*****'डार्विन वाद ' ने मतस्य से मनुष्य तक की विकास -गाथा को रचा व माना है। इस सिद्धान्त में 'पहले अंडा ' या 'पहले मुर्गी' वाला विवाद चलता रहता है और उसका व्यावहारिक समाधान नहीं हो पाने के बावजूद उसी के अनुसार सारी व्याख्याएँ की जाती हैं। 'युवा - पुरुष ' और 'युवा - स्त्री ' वाला सिद्धान्त 'तर्कसंगत' व 'व्यावहारिक' है किन्तु इसका मखौल इसलिए उड़ाया जाता है कि, इससे सफ़ेद जाति के मध्य - यूरोपीय मनुष्यों की श्रेष्ठता का सिद्धान्त और उनका 'डार्विन वाद ' थोथा सिद्ध हो जाता है।
'डार्विन वाद ' के अनुसार जब मानव विकास माना जाता है तब यह जवाब नहीं दिया जाता है कि शिशु मानव का पालन और विकास कैसे संभव हुआ था ? जबकि 'युवा - पुरुष ' और 'युवा - स्त्री ' वाला सिद्धान्त इसलिए 'तर्कसंगत' व 'व्यावहारिक' है क्योंकि युवा नर- व नारी न केवल अपना खुद का अस्तित्व बचाने में बल्कि 'प्रजनन' में भी सक्षम हैं और नई संतान का पालन -पोषण करने में भी।
मध्य -यूरोपीय सफ़ेद मनुष्यों की जाति शोषण पर चल कर ही सफल हुई है और उस शोषण को निरंतर मजबूत बनाने के लिए नित्य नए-नए अनुसंधान करके नई-नई कहानियाँ गढ़ती रहती है। उसी में एक कहानी है भारत पर 'आर्यों के आक्रमण ' की जबकि आर्य कोई जाति या धर्म नहीं है। श्रेष्ठता का प्रतीक है 'आर्ष ' जिसका अपभ्रंश है -'आर्य' अर्थात कोई भी मनुष्य जो श्रेष्ठ कर्म करता है वह आर्ष अर्थात आर्य है चाहे वह किसी भी क्षेत्र का हो या किसी भी नस्ल का चाहे किसी भी आस्था को अपनाने वाला।***** मानव जीवन को सुंदर- सुखद- समृद्ध बनाने की धारणा वालों ने खुद को धर्म-निरपेक्ष अर्थात सद्गुणों से रहित घोषित कर रखा है और नास्तिक भी ; साथ ही डॉ अंबेडकर के अनुयाई कहलाने वालों ने खुद को सफ़ेद जाति के षड्यंत्र में फंस कर मूल निवासी घोषित कर रखा है। स्पष्ट है इन परिस्थितियों का पूरा-पूरा लाभ शोषणकारी - साम्राज्यवादी /सांप्रदायिक - ब्राह्मण वादी शक्तियाँ उठा कर खुद को मजबूत व शोषितों को विभक्त करने में उठाती हैं। यदि हम शब्दों के खेल में न फंस कर उनके सत्य अर्थ को समझें व समझाएँ तो सफल हो सकते हैं अन्यथा भारत का संविधान व लोकतन्त्र नष्ट हुये बगैर नहीं रह सकता। *****
डॉ अंबेडकर द्वारा संविधान सभा में दिये गए समापन भाषण का जो अंश इस वर्ष गणतंत्र दिवस पर प्रकाशित हुआ है उससे साफ झलकता है कि, आज जो कुछ संविधान को नष्ट किया जा रहा है उसका उनको पूर्वानुमान था और उन्होने तभी सचेत भी कर दिया था। किन्तु निहित स्वार्थी तत्वों ने जान-बूझ कर उस चेतावनी को नज़रअंदाज़ किया जिससे मुट्ठी भर लोगों के लाभ के लिए असंख्य लोगों का अबाध शोषण व उत्पीड़न किया जा सके।इसके लिए लोकतन्त्र, राजनीति,आस्था,अध्यात्म,धर्म सबकी मनमानी झूठी व्याख्याएँ गढ़ी गईं । विरोध व प्रतिक्रिया स्वरूप जो तथ्य सामने लाये गए स्व्भाविक तौर पर वे भी गलत ही हुये क्योंकि वे गलत व्याख्याओं पर ही तो आधारित थे। महर्षि कार्ल मार्क्स, शहीद भगत सिंह व डॉ अंबेडकर ने इसी कारण धर्म का गलत आधार पर विरोध किया है जिसके परिणाम स्वरूप पोंगापंथी, शोषण वादी पुरोहितों की गलत व्याख्याएँ और भी ज़्यादा मजबूत हो गईं हैं। हम मनुष्य तभी हैं जब 'मनन' करें किन्तु आज मनन के बजाए 'आस्था' पर ज़्यादा ज़ोर दिया जा रहा है और अदालतों तक से आस्था के आधार पर निर्णय दिये जा रहे हैं। आज 08 फरवरी, 2016 के हिंदुस्तान का जो सम्पादकीय प्रस्तुत किया गया है उसमें भी आस्था को अक्ल (मनन ) से ज़्यादा तरजीह दी गई है।
अबसे दस लाख वर्ष पूर्व पृथ्वी पर जब 'मनुष्य की उत्पति ' हुई तो वह 'युवा - पुरुष ' और 'युवा - स्त्री ' के रूप तीन क्षेत्रों - अफ्रीका, मध्य - यूरोप व 'त्रि वृष्टि' (तिब्बत ) में एक साथ हुई थी। भौगोलिक प्रभाव से तीनों क्षेत्रों के मनुष्यों के रंग क्रमशः काला, सफ़ेद व गेंहुआ हुये। प्रारम्भ में तीनों क्षेत्रों की मानव - जाति का विकास प्रकृति द्वारा उपलब्ध सुविधाओं पर निर्भर था। किन्तु कालांतर में सफ़ेद रंग के मध्य यूरोपीय मनुष्यों ने खुद को सर्व- श्रेष्ठ घोषित करते हुये तरह- तरह की कहानियाँ गढ़ डालीं और उनकी पुष्टि के लिए मानव-विकास के क्रम को अपने अनुसार लिख डाला।
'डार्विन वाद ' ने मतस्य से मनुष्य तक की विकास -गाथा को रचा व माना है। इस सिद्धान्त में 'पहले अंडा ' या 'पहले मुर्गी' वाला विवाद चलता रहता है और उसका व्यावहारिक समाधान नहीं हो पाने के बावजूद उसी के अनुसार सारी व्याख्याएँ की जाती हैं। 'युवा - पुरुष ' और 'युवा - स्त्री ' वाला सिद्धान्त 'तर्कसंगत' व 'व्यावहारिक' है किन्तु इसका मखौल इसलिए उड़ाया जाता है कि, इससे सफ़ेद जाति के मध्य - यूरोपीय मनुष्यों की श्रेष्ठता का सिद्धान्त और उनका 'डार्विन वाद ' थोथा सिद्ध हो जाता है।
'डार्विन वाद ' के अनुसार जब मानव विकास माना जाता है तब यह जवाब नहीं दिया जाता है कि शिशु मानव का पालन और विकास कैसे संभव हुआ था ? जबकि 'युवा - पुरुष ' और 'युवा - स्त्री ' वाला सिद्धान्त इसलिए 'तर्कसंगत' व 'व्यावहारिक' है क्योंकि युवा नर- व नारी न केवल अपना खुद का अस्तित्व बचाने में बल्कि 'प्रजनन' में भी सक्षम हैं और नई संतान का पालन -पोषण करने में भी।
मध्य -यूरोपीय सफ़ेद मनुष्यों की जाति शोषण पर चल कर ही सफल हुई है और उस शोषण को निरंतर मजबूत बनाने के लिए नित्य नए-नए अनुसंधान करके नई-नई कहानियाँ गढ़ती रहती है। उसी में एक कहानी है भारत पर 'आर्यों के आक्रमण ' की जबकि आर्य कोई जाति या धर्म नहीं है। श्रेष्ठता का प्रतीक है 'आर्ष ' जिसका अपभ्रंश है -'आर्य' अर्थात कोई भी मनुष्य जो श्रेष्ठ कर्म करता है वह आर्ष अर्थात आर्य है चाहे वह किसी भी क्षेत्र का हो या किसी भी नस्ल का चाहे किसी भी आस्था को अपनाने वाला।
किन्तु आर्य को एक जाति और भारत में आक्रांता घोषित करने वाले सिद्धान्त ने यहाँ के निवासियों को अंत हींन विवादों व संघर्षों में उलझा कर रख दिया है 'मूल निवासी आंदोलन ' भी उसी की एक कड़ी है। ' नास्तिक वाद' भी उसी थोथे सिद्धान्त का खड़ा हुआ विभ्रम है। वस्तुतः शब्दों के खेल को समझ कर 'मनन' करने व सच्चा मनुष्य बनने की ज़रूरत है और मानव-मानव में विभेद करने वालों को बेनकाब करने की ।
मनुष्य = जो मनन कर सके। अन्यथा 'नर-तन' धारी पशु।
आस्तिक = जिसका स्वम्य अपने ऊपर विश्वास हो।
नास्तिक = जिसका अपने ऊपर विश्वास न हो।
अध्यात्म = अध्यन अपनी आत्मा का । न कि अपनी आत्मा से परे।
धर्म = जो मनुष्य तन व समाज को धारण करने हेतु आवश्यक है , यथा --- सत्य, अहिंसा (मनसा - वाचा - कर्मणा ), अस्तेय, अपरिग्रह व ब्रह्मचर्य।
भगवान = भ (भूमि-पृथ्वी )+ ग (गगन -आकाश )+ व (वायु - हवा )+I ( अनल - अग्नि ) + न (नीर - जल )।
खुदा = चूंकि ये पांचों तत्व खुद ही बने हैं इनको किसी मनुष्य ने नहीं बनाया है इसलिए ये ही 'खुदा' हैं।
GOD = G (जेनरेट )+ O (आपरेट ) + D (डेसट्राय )। इन तत्वों का कार्य उत्पति - पालन - संहार = GOD है।
मानव जीवन को सुंदर- सुखद- समृद्ध बनाने की धारणा वालों ने खुद को धर्म-निरपेक्ष अर्थात सद्गुणों से रहित घोषित कर रखा है और नास्तिक भी ; साथ ही डॉ अंबेडकर के अनुयाई कहलाने वालों ने खुद को सफ़ेद जाति के षड्यंत्र में फंस कर मूल निवासी घोषित कर रखा है। स्पष्ट है इन परिस्थितियों का पूरा-पूरा लाभ शोषणकारी - साम्राज्यवादी /सांप्रदायिक - ब्राह्मण वादी शक्तियाँ उठा कर खुद को मजबूत व शोषितों को विभक्त करने में उठाती हैं। यदि हम शब्दों के खेल में न फंस कर उनके सत्य अर्थ को समझें व समझाएँ तो सफल हो सकते हैं अन्यथा भारत का संविधान व लोकतन्त्र नष्ट हुये बगैर नहीं रह सकता।
~विजय राजबली माथुर ©
इस पोस्ट को यहाँ भी पढ़ा जा सकता है।
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'डार्विन वाद ' के अनुसार जब मानव विकास माना जाता है तब यह जवाब नहीं दिया जाता है कि शिशु मानव का पालन और विकास कैसे संभव हुआ था ? जबकि 'युवा - पुरुष ' और 'युवा - स्त्री ' वाला सिद्धान्त इसलिए 'तर्कसंगत' व 'व्यावहारिक' है क्योंकि युवा नर- व नारी न केवल अपना खुद का अस्तित्व बचाने में बल्कि 'प्रजनन' में भी सक्षम हैं और नई संतान का पालन -पोषण करने में भी।
मध्य -यूरोपीय सफ़ेद मनुष्यों की जाति शोषण पर चल कर ही सफल हुई है और उस शोषण को निरंतर मजबूत बनाने के लिए नित्य नए-नए अनुसंधान करके नई-नई कहानियाँ गढ़ती रहती है। उसी में एक कहानी है भारत पर 'आर्यों के आक्रमण ' की जबकि आर्य कोई जाति या धर्म नहीं है। श्रेष्ठता का प्रतीक है 'आर्ष ' जिसका अपभ्रंश है -'आर्य' अर्थात कोई भी मनुष्य जो श्रेष्ठ कर्म करता है वह आर्ष अर्थात आर्य है चाहे वह किसी भी क्षेत्र का हो या किसी भी नस्ल का चाहे किसी भी आस्था को अपनाने वाला।***** मानव जीवन को सुंदर- सुखद- समृद्ध बनाने की धारणा वालों ने खुद को धर्म-निरपेक्ष अर्थात सद्गुणों से रहित घोषित कर रखा है और नास्तिक भी ; साथ ही डॉ अंबेडकर के अनुयाई कहलाने वालों ने खुद को सफ़ेद जाति के षड्यंत्र में फंस कर मूल निवासी घोषित कर रखा है। स्पष्ट है इन परिस्थितियों का पूरा-पूरा लाभ शोषणकारी - साम्राज्यवादी /सांप्रदायिक - ब्राह्मण वादी शक्तियाँ उठा कर खुद को मजबूत व शोषितों को विभक्त करने में उठाती हैं। यदि हम शब्दों के खेल में न फंस कर उनके सत्य अर्थ को समझें व समझाएँ तो सफल हो सकते हैं अन्यथा भारत का संविधान व लोकतन्त्र नष्ट हुये बगैर नहीं रह सकता। *****
डॉ अंबेडकर द्वारा संविधान सभा में दिये गए समापन भाषण का जो अंश इस वर्ष गणतंत्र दिवस पर प्रकाशित हुआ है उससे साफ झलकता है कि, आज जो कुछ संविधान को नष्ट किया जा रहा है उसका उनको पूर्वानुमान था और उन्होने तभी सचेत भी कर दिया था। किन्तु निहित स्वार्थी तत्वों ने जान-बूझ कर उस चेतावनी को नज़रअंदाज़ किया जिससे मुट्ठी भर लोगों के लाभ के लिए असंख्य लोगों का अबाध शोषण व उत्पीड़न किया जा सके।इसके लिए लोकतन्त्र, राजनीति,आस्था,अध्यात्म,धर्म सबकी मनमानी झूठी व्याख्याएँ गढ़ी गईं । विरोध व प्रतिक्रिया स्वरूप जो तथ्य सामने लाये गए स्व्भाविक तौर पर वे भी गलत ही हुये क्योंकि वे गलत व्याख्याओं पर ही तो आधारित थे। महर्षि कार्ल मार्क्स, शहीद भगत सिंह व डॉ अंबेडकर ने इसी कारण धर्म का गलत आधार पर विरोध किया है जिसके परिणाम स्वरूप पोंगापंथी, शोषण वादी पुरोहितों की गलत व्याख्याएँ और भी ज़्यादा मजबूत हो गईं हैं। हम मनुष्य तभी हैं जब 'मनन' करें किन्तु आज मनन के बजाए 'आस्था' पर ज़्यादा ज़ोर दिया जा रहा है और अदालतों तक से आस्था के आधार पर निर्णय दिये जा रहे हैं। आज 08 फरवरी, 2016 के हिंदुस्तान का जो सम्पादकीय प्रस्तुत किया गया है उसमें भी आस्था को अक्ल (मनन ) से ज़्यादा तरजीह दी गई है।
अबसे दस लाख वर्ष पूर्व पृथ्वी पर जब 'मनुष्य की उत्पति ' हुई तो वह 'युवा - पुरुष ' और 'युवा - स्त्री ' के रूप तीन क्षेत्रों - अफ्रीका, मध्य - यूरोप व 'त्रि वृष्टि' (तिब्बत ) में एक साथ हुई थी। भौगोलिक प्रभाव से तीनों क्षेत्रों के मनुष्यों के रंग क्रमशः काला, सफ़ेद व गेंहुआ हुये। प्रारम्भ में तीनों क्षेत्रों की मानव - जाति का विकास प्रकृति द्वारा उपलब्ध सुविधाओं पर निर्भर था। किन्तु कालांतर में सफ़ेद रंग के मध्य यूरोपीय मनुष्यों ने खुद को सर्व- श्रेष्ठ घोषित करते हुये तरह- तरह की कहानियाँ गढ़ डालीं और उनकी पुष्टि के लिए मानव-विकास के क्रम को अपने अनुसार लिख डाला।
'डार्विन वाद ' ने मतस्य से मनुष्य तक की विकास -गाथा को रचा व माना है। इस सिद्धान्त में 'पहले अंडा ' या 'पहले मुर्गी' वाला विवाद चलता रहता है और उसका व्यावहारिक समाधान नहीं हो पाने के बावजूद उसी के अनुसार सारी व्याख्याएँ की जाती हैं। 'युवा - पुरुष ' और 'युवा - स्त्री ' वाला सिद्धान्त 'तर्कसंगत' व 'व्यावहारिक' है किन्तु इसका मखौल इसलिए उड़ाया जाता है कि, इससे सफ़ेद जाति के मध्य - यूरोपीय मनुष्यों की श्रेष्ठता का सिद्धान्त और उनका 'डार्विन वाद ' थोथा सिद्ध हो जाता है।
'डार्विन वाद ' के अनुसार जब मानव विकास माना जाता है तब यह जवाब नहीं दिया जाता है कि शिशु मानव का पालन और विकास कैसे संभव हुआ था ? जबकि 'युवा - पुरुष ' और 'युवा - स्त्री ' वाला सिद्धान्त इसलिए 'तर्कसंगत' व 'व्यावहारिक' है क्योंकि युवा नर- व नारी न केवल अपना खुद का अस्तित्व बचाने में बल्कि 'प्रजनन' में भी सक्षम हैं और नई संतान का पालन -पोषण करने में भी।
मध्य -यूरोपीय सफ़ेद मनुष्यों की जाति शोषण पर चल कर ही सफल हुई है और उस शोषण को निरंतर मजबूत बनाने के लिए नित्य नए-नए अनुसंधान करके नई-नई कहानियाँ गढ़ती रहती है। उसी में एक कहानी है भारत पर 'आर्यों के आक्रमण ' की जबकि आर्य कोई जाति या धर्म नहीं है। श्रेष्ठता का प्रतीक है 'आर्ष ' जिसका अपभ्रंश है -'आर्य' अर्थात कोई भी मनुष्य जो श्रेष्ठ कर्म करता है वह आर्ष अर्थात आर्य है चाहे वह किसी भी क्षेत्र का हो या किसी भी नस्ल का चाहे किसी भी आस्था को अपनाने वाला।
किन्तु आर्य को एक जाति और भारत में आक्रांता घोषित करने वाले सिद्धान्त ने यहाँ के निवासियों को अंत हींन विवादों व संघर्षों में उलझा कर रख दिया है 'मूल निवासी आंदोलन ' भी उसी की एक कड़ी है। ' नास्तिक वाद' भी उसी थोथे सिद्धान्त का खड़ा हुआ विभ्रम है। वस्तुतः शब्दों के खेल को समझ कर 'मनन' करने व सच्चा मनुष्य बनने की ज़रूरत है और मानव-मानव में विभेद करने वालों को बेनकाब करने की ।
मनुष्य = जो मनन कर सके। अन्यथा 'नर-तन' धारी पशु।
आस्तिक = जिसका स्वम्य अपने ऊपर विश्वास हो।
नास्तिक = जिसका अपने ऊपर विश्वास न हो।
अध्यात्म = अध्यन अपनी आत्मा का । न कि अपनी आत्मा से परे।
धर्म = जो मनुष्य तन व समाज को धारण करने हेतु आवश्यक है , यथा --- सत्य, अहिंसा (मनसा - वाचा - कर्मणा ), अस्तेय, अपरिग्रह व ब्रह्मचर्य।
भगवान = भ (भूमि-पृथ्वी )+ ग (गगन -आकाश )+ व (वायु - हवा )+I ( अनल - अग्नि ) + न (नीर - जल )।
खुदा = चूंकि ये पांचों तत्व खुद ही बने हैं इनको किसी मनुष्य ने नहीं बनाया है इसलिए ये ही 'खुदा' हैं।
GOD = G (जेनरेट )+ O (आपरेट ) + D (डेसट्राय )। इन तत्वों का कार्य उत्पति - पालन - संहार = GOD है।
मानव जीवन को सुंदर- सुखद- समृद्ध बनाने की धारणा वालों ने खुद को धर्म-निरपेक्ष अर्थात सद्गुणों से रहित घोषित कर रखा है और नास्तिक भी ; साथ ही डॉ अंबेडकर के अनुयाई कहलाने वालों ने खुद को सफ़ेद जाति के षड्यंत्र में फंस कर मूल निवासी घोषित कर रखा है। स्पष्ट है इन परिस्थितियों का पूरा-पूरा लाभ शोषणकारी - साम्राज्यवादी /सांप्रदायिक - ब्राह्मण वादी शक्तियाँ उठा कर खुद को मजबूत व शोषितों को विभक्त करने में उठाती हैं। यदि हम शब्दों के खेल में न फंस कर उनके सत्य अर्थ को समझें व समझाएँ तो सफल हो सकते हैं अन्यथा भारत का संविधान व लोकतन्त्र नष्ट हुये बगैर नहीं रह सकता।
~विजय राजबली माथुर ©
इस पोस्ट को यहाँ भी पढ़ा जा सकता है।
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आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (10-02-2016) को ''चाँद झील में'' (चर्चा अंक-2248)) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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चर्चा मंच परिवार की ओर से स्व-निदा फाजली और अविनाश वाचस्पति को भावभीनी श्रद्धांजलि।
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'