पूर्व प्रधानमंत्री पी वी नरसिंघा राव साहब ने पदमुक्त होने के बाद अपने उपन्यास ' The Insider ' में उल्लेख किया है कि, हम लोकतन्त्र के भ्रमजाल में जी रहे हैं।
वस्तुतः आज संसद और विधायिकाओं में जन- प्रतिनिधि के रूप में निर्वाचित लोग अधिकतर किसी न किसी व्यवसायिक घराने से संबंध रखते हैं और वे अपने वर्ग के लोगों के हक में निर्णय लेते हैं न कि जनता के हक में।
यही गठबंधन राष्ट्रीय स्तर पर हो जाये तो विपक्ष को अपना गठबंधन बनाने में आसानी हो जाये वरना अभी तो कुछ विपक्ष इधर कुछ उधर भटक रहा है और यही आर एस एस की नीति है कि , सत्ता और विपक्ष दोनों पर उसका नियंत्रण रहे । 1980 में इन्दिरा गांधी और 1985 में राजीव गांधी आर एस एस के सहयोग से बहुमत पा सके थे इसीलिए उनको खुश करने के लिए अयोध्या से ताला खुलवाया था और 1992 में कांग्रेस शासन में ही विवादित ढांचा गिराया गया जिसके बाद तेजी से भाजपा की बढ़त हुई थी और वर्तमान मोदी सरकार मनमोहन सिंह की कृपा का फल है। लेकिन कांग्रेस-भाजपा विरोधी विपक्ष जनता से कटा होने के कारण उसके लिए कांग्रेस का साथ देना मजबूरी हो जाती है। राहुल गांधी खुद को मोदी से अधिक हिन्दू होने का दावा कर रहे हैं और चूंकि मोदी - शाह गठजोड़ आर एस एस को कबजाने की कोशिश कर रहा है इसलिए राहुल कांग्रेस को आर एस एस का समर्थन मिल सकता है।
इस संदर्भ में पी यू सी एल नेता सीमा आज़ाद जी का दृष्टिकोण यह है --- '' भाजपा को हराकर कांग्रेस को सत्ता में ले आने पर भी भाजपा और उनके अनुसंगी संगठन समाज में बने ही रहेंगे और अपना काम करते रहेंगे। कांग्रेस उन पर रोक लगायेगी ऐसा सोचना भी नासमझी है, उल्टे पिछली घटनायंे बताती हैं कि कांग्रेस सहित दूसरे चुनावी दल उनके साम्प्रदायिक कर्मांे को अपने हित के लिए इस्तेमाल ही करती रही है। ''
(https://www.facebook.com/seema.azad.33/posts/2509223352636533 )
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एक बहुत ही सोची - समझी रणनीति के तहत जनता के मध्य यह प्रचारित करा दिया गया है कि, राजनेता भ्रष्ट होते हैं और भले लोगों को राजनीति में नहीं आना चाहिए। जब देश आज़ाद हुआ तब आज़ादी के आंदोलन से तपे तपाये नेता राजनीति में आए थे और तब राजनीतिक आदर्श उच्च थे। धीरे - धीरे व्यापारी वर्ग राजनीतिज्ञों को प्रभावित करने लगा और अपने हक में नियम - कानून बनवाने लगा। वर्तमान में राजनीतिज्ञों के नाम पर व्यापारी, उद्योगपति और कारपोरेट घराने संसद व विधानसभाओं में काबिज हैं। ऐसे में गरीब जनता, किसान और मजदूर के हक की बातें कहाँ से विधायिका में उठ सकती हैं ?
12 जून 1975 को तत्कालीन पी एम इन्दिरा गांधी का चुनाव इलाहाबाद हाई कोर्ट में रद्द घोषित करने वाले न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा साहब के एक रिश्तेदार वकील प्रोफेसर साहब ने अपने छात्रों को ऐसा परिणाम आ सक्ने का आभास पहले ही दे दिया था जो उनकी निडरता व निष्पक्षता से पूर्ण परिचित थे। उन प्रोफेसर सिन्हा साहब ने ही 1974 - 75 के छात्रों को बता दिया था कि , जिस प्रकार की अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक गतिविधियेँ चल रही हैं उनके अनुसार 1980 से भारत में भी श्रम - न्यायालयों (Labour Court ) से श्रमिकों के विरुद्ध फैसले होने लगेंगे।
एमर्जेंसी के दौरान सम्पन्न ' देवरस - इन्दिरा ' गुप्त समझौते के अंतर्गत 1980 में संघ के समर्थन से इन्दिरा गांधी के पुनः सत्तासीन होने पर श्रमिक विरोधी निर्णय श्रम न्यायालयों से होने शुरू हो गए थे। संघ के समर्थन से ही 1984 में पी एम बने उनके पुत्र राजीव गांधी तो सरकार कारपोरेट की तर्ज पर चलाने लगे थे। उदाहरण के तौर पर शिक्षा मंत्रालय का नामांतरण मानव संसाधन मंत्रालय किया जाना है।
1991 में पी एम बने नरसिंघा राव साहब के वित्तमंत्री मनमोहन सिंह ने जिन उदारीकरण की नीतियों को लागू किया उनको न्यूयार्क जाकर एल के आडवाणी साहब ने उनकी अर्थात भाजपा की नीतियों का चुराया जाना बताया था। उनके बाद बाजपेयी साहब के वित्तमंत्री यशवंत सिन्हा साहब ने उन नीतियों को ही जारी रखा तथा फिर पी एम बनने पर मनमोहन सिंह जी ने वही नीतियाँ जारी रखीं और आजके पी एम मोदी साहब भी वही नीतियाँ चला रहे हैं। इस प्रकार संघ अर्थात व्यापारियो, उद्योगपतियों व कारपोरेट घरानों का शुभचिंतक राजनीति में मजबूत होता गया है। भाजपा और कांग्रेस की आर्थिक नीतियों में कोई अंतर है ही नहीं। अतः पूर्व राष्ट्रपति मुखर्जी साहब द्वारा नागपूर जाकर संघ को मजबूती देने का प्रयास अनायास नहीं है जनतंत्र पर हावी होते कारपोरेट तंत्र का यह स्व्भाविक परिणाम है।
यह धारणा गलत है कि, मुखर्जी साहब कांग्रेस पृष्ठ - भूमि के थे । वस्तुतः 1967 के चुनावों के बाद इन्दिरा गांधी द्वारा हटाये गए शिक्षामंत्री हुमायूँ कबीर द्वारा गठित इन्दिरा विरोधी ' बांगला कांग्रेस ' से प्रणब मुखर्जी साहब ने राजनीति में पदार्पण किया था। बांगला कांग्रेस , जन कांग्रेस आदि द्वारा जब अमीनाबाद पार्क , लखनऊ में भारतीय क्रांति दल का गठन किया गया तब बाद में इन्दिरा जी द्वारा प्रणब मुखर्जी साहब को कांग्रेस में शामिल कर लिया गया था। न तो उनके न ही उनके पुत्र के निधन के बाद मुखर्जी साहब को पी एम बनने का मौका मिला। बल्कि इंदिराजी के निधन के बाद तो राजीव गांधी के विरुद्ध उन्होने ' समाजवादी कांग्रेस पार्टी ' का गठन कर लिया था फिर जिसका विलय 1989 में कांग्रेस में कर लिया था। 2004 और 2009 में भी उनको पी एम नहीं बनाया गया बल्कि 2012 में राष्ट्रपति बना कर सक्रिय राजनीति से अलग कर दिया गया। अतः संघ के बुलावे पर नागपूर जाकर मोदी के विकल्प के रूप में उन्होने स्वम्य को प्रस्तुत कर दिया है। परंतु 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के विरोध जैसी भयानक गलती फिर भाकपा द्वारा दोहराई गई है उनके संघ कार्यक्रम में दिये भाषण की सराहना करके। :
अगले आम चुनावों के बाद यदि प्रणब मुखर्जी साहब को वामपंथी समर्थन सहित पी एम बनाया जाये तो कोई ताज्जुब नहीं होगा लेकिन यह कदम साम्यवाद व वामपंथ के लिए आत्मघाती ही सिद्ध होगा।
~विजय राजबली माथुर ©
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