* एक वरिष्ठ साहित्यिक ने कहा: यशपाल का कर्मक्षेत्र लखनऊ था, उनके संपूर्ण साहित्य का रचनास्थल। यह भूलने का खामियाजा लखनऊ भरेगा, यशपाल के वंशज नहीं।
** ‘यशपाल का कोई नाम न लेने वाला’ होने का प्रमाण यह दिया गया कि लखनऊ के अन्य दिवंगत साहित्यिकों की तरह उनकी जन्म या पुण्यतिथि पर उनका परिवार उन्हें स्मरण करने के लिए लोगों को जलपान नहीं कराता।
*** एक लेखक या कलाकार की स्मृति को जीवित रखना उसके पाठकों, प्रशंसकों और समाज का दायित्व है या लेखक के परिवार का।
**** वर्तमान सरकार यशपाल जयंती की बात तो क्या, क्रांतिकारी-स्वतंत्रता सेनानी स्मृति समारोहों के समय दुर्गा भाभी तथा यशपाल के वंशजों को पूछती तक नहीं।
प्रसिद्ध हिंदी उपन्यासकार यशपाल की 42वीं पुण्यतिथि (26 दिसंबर) को उनके पुत्र आनंद जी ने अपने परिवार की ओर से पिछले दिनों आए एक अप्रिय प्रसंग पर अपना पक्ष नवभारत टाइम्स के माध्यम से प्रस्तुत किया है :
मेरे पिता क्रांतिकारी और लेखक यशपाल के 42वें निधन दिवस (26 दिसंबर) के संदर्भ में दो प्रश्न सामने आए: क्या किसी लेखक को ‘भुला दिया गया’ कहा जा सकता है जब न केवल वह चाव से पढ़ा जा रहा हो वरन उसकी पुस्तकों की खूब बिक्री भी हो रही हो। दूसरा यह कि एक लेखक या कलाकार की स्मृति को जीवित रखना उसके पाठकों, प्रशंसकों और समाज का दायित्व है या लेखक के परिवार का।
प्रश्नों के मूल में इसी वर्ष हिंदी दिवस के अवसर पर लखनऊ के एक समाचारपत्र द्वारा नगर की प्रसिद्ध साहित्यकार त्रयी - भगवतीचरण वर्मा, अमृतलाल नागर और यशपाल - को याद करते हुए यशपाल के बारे में छापी गई यह टिप्पणी थी कि ‘...यशपाल का शहर में अब कोई नाम लेने वाला भी नहीं है।’ तथा ‘...बस एक घर की शक्ल में यशपाल की याद (क्योंकि) यशपाल का परिवार यहां रहता नहीं और बाकी किसी को उन्हें याद करने की फिक्र नहीं है।’ अपना अज्ञान छिपाने के लिए किसी बात को दावे या दुस्साहस के साथ कहने का चलन हिंदी में आम हो गया है, मगर ध्यान देने लायक है कि इस मामले में ‘यशपाल का कोई नाम न लेने वाला’ होने का प्रमाण यह दिया गया कि लखनऊ के अन्य दिवंगत साहित्यिकों की तरह उनकी जन्म या पुण्यतिथि पर उनका परिवार उन्हें स्मरण करने के लिए लोगों को जलपान नहीं कराता।
यशपाल के परिवार के सामने समस्या है कि उनकी जन्मतिथि पर हिमाचल प्रदेश में पिछले 35 वर्षों से चली आ रही परंपरा के अनुसार राज्य सरकार द्वारा प्रति वर्ष आयोजित दो-दिवसीय यशपाल जयंती - जिसमें प्रदेश भर के साहित्यिक भाग लेते हैं - में सम्मिलित हो या उनके अपने नगर में उन्हीं लोगों को बुलाकर यशपाल की प्रशस्ति में वही पुरानी घिसी-पिटी बातें सुन उन्हें जलपान कराए। उल्लेखनीय है कि प्रसिद्ध साहित्यकार और भाषाविद् विष्णुकांत शास्त्री हिमाचल के राज्यपाल रहते यशपाल जयंती समारोहों में आते थे और उत्तर प्रदेश का राज्यपाल होने पर 2003 में उन्होंने यशपाल शताब्दी के समय यथासंभव सरकारी योगदान भी दिया। उसी प्रदेश में वर्तमान सरकार यशपाल जयंती की बात तो क्या, क्रांतिकारी-स्वतंत्रता सेनानी स्मृति समारोहों के समय दुर्गा भाभी तथा यशपाल के वंशजों को पूछती तक नहीं।
लखनऊ की महानगर कॉलोनी के उसी घर में जिसके बारे में कहा गया कि ‘...यशपाल का परिवार यहां रहता नहीं’, हमारी मां प्रकाशवती न केवल अपनी मृत्यु पर्यंत 2002 तक रहीं बल्कि मेरी पत्नी तथा पुत्र पिछले बीस वर्षों से लगातार निवास कर रहे हैं और मैं स्वयं हर वर्ष (उत्तरी अमेरिका में आठ मास पत्रकारिता करने के बाद) चार मास रहता हूं। पिछले वर्षों में इसी घर से संकलन-संपादन के बाद यशपाल की 15 अप्रकाशित-असंकलित तथा अनूदित नई पुस्तकें प्रकाशित हुईं। यहां रखी यशपाल द्वारा संपादित-प्रकाशित राजनीतिक मासिक ‘विप्लव’ की फाइलें पढ़ कर तीन (लखनऊ विश्वविद्यालय से दो) डॉक्टरेट प्राप्त की गईं तथा अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्सास का प्रतिनिधि आकर ऐतिहासिक महत्त्व की इन फाइलों को डिजिटलाइज करने के लिए ले जाकर लौटा गया।
यशपाल-प्रकाशवती को लखनऊ याद करे न करे, विश्व शायद करेगा। अनेक विदेशी विश्वविद्यालयों में दक्षिण एशिया साहित्य के पाठ्यक्रम में संस्मरणों की पठन सूची में यशपाल के संस्मरण ‘सिंहावलोकन’ तथा प्रकाशवती लिखित ‘लाहौर से लखनऊ तक’ साथ-साथ मिलेंगे। अक्टूबर 2018 में न्यू यॉर्क यूनिवर्सिटी में भारत विभाजन/लाहौर संबंधी एक कॉन्फ्रेंस के दोनों दिन केवल एक पुस्तक की चर्चा हुई: यशपाल के उपन्यास ‘झूठा सच’ का अंग्रेजी तथा उर्दू अनुवाद।
इसमें दो राय नहीं कि किसी लेखक या कलाकार की प्रतिष्ठा बैठक में सजे पुरस्कारों या प्रशस्तिपत्रों से नहीं, जनमानस पर उसकी छाप तथा आगामी पीढ़ी पर उसके प्रभाव से आंकी जानी चाहिए। जैसा हिंदी दिवस पर उक्त समाचारपत्र से उद्धृत पंक्तियां पढ़ने के बाद एक वरिष्ठ साहित्यिक ने कहा: यशपाल का कर्मक्षेत्र लखनऊ था, उनके संपूर्ण साहित्य का रचनास्थल। यह भूलने का खामियाजा लखनऊ भरेगा, यशपाल के वंशज नहीं।
http://epaper.navbharattimes.com/details/6209-65069-1.html
~विजय राजबली माथुर ©
** ‘यशपाल का कोई नाम न लेने वाला’ होने का प्रमाण यह दिया गया कि लखनऊ के अन्य दिवंगत साहित्यिकों की तरह उनकी जन्म या पुण्यतिथि पर उनका परिवार उन्हें स्मरण करने के लिए लोगों को जलपान नहीं कराता।
*** एक लेखक या कलाकार की स्मृति को जीवित रखना उसके पाठकों, प्रशंसकों और समाज का दायित्व है या लेखक के परिवार का।
**** वर्तमान सरकार यशपाल जयंती की बात तो क्या, क्रांतिकारी-स्वतंत्रता सेनानी स्मृति समारोहों के समय दुर्गा भाभी तथा यशपाल के वंशजों को पूछती तक नहीं।
http://epaper.navbharattimes.com/details/6209-65069-1.html |
प्रसिद्ध हिंदी उपन्यासकार यशपाल की 42वीं पुण्यतिथि (26 दिसंबर) को उनके पुत्र आनंद जी ने अपने परिवार की ओर से पिछले दिनों आए एक अप्रिय प्रसंग पर अपना पक्ष नवभारत टाइम्स के माध्यम से प्रस्तुत किया है :
मेरे पिता क्रांतिकारी और लेखक यशपाल के 42वें निधन दिवस (26 दिसंबर) के संदर्भ में दो प्रश्न सामने आए: क्या किसी लेखक को ‘भुला दिया गया’ कहा जा सकता है जब न केवल वह चाव से पढ़ा जा रहा हो वरन उसकी पुस्तकों की खूब बिक्री भी हो रही हो। दूसरा यह कि एक लेखक या कलाकार की स्मृति को जीवित रखना उसके पाठकों, प्रशंसकों और समाज का दायित्व है या लेखक के परिवार का।
प्रश्नों के मूल में इसी वर्ष हिंदी दिवस के अवसर पर लखनऊ के एक समाचारपत्र द्वारा नगर की प्रसिद्ध साहित्यकार त्रयी - भगवतीचरण वर्मा, अमृतलाल नागर और यशपाल - को याद करते हुए यशपाल के बारे में छापी गई यह टिप्पणी थी कि ‘...यशपाल का शहर में अब कोई नाम लेने वाला भी नहीं है।’ तथा ‘...बस एक घर की शक्ल में यशपाल की याद (क्योंकि) यशपाल का परिवार यहां रहता नहीं और बाकी किसी को उन्हें याद करने की फिक्र नहीं है।’ अपना अज्ञान छिपाने के लिए किसी बात को दावे या दुस्साहस के साथ कहने का चलन हिंदी में आम हो गया है, मगर ध्यान देने लायक है कि इस मामले में ‘यशपाल का कोई नाम न लेने वाला’ होने का प्रमाण यह दिया गया कि लखनऊ के अन्य दिवंगत साहित्यिकों की तरह उनकी जन्म या पुण्यतिथि पर उनका परिवार उन्हें स्मरण करने के लिए लोगों को जलपान नहीं कराता।
यशपाल के परिवार के सामने समस्या है कि उनकी जन्मतिथि पर हिमाचल प्रदेश में पिछले 35 वर्षों से चली आ रही परंपरा के अनुसार राज्य सरकार द्वारा प्रति वर्ष आयोजित दो-दिवसीय यशपाल जयंती - जिसमें प्रदेश भर के साहित्यिक भाग लेते हैं - में सम्मिलित हो या उनके अपने नगर में उन्हीं लोगों को बुलाकर यशपाल की प्रशस्ति में वही पुरानी घिसी-पिटी बातें सुन उन्हें जलपान कराए। उल्लेखनीय है कि प्रसिद्ध साहित्यकार और भाषाविद् विष्णुकांत शास्त्री हिमाचल के राज्यपाल रहते यशपाल जयंती समारोहों में आते थे और उत्तर प्रदेश का राज्यपाल होने पर 2003 में उन्होंने यशपाल शताब्दी के समय यथासंभव सरकारी योगदान भी दिया। उसी प्रदेश में वर्तमान सरकार यशपाल जयंती की बात तो क्या, क्रांतिकारी-स्वतंत्रता सेनानी स्मृति समारोहों के समय दुर्गा भाभी तथा यशपाल के वंशजों को पूछती तक नहीं।
लखनऊ की महानगर कॉलोनी के उसी घर में जिसके बारे में कहा गया कि ‘...यशपाल का परिवार यहां रहता नहीं’, हमारी मां प्रकाशवती न केवल अपनी मृत्यु पर्यंत 2002 तक रहीं बल्कि मेरी पत्नी तथा पुत्र पिछले बीस वर्षों से लगातार निवास कर रहे हैं और मैं स्वयं हर वर्ष (उत्तरी अमेरिका में आठ मास पत्रकारिता करने के बाद) चार मास रहता हूं। पिछले वर्षों में इसी घर से संकलन-संपादन के बाद यशपाल की 15 अप्रकाशित-असंकलित तथा अनूदित नई पुस्तकें प्रकाशित हुईं। यहां रखी यशपाल द्वारा संपादित-प्रकाशित राजनीतिक मासिक ‘विप्लव’ की फाइलें पढ़ कर तीन (लखनऊ विश्वविद्यालय से दो) डॉक्टरेट प्राप्त की गईं तथा अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्सास का प्रतिनिधि आकर ऐतिहासिक महत्त्व की इन फाइलों को डिजिटलाइज करने के लिए ले जाकर लौटा गया।
यशपाल-प्रकाशवती को लखनऊ याद करे न करे, विश्व शायद करेगा। अनेक विदेशी विश्वविद्यालयों में दक्षिण एशिया साहित्य के पाठ्यक्रम में संस्मरणों की पठन सूची में यशपाल के संस्मरण ‘सिंहावलोकन’ तथा प्रकाशवती लिखित ‘लाहौर से लखनऊ तक’ साथ-साथ मिलेंगे। अक्टूबर 2018 में न्यू यॉर्क यूनिवर्सिटी में भारत विभाजन/लाहौर संबंधी एक कॉन्फ्रेंस के दोनों दिन केवल एक पुस्तक की चर्चा हुई: यशपाल के उपन्यास ‘झूठा सच’ का अंग्रेजी तथा उर्दू अनुवाद।
इसमें दो राय नहीं कि किसी लेखक या कलाकार की प्रतिष्ठा बैठक में सजे पुरस्कारों या प्रशस्तिपत्रों से नहीं, जनमानस पर उसकी छाप तथा आगामी पीढ़ी पर उसके प्रभाव से आंकी जानी चाहिए। जैसा हिंदी दिवस पर उक्त समाचारपत्र से उद्धृत पंक्तियां पढ़ने के बाद एक वरिष्ठ साहित्यिक ने कहा: यशपाल का कर्मक्षेत्र लखनऊ था, उनके संपूर्ण साहित्य का रचनास्थल। यह भूलने का खामियाजा लखनऊ भरेगा, यशपाल के वंशज नहीं।
http://epaper.navbharattimes.com/details/6209-65069-1.html
~विजय राजबली माथुर ©
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इस ब्लॉग पर प्रस्तुत आलेख लोगों की सहमति -असहमति पर निर्भर नहीं हैं -यहाँ ढोंग -पाखण्ड का प्रबल विरोध और उनका यथा शीघ्र उन्मूलन करने की अपेक्षा की जाती है.फिर भी तर्कसंगत असहमति एवं स्वस्थ आलोचना का स्वागत है.किन्तु कुतर्कपूर्ण,विवादास्पद तथा ढोंग-पाखण्ड पर आधारित टिप्पणियों को प्रकाशित नहीं किया जाएगा;इसी कारण सखेद माडरेशन लागू है.