरस्वती नदी तब इस क्षेत्र की मुख्य नदी हुआ करती थी। तत्कालीन आर्य-सभ्यता के सारे गढ़, नगर और व्यावसायिक केंद्र सरस्वती के किनारे बसे थे। तमाम ऋषियों और आचार्यों के आश्रम सरस्वती के तट पर स्थित थे। ये आश्रम अध्यात्म, धर्म, संगीत और विज्ञान की शिक्षा और अनुसंधान के केंद्र थे। वेदों, उपनिषदों और ज्यादातर स्मृति-ग्रंथों की रचना इन्हीं आश्रमों में हुई थी। सरस्वती को ज्ञान के लिए उर्वर अत्यंत पवित्र नदी माना जाता था। ऋग्वेद में इसी रूप में इस नदी के प्रति श्रद्धा-निवेदन किया गया है। कई हजार साल पहले सरस्वती में आई प्रलयंकर बाढ़ और विनाश-लीलाके बाद अधिकांश नगर और आश्रम जब नष्ट हुए तो आर्य सभ्यता क्रमशः गंगा और जमुना के किनारों पर स्थानांतरित हो गई। इस विराट पलायन के बाद भी जनमानस में सरस्वती की पवित्र स्मृतियां बची रहीं। इतिहास के गुप्त-काल के आसपास रचे गए पुराणों में उसे देवी का दर्जा दिया गया। पुराणों के अनुसार ब्रह्मा ने जब सृष्टि की रचना की तो हर तरफ मौन छाया हुआ था। ब्रह्मा की तपस्या से वृक्षों के बीच से एक अद्भुत चतुर्भुजी स्त्री प्रकट हुई जिसके हाथों में वीणा, पुस्तक, माला और वर-मुद्रा थी। जैसे ही उस स्त्री ने वीणा का नाद किया, संसार के समस्त जीव-जन्तुओं को वाणी, जलधारा को कोलाहल और हवा को सरसराहट मिल गई। ब्रह्मा ने उसे वाणी की देवी सरस्वती कहा। वसंत पंचमी का दिन हम देवी सरस्वती के जन्मोत्सव के रूप में मनाते हैं। सरस्वती की पूजा वस्तुतः आर्य सभ्यता-संस्कृति, ज्ञान-विज्ञान, गीत-संगीत और धर्म-अध्यात्म के कई क्षेत्रों में विलुप्त सरस्वती नदी की भूमिका के प्रति हमारी कृतज्ञता की अभिव्यक्ति है।
मित्रों को वसंत पंचमी और सरस्वती पूजा की शुभकामनाएं !
साभार :
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यह वह आनंदमय समय होता है, जब खेतों में पीली-पीली सरसों खिल उठती है, गेहूं और जौ के पौधों में बालियां प्रकट होने लगती हैं, आम्र मंजरियां आम के पेड़ों पर विकसित होने लगती हैं, पुष्पों पर रंग-बिरंगी तितलियां मंडराने लगती हैं, भ्रमर गुंजार करने लगते हैं, ऐसे में आता है 'वसंत पंचमी' का पावन पर्व. इसे ऋषि पर्व भी कहते हैं.........................................................................
यह वह आनंदमय समय होता है, जब खेतों में पीली-पीली सरसों खिल उठती है, गेहूं और जौ के पौधों में बालियां प्रकट होने लगती हैं, आम्र मंजरियां आम के पेड़ों पर विकसित होने लगती हैं, पुष्पों पर रंग-बिरंगी तितलियां मंडराने लगती हैं, भ्रमर गुंजार करने लगते हैं, ऐसे में आता है 'वसंत पंचमी' का पावन पर्व. इसे ऋषि पर्व भी कहते हैं.........................................................................
आधुनिक हिन्दी साहित्य जगत में महाप्राण निराला द्वारा रचित 'सरस्वती वंदना' सर्वाधिक लोकप्रिय है और अक्सर सारस्वत समारोहों के प्रारंभ में गाई जाती है-
"वर दे, वीणा वादिनि वर दे। प्रिय स्वतंत्र-रव अमृत-मंत्र नवभारत में भर दे।
बहा जननि ज्योतिर्मय निर्झर,
कलुष-भेद-तम हर प्रकाश भर
जगमग जग कर दे।
नवल कंठ, नव जलद-मंद्र रव,
नव नभ के नव विहग-वृंद को
नव पर, नव स्वर दे।"
नव गति, नव लय, ताल-छंद नव
वस्तुतः सरस्वती का ध्यान जड़ता को समाप्त कर मानव मन में चेतना का संचार करता है. सरस्वती का यह ज्ञानदायिनी मां का स्वरुप भारत में ही नहीं, विश्व के अनेक देशों में विभिन्न नामों से प्रचिलित है और वे श्रद्धापूर्वक वहां भी पूजी जाती हैं. उदाहरण के लिए हमारी 'सरस्वती' बर्मा में 'थुयथदी', थाईलैंड में 'सुरसवदी', जापान में 'बेंजाइतेन' और चीन में 'बियानचाइत्यान' कहा जाता है.
साभार :
प्रायः सभी विद्वान वसंत पंचमी को सरस्वती आराधना का पर्व मानते हैं अर्थात ज्ञान-विज्ञान, मनन -चिंतन का पर्व है यह। वेदों में मानव- मात्र के कल्याण की बात कही गई है। वेद देश - काल से परे सम्पूर्ण विश्व को आर्य अर्थात आर्ष = श्रेष्ठ बनाने की बात करते हैं बिना किसी भी भेदभाव के । किन्तु दुर्भाग्य से मनुष्य ने अपने मूल चरित्र 'मनन' को भुला दिया है उसके स्थान पर कुतर्क, आस्था, अंध- विश्वास का बोलबाला हो गया है। ढोंग-पाखंड-आडंबर को ही उपासना या पूजा माना जाने लगा है। असमानता और भेदभाव आज सर्वत्र दिखाई दे रहा है। इसी कारण संघर्ष और विग्रह बढ़ रहा है। आज मुट्ठी भर साधन-सम्पन्न वर्ग अपनी पकड़ व जकड़ को मजबूत बनाने हेतु बहुमत को विभिन्न खांचों व साँचों में बाँट कर परस्पर लड़ा कर कमजोर बनाता व उनका शोषण करता जा रहा है। आज समष्टिवादी वेदों का स्थान शोषण- आधारित पुराणों को दे दिया गया है। वेदों को गड़रियों का गीत व आर्य को एक आक्रांता जाति घोषित करके जनता को गुमराह किया जा रहा है।
आइये ज्ञान-विज्ञान की अधिष्ठात्री 'सरस्वती' पूजा के अवसर पर जानें कि कैसे वेदों के अंतिम सूक्त द्वारा ऋषियों ने मानव - कल्याण की जो अपेक्षा की थी उसे पुनर्स्थापित करके विश्व में शांति - स्थापना हो सकती है :
' सं समि ................................................... वसून्या भर। । '
हे प्रभो तुम शक्तिशाली हो बनाते सृष्टि को ।
वेद सब गाते तुम्हें हैं कीजिये धन वृष्टि को । । 1 । ।
'संगच्छध्वं ...............................................................उपासते। । '
प्रेम से मिलकर चलें बोलें सभी ज्ञानी बनें।
पूर्वजों की भांति हम कर्तव्य के मानी बनें । । 2 । ।
'समानी मंत्र : ................................................... हविषा जुहोमि । । '
हों विचार समान सबके चित्त मन सब एक हों।
ज्ञान पाते हैं बराबर भोग्य पा सब नेक हों । । 3 । ।
'समानी व .............................. सुसहासति । । '
हों सभी के दिल तथा संकल्प अविरोधी सदा ।
मन भरे हों प्रेम से जिससे बढ़े सुख संपदा । । 4 । ।
' सर्वे भवन्तु सुखिन : सर्वे संतु निरामया : ।
सर्वे भद्राणि पश्यंतु मा कश्चिद दु :ख भाग भवेत । । '
सबका भला करो भगवान सब पर दया करो भगवान ।
सब पर कृपा करो भगवान, सबका सब विधि हो कल्याण । ।
हे ईश सब सुखी हों कोई न हो दुखारी ।
सब हों निरोग भगवन धन -धान्य के भण्डारी । ।
सब भद्र भाव देखें, सन्मार्ग के पथिक हों ।
दुखिया न कोई होवे सृष्टि में प्राण धारी । । 5 । ।
बसंत पंचमी, होली, नवरात्र, श्रावणी,दीपावली आदि पर्वों पर सामूहिक रूप से हवन - यज्ञ किए जाते थे । यज्ञ 'संगति ' पर आधारित होते हैं और पति - पत्नी संयुक्त रूप से करते हैं। परिवार या समाज में कहीं भेदभाव न था। किन्तु पौराणिक ब्राह्मणों ने वेदों को पृष्ठ भूमि में धकेल दिया और मन गढ़ंत कहानिया रच डालीं जिनके द्वारा समाज व परिवारों में फूट डाल कर विग्रह उत्पन्न कर दिया जिससे आज तक मानवता पीड़ित होकर कराह रही है। यज्ञ की सम्पूर्ण होने के बाद की जाने वाली प्रार्थना में भी सम्पूर्ण मानवता ही नहीं समस्त जीवधारियों के कल्याण की कामना की जाती है , देखिये :
पूजनीय प्रभों हमारे भाव उज्जवल कीजिये ।
छोड़ देवें छल कपट को मानसिक बल दीजिये । 1 । ।
वेद की बोलें ऋचाएँ सत्य को धारण करें ।
हर्ष में हों मग्न सारे शोक सागर से तरें । । 2 । ।
अश्वमेधादिक रचाएं यज्ञ पर उपकार को ।
धर्म मर्यादा चला कर लाभ दें संसार को । । 3 । ।
नित्य श्रद्धा भक्ति से यज्ञादि हम करते रहें ।
रोग पीड़ित विश्व के संताप सब हरते रहें। । 4 । ।
भावना मिट जाये मन से पाप अत्याचार की।
कामनाएँ पूर्ण होवें यज्ञ से नर-नार की । । 5 । ।
लाभकारी हो हवन हर जीवधारी के लिए।
वायु जल सर्वत्र हों शुभ गंध को धारण किए। । 6 । ।
स्वार्थभाव मिटे हमारा प्रेम पथ विस्तार हो।
"इदं न मम " का सार्थक प्रत्येक में व्यवहार हो। । 7 । ।
प्रेम रस में तृप्त होकर वंदना हम कर रहे ।
नाथ करुणारूप करुणा आपकी सब पर रहे । । 8 । ।
ऐसी समष्टिवादी - समाजवादी वैदिक व्यवस्था को ठुकराये जाने से शोषण वादी - पूंजीवादी व्यवस्था ही मजबूत हुई है और पूंजी की पूजा का आज सर्वत्र विस्तार हो गया है। हवन करने को अन्न व घी- मिष्ठान्न सबकी बरबादी का हेतु बताया जाने लगा है और लंच व डिनर पार्टियों में अथाह भोजन बर्बाद किया जाने लगा है। हवन में दी गई आहुतियों से पर्यावरण भी शुद्ध रहता था व जन-कल्याण भी होता रहता था । अब ब्राह्मण वादी व्यवस्था में जड़ - पत्थर पूजे जाते हैं जिस प्रक्रिया में अक्सर हादसे होते रहते हैं जिनमें असंख्य निर्दोषों के जीवन की इह - लीला तक समाप्त हो जाती है। 'नास्तिक संप्रदाय ' और 'मूल निवासी संप्रदाय ' भी वैदिक व्यवस्था का विरोध करके शोषक ब्राह्मण वादी व्यवस्था को अप्रत्यक्ष सहयोग देते रहते हैं और जनता लुटती व पिटती रहती है। क्या आज वसंत पंचमी के पावन अवसर पर मननशील प्रबुद्ध जन साम्राज्यवादी/संप्रदायवादी/ फासिस्ट शक्तियों के निर्मूलन हेतु समष्टिवादी - समाजवादी वैदिक व्यवस्था का अवलंबन लेने का संकल्प ले सकेंगे?
( विजय राजबली माथुर )
~विजय राजबली माथुर ©
इस पोस्ट को यहाँ भी पढ़ा जा सकता है।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (14-02-2016) को "आजाद कलम" (चर्चा अंक-2252) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'