Saturday, November 11, 2017

विरोध की आवाज़ को सुनने की जगह दबाना शासकों के लिए ही घातक होता रहा है ------ विजय राजबली माथुर

  आज फिर मोदी सरकार उसी किस्म की हेंकड़ी पर चलते हुये बिना सेंसरशिप के चापलूस प्रेस के जरिये जनता को अंधेरे में रखने का प्रयत्न कर रही है। फिर भी मुखर होने वाले  पत्रकारों, चिंतकों, लेखकों, नेताओं की हत्यायें सरकार समर्थकों द्वारा की जा रही हैं।

यू एस ए के प्रेसिडेंट डोनाल्ड ट्रम्प साहब का कहना है भारत को मोदी साहब एक करने की कोशिश कर रहे हैं। 

असहमति की आवाज़ को कुचल कर दबा कर एक कैसे किया जा रहा है उसी का एक नमूना हि यु वाहिनी के लोगों ने तहज़ीब की नगरी लखनऊ में 10 नवंबर को छात्र नेता कन्हैया कुमार के साथ पेश किया। ------






देश के प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू जी विरोध या असहमति का मान करते थे और इसे दबाने के प्रयासों को अच्छा नहीं मानते थे। डॉ राम मनोहर लोहिया को तो वह काफी ध्यान से सुनते ही थे। जनसंघ के  नए युवा सांसद ए बी बाजपेयी को भी उन्होने धैर्य पूर्वक सुना था।खुद बाजपेयी साहब ने इसका ज़िक्र किया था कि अपने जोरदार भाषण के जरिये उन्होने नेहरू जी व सरकार की कड़ी आलोचना लोकसभा में की थी और उसी रोज़ शाम को राष्ट्रपति भवन में भोज कार्यक्रम में वह नेहरू जी का सामना करने से बच रहे थे लेकिन नेहरू जी ने पास आ कर उनके कंधे पर हाथ रख कर कहा - ' शाबाश नौजवान इसी तरह जोश को कायम रखो तुम एक दिन ज़रूर देश के प्रधानमंत्री बनोगे। ' 
शुरू शुरू में इन्दिरा गांधी ने भी सब विपक्षी नेताओं को सुनने की परंपरा कायम रखी थी किन्तु 1975 में एमर्जेंसी लगाने के बाद उनके द्वारा प्रेस की स्वतन्त्रता का भी गला घोंट दिया गया। प्रमुख विपक्षी नेताओं यहाँ तक कि, डायलिसिस पर चल रहे जे पी को भी गिरफ्तार करवा लिया था। इंडियन एक्स्प्रेस की बिजली कटवाने पर तत्कालीन सूचना व प्रसारण मंत्री इंदर कुमार गुजराल द्वारा आपत्ति जतलाये जाने पर उनको मास्को राजदूत बना कर भेज दिया था। 
परिणाम यह हुआ कि, अखबारों के बजाए विरोध प्रचार के लिए साईकिलोस्टाईल पर्चों का इस्तेमाल होने लगा जिसकी भनक तक खुफिया विभागों को न लग सकी। सरकारी कर्मचारी और खुफिया विभाग के अधिकारी तक तानाशाही वाले फर्मानों से आजिज़ आ गए थे और वे भी सरकार तक सही सूचना नहीं पहुंचा रहे थे, अखबारों को तो खुद सरकार ने ही सेंसर कर रखा था। इन्दिरा जी अपनी ही धुन में मस्त थीं उन्होने लोकसभा के बढ़ाए हुये कार्यकाल के बावजूद एक वर्ष पूर्व ही चुनावों की घोषणा कर दी उनकी सोच थी कि वह पुनः भारी बहुमत से वापिस आ जाएंगी। 
उस वक्त मैं  निर्माणाधीन होटल मुगल,  आगरा के लेखा विभाग में कार्यरत था ।  हमारे सिक्यूरिटी आफिसर साहब रिटायर्ड DSP इंटेलिजेंस थे वह मुझसे मित्रवत व्यवहार रखते थे । क्यों ?  तो वही जानते होंगे मैं नहीं जान सका ।  उनके पास तत्कालीन इंटेलिजेंस इंस्पेक्टर्स मिलने आते रहते थे उनकी वजह से मेरी भी उन सबसे जान - पहचान हो गई थी। अतः हम लोगों को मालूम था कि, इन चुनावों में इन्दिरा जी अपनी पार्टी समेत बुरी तरह से हारने जा रही हैं और वही हुआ था। 
यदि प्रेस सेंसरशिप नहीं होती विपक्षी नेता गण जेल में न होते तो सारी गतिविधियों का सरकार को सही - सही पता रहता और वह अपना बचाव सुचारु रूप से कर सकती थी। 
आज फिर मोदी सरकार उसी किस्म की हेंकड़ी पर चलते हुये बिना सेंसरशिप के चापलूस प्रेस के जरिये जनता को अंधेरे में रखने का प्रयत्न कर रही है। फिर भी मुखर होने वाले  पत्रकारों, चिंतकों, लेखकों, नेताओं की हत्यायें सरकार समर्थकों द्वारा की जा रही हैं।कल 10 नवंबर को छात्र नेता कन्हैया कुमार के साथ सत्ताधीशों के चहेतों द्वारा जो बर्ताव किया गया और आगे का कार्यक्रम जिलाधिकारी द्वारा रद्द कर दिया गया वह सब 1975 वाली एमर्जेंसी की पुनरावृत्ति ही है। हो सकता है इस बार का गुजरात और फिर  2019 का  लोकसभा चुनाव सत्ताधारी गफलत से जीत भी लें  लेकिन तब जो जनाक्रोश पनपेगा उसका किंचित मात्र भी आभास सत्तारूढों को पहले से कतई नहीं लग सकेगा लेकिन वह इन  दमनकारियों  को भी रसातल में  पहुंचा ज़रूर देगा।  

~विजय राजबली माथुर ©

2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (13-11-2017) को
    "जन-मानस बदहाल" (चर्चा अंक 2787)
    पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. बिल्कुल सही कहा आपने। विरोध की आवाज को सुना जाना चाहिए।

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