Ashwani Srivastava
यशवंत सिन्हा प्रसंग
प्रेमकुमार मणि
भाजपा नेता और भारत के पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा के लेख " I need to speak up now " ( इंडियन एक्सप्रेस , 27 सितम्बर ) ने तहलका मचा दिया है . यह लेख ऐसे समय पर आया है , जब गुजरात में प्रांतीय असेम्ब्ली के चुनाव होने जा रहे हैं और 2019 के तय लोकसभा चुनावों के भी बस डेढ़ साल रह गए हैं . मैं नहीं जानता , न ही इसकी जरुरत समझता हूँ कि श्री सिन्हा ने किसी व्यक्तिगत खुन्नस से ऐसा लिखा है . सिन्हा के तथ्य आंकड़ों से जुड़े हैं ,और उन्हें यूँ ही ख़ारिज नहीं किया जा सकता . न सिन्हा अर्थशास्त्री हैं , न जेटली , लेकिन दोनों वित्त मंत्री बने . एक पूर्व हो गए और दूसरे हैं . इसलिए सिन्हा के आरोपों को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए . यह सच है कि आलोचना जब भीतर से फूटती है ,तब इसका अर्थ है मामला गंभीर है . राजीव गाँधी प्रचंड बहुमत के साथ मिस्टर क्लीन की छवि बनाये घूम रहे थे , लेकिन कांग्रेस के भीतर से ही जब वीपी सिंह ने बोफोर्स घोटाले के आरोप लगाए तब राजीव उससे उबर नहीं पाए . उस वक़्त भी इंडियन एक्सप्रेस ने ही पहल की थी . इस दफा ऐसा यदि हुआ , तब इंडियन एक्सप्रेस और सिन्हा दोनों एक बार फिर भावी इतिहास के उपकरण बनेंगे . राजीव गाँधी सरकार में वीपी सिंह भी वित्त मंत्री ही थे . रक्षा मंत्री बाद में बने थे .
लेकिन इस विवाद का एक दूसरा कोण भी हो सकता है . उस पर विचार करना बुरा नहीं होना चाहिए . क्या यह विवाद उस ब्राह्मण -कायस्थ संघर्ष की पुनरावृत्ति है , जो कुछ लोगों के अनुसार ख़त्म हो गई थी और मेरे जैसे लोगों के अनुसार हाइबरनेशन में चली गई थी ? दो सौ सालोँ तक यह लड़ाई जॉब चार्नक के शहर कोलकाता में चली . 1911 में जब कोलकाता से राजधानी उठकर दिल्ली आई तब यह लड़ाई भी दिल्ली चली आई . इस लड़ाई का पूरा ब्यौरा यहाँ एक पोस्ट में नहीं दिया जा सकता ,लेकिन देवासुर संग्राम ,महिषासुर -दुर्गा , शैव -वैष्णव या फिर बौद्ध -ब्राह्मण संग्राम की तरह यह संग्राम भी दिलचस्प है . शैव और वैष्णवों ने हाजीपुर के पास सांस्कृतिक समझौता किया था , वह स्थान आज भी हरि(विष्णु )हर (शिव ) अर्थात हरिहर क्षेत्र कहा जाता है और वहां हर साल विशाल मेला लगता है . बंगाल में कायस्थों और ब्राह्मणों की लड़ाई को थोड़ा विराम मिला रामकृष्ण -विवेकानंद के समझौते में . यह कायस्थों का ब्राह्मणवाद के प्रति समर्पण था . मैत्री भाव नहीं , गुरु चेला भाव . कायस्थों ने अपनी सांस्कृतिक क्रन्तिकारी भूमिका खो दी , और वर्णवादी ब्राह्मण परंपरा से जुड़ गए . इसीलिए हिंदुत्ववादी -ब्राह्मणवादी शक्तियां विवेकानंद का गुणगान करते थकतीं नहीं . पिछले पचास वर्षों में कायस्थों का इतना सांस्कृतिक पतन हुआ ,जिसका कोई हिसाब नहीं . प्रेमचंद ने ब्राह्मणवादी चेतना के विरुद्ध जो शंखनाद किया था उसे भूल कर लगभग पूरी कायस्थ बिरादरी आज संघ -भाजपा के ब्राह्मणवादी चौखटे पर माथा टेक चुकी है .
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लेकिन लगता है यशवंत सिन्हा ने सचमुच एक विद्रोह किया है . उन्होंने कर्पूरी ठाकुर के साथ काम किया है . वे थोड़े अक्खड़ हैं ,लेकिन डरपोक नहीं हैं . मैं अभी उनके अगले क़दमों का इंतज़ार करूँगा . कम से कम मेरी दिलचस्पी के पात्र तो वे हो ही गए हैं .
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'कायस्थ' वर्णाश्रम व्यवस्था से ऊपर :
पौराणिक-पोंगापंथी -ब्राह्मणवादी व्यवस्था मे जो छेड़-छाड़ विभिन्न वैज्ञानिक आख्याओं के साथ की गई है उससे 'कायस्थ' शब्द भी अछूता नहीं रहा है।
'कायस्थ'=क+अ+इ+स्थ
क=काया या ब्रह्मा ;
अ=अहर्निश;इ=रहने वाला;
स्थ=स्थित।
'कायस्थ' का अर्थ है ब्रह्म से अहर्निश स्थित रहने वाला सर्व-शक्तिमान व्यक्ति।
आज से दस लाख वर्ष पूर्व मानव जब अपने वर्तमान स्वरूप मे आया तो ज्ञान-विज्ञान का विकास भी किया। वेदों मे वर्णित मानव-कल्याण की भावना के अनुरूप शिक्षण- प्रशिक्षण की व्यवस्था की गई। जो लोग इस कार्य को सम्पन्न करते थे उन्हे 'कायस्थ' कहा गया। क्योंकि ये मानव की सम्पूर्ण 'काया' से संबन्धित शिक्षा देते थे अतः इन्हे 'कायस्थ' कहा गया। किसी भी अस्पताल मे आज भी जेनरल मेडिसिन विभाग का हिन्दी रूपातंरण आपको 'काय चिकित्सा विभाग' ही लिखा मिलेगा। उस समय आबादी अधिक न थी और एक ही व्यक्ति सम्पूर्ण काया से संबन्धित सम्पूर्ण जानकारी देने मे सक्षम था। किन्तु जैसे-जैसे आबादी बढ़ती गई शिक्षा देने हेतु अधिक लोगों की आवश्यकता पड़ती गई। 'श्रम-विभाजन' के आधार पर शिक्षा भी दी जाने लगी। शिक्षा को चार वर्णों मे बांटा गया-
1- जो लोग ब्रह्मांड से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको 'ब्राह्मण' कहा गया और उनके द्वारा प्रशिक्षित विद्यार्थी शिक्षा पूर्ण करने के उपरांत जो उपाधि धारण करता था वह 'ब्राह्मण' कहलाती थी और उसी के अनुरूप वह ब्रह्मांड से संबन्धित शिक्षा देने के योग्य माना जाता था।
2- जो लोग शासन-प्रशासन-सत्ता-रक्षा आदि से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको 'क्षत्रिय'कहा गया और वे ऐसी ही शिक्षा देते थे तथा इस विषय मे पारंगत विद्यार्थी को 'क्षत्रिय' की उपाधि से विभूषित किया जाता था जो शासन-प्रशासन-सत्ता-रक्षा से संबन्धित कार्य करने व शिक्षा देने के योग्य माना जाता था।
3-जो लोग विभिन व्यापार-व्यवसाय आदि से संबन्धित शिक्षा प्रदान करते थे उनको 'वैश्य' कहा जाता था। इस विषय मे पारंगत विद्यार्थी को 'वैश्य' की उपाधि से विभूषित किया जाता था जो व्यापार-व्यवसाय करने और इसकी शिक्षा देने के योग्य माना जाता था।
4-जो लोग विभिन्न सूक्ष्म -सेवाओं से संबन्धित शिक्षा देते थे उनको 'क्षुद्र' कहा जाता था और इन विषयों मे पारंगत विद्यार्थी को 'क्षुद्र' की उपाधि से विभूषित किया जाता था जो विभिन्न सेवाओं मे कार्य करने तथा इनकी शिक्षा प्रदान करने के योग्य माना जाता था।
ध्यान देने योग्य महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि,'ब्राह्मण','क्षत्रिय','वैश्य' और 'क्षुद्र' सभी योग्यता आधारित उपाधियाँ थी। ये सभी कार्य श्रम-विभाजन पर आधारित थे । अपनी योग्यता और उपाधि के आधार पर एक पिता के अलग-अलग पुत्र-पुत्रियाँ ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य और क्षुद्र हो सकते थे उनमे किसी प्रकार का भेद-भाव न था।'कायस्थ' चारों वर्णों से ऊपर होता था और सभी प्रकार की शिक्षा -व्यवस्था के लिए उत्तरदाई था। ब्रह्मांड की बारह राशियों के आधार पर कायस्थ को भी बारह वर्गों मे विभाजित किया गया था। जिस प्रकार ब्रह्मांड चक्राकार रूप मे परिभ्रमण करने के कारण सभी राशियाँ समान महत्व की होती हैं उसी प्रकार बारहों प्रकार के कायस्थ भी समान ही थे।
कालांतर मे व्यापार-व्यवसाय से संबन्धित वर्ग ने दुरभि-संधि करके शासन-सत्ता और पुरोहित वर्ग से मिल कर 'ब्राह्मण' को श्रेष्ठ तथा योग्यता आधारित उपाधि-वर्ण व्यवस्था को जन्मगत जाति -व्यवस्था मे परिणत कर दिया जिससे कि बहुसंख्यक 'क्षुद्र' सेवा-दाताओं को सदा-सर्वदा के लिए शोषण-उत्पीड़न का सामना करना पड़ा उनको शिक्षा से वंचित करके उनका विकास-मार्ग अवरुद्ध कर दिया गया।'कायस्थ' पर ब्राह्मण ने अतिक्रमण करके उसे भी दास बना लिया और 'कल्पित' कहानी गढ़ कर चित्रगुप्त को ब्रह्मा की काया से उत्पन्न बता कर कायस्थों मे भी उच्च-निम्न का वर्गीकरण कर दिया। खेद एवं दुर्भाग्य की बात है कि आज कायस्थ-वर्ग खुद ब्राह्मणों के बुने कुचक्र को ही मान्यता दे रहा है और अपने मूल चरित्र को भूल चुका है। कहीं कायस्थ खुद को 'वैश्य' वर्ण का अंग बता रहा है तो कहीं 'क्षुद्र' वर्ण का बता कर अपने लिए आरक्षण की मांग कर रहा है।
शूद्रक लिखित संस्कृत नाटक 'मृच्छ्कटिक ' में कायस्थों को निम्न जाति का वर्णन किया गया है और ब्राह्मणों का सहायक घोषित किया गया है। यह सब 'चित्रगुप्त' की संतान बताने की काल्पनिक ब्राह्मणवादी कहानी ( जिसे कायस्थ शिरोधार्य कर रहे हैं )का दुष्परिणाम है ।
यह जन्मगत जाति-व्यवस्था शोषण मूलक है और मूल भारतीय अवधारणा के प्रतिकूल है। आज आवश्यकता है योग्यता मूलक वर्ण-व्यवस्था बहाली की एवं उत्पीड़क जाति-व्यवस्था के निर्मूलन की।'कायस्थ' वर्ग को अपनी मूल भूमिका का निर्वहन करते हुये भ्रष्ट ब्राह्मणवादी -जातिवादी -जन्मगत व्यवस्था को ध्वस्त करके 'योग्यता आधारित' मूल वर्ण व्यवस्था को बहाल करने की पहल करनी चाहिए।
~विजय राजबली माथुर ©
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