वर्ष 1978-79 में सहारनपुर के 'नया जमाना ' के संपादक स्व. कन्हैया लाल मिश्र 'प्रभाकर 'ने अपने एक तार्किक लेख मे 1951 - 52 मे सम्पन्न संघ के एक नेता स्व .लिंमये के साथ अपनी वार्ता के हवाले से लिखा था कि,कम्युनिस्टों और संघियों के बीच सत्ता की निर्णायक लड़ाई दिल्ली की सड़कों पर लड़ी जाएगी।
प्रस्तुत लेख से उसकी पुष्टि ही होती है। |
*भारत के बंटवारे और पाकिस्तान की मांग करने वाली मुस्लिम लीग के साथ मिलकर भाजपा के आदर्श नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी सत्ता का आनन्द लेते हैं। बंगाल में बनी मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा के गठजोड़ वाली सरकार में श्यामा प्रसाद मुखर्जी वित्तमंत्री रहे। इस सरकार के मुख्यमंत्री फजुल हक थे जो बाद में भारत के बंटवारे और पाकिस्तान निर्माण की लड़ाई का एक हिस्सा थे, जो बाद में चलकर एक समय में पाकिस्तान के गृहमंत्री भी रहे। इसके अलावा भारत के बंटवारे को लेकर भी सबसे अधिक उत्साहित श्यामा प्रसाद मुखर्जी और सावरकर ही थे। ध्यान रहे वह सावरकर ही थे जिन्होंने द्विराष्ट्रवाद का सिद्धांत दिया था। यहां तक 1944 में कलकता की एक रैली में सार्वजनिक तौर पर भारत के विभाजन का समर्थन कर दिया था। इसके अलावा उन्होंने 2 मई 1942 को लार्ड माउंटबेटन को एक गुप्त पत्र लिखते हुए यहां तक कह दिया था कि भारत का विभाजन अगर नही भी हो पाता है तो बंगाल का विभाजन तो होना ही चाहिए।
वास्तव में श्यामा प्रसाद मुखर्जी भारतीय बहुलतावादी संस्कृति के विपरीत एक जातिवादी, सांप्रदायिक और पक्के ब्राहमणवादी नेता थे। इसका सबसे बड़ा प्रमाण भारतीय संविधान निर्माण के समय हिंदू कोड़ बिल का विरोध किया था।
** यह निर्माण से विध्वंस की तरफ स्थानान्तरण का ऐसा भगवा अभियान है, जिसमें फासीवाद की दस्तक साफ सुनी और देखी जा सकती है। अंधराष्टवादी फासीवाद के इस हमले की शुरूआत त्रिपुरा में लेनिन की मूर्ति से हुई है। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि लेनिन ऐसी विचारधारा का प्रतीक हैं जो कारपोरेट पूंजीवाद के झूठ और उसकी लूट को वास्तविक चुनौती देती है।
***यदि लेनिन की रूसी क्रान्ति नही होती तो शहीदे आजम भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, सुखदेव थापर की हिंदुस्तान रिवोल्यूशनरी आर्मी 1928 में दिल्ली के फिरोजशाह कोटला मैदान मेें हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन नही बन पाती। सभी जानते हैं कि शहीदे आजम भगत सिंह लेनिन के कितने दिवाने थे। यह लेनिन के समाजवाद की ही प्रेरणा थी कि भगत सिंह की नौजवान भाारत सभा और एचआरए ने अपना लक्ष्य भारत में मजदूरों और किसानों का स्वतंत्र गणराज्य स्थापित करने को बनाया था।
आलेख, विमर्श
श्यामा प्रसाद मुखर्जी और लेनिन, अंबेडकर, पेरियार के टकराव का निर्णायक शंखनाद
Written by innbharat on March 11, 2018
By महेश राठी
भगवा ब्रिगेड भारतीय समाज में विचारों के टकराव की नई इबारत लिख रही है। भारतीय समाज अभी तक मूर्तियों की स्थापना में विचारों के टकराव की आहट सुनता आया था परंतु अब वह मूर्तियों के विध्वंस में विचारों का टकराव देखने की तरफ बढ़ रहा है। यह निर्माण से विध्वंस की तरफ स्थानान्तरण का ऐसा भगवा अभियान है, जिसमें फासीवाद की दस्तक साफ सुनी और देखी जा सकती है। अंधराष्टवादी फासीवाद के इस हमले की शुरूआत त्रिपुरा में लेनिन की मूर्ति से हुई है। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि लेनिन ऐसी विचारधारा का प्रतीक हैं जो कारपोरेट पूंजीवाद के झूठ और उसकी लूट को वास्तविक चुनौती देती है। वह जनपक्षीय आर्थिक ढ़ांचे और बहुलवादी संस्कृति और आर्थिक, सामाजिक राजनीतिक समानता की चेतना का नायक और वास्तविक सामाजिक रूपांतरण के वाहक विचार का प्रतीक है। मूर्तिभंजन के बाद अब भाजपा-संघ की भगवा ब्रिगेड लेनिन को विदेशी बताकर लेनिन की मूर्ति की मौजूदगी पर सवाल खड़ा करके जनमानस को बरगलाने की कोशिश कर रही है। दूसरी तरफ किसी रेडिकल वाम संगठन से जुड़े लोगों ने श्यामा प्रसाद मुखर्जी को खण्ड़ित करने का प्रयास किया है। बेशक किसी भी लोकतान्त्रिक समाज में विचारों के टकराव का यह रूप जनवादी सहिष्णुता के अनिवार्य जनवादी सिद्धांत के विरूद्ध है पंरतु लेनिन की मूर्ति पर हमले ने जहां भारतीय जनमानस को लेनिन को जानने का अवसर दिया है तो वहीं श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बारे में समझ साफ करने और स्वतंत्रता संग्राम में श्यामा प्रसाद मुखार्जी के बहाने संघ और भाजपा के कथित महापुरूषों के बारे में भी जानने का अवसर दे दिया है।
लेनिन को बेशक सतही समझदारी के साथ एक विदेशी व्यक्तित्व कहकर उनकी मूर्ति को गिराये जाने को न्यायोचित ठहराने की भगवा ब्रिगेड कोशिश करें और दावा करे कि भारत से और भारतीय समाज से लेनिन का कोई संबंध नही परंतु रूसी क्रान्ति और उसके नायक लेनिन एक ऐसा नाम है जिसने ना केवल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम बल्कि आजादी के बाद के भारत पर भी एक ऐसी अमिट छाप छोड़ी जिसे आज भी भुलाया नही जा सकता है। लेनिन और उनके द्वारा स्थापित दुनिया में पहले समाजवादी समाज की स्थापना का असर केवल भारतीय समाज ही नही भारतीय संविधान प्रस्तावना में भी पाते हैं। भारतीय संविधान में समाजवादी समाज के निर्माण की परिकल्पना की प्रेरणा का स्रोत लेनिन का समाजवादी सोवियत संघ ही था। समाजवाद की यह परिकल्पना केवल भारतीय संविधान में ही निहित नही है बल्कि 1980 में स्थापित भारतीय जनता पार्टी भी इस समाजवादी स्थापना से अछूती नही रहती है जब वह अपने घोषणा पत्र में गांधीवादी समाजवाद को अपना लक्ष्य बताती है। याद रहे वह लेनिन का समाजवाद ही था जिसने 1917 की रूसी क्रान्ति के बाद दुनिया के प्रत्येक प्रगतिशील, जनवादी आंदोलन को पुनर्परिभाषित करने का काम किया। वह लेनिन ही थे जिनकी बोल्शेविक क्रान्ति ने फासीवाद के प्रतीक हिटलर को समाजवाद की आड़ लेने के लिए मजबूर कर दिया।
यदि भारतीय संदर्भो में भी हम देखें तो आजादी की लड़ाई के प्रत्येक नायक, महानायक को लेनिन ने ना केवल प्रभावित किया बल्कि उन्हें नई दिशा दिखाने का भी काम किया। नेहरू का समाजवाद का सपना सभी जानते हैं कि रूसी समाजवाद से ही प्रेरित था। यदि लेनिन की रूसी क्रान्ति नही होती तो शहीदे आजम भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, सुखदेव थापर की हिंदुस्तान रिवोल्यूशनरी आर्मी 1928 में दिल्ली के फिरोजशाह कोटला मैदान मेें हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन नही बन पाती। सभी जानते हैं कि शहीदे आजम भगत सिंह लेनिन के कितने दिवाने थे। यह लेनिन के समाजवाद की ही प्रेरणा थी कि भगत सिंह की नौजवान भाारत सभा और एचआरए ने अपना लक्ष्य भारत में मजदूरों और किसानों का स्वतंत्र गणराज्य स्थापित करने को बनाया था। और लेनिन की प्रेरणा ने क्या भगत सिंह को सिखाया की उन्होंने आजादी और समाजवाद की पुरानी और स्थापित परिभाषा को ही बदलकर रख दिया और उसका प्रभाव बाद में सभी धाराओं की राजनीति पर साफ दिखाई पड़ता है।
भगत सिंह, बटुकेश्वर दत और विजय कुमार सिन्हा के संपर्क में रहे कम्युनिस्ट नेता शौकत उस्मानी ने लिखा था कि जब वे एचआर का नाम एचएसआरए होने के बाद 1928 में भगत सिंह से मिले थे तो उन्होंने कहा था कि उनका नया संगठन कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के साथ काम करने का इच्छुक है। भगत सिंह की जीवनी लिखने वाले डाॅ. दयाल भी इस तथ्य का हवाला देते हुए लिखते हैं कि भगत सिंह जेल में लेनिन की जीवनी और कम्युनिस्ट घोषणा पत्र का अध्ययन कर रहे थे। शहीदे आजम की जीवनी लिखने वाले एक और लेखक गोपाल ठाकुर भी उनके बारे में लिखते हैं कि जब भगत सिंह से पूछा गया उनकी आखिरी इच्छा क्या है तो उन्होंने कहा कि वे लेनिन की जीवनी पढ़ना चाहते हैं और चाहते हैं कि फांसी से पहले उसे पूरा पढ़ लें।
भगत सिंह के कामरेड और भाकपा के महासचिव रहे अजय घोष भी अपनी किताब भगत सिंह एण्ड हीज कामरेडस में लिखते हैं कि भगत सिंह और उनके साथियों ने जेल से 7 नवंबर 1930 को रूसी क्रान्ति की सालगिरह के अवसर पर मास्को एक बधाई का तार भेजा था। वहीं डाॅ. दयाल लिखते हैं कि जनवरी 1930 में भगत सिंह और उनके साथी लेनिन की याद में लेनिन की पुण्यतिथि पर वे लाल स्काॅर्फ बांधकर कोर्ट में आये थे। गोपाल ठाकुर अपनी किताब में लिखते हैं कि भगत सिंह ने फांसी से कुछ दिनों पहले सुखदेव को एक पत्र लिखा जिसमें वह लिखते हैं कि मैं और तुम रहे अथवा नही परंतु देश की जनता जरूर रहेगी। कम्युनिज्म और माक्र्सवाद की विचारधारा की निश्चित ही विजय होगी। यह केवल भगत सिंह और उनके साथियों का ही सवाल नही है बल्कि पूरे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम पर एक लेनिन की बोल्शेविक क्रान्ति का प्रभाव देख सकते हैं और ना केवल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम बल्कि तीसरी दुनिया के उन सभी देशों के मुक्ति आंदोलनों को लेनिन और रूसी क्रान्ति पे प्रभावित किया। यह बोल्शेविक क्रान्ति और सोवियत संघ के प्रभाव के कारण ही था कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद तीसरी दुनिया के देशों में आजादी की एक बाढ़ सी आ गयी थी।
दूसरी तरफ हम यदि भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में लेनिन की मूर्ति ध्वस्त करने वाली और उसके बाद पेरियार की मूर्ति पर धावा बोलने वाली भाजपा के आदर्शो और विशेषकर उनके जनक श्यामा प्रसाद मुखर्जी के जीवन और उनके कृत्यों का विश्लेषण करें तो वह ना केवल अंग्रेजों की तरफ झुकाव वाला बल्कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की राह में गतिरोध करने वाला दिखाई देता है। श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरूआत कांग्रेस से की थी। वह कांग्रेस के उम्मीदवार के तौर पर पहली बार बंगाल प्रांतीय परिषद के सदस्य चुने गये थे। उसके बाद वह आगे चलकर 1939 में सावरकर के प्रभाव में आकर हिंदू महासभा के साथ जुड गये। हालांकि उनके और उनके जैसे कई अन्य बंगाली भद्रपुरूषों की कांग्रेस से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर जुड़ने की भी एक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है। 1939 से 1946 तक श्यामा प्रसाद मुखर्जी हिंदू महासभा के अध्यक्ष रहे। वैसे वह गांधी की हत्या के बाद भी दिसंबर 1948 तक हिंदू महासभा के साथ जुड़े रहे थे। श्यामा प्रसाद मुखर्जी को भाजपा और संघ के नेता महान राष्ट्रवादी नेता के तौर पर पेश करते हैं। परंतु यदि भारतीय स्वतंत्रता संगाम में उनकी भूमिका को देखें तो वह बेहद विवादास्पद और अंग्रेज परस्ती की दिखाई पड़ती है। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन का उन्होंने जमकर विरोध किया यहां तक बंगाल के गवर्नर जाॅहन हरबर्ट को 26 जुलाई 1942 को एक पत्र लिखा और उसमें गांधी और कांग्रेस के भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध करते हुए उसे विफल बनाने के लिए भरपूर सहयोग देने का वादा भी किया था। उन्होंने अपने पत्र में साफ लिखा था कि आपके मंत्री हाने के नाते हम भारत छोड़ों आंदोलन को विफल करने के लिए पूरा सक्रिय सहयोग करेंगे। केवल इतना ही नही जब गांधी और कांग्रेस करो या मरो के नारे के तहत अंग्रेजो भारत छोड़ो आंदोलन चला रहे थे उस समय श्यामा प्रसाद मुखर्जी सावरकर के साथ मिलकर अंग्रेजों का सहयोग कर रहे थे। कांग्रेस और गांधी ने अंग्रेजों द्वारा भारत को दूसरे विश्व युद्ध में शामिल करने की घोषणा का विरोध किया तो वहीं सावरकर पूरे भारत में घूमकर अंग्रेजी फौज में भारतीयों को भर्ती होने के लिए प्रेरित कर रहे थे। जाहिर है बंगाल के वित्तमंत्री और भाजपा और संघ के आदर्श नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी इसमें शामिल थे। अंग्रेजों द्वारा भारत को दूसरे विश्व युद्ध में शामिल करने की घोषणा पर 1939 में गांधी के आहवान पर कांग्रेस के विधायकों ओर मन्त्रियों ने अंतरिम सरकार के अपने पदों से इस्तीफा दे दिया तो जिन्ना ने इस पर खुशी जाहिर करते हुए इसे मुक्ति का दिन बताया और इस मुक्ति के दिन में मुखर्जी ने मंत्री पद की अपेक्षा कांग्रेस छोड़कर जिन्ना की खुशी में शामिल होकर मुस्लिम लीग सरकार में साझेदारी करना बेहतर माना था।
श्यामा प्रसाद मुखर्जी और उनकी हिंदू महासभा और बाद में उनके द्वारा स्थापित जनसंघ जोकि बाद में चलकर भाजपा के गठन का आधार बनी हमेशा कांग्रेस और गांधी एवं नेहरू पर मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप लगाते रहे। परंतु सबसे दिलचस्प तथ्य यह है कि भारत के बंटवारे और पाकिस्तान की मांग करने वाली मुस्लिम लीग के साथ मिलकर भाजपा के आदर्श नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी सत्ता का आनन्द लेते हैं। बंगाल में बनी मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा के गठजोड़ वाली सरकार में श्यामा प्रसाद मुखर्जी वित्तमंत्री रहे। इस सरकार के मुख्यमंत्री फजुल हक थे जो बाद में भारत के बंटवारे और पाकिस्तान निर्माण की लड़ाई का एक हिस्सा थे, जो बाद में चलकर एक समय में पाकिस्तान के गृहमंत्री भी रहे। इसके अलावा भारत के बंटवारे को लेकर भी सबसे अधिक उत्साहित श्यामा प्रसाद मुखर्जी और सावरकर ही थे। ध्यान रहे वह सावरकर ही थे जिन्होंने द्विराष्ट्रवाद का सिद्धांत दिया था। यहां तक 1944 में कलकता की एक रैली में सार्वजनिक तौर पर भारत के विभाजन का समर्थन कर दिया था। इसके अलावा उन्होंने 2 मई 1942 को लार्ड माउंटबेटन को एक गुप्त पत्र लिखते हुए यहां तक कह दिया था कि भारत का विभाजन अगर नही भी हो पाता है तो बंगाल का विभाजन तो होना ही चाहिए।
वास्तव में श्यामा प्रसाद मुखर्जी भारतीय बहुलतावादी संस्कृति के विपरीत एक जातिवादी, सांप्रदायिक और पक्के ब्राहमणवादी नेता थे। इसका सबसे बड़ा प्रमाण भारतीय संविधान निर्माण के समय हिंदू कोड़ बिल का विरोध किया था। हालंकि वे जब तक नेहरू सरकार में मंत्री रहे उन्होंने इसके बारे में कुछ नही कहा था परंतु 1951 में मन्त्रिमण्डल छोडने के बाद उन्होंने हिंदू कोड़ बिल को हिंदू समाज को छिन्न भिन्न करने वाला बताकर इसका विरोध किया। उनका कहना था कि यह हिंदू समाज की बुनियाद और उसकी विवाह संस्था को खत्म कर देगा। साथ ही यह हमारे धर्म के स्वाभाविक स्रोत को नष्ट कर देगा। इसके अलावा 1943-44 के बंगाल अकाल के राहत कार्यो में भी उनकी हिंदू महासभा पर राहत कार्यो में भेदभाव के आरोप लगे थे। बंगाल सरकार के गुप्तचर विभाग के अलावा उस समय के दि हिंदू के रिपोर्टर टी आर नारायणन और प्रसिद्ध चित्रकार चितोप्रसाद ने भी इस प्रकार की रिपोर्ट की थी। ना केवल राहत कार्यो में भेदभाव बल्कि बंगाल सरकार द्वारा उस समय चालाई जा रही कैंटीन पर भी मुखर्जी और उनकी हिंदू महासभा को आपति थी क्योंकि उसमें खाना पकाने और उसके वितरण का काम अल्पसंख्यकों औरदलितों के पास था। इस प्रकार के ब्राहमणवादी, सांप्रदायिक और जातिवादी नेता को आज भारतीय समाज के आदर्श के रूप पेश किया जा रहा है। इसी कारण से सब उन मूर्तियों पर हमले किये जा रहे हैं जो इस ब्राहमणवादी, सांप्रदायिक और जातिवादी नेता की विचारधारा के स्वाभाविक विरोधी हैं अथवा वैचारिक विरोध का प्रतीक हैं। वह चाहे अंबेडकर हो पेरियार, फूले अथवा गांधी और लेनिन आने वाले समय में सभी के बुत निशाने पर होंगे क्योंकि वे ब्राहमणवादी फासीवाद के विरोध के प्रतीक हैं और हिंदुत्ववादी भगवा ब्रिगेड को वैचारिक चुनोती पेश करते हैं। अभी तक यह लड़ाई मूर्तियों के निर्माण की थी परंतु अब लड़ाई मूर्तियों के ध्वंस की है। यह विध्वंस की निर्णायक लड़ाई की शुरूआत है उसका शंखनाद है।
वर्ष 1978-79 में सहारनपुर के 'नया जमाना ' के संपादक स्व. कन्हैया लाल मिश्र 'प्रभाकर 'ने अपने एक तार्किक लेख मे 1951 - 52 मे सम्पन्न संघ के एक नेता स्व .लिंमये के साथ अपनी वार्ता के हवाले से लिखा था कि,कम्युनिस्टों और संघियों के बीच सत्ता की निर्णायक लड़ाई दिल्ली की सड़कों पर लड़ी जाएगी।
प्रस्तुत लेख से उसकी पुष्टि ही होती है।
~विजय राजबली माथुर ©
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (13-03-2017) को "सफ़र आसान नहीं" (चर्चा अंक-2908) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'