Virendra Yadav
मैसूर के दलित लेखक और पत्रकारिता के प्रोफ़ेसर बी.पी महेश चंद्र्गुरु को धार्मिक भावनाओं केआहत होने का आरोप लगाकर गिरफ्तार कर लिया गया है. इस बीच एक खबर यह भी है कि लखनऊ के केन्द्रीय आंबेडकर विश्वविद्यालय में यह आदेश दिए गए हैं कि विश्वविद्यालय में आयोजित किये जाने वाले सेमिनारों और अन्य आयोजनों में ऐसे विद्वानों ,वक्ताओं और प्रतिभागियों को न आमंत्रित किया जाये जिनके विचारों व अभिव्यक्तियों से किसी कीधार्मिक या जातीय भावनाओं के आहत होने कीआशंका हो. ज्ञातव्य है कि विगत १४ अप्रैल को इस विश्वविद्यालय में दलित और हाशिये के समाज पर हस्तक्षेपकारी लेखन केलिए विख्यात प्रो. कांचा इलय्या द्वारा मांसाहार और हिंदुत्व के मुद्दे पर भाषण के दौरान और उसके बाद एबीवीपी तत्वों द्वारा कांचा इल्लय्या के विरुद्ध अभियान छेड़ा गया था. यह आदेश उसी का दुष्परिणाम है. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगातार बढ़ता जा रहा है. इसे हर कीमत पर बचाने की जरूरत है.https://www.facebook.com/photo.php?fbid=1152239334826764&set=a.165446513506056.56359.100001221268157&type=3
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लेकिन 1986 से ही अपनी भाकपा - सपा -भाकपा में सक्रियता के आधार पर कुछ निष्कर्षों पर पहुंचा हूँ और समय -समय पर उनको अभिव्यक्त भी करता रहा हूँ। अपनी तमाम राजनीतिक ईमानदारी के बावजूद हम लोग अपनी प्रचलित प्रचार -शैली के चलते उस जनता को जिसके लिए जी - जान से संघर्ष करते हैं प्रभावित करने में विफल रहते हैं। हम लोगों के प्रति लोगों का नज़रिया संकुचित व कुछ हद तक कुत्सित भी रहता है। उदाहरणार्थ :
सांप्रदायिकता वस्तुतः साम्राज्यवाद की सहोदरी है। साम्राज्यवाद ने हमारे देश की जनता को भ्रमित करने हेतु 1857 की क्रांति की विफलता के बाद जो नीतियाँ अपनाईं वे ही सांप्रदायिकता का हेतु हैं। जाने या अनजाने हम लोग साम्राज्यवादियो की व्याख्या को ही ले कर चलते हैं जिसके चलते जनता हम लोगों को अधार्मिक मान कर चलती है और इसमें प्रबुद्ध साम्यवादी/ वाम पंथियों का प्रबल योगदान है जो 'एथीस्ट ' कहलाने में गर्व का अनुभव करते हैं। शहीद भगत सिंह और महर्षि कार्ल मार्क्स को हम लोग गलत संदर्भ के साथ उद्धृत करते है जिसका नतीजा सांप्रदायिक शक्तियों ने भर पूर उठाया है। व्यक्तिगत आधार पर अपने लेखों के माध्यम से स्थिति स्पष्ट करने की कोशिशों को अपने ही वरिष्ठों द्वारा किए तिरस्कार का सामना करना पड़ा है। ब्राह्मण वादी मानसिकता के कामरेड्स जान बूझ कर प्रचलित शैली से प्रचार करना चाहते हैं जिससे आगे भी सांप्रदायिक शक्तियाँ लाभ उठाती रहें। इस संदर्भ में एक कामरेड के इस सुझाव को भी नज़र अंदाज़ करना अपने लिए घातक है।
( विजय राजबली माथुर )
~विजय राजबली माथुर ©
इस पोस्ट को यहाँ भी पढ़ा जा सकता है।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (25-06-2016) को "इलज़ाम के पत्थर" (चर्चा अंक-2384) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'