*अगर किसी परिवार में इकलौता बेटा है तो उसकी आने वाली पीढ़ियां चाचा, ताऊ और बुआ जैसे रिश्तों से अनजान रहेंगी। ठीक इसी तरह इकलौती संतान अगर बेटी है तो उसकी आने वाली पीढ़ी को मामा और मौसी का रिश्ता नहीं मिलेगा। समाज में महिला-पुरुष के बिगड़ते अनुपात को भी सिंगल चाइल्ड की सोच बढ़ावा दे रही है।
**देश के दस बड़े शहरों में औद्योगिक संगठन एसोचैम की सामाजिक विकास शाखा द्वारा पिछले दिनों किए गए एक सर्वे के मुताबिक़ 35 फीसदी वर्किंग मदर्स दूसरा बच्चा नहीं चाहतीं।
*** कामकाजी महिलाओं की सिंगल चाइल्ड रखने की सोच कई मायनों में हमारे उस सामाजिक-पारिवारिक माहौल की बानगी है, जिसमें महिलाओं में संबंधों को लेकर पनप रही असुरक्षा से लेकर रोजगार के मोर्चे पर खुद को साबित करने की उनकी जद्दोजहद तक शामिल है।
**** महिलाएं आर्थिक मोर्चे पर अपनी भागीदारी दर्ज करवा रही हैं, लेकिन उनकी बदलती भूमिका के मुताबिक पारिवारिक-सामाजिक स्थितियों में बदलाव नहीं आ रहा।
मोनिका शर्मा
देश के दस बड़े शहरों में औद्योगिक संगठन एसोचैम की सामाजिक विकास शाखा द्वारा पिछले दिनों किए गए एक सर्वे के मुताबिक़ 35 फीसदी वर्किंग मदर्स दूसरा बच्चा नहीं चाहतीं। दिल्ली, बंगलुरु, जयपुर, कोलकाता, इंदौर, अहमदाबाद, चेन्नै और हैदराबाद सहित देश के 10 मेट्रो शहरों में हुए इस सर्वे के नतीजे सिर्फ व्यक्तिगत चॉइस का मामला नहीं है।
कामकाजी महिलाओं की सिंगल चाइल्ड रखने की सोच कई मायनों में हमारे उस सामाजिक-पारिवारिक माहौल की बानगी है, जिसमें महिलाओं में संबंधों को लेकर पनप रही असुरक्षा से लेकर रोजगार के मोर्चे पर खुद को साबित करने की उनकी जद्दोजहद तक शामिल है।
हाल के वर्षों में लड़कियों में शिक्षा के आंकड़े बढ़े हैं और उसी के अनुरूप कामकाजी महिलाओं की संख्या भी बढ़ी है। यानी अब महिलाएं आर्थिक मोर्चे पर अपनी भागीदारी दर्ज करवा रही हैं। दिक्कत यह
है कि उनकी इस बदलती भूमिका के मुताबिक पारिवारिक-सामाजिक स्थितियों में बदलाव नहीं आ रहा।
एसोचैम के सोशल डिवेलपमेंट फाउंडेशन की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि आज के दौर के वैवाहिक रिश्तों में तनाव, रोजगार के दबाव और बच्चों को पालने में होने वाले खर्च की वजह से कई मांएं पहले बच्चे के बाद दूसरा बच्चा लाने की इच्छुक नहीं रह जातीं।
विचारणीय है कि हमारे देश में कामकाजी महिलाओं की संख्या तो बढ़ी है, पर उनके प्रति बुनियादी सोच में बदलाव नहीं आया है। घर-परिवार में बच्चों से जुड़ी जिम्मेदारियों को साझा करने का भाव आज भी नदारद है। ऐसे में स्वाभाविक सवाल उठता है कि परिवार की ओर से कामकाजी महिलाओं के लिए मददगार माहौल क्यों नहीं बन पाया। शायद हमारा पारंपरिक मन उन सामाजिक-आर्थिक बदलावों से तालमेल नहीं बनाए रख पा रहा जो हमारे इर्दगिर्द तेजी से घट रहे हैं।
गौर करने की बात है कि इकलौते बच्चे का व्यवहार और कार्यशैली उन बच्चों से बिल्कुल अलग होती है जो अपने हमउम्र साथियों या भाई-बहनों के साथ बड़े होते हैं। एक बच्चे का यह चलन हमारे पारिवारिक और सामाजिक ताने-बाने को तहस-नहस कर सकता है। अगर किसी परिवार में इकलौता बेटा है तो उसकी आने वाली पीढ़ियां चाचा, ताऊ और बुआ जैसे रिश्तों से अनजान रहेंगी। ठीक इसी तरह इकलौती संतान अगर बेटी है तो उसकी आने वाली पीढ़ी को मामा और मौसी का रिश्ता नहीं मिलेगा। समाज में महिला-पुरुष के बिगड़ते अनुपात को भी सिंगल चाइल्ड की सोच बढ़ावा दे रही है।
कामकाजी अभिभावकों के इकलौते बच्चे जीवन के उतार-चढ़ाव को समझे बिना बड़े हो रहे हैं। बड़े होने पर ऐसे बच्चों को अपने ही अस्तित्व को समझने के लिए जूझना पड़ता है। वर्किंग पैरंट्स समय नहीं दे पाते और बच्चे की हर जरूरी या गैर-जरूरी मांग पूरी कर अपना अपराधबोध कम करने की राह ढूंढते हैं। अकेले बच्चों की जिंदगी का खालीपन टीवी, मोबाइल और लैपटॉप जैसे गैजट्स भरते हैं जिससे उनके शारीरिक, मानसिक और संवेदनात्मक विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।
ऐसे में बच्चे जिद्दी और शरारती ही नहीं बनते, जीवन के कई मनोवैज्ञानिक और सामाजिक पहलू उनकी समझ से परे हो जाते हैं। उनकी न कुछ बांटने की आदत बन पाती है और न ही मन की कहने-सुनने की। हालांकि इन बातों को आज के दौर की मांएं भी समझती हैं। इस अध्ययन में भी 65 फीसदी मांओं का कहना है कि वे नहीं चाहतीं उनकी औलाद एकाकी जीवन जिए। लेकिन आज के जीवन के बदले हालात उनकी इस चाहत के रास्ते में बाधा बन रहे हैं।
बहरहाल, यह समस्या वैयक्तिक स्तर पर नहीं सुलझने वाली। पारिवारिक, पारंपरिक रूप में हो या बिल्कुल नए रूपों में, पर ऐसा सपोर्ट सिस्टम हमें विकसित करना पड़ेगा, जिससे कामकाजी कपल्स के बच्चे अकेलेपन के शिकार न हों और इन कपल्स के लिए बच्चों को बड़ा करना असंभव सी लगने वाली जिम्मेदारी न हो जाए।
~विजय राजबली माथुर ©
**देश के दस बड़े शहरों में औद्योगिक संगठन एसोचैम की सामाजिक विकास शाखा द्वारा पिछले दिनों किए गए एक सर्वे के मुताबिक़ 35 फीसदी वर्किंग मदर्स दूसरा बच्चा नहीं चाहतीं।
*** कामकाजी महिलाओं की सिंगल चाइल्ड रखने की सोच कई मायनों में हमारे उस सामाजिक-पारिवारिक माहौल की बानगी है, जिसमें महिलाओं में संबंधों को लेकर पनप रही असुरक्षा से लेकर रोजगार के मोर्चे पर खुद को साबित करने की उनकी जद्दोजहद तक शामिल है।
**** महिलाएं आर्थिक मोर्चे पर अपनी भागीदारी दर्ज करवा रही हैं, लेकिन उनकी बदलती भूमिका के मुताबिक पारिवारिक-सामाजिक स्थितियों में बदलाव नहीं आ रहा।
मोनिका शर्मा
देश के दस बड़े शहरों में औद्योगिक संगठन एसोचैम की सामाजिक विकास शाखा द्वारा पिछले दिनों किए गए एक सर्वे के मुताबिक़ 35 फीसदी वर्किंग मदर्स दूसरा बच्चा नहीं चाहतीं। दिल्ली, बंगलुरु, जयपुर, कोलकाता, इंदौर, अहमदाबाद, चेन्नै और हैदराबाद सहित देश के 10 मेट्रो शहरों में हुए इस सर्वे के नतीजे सिर्फ व्यक्तिगत चॉइस का मामला नहीं है।
कामकाजी महिलाओं की सिंगल चाइल्ड रखने की सोच कई मायनों में हमारे उस सामाजिक-पारिवारिक माहौल की बानगी है, जिसमें महिलाओं में संबंधों को लेकर पनप रही असुरक्षा से लेकर रोजगार के मोर्चे पर खुद को साबित करने की उनकी जद्दोजहद तक शामिल है।
हाल के वर्षों में लड़कियों में शिक्षा के आंकड़े बढ़े हैं और उसी के अनुरूप कामकाजी महिलाओं की संख्या भी बढ़ी है। यानी अब महिलाएं आर्थिक मोर्चे पर अपनी भागीदारी दर्ज करवा रही हैं। दिक्कत यह
है कि उनकी इस बदलती भूमिका के मुताबिक पारिवारिक-सामाजिक स्थितियों में बदलाव नहीं आ रहा।
एसोचैम के सोशल डिवेलपमेंट फाउंडेशन की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि आज के दौर के वैवाहिक रिश्तों में तनाव, रोजगार के दबाव और बच्चों को पालने में होने वाले खर्च की वजह से कई मांएं पहले बच्चे के बाद दूसरा बच्चा लाने की इच्छुक नहीं रह जातीं।
विचारणीय है कि हमारे देश में कामकाजी महिलाओं की संख्या तो बढ़ी है, पर उनके प्रति बुनियादी सोच में बदलाव नहीं आया है। घर-परिवार में बच्चों से जुड़ी जिम्मेदारियों को साझा करने का भाव आज भी नदारद है। ऐसे में स्वाभाविक सवाल उठता है कि परिवार की ओर से कामकाजी महिलाओं के लिए मददगार माहौल क्यों नहीं बन पाया। शायद हमारा पारंपरिक मन उन सामाजिक-आर्थिक बदलावों से तालमेल नहीं बनाए रख पा रहा जो हमारे इर्दगिर्द तेजी से घट रहे हैं।
गौर करने की बात है कि इकलौते बच्चे का व्यवहार और कार्यशैली उन बच्चों से बिल्कुल अलग होती है जो अपने हमउम्र साथियों या भाई-बहनों के साथ बड़े होते हैं। एक बच्चे का यह चलन हमारे पारिवारिक और सामाजिक ताने-बाने को तहस-नहस कर सकता है। अगर किसी परिवार में इकलौता बेटा है तो उसकी आने वाली पीढ़ियां चाचा, ताऊ और बुआ जैसे रिश्तों से अनजान रहेंगी। ठीक इसी तरह इकलौती संतान अगर बेटी है तो उसकी आने वाली पीढ़ी को मामा और मौसी का रिश्ता नहीं मिलेगा। समाज में महिला-पुरुष के बिगड़ते अनुपात को भी सिंगल चाइल्ड की सोच बढ़ावा दे रही है।
कामकाजी अभिभावकों के इकलौते बच्चे जीवन के उतार-चढ़ाव को समझे बिना बड़े हो रहे हैं। बड़े होने पर ऐसे बच्चों को अपने ही अस्तित्व को समझने के लिए जूझना पड़ता है। वर्किंग पैरंट्स समय नहीं दे पाते और बच्चे की हर जरूरी या गैर-जरूरी मांग पूरी कर अपना अपराधबोध कम करने की राह ढूंढते हैं। अकेले बच्चों की जिंदगी का खालीपन टीवी, मोबाइल और लैपटॉप जैसे गैजट्स भरते हैं जिससे उनके शारीरिक, मानसिक और संवेदनात्मक विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।
ऐसे में बच्चे जिद्दी और शरारती ही नहीं बनते, जीवन के कई मनोवैज्ञानिक और सामाजिक पहलू उनकी समझ से परे हो जाते हैं। उनकी न कुछ बांटने की आदत बन पाती है और न ही मन की कहने-सुनने की। हालांकि इन बातों को आज के दौर की मांएं भी समझती हैं। इस अध्ययन में भी 65 फीसदी मांओं का कहना है कि वे नहीं चाहतीं उनकी औलाद एकाकी जीवन जिए। लेकिन आज के जीवन के बदले हालात उनकी इस चाहत के रास्ते में बाधा बन रहे हैं।
बहरहाल, यह समस्या वैयक्तिक स्तर पर नहीं सुलझने वाली। पारिवारिक, पारंपरिक रूप में हो या बिल्कुल नए रूपों में, पर ऐसा सपोर्ट सिस्टम हमें विकसित करना पड़ेगा, जिससे कामकाजी कपल्स के बच्चे अकेलेपन के शिकार न हों और इन कपल्स के लिए बच्चों को बड़ा करना असंभव सी लगने वाली जिम्मेदारी न हो जाए।
~विजय राजबली माथुर ©
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