Thursday, August 29, 2019

अब ताकत में हैं, तो इतिहास की किताबें बदल रहे है ------ मनीष सिंह / रश्मि त्रिपाठी

Rashmi Tripathi
August 26 at 8:49 AM  

1757 में प्लासी की लड़ाई के पचास साल बाद तक अंग्रेजो ने भारत की सामाजिक व्यवस्था को छुवा नही। पर जब यकीन होने लगा, की यहां उनको लम्बा टिकना है तब अपने सेवक तैयार करने की जरूरत महसूस हुई।

1813 में कम्पनी के बजट में एक लाख रुपए शिक्षा के लिए रखे गए। कम्पनी सरकार को स्किल डेवलपमेंट करना था ताकि सस्ते पीए, मुंशी, स्टोरकीपर, अर्दली, मुंसिफ और डिप्टी कलेक्टर मिल सकें।

कलकत्ता, बम्बई और मद्रास में यूनिवर्सिटी खुली। कलकत्ता यूनिवर्सिटी की जो पहली बैच के ग्रेजुएट निकले, उनमे बंकिम चन्द्र चटर्जी थे। वही सुजलाम सुफलाम, मलयज शीतलाम वाले .. । अंग्रेजी पढ़े छात्र आनन्दमठ लिखने लगे, तो खेल कम्पनी सरकार के हाथ से फिसलने लगा।

दरअसल इंडियन्स ने अंग्रेजी पढ़ी,तो वैश्विक ज्ञान के दरवाजे खुले। नए नवेले पढ़े लिखो ने योरोपियन सोसायटी को देखा, उनके विचारको की किताबें पढ़ी। लिबर्टी, सिविल राइट, डेमोक्रेसी, होमरूल .. जाने क्या क्या।

कुछ तो लन्दन तक गए, बैरिस्टरी छान डाली और अंग्रेजो को कानून सिखाने लगे। कुछ सिविल सर्विस में आ गए, कुछ ने अखबार खोल लिया। दादा भाई नोरोजी ब्रिटिश संसद में पहुंच गए "अधिकार" मांगने लगे। सरकारों को जब जनता की समझ और ज्ञान से डर लगे तो लोगो को लड़वाना शुरू करती हैं। समुदायों को फेवर और डिसफेवर इसके औजार होते हैं।

1857 की क्रांति के लिए अंग्रेजो ने मुस्लिम शासकों को दोषी माना, और लगभग इग्नोर किया। हिन्दू राजे और बौद्धिको पर सरकार के फेवर रहे। जनता के असन्तोष के सेफ पैसेज के लिए एक सभा बनवा दी, जिसमे देश भर के सभी ज्ञानी ध्यानी आते, अपनी मांग रखते, सरकार दो चार बातें मान लेती।

सभा को इंग्लिश में "कांग्रेस" कहते है। सालाना बैठक को कांग्रेस का अधिवेशन कहा जाता। इस कॉंग्रेस में हिन्दू ज्यादा संख्या में थे। आबादी के हिसाब से स्वाभाविक था, पर जो अब तक राज में थे, उनमे कुंठा बढ़ी।

सैयद अहमद खान ने कौम को समझाया- अंग्रेज़ी पढ़ो, सरकार में घुसो। वरना जो अपर हैंड पांच सात सौ सालों से है, खत्म हो जाएगा। आज के लीडरान की तरह बात सिर्फ ज़ुबानी नही थी। एक कॉलेज खोला, शानदार ... जो अपने वक्त से काफी आगे का था। मुस्लिम जनता ने मदद की, मगर ज्यादा मदद नवाबो से आई। उच्चवर्गीय मुस्लिम और नवाब एक साथ आये।

नवाबो को इसका एक नया फायदा मिला। ताकतवर होती कांग्रेस में रियाया के लोग थे, कई मांगे ऐसी रखते थे जिनमे उनकी जेब कटती थी। सैय्यद साहब और उनके सम्भ्रांत साथी, नवाबो के हित-अहित से जुड़ी मांगों पर दबाव बनाते थे। 1906 आते आते उन्ही के बीच से मुस्लिम लीग बनी। ढाका नवाब चेयरमैन हुए, भोपाल नवाब सचिव। बंगाल विभाजन हुआ था। कांग्रेस बंग-भंग के विरोध में थी, लीग ने समर्थन किया। मुस्लिम अब अंग्रेजो के प्यारे हो चले थे।

रह गए हिन्दू राजे रजवाडे। कांग्रेस का फेवर पाते नही थे, अंग्रेज सुनते नही थे। अपना कोई जनसंघठन न था। कुछ करने की उनकी बारी थी। तो देश भर में कई छोटे छोटे संगठन थे, जो हिन्दू पुनर्जागरण और सामाजिक सुधार कर रहे थे। बहुतेरी हिन्दू सभाएं-संस्थाये थी। जोड़ने वाला कोई चाहिए था। मिला- पण्डित मदन मोहन मालवीय।

पंडितजी ने अलीगढ़ से बड़ा, बेहतर, हिन्दू विश्वविद्यालय का बीड़ा उठाया था। जनता के बीच जा रहे थे। राजाओ ने खुलकर दान दिया, सभाएं करवायीं। मालवीय साहब पूरे देश मे घूमे, हिन्दू संगठनों को एक छतरी तले लेकर आये। काशी हिन्दू विश्विद्यालय बना , और अखिल भारतीय हिन्दू महासभा भी बन गयी। यह 1915 का वर्ष था। अब तीन संगठन अस्तित्व में आ चुके थे।

पहला, कामन पीपुल के लिए बात करने वाली कांग्रेस, जो सिविल लिबर्टी, इक्वलिटी, सेकुलरिज्म की बात करती थी। इसको ताकत जनता से मिलती थी, धन मध्यवर्ग के साथ नए जमाने के उद्योगपति व्यापारी पूंजीपतियों से मिलता था। इसके नेता भारत के भविष्य को ब्रिटेन के बर-अक्स देखते थे।

दूसरी ताकत, मुस्लिम समाज, उसके धार्मिक सांस्कृतिक विशेषाधिकार की पैरोकार मुस्लिम लीग, जिसकी ताकत मुस्लिम कौम थी, और फंडिग नवाबो, निज़ामों की थी। ये भारत का सपना उस मुगलकाल के बर-अक्स देखते थे, जिसमे सारी ताकत उनके हाथ मे थी।

तीसरी ताकत, हिन्दू समाज, उसके धार्मिक सांस्कृतिक विशेषाधिकार की पैरोकार और हिन्दू रजवाड़ों के हितों को ध्यान रखने करने वाली महासभा थी। जिसके लिए भारत का भविष्य मौर्य काल से लेकर शिवाजी की हिन्दू पादशाही के बीच झूलता था।

आगे चलकर अंग्रेज चुनावी सुधार करते हैं, सत्ता में भागीदारी खुलनी शुरू हो जाती है। मार्ले मिंटो सुधार और 1935 के इंडिया गवर्नेस एक्ट के आने के साथ, तीनो प्रेशर ग्रुप चुनावी दलों के रूप में तब्दील हो जाते हैं।

समय के साथ नए नेता इन संगठनो की लीडरशीप लेते हैं। ये गांधी, जिन्ना और सावरकर की धाराएं हो जाती हैं। दो धाराएं देश की घड़ी को, अपने अपने तरीके से पीछे ले जाना चाहती थी, एक आगे की ओर...।। पीछे ले जाने वाली धाराएं मिलकर विधानसभाओं में मिलकर सरकारें बनाती हैं, और सड़कों पर अपने समर्थकों से दंगे भी करवाती हैं। सत्ता की गंध से संघर्ष में खून का रंग मिल जाता है।

1947 में इस रंग ने भारत का इतिहास ,भूगोल , नागरिकशास्त्र, सब बदल दिया। एक धारा पाकिस्तान चली गयी, मगर अवशेष बाकी है। दूसरी सत्ता में बैठे बैठे सड़ गयी, उसके भी अवशेष ही बाकी हैं। तीसरी पर गांधी के लहू के छींटे थे। बैन लगा, तो चोला बदल लिया, नाम बदल लिया। अब ताकत में हैं, तो इतिहास की किताबें बदल रहे है। अजी हां, स्किल डेवलमेंट पर भी फोकस है।

उधर कलकत्ता, अलीगढ़ और बनारस की यूनिवर्सिटीज आज भी खड़ी हैं। लेकिन हिंदुस्तान का मुस्तकबिल बनाने वाले छात्र नदारद हैं।



Manish Singh

साभार : 
https://www.facebook.com/rashmi.tripathi.73113/posts/1362771200565084


~विजय राजबली माथुर ©

No comments:

Post a Comment

इस ब्लॉग पर प्रस्तुत आलेख लोगों की सहमति -असहमति पर निर्भर नहीं हैं -यहाँ ढोंग -पाखण्ड का प्रबल विरोध और उनका यथा शीघ्र उन्मूलन करने की अपेक्षा की जाती है.फिर भी तर्कसंगत असहमति एवं स्वस्थ आलोचना का स्वागत है.किन्तु कुतर्कपूर्ण,विवादास्पद तथा ढोंग-पाखण्ड पर आधारित टिप्पणियों को प्रकाशित नहीं किया जाएगा;इसी कारण सखेद माडरेशन लागू है.