29 मार्च 1857: तस्वीरों में कैद भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम की कहानी
Aditi Sharma Updated On: Mar 29, 2018 10:47 AM IST
1857 वो साल था, जो आगे आने वाले 100 सालों के लिए हिन्दुस्तान की किस्मत तय तरने वाला था. यही वो साल था जो दुनिया के इतिहास को नया मोड़ देने वाला था और भारत में स्वतंत्रता संग्राम की शुरुआत करने वाला था. 1857 में जो विद्रोह हुआ उसकी शुरुआत आज यानी 29 मार्च को ही हुई थी. इसी दिन मंगल पांडे ने सार्जेंट-मेजर ह्यूसन और लेफ्टिनेंट बेंपदे बाग की हत्या कर दी थी जिसके बाद उन्हें फांसी दे दी गई.
भले ही मंगल पांडे का ये विद्रोह विफल रहा हो मगर इसके बाद क्रांति की जो ज्वाला भड़की उसने आने वाले समय में पूरे देश को जलाकर रख दिया. ये ज्वाला आगे जाकर इतना विकराल रूप लेगी शायद किसी ने सोचा भी नहीं होगा. मंगल पांडे के इसी विद्रोह के बाद क्रांतिकारियों ने अावाज उठाना शुरू कर दिया जो धीरे-धीरे समय के साथ बढ़ता गया. उस दौर मे भारत में कुछ फोटोग्राफर थे, जिन्होंने जगह-जगह हो रहे इस विद्रोह से जुड़ी तस्वीरें खींची थी. आइए आपको दिखाते हैं उस समय से जुड़ी कुछ दुर्लभ तस्वीरें और बतातें हैं उनके पीछे की कहानियां.
यही वो पेर्टन एंफील्ड पी-53 राइफल थी जिसका इस्तेमाल 1953 में शुरू हुआ. इसी बंदूक से मंगल पांडे ने 29 मार्च 1857 को अंग्रेजों पर हमला किया था. उस दौरान इस्तेमाल होने वाली इन बंदूकों में कारतूस भरा जाता था. 29 मार्च के विद्रोह की असल वजह भी यही कारतूस ही था. दरअसल जो एंफील्ड बंदूक सिपाहियों को इस्तेमाल करने के लिए दी गईं थी उन्हें भरने के लिए कारतूस को दांतों से काट कर खोलना पड़ता था और उसमे भरे हुए बारूद को बंदूक की नली में भर कर कारतूस को डालना पड़ता था.
कारतूस के बाहर चर्बी लगी होती थी जो कि उसे पानी की सीलन से बचाती थी. इसी को लेकर सिपाहियों के बीच अफवाह फैल गई थी कि कारतूस में लगी हुई चर्बी सुअर और गाय के मांस से बनाई जाती है . इससे सैनिकों को लगने लगा कि अंग्रेज उनका धर्म भ्रष्ट करवाना चाहते है. इसी वजह से कलकत्ता की बैरकपुर छावनी में मंगल पांडे ने अग्रेंजों के खिलाफ बिगुल बजा दिया. हालांकी अंग्रेजों के खिलाफ इस क्रांति के समय से पहले शुरू होने के कारण इसको हार का सामना करना पड़ा. इसी विद्रोह में मंगल पांडे ने खुद को गोली मारकर आत्महत्या करने की कोशिश भी की थी मगर इसमे वो केवल घायल ही हुए थे. इसके बाद 7 अप्रेल 1857 को मंगल पांडे को फांसी दे दी गई.
लखनऊ (उस समय में अवध के नाम से जाना जाता था) की सीमा पर स्थित सिकंदर बाग को अवध के नवाब वाजिद अली शाह ने बनाया था. इसका नाम उन्होंने अपनी बेगम सिकंदर महल बेगम के नाम पर दिया था. 1857 के विद्रोह से यह भी अछूता नहीं रहा था. विद्रोह के दौरान जब लखनऊ की घेराबंदी की गई तो सैकड़ों भारतीय सिपाहियों ने इसी बाग में शरण ली थी. मगर 16 नवंबर 1857 को अग्रेजों ने बाग पर चढ़ाई कर हमला बोल दिया और 2000 सैनिकों को मार दिया.
इस दौरान लड़ाई में मारे गए ब्रिटिश सैनिकों को तो गहरे गड्ढे में दफना दिया गया मगर भारतीय सिपाहियों के शवों को यू हीं बाहर फेंक दिया गया. जिसके बाद इस बाग का हाल कुछ यूं हुआ कि यहां केवल कंकाल और खोपड़ियां ही नजर आने लगीं. बाग की दिवारों पर आज भी इस लड़ाई के निशान देखे जा सकते हैं.
ये तस्वीर 1857 में शुरू ही क्रांति के दौरान दिल्ली में डेरा डालते 34th सिख पायनियर जवानों की है. ये सिख रेजीमेंट था जो सेना की सबसे खास टुकड़ियों में से एक था. बंगाल के बाद मेरठ में शुरू हुआ विद्रोह दिल्ली तक जा पहुंचा था. 11 मई को विद्रोही सिपाही मेरठ के बाद दिल्ली का रुख कर चुके थे. वहां भी विद्रोहियों की क्रांति शुरू हो गई. दिल्ली के पास बंगाल नेटिव ईंफैंट्री की तीन बटालियन थी जिनके कुछ दस्ते विद्रोहियों के साथ मिल गए. बाकी बचे दस्तों ने विद्रोहियों पर हमला करने से इनकार कर दिया था. इन घटनाओं का समाचार सुन कर शहर के बाहर तैनात सिपाहियों ने भी खुला विद्रोह कर दिया.
ब्रिटिश अधिकारी और सैनिक उत्तरी दिल्ली के पास फ़्लैग स्टाफ़ बुर्ज के पास इकट्ठा हुए. जब ये स्पष्ट हो गया कि कोई सहायता नहीं मिलेगी तो वे करनाल की ओर बढे़. अगले दिन बहादुर शाह ने कई सालों बाद अपना पहला आधिकारिक दरबार लगाया. बहुत से सिपाही इसमें शामिल हुए. बहादुर शाह इन घटनाओं से चिंता में थे पर अन्तत: उन्होने सिपाहियों को अपना समर्थन और नेतृत्व देने की घोषणा कर दी.
दिल्ली के इस गदर बहुत नुकसान हुआ. लोगों की जाने तो गई ही लेकिन उसके साथ-साथ जान-माल की बहुत हानि हुई. उसी दौरान बरबाद हो चुके एक बाजार की तस्वीर.
जब-जब 1857 के विद्रोह का नाम लिया जाता है तो उसमें लखनऊ रेसिडेंसी का नाम भी शामिल होता है. विद्रोह के इतिहास में ये रेसिडेंसी सबसे महत्वपूर्ण जगहों में से एक है. विद्रोह के दौरान जब लखनऊ में घेराबंदी हुई तब अंग्रेज इस रेसिडेंसी में 86 दिनों तक छिपे हुए थे. इसके बाद यहां भी विद्रोह का गदर मचा जहां भारी मात्रा में गोलीबारी हुई. इस लड़ाई में लखनऊ रेसिडेंसी का एक बड़ा हिस्सा बर्बाद हो गया था. यहां पर एक खंडहर चर्च है. इस चर्च में एक कब्रिस्तान हैं, जहां 2000 अंग्रेज सैनिकों सहित कई औरतों और बच्चों की कब्रें बनी हुई है.
तात्या टोपे का असली नाम रामचंद्र पाणडुंरग राव था. तात्या ने कुछ समय तक ईस्ट इंडिया कंपनी के बंगाल आर्मी की तोपखाना रेजीमेंट में भी काम किया था. मगर अंग्रेजों के बढ़ते अत्याचार को देख उन्होंने नौकरी छोड़ दी और बाजीराव की नौकरी पर वापस आ गए. 1857 का विद्रोह देश भर से होता हुआ कानपुर पहुंचा जिसमें तात्या टोपे ने अहम भूमिका निभाई थी. वो तात्या टोपे ही थे जिन्होंने केवल कुछ सिपाहियों के साथ ही एक साल तक अंग्रेजों की नाक में दम कर के रखा.
इस विद्रोह में तात्या टोपे के पकड़े जाने की वजह नरवर के राजा मानसिंह की गद्दारी बनी. मानसिंह अंग्रेजों से मिल गया था जिसकी वजह तात्या टोपे परोन के जंगल में सोते में पकड़ लिए गए. 15 अप्रैल 1859 को तात्या का कोर्ट मार्शल किया गया जहां उनको फांसी की सजा सुनाई गई. तात्या टोपे इस विद्रोह में सबसे आखिर में पकड़े गए थे.
इस विद्रोह का परिणाम था ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन का खत्म होना, जिसके बाद भारत में ब्रिटिश राज शुरू हुआ जो अगले 90 सालों तक चलता रहा.
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~विजय राजबली माथुर ©
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (31-03-2017) को "दर्पण में तसबीर" (चर्चा अंक-2926) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
amazing link ise pd kr or os block pr visiste krk mja agya.
ReplyDeleteLatest Breaking News in hindi samachar searchg krte hi apka block mila or ise study krk kafi acha mehsus hua