जो लोग "एक विधान, एक निशान" की बातें करते हुए उत्साह और उन्माद से भर कर इसे राष्ट्रीय एकता से जोड़ते हैं वे अर्द्धसत्य ही नहीं, भ्रामक सत्य का प्रचार कर रहे हैं। एकता थोपी हुई नहीं होती और अगर थोपी जाती है तो वह एकता नहीं होती।
थोपी गई एकता भ्रम का एक आवरण रचती है जिसकी सतह के नीचे पनपता जाता है असंतोष, जो अंततः आक्रोश का रूप लेता है।
ऐसी ऊपरी एकता का छद्म आवरण निर्मित करने वाली प्रवृत्ति एक तरफ अंतर्विरोधों को छिपा कर सत्ता-संरचना के भीतर मौजूद वर्चस्वमूलक शक्तियों और उनके षड्यंत्रों पर पर्दा डालने का काम करती है।
इस आलोक में अगर हम कश्मीर के मामलों को देखें तो अधिक आश्वस्ति का अहसास नहीं होता। भविष्य को लेकर एक संशय, एक डर बन जाता है कि पता नहीं, आगे क्या हो।
वैसे, धारा 370 को निष्प्रभावी बना कर पूर्ण बहुमत वाली भाजपा सरकार ने अपने होने को सार्थक किया है। उनका तो यह एक प्रमुख एजेंडा था ही। चुनाव दर चुनाव वे अपने घोषणापत्रों में इसे दुहराते रहे हैं। देश भर में फैले भाजपा के करोड़ों कार्यकर्त्ताओं और धुर समर्थकों की आंखों में दशकों से यह सपना तैरता रहा है कि उनकी पूर्ण बहुमत की सरकार बने और राम मंदिर निर्माण, समान नागरिक संहिता के साथ ही कश्मीर से धारा 370 का खात्मा हो। आज मोदी-शाह की जोड़ी ने इनमें से एक को अंजाम तक पहुंचाया तो उनके साहस की दाद देनी चाहिये। उनके कार्यकर्त्ताओं के मन में उत्साह का संचार तो हुआ ही है, अपने लोकप्रिय नेता के प्रति उनकी आस्था भी निश्चित रूप से बढ़ी होगी।
लेकिन, देश के संवेदनशील मुद्दों के सम्यक निपटान और कार्यकर्त्ताओं की संतुष्टि में फर्क है। देश कार्यकर्ताओं और समर्थकों से अधिक महत्वपूर्ण है और कोई राजनेता इतिहास में इस आधार पर परखा जाता है कि उसके फैसलों ने देश की दूरगामी दशा-दिशा पर कैसा प्रभाव डाला।
बहुसंख्यक वर्चस्ववाद और इससे उपजे उन्माद की संतुष्टि के लिये उठाए गए कदमों को इतिहास किस नजरिये से देखता है यह उसके अनेक अध्यायों को पलट कर देखा जा सकता है।
कश्मीर का मुद्दा इस देश के लिये ऐसा नासूर बन गया था जो अब असह्य पीड़ा देने लगा था। न जाने कितनी शहादतें, न जाने कितने संसाधनों की बर्बादी। कोई राह नजर नहीं आ रही थी।
ऐसे में, अगर नरेंद्र मोदी ने गतिरोध को तोड़ा है तो उन्हें इस मुद्दे को हैंडल करने का अवसर मिलना चाहिये। यह अवसर उनके पास है भी क्योंकि 5 वर्षों की उनकी दूसरी पारी अभी शुरू ही हुई है।
यद्यपि, इस अंजाम तक पहुंचने के लिये जिस तरीके को उन्होंने अपनाया उसे अनेक संविधान विशेषज्ञ संविधान सम्मत नहीं बता रहे। केंद्र द्वारा नियुक्त राज्यपाल की सहमति कश्मीर के जन प्रतिनिधियों की सहमति नहीं है। राज्यपाल कश्मीरी जनता का प्रतिनिधित्व नहीं करते।
बीते दस-पंद्रह दिनों में कश्मीर में जो हालात बनाए गए और इस कारण देश में जो सनसनी फैली, उसने कश्मीर मुद्दे को लेकर सरकार के तौर-तरीकों को संदेह से भर दिया है। आप कह सकते हैं कि और कोई तरीका बचा ही नहीं था। लेकिन, आप यह भी कह सकते हैं कि यह मोदी-शाह मार्का समाधान है। हालांकि, इस मार्का समाधान के अपने खतरे हैं, अपने अंतर्विरोध हैं।
समझ में नहीं आता कि वे कश्मीर समस्या को सुलझाना चाह रहे हैं या देश की बहुसंख्यक आबादी को सनसनी में डाल कर, उन्माद से भर कर उनमें ऐसी नकारात्मकता का संचार करना चाहते हैं जो अल्पसंख्यक विरोध के नाम पर उनके पीछे एकजुट रहे और देश की खस्ताहाल होती अर्थव्यवस्था से ध्यान हटा कर भीड़ की शक्ल में बहुसंख्यकवाद की पाशविक ताकत के अहसास से भर कर उन्मादी नारे लगाती रहे।
गांधी ने उद्देश्य तक पहुंचने के लिये साधनों की पवित्रता पर जो जोर दिया था उसकी प्रासंगिकता इस मामले में अहम है।
क्या नरेंद्र मोदी-अमित शाह ने इस फैसले के लिये जिन तरीकों को अपनाया वे राजनीतिक और नैतिक रूप से उचित हैं? आप किसी विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्र में बसी एक-सवा करोड़ की आबादी को मनमर्जी से, सत्ता और शक्ति के सहारे अनंत समय तक हांक नहीं सकते। दमन हमेशा प्रतिकार को जन्म देता है, भले ही प्रतिकार के उभरने में वक्त लगे।
गौर कीजिये उन तत्वों पर, जो देश के, खास कर उत्तर भारत के विभिन्न शहरों में सड़कों पर, चौराहों पर अबीर-गुलाल ऐसे उड़ा रहे हैं, जैसे किसी जीत के जश्न में डूबे हों। कौन हैं वे लोग?
ये वही लोग हैं जिनकी नौकरियां छीनी जा रही हैं, जिनके रोजगार के अवसर संकुचित होते जा रहे हैं, श्रम कानूनों में बदलाव लाकर जिन्हें कारपोरेट का गुलाम बनाया जा रहा है, नेशनल मेडिकल कमीशन बिल के माध्यम से जिनके बच्चों की जिंदगियों को झोला छाप डॉक्टरों के भरोसे किया जा रहा है, जिनके बच्चों को शिक्षा के अवसरों से वंचित करने की सारी तैयारियां नई शिक्षा नीति में कर ली गई है।
जिनकी अपनी जिंदगियां खुद के लिये, उनके परिवार और समाज के लिये सवाल बन कर खड़ी हैं, समस्या बन कर खड़ी हैं वे कश्मीर समस्या के लिये सड़कों पर भीड़ की शक्ल में मजमा लगाए खड़े हैं, एक दूसरे पर गुलाल उड़ा रहे हैं, उकसाने वाले नारे लगा रहे हैं। उन्हें नहीं पता कि माहौल में उड़ता गुलाल उनकी दृष्टि को इस तरह से धुंधली कर रहा है कि वे न सत्य को पहचान पा रहे, न उन खंदकों को पहचान पा रहे जिनमे वे बाल-बच्चों समेत गिरते जा रहे हैं।
बहरहाल, समाधान की दिशा में बढ़ा सरकार का यह निर्णायक कदम अधिक आश्वस्त नहीं कर रहा। एक भय का संचार भी मन में हो रहा है। ताकत के दम पर अस्मितावादी विवादों का हल निकल जाए, यह कैसे संभव होगा? आप पाकिस्तान को रगड़ सकते हैं, आतंकियों को रौंद सकते हैं लेकिन अपने ही भाई-बंधुओं को न आप रगड़ सकते हैं, न रौंद सकते हैं। अगर कश्मीर देश का है तो कश्मीरी भी देश के हैं और देश उनका है। भावनाओं में दूरी बाकी रह गई तो ताकत का प्रयोग कर स्थापित की गई एकता अपने भीतर इतने अंतर्विरोधों को जन्म देगी कि कभी भी ऐसी ऊपरी एकता का शीराज़ा बिखर सकता है। यह बहुत भयानक मंजर हो सकता है।
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धारा 370 का ख़ात्मा क्यों कश्मीर और इतिहास के साथ धोखाधड़ी है
By दिलीप ख़ान • 05/08/2019 at 5:20PM
15-16 मई 1949 को सरदार वल्लभ भाई पटेल के घर पर कश्मीर के भविष्य को लेकर एक अहम बैठक हुई थी. बैठक में जवाहर लाल नेहरू और शेख अब्दुल्ला भी मौजूद थे. बैठक का एजेंडा ‘राज्य में नए संविधान के गठन’ और ‘भारत में राज्य के विलय से जुड़े विषय’ था. पटेल की सहमति के साथ नेहरू ने उसके दो दिन बाद 18 मई को शेख अब्दुल्ला को चिट्ठी लिखी, “जम्मू-कश्मीर राज्य का अब भारत में सम्मिलन हो चुका है. भारत को विदेश मामलों, रक्षा और संचार पर वहां क़ानून बनाने का अधिकार होगा. वहां की संविधान सभा तय करेगी कि बाक़ी मुद्दों पर वो किस तरह का क़ानून बनाना चाहती है और भारत के किन क़ानूनों को मानना चाहती है.”
यहां पर ये बताना ज़रूरी है कि संविधान की धारा 370 को ड्राफ़्ट करने वाले गोपालस्वामी अयंगर ने उस वक़्त शेख अब्दुल्ला और सरदार पटेल के बीच हुई ‘मामूली असहमतियों’ को हल करने का दावा करते हुए संविधान सभा के सामने इस धारा को पेश किया था. भारत की संविधान सभा में इस मुद्दे पर कश्मीर की तरफ़ से बातचीत करने के लिए शेख अब्दुल्ला के साथ-साथ मिर्ज़ा मुहम्मद अफ़ज़ल बेग़, मौलाना मोहम्मद सईद मसूदी और मोती राम बागड़ा ने हिस्सा लिया था और ड्राफ़्ट पर अब्दुल्ला और पटेल की स्वीकृति हासिल करने के बाद 16 अक्टूबर 1949 को संविधान सभा में इस प्रस्ताव को पेश किया था. इसके ठीक अगले दिन 17 अक्टूबर 1949 को संविधान सभा ने इसे मंजूरी दे दी.
जवाहर लाल नेहरू के साथ शेख अब्दुल्ला |
उस वक़्त इस धारा को अनुच्छेद 306A के नाम से जाना जाता था. पटेल की दो बातों पर असहमति थी. पटेल का मानना था कि जब जम्मू-कश्मीर भारत का हिस्सा बन रहा है तो वहां पर मौलिक अधिकार और नीति निदेशक तत्व भी लागू होने चाहिए. लेकिन, वार्ता के बाद उन्होंने 370 के प्रावधानों को मंजूरी दे दी थी. महाराजा हरि सिंह ने भारत में सम्मिलन (इंस्ट्रूमेंट ऑफ़ एक्सेशन) को जिन बातों पर मंजूरी दी थी, उनमें दो प्रावधान सबसे ज़्यादा अहम हैं. उसके उपबंध 5 में कहा गया है, “मेरी विलय संधि में किसी भी तरह का संशोधन नहीं हो सकता. भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम के तहत इसमें कोई बदलाव तब तक नहीं हो सकता, जब तक ये मुझे मंजूर ना हो.” उपबंध 7 में कहा गया है, “भारत के भविष्य के संविधान को (हमारे यहां) लागू करने पर बाध्य नहीं किया जा सकता.”
इस अर्थ में देखें तो कश्मीर के लोगों से धारा 370 के मार्फ़त स्वायत्तता का भारत ने जो वादा किया था, उस वादे को बाद में काफ़ी तोड़ा-मरोड़ा गया और आख़िरकार नरेन्द्र मोदी सरकार ने उसे पूरी तरह ख़त्म कर दिया. संवैधानिक प्रावधानों के मुताबिक़ जम्मू-कश्मीर में भारतीय संविधान की सिर्फ़ दो धाराएं लागू होती हैं. धारा 1 और धारा 370. इन दोनों धाराओं में धारा 370 ही वो धारा थी, जिसके ज़रिए बाद के दिनों में भारत ने वहां कई संवैधानिक प्रावधानों को लागू किया. इस धारा में ये प्रावधान था कि राष्ट्रपति के आदेश के ज़रिए वहां किसी केंद्रीय क़ानून को लागू किया जा सकता है. 370 लागू होने के बाद से अब तक 47 प्रेसिडेशियल ऑर्डर जारी किए गए और इस तरह वहां की ‘स्वायत्तता’ को लगातार कमज़ोर किया गया. रक्षा, विदेश और संचार के अलावा कई ऐसे क़ानून वहां लागू हुए जिनका ‘ऑरिजिनल संधि’ में ज़िक्र नहीं था. 2019 तक केंद्रीय सूची में शामिल 97 में से 94 विषय वहां भी लागू हैं, समवर्ती सूची में शामिल 47 में से 26 विषय वहां लागू हैं. संविधान की 395 में से 260 अनुच्छेद वहां लागू हैं. ये सबकुछ हुआ उसी 370 के ज़रिए, जिसे स्वायत्तता के नाम पर कश्मीरियों को थमाया गया था.
4 दिसंबर 1963 को तत्कालीन गृह मंत्री गुलजारी लाल नंदा ने धारा 370 पर टिप्पणी करते हुए कहा था, “ये धारा ना तो दीवार है और ना ही पहाड़, असल में ये एक सुरंग है. इसी सुरंग के ज़रिए वहां बहुत से अच्छी चीज़ें पहुंची हैं और आगे बहुत बुरी चीज़ें भी पहुंचेंगी.” कश्मीर और धारा 370 पर किताब लिख चुके जाने-माने इतिहासकार एजी नूरानी ने इसलिए मोदी सरकार के ताज़ा फ़ैसले को ‘असंवैधानिक और धोखाधड़ी’ करार दिया है. दिलचस्प ये है कि धारा 370 (3) के तहत राष्ट्रपति को इसमें कोई भी बदलाव करने की शक्ति दी गई है. लेकिन, इसमें राज्य की संविधान सभा की मंजूरी लेना अनिवार्य बताया गया है.
इस बीच 1952 में शेख अब्दुल्ला और नेहरू के बीच दिल्ली क़रार हुआ और कई व्यापक मुद्दों पर सहमति बनी. उससे ठीक पहले 5 नवंबर 1951 को जम्मू-कश्मीर में संविधान सभा का गठन हुआ और 17 नवंबर 1956 को संविधान लागू होने के बाद संविधान सभा को भंग कर दिया गया. उसके बाद से ‘भारत में सम्मिलन’ (इंस्ट्रूमेंट ऑफ़ एक्सेशन) में दर्ज प्रावधानों को लगातार तोड़ा-मरोड़ा गया. दिल्ली समझौते में नेहरू ने ये कहा था, “कश्मीरी शिष्टमंडल अपने उन अधिकारों को लेकर चिंतित था, जिनमें राज्य से जुड़े विषयों को संरक्षित रखने का प्रावधान था...इनमें अचल संपत्ति और नौकरियों में नियुक्ति के मामले शामिल हैं.”
यही वो मुद्दे हैं जिनके आधार पर 1954 में राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद ने प्रेसिडेंशियल ऑर्डर के ज़रिए धारा 35ए लागू की थी. ये धारा 370 का ही हिस्सा है और इसमें स्थाई निवासी और नौकरियों से जुड़े प्रावधान दर्ज हैं. धारा 35ए के मुताबिक़ जम्मू-कश्मीर में 14 मई 1954 तक रहने वाले नागिरकों को वहां का ‘स्थाई निवासी’ माना गया और उन्हीं लोगों को वहां की सरकारी नौकरियों, स्कॉलरशिप हासिल करने और अचल संपत्ति रखने का अधिकार है. अगर इस व्यवस्था को भी इतिहास में तलाशें तो महाराजा हरि सिंह के ज़माने में इस तरह का प्रावधान पहली बार 1927 में किया गया था. यही वजह है कि ये नियम पाक अधिकृत कश्मीर में भी लागू है.
दिल्ली समझौते के बाद नेहरू ने कहा था, “महाराजा हरि सिंह के ज़माने से ये नियम लागू है. हरि सिंह को इस बात का अंदेशा था कि कश्मीर की वादियों और मौसम से प्रभावित होकर बड़ी तादाद में अंग्रेज़ यहां आकर बसना चाह रहे थे. इसलिए उन्होंने बाहरियों द्वारा अचल संपत्ति ख़रीदने पर रोक लगाई...मुझे लगता है कि कश्मीर के लोगों की चिंता वाजिब है क्योंकि अगर ये व्यवस्था नही रही तो वहां ज़मीन ख़रीदकर व्यवसाय करने वाले लोगों का तांता लग जाएगा और कश्मीर घाटी लोगों से भर जाएगी.”
ऐतिहासिक दस्वातेज़ों में कश्मीरियों से किए गए ‘स्वायत्तता’ समेत तमाम वादों से धीरे-धीरे मुंह मोड़ा गया और वहां के लोगों की आवाज़ और संधियों के प्रावधानों को दरकिनार कर ‘कश्मीर हमारा है’ के नारों की ध्वनि के आधार पर केंद्र सरकार ने लगातार जम्मू-कश्मीर के संवैधानिक हक़ों के साथ खिलवाड़ किया. पिछले कुछ वर्षों से धारा 370 को हटाने की मुहिम ने भारत में तेज़ी पकड़ी और बीजेपी ने इसे अपने शीर्ष एजेंडे में शामिल कर लिया. जिस अंदाज़ में राष्ट्रपति के आदेश के ज़रिए अभी धारा 370 को हटाने का ऐलान हुआ है, उसे निश्चित तौर पर सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है.
बीजेपी की दलील रही है कि धारा 370 ‘अस्थाई’ प्रकृति का था. संविधान के हिसाब से देखें तो बीजेपी का दावा बिल्कुल ठीक है. संविधान के भाग 21 में जिन अनुच्छेदों का ज़िक्र किया गया है उनमें धारा 370 पहला अनुच्छेद है. भाग 21 में अस्थाई, ट्रांजिशनल और विशेष प्रावधानों वाली धाराओं का ज़िक्र किया गया है. इस भाग में धारा 370 के आगे लिखा गया है: जम्मू-कश्मीर राज्य को लेकर अस्थाई प्रावधान.
लेकिन, इस ‘अस्थाई’ व्यवस्था के वक़्त भारतीय संसद ने ये भी माना था कि जब तक जम्मू-कश्मीर में शांति बहाली नहीं होती, तब तक इस धारा के साथ कोई छेड़-छाड़ नहीं होगी. सरकार ने जिस तरह अभी धारा 370 को हटाया है उसे लागू करने के लिए बलप्रयोग करना पड़ा. राज्य के सभी प्रमुख नेताओं को नज़बंद किया गया, कई हिस्सों में धारा 144 लागू की गई, अर्धसैनिक बलों की अतिरिक्त टुकड़ियां तैनात की गई, आनन-फ़ानन में अमरनाथ यात्रा को रोक दिया गया. सुप्रीम कोर्ट में धारा 370 को हटाने के लिए कई बार याचिका दायर की गई. ऐसी ही एक याचिका पर सुनवाई के दौरान अप्रैल 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि भले ही धारा 370 के आगे ‘अस्थाई’ शब्द लिखा हो, लेकिन ये अस्थाई नहीं है. जस्टिस एके गोयल और आरएफ़ नरीमन की खंडपीठ ने साफ़ कहा था कि सुप्रीम कोर्ट ने 2017 में भी ये कहा था कि इस धारा को अस्थाई नहीं माना जा सकता. 1969 में संपत प्रकाश मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने धारा 370 को अस्थाई मानने से इनकार कर दिया था. उस वक़्त पांच सदस्यीय खंडपीठ ने इसे स्थाई प्रकृति का प्रावधान करार दिया था.
कश्मीर के लोग ना सिर्फ़ व्यापक स्वायत्तता की मांग कर रहे हैं, बल्कि विलय के वक़्त भारत सरकार से किए गए वादों को निभाने की मांग करते रहे हैं. जवाहर लाल नेहरू ने 7 अगस्त 1952 को कश्मीर मुद्दे पर बोलते हुए लोकसभा में कहा था, “हमने कश्मीर पर युद्ध लड़ा और बढ़िया से लड़ा. हम मैदान से लेकर संयुक्त राष्ट्र तक में लड़े, लेकिन उन सबसे ज़्यादा हमने जम्मू-कश्मीर के लोगों के दिलों में इस लड़ाई को लड़ा (और जीता). इसलिए मेरा मानना है कि कश्मीर को लेकर ना तो संयुक्त राष्ट्र फ़ैसला कर सकता है, ना ही ये संसद और ना ही कोई और....फ़ैसला लेने का अधिकार सिर्फ़ कश्मीरियों का दिल और दिमाग़ को है.”
आज 370 को हटाते वक़्त उस वादे को पूरी तरह तोड़ दिया गया है. कश्मीर को लेकर किए गए अनगिनत वादों में ये सिर्फ़ एक वादा है. शेख अब्दुल्ला की नेहरू द्वारा गिरफ़्तारी से शुरू हुई कहानी का अंत उनके पोते उमर अब्दुल्ला को घर में नज़रबंद कर धारा 370 हटाने के फ़ैसले के साथ हुई है.
https://hindi.asiavillenews.com/article/arguments-against-scrapping-article-370-repealing-it-is-deceitful-11045
~विजय राजबली माथुर ©
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इस ब्लॉग पर प्रस्तुत आलेख लोगों की सहमति -असहमति पर निर्भर नहीं हैं -यहाँ ढोंग -पाखण्ड का प्रबल विरोध और उनका यथा शीघ्र उन्मूलन करने की अपेक्षा की जाती है.फिर भी तर्कसंगत असहमति एवं स्वस्थ आलोचना का स्वागत है.किन्तु कुतर्कपूर्ण,विवादास्पद तथा ढोंग-पाखण्ड पर आधारित टिप्पणियों को प्रकाशित नहीं किया जाएगा;इसी कारण सखेद माडरेशन लागू है.