Thursday, September 19, 2019

पूरे घटनाक्रम की पटकथा दिल्ली में लिखी गई थी ------ हेमंत शर्मा



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फैसले के 40 मिनट के अंदर खुल गया था ताला


विशुद्ध राजनीति
दास्तान
हेमंत शर्मा, वरिष्ठ पत्रकार

क्या आपने कभी सुना है कि आजाद भारत में किसी अदालत के फैसले का पालन महज 40 मिनट के अंदर हो गया हो।  अयोध्या में 1 फरवरी 1986 को विवादित इमारत का ताला खोलने का आदेश फैजाबाद के जिला जज देते हैं और राज्य सरकार 40 मिनट के भीतर उसे लागू करा देती है। शाम 4.40 पर अदालत का फैसला आया और 5.20 पर विवादित इमारत का ताला खुल गया। अदालत में ताला खुलवाने की अर्जी लगाने वाले वकील उमेश चंद्र पांडे भी कहते हैं कि उन्हें इस बात का अंदाजा नहीं था कि सब कुछ इतनी जल्दी हो जाएगा। दूरदर्शन की टीम ताला खुलवाने की पूरी प्रक्रिया कवर करने के लिए वहां पहले से मौजूद थी। तब दूरदर्शन के अलावा देशभर में कोई और चैनल नहीं था। इस कार्रवाई को दूरदर्शन से उसी शाम पूरे देश में दिखाया गया। उस वक्त फैजाबाद में दूरदर्शन का केंद्र भी नहीं था। कैमरा टीम लखनऊ से गई थी। लखनऊ से फैजाबाद जाने में 3 घंटे लगते हैं यानी कैमरा टीम पहले से भेजी गई थी। 

दरअसल इस पूरे घटनाक्रम की पटकथा दिल्ली में लिखी गई थी, अयोध्या में तो सिर्फ किरदार थे। इतनी बड़ी योजना फैजाबाद में घट रही थी पर उत्तर प्रदेश सरकार को इसकी कोई भनक नहीं थी, सिवाय मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह के, जिनसे कहा गया था कि वह अयोध्या को लेकर सीधे और सिर्फ अरुण नेहरू के संपर्क में रहें। मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद वीर बहादुर सिंह से मेरी इस मुद्दे पर लंबी चर्चा हुई थी। उनसे कहा गया था कि सरकार अदालत में कोई हलफनामा नहीं दे लेकिन फैजाबाद के कलेक्टर और सुपरिंटेंडेंट अदालत में हाजिर होकर कहें कि अगर ताला खुला तो प्रशासन को कोई एतराज नहीं होगा। वीर बहादुर सिंह ने बताया था कि फैजाबाद के कमिश्नर को दिल्ली से आदेश आ रहे थे। दिल्ली का कहना था, इस बात के सारे उपाय किये जाएं कि ताला खोलने की अर्जी मंजूर हो।



पक्षकार को नहीं सुना गया :

फैजाबाद के जिला जज कृष्ण मोहन पांडे ने ताला खोलने के फैसले का आधार जिला मजिस्ट्रेट आईपी पांडे और एसएसपी कर्मवीर की उस गवाही को बनाया, जिसमें दोनों ने एक स्वर में कहा था कि ताला खोलने से प्रशासन को कोई एतराज नहीं होगा, ना ही उससे कोई कानून व्यवस्था की समस्या पैदा होगी। इतनी विपरीत स्थितियों में जिला प्रशासन का यह रुख बिना शासन की मर्जी के तो हो ही नहीं सकता था। खास बात यह थी कि जिन उमेश चंद्र पांडे की अर्जी पर ताला खुला, वह बाबरी मुकदमे के पक्षकार भी नहीं थे। जो पक्षकार थे, उन्हें जज साहब ने सुना ही नहीं। दरअसल 28 जनवरी 1986 को फैजाबाद के मुंसिफ मजिस्ट्रेट हरिशंकर दुबे एक वकील उमेश चंद्र पांडे की राम जन्म भूमि का ताला खोलने की मांग करने वाली अर्जी को खारिज कर देते हैं। दो रोज बाद ही फैजाबाद के जिला जज की अदालत में पहले से चल रहे मुकदमा संख्या 2/1949 में उमेश चंद्र पांडे एक दूसरी अर्जी दाखिल करते हैं और जिला जज दूसरे ही रोज जिला कलेक्टर और पुलिस कप्तान को तलब कर उनसे प्रशासन का पक्ष पूछते हैं। हलफनामा देने के बजाय दोनों अफसरों ने मौखिक रूप से कहा कि ताला खोलने से कोई गड़बड़ नहीं होगी। दरअसल यह फैसला केंद्र सरकार का था, जिसे राज्य और जिला प्रशासन लागू करा रहे थे। दोनों अफसरों के इस बयान से जज को फैसला लेने में आसानी हुई। 

बाबरी मस्जिद पर मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने वाले वकील मुस्ताक अहमद सिद्दीकी ने इस अर्जी पर अदालत से अपनी बात रखने की पेशकश की। जज ने कहा कि उन्हें सुना जाएगा पर उन्हें बिना सुने ही शाम 4.40 पर जज साहब फैसला सुना देते हैं। इस फैसले में कहा गया कि ‘अपील की इजाजत दी जाती है। प्रतिवादियों को गेट संख्या ओ और पी पर लगे ताले खोलने का निर्देश दिया जाता है। प्रतिवादी आवेदक और उसके समुदाय को दर्शन और पूजा में कोई अड़चन-बाधा नहीं डालेंगे।’ जिला जज के इस फैसले के बाद उनकी सुरक्षा बढ़ा दी जाती है। फिर 40 मिनट के अंदर ही पुलिस की मौजदगी में ताला तोड़ दिया जाता है और अंदर पूजा-पाठ कीर्तन शुरू हो जाता है।



वह दैवी ताकत

जिला जज कृष्ण मोहन पांडे 1991 में छपी अपनी आत्मकथा में लिखते हैं, ‘जिस रोज मैं ताला खोलने का आदेश लिख रहा था, मेरी अदालत की छत पर एक काला बंदर पूरे दिन फ्लैगपोस्ट को पकड़ कर बैठा रहा। वे लोग जो फैसला सुनने के लिए अदालत आए थे, उस बंदर को फल और मूंगफली देते रहे पर बंदर ने कुछ नहीं खाया। चुपचाप बैठा रहा। मेरे आदेश सुनाने के बाद ही वहां से गया। फैसले के बाद जब डीएम और एसएसपी मुझे मेरे घर पहुंचाने आए तो मैंने उस बंदर को अपने घर के बरामदे में बैठा पाया। मुझे आश्चर्य हुआ। मैंने उसे प्रणाम किया। वह कोई दैवी ताकत थी।’

इस फैसले के बाद उन्हें कम महत्व के स्टेट ट्रांसपोर्ट अपील प्राधिकरण का चेयरमैन बना दिया गया। जब उन्हें हाई कोर्ट में जज बनाने की बात चली तो वीपी सिंह की सरकार ने फच्चर फंसा दिया। उनकी फाइल में प्रतिकूल टिप्पणी कर दी गई। मुलायम सिंह यादव ने भी उनके हाईकोर्ट जज बनने का विरोध किया। इसके बाद चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने और उनकी सरकार में कानून मंत्री बने डॉ सुब्रह्मण्यम स्वामी। चंद्रशेखर सरकार ने पांडेय के जज बनने की फाइल फिर खोली। आखिकार उन्होंने मुलायम सिंह यादव को मना लिया। इसके बाद 24 जनवरी 1991 को केएम पांडेय को इलाहाबाद हाईकोर्ट का जज बनाया गया लेकिन एक महीने के भीतर उनका ट्रांसफर मध्यप्रदेश हाईकोर्ट कर दिया गया। जबलपुर से ही 28 मार्च 1994 को केएम पांडेय रिटायर हो गए।


(हेमंत शर्मा की पुस्तक ‘युद्ध में अयोध्या’ से साभार)

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 ~विजय राजबली माथुर ©

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