डा.महेंद्र वर्मा जी ने "रावण-वध एक पूर्व निर्धारित योजना"पर अपनी टिप्पणी में सुझाव दिया है कि मैं अन्य पुराणों पर भी वैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करूँ-
प्रस्तुत लेख सन २००३ में आगरा में ब्रह्मपुत्र समाचार क़े १६-२२ अक्टूबर अंक में प्रकाशित हुआ था उसे ज्यों का त्यों तो 'कलम और कुदाल 'में देखा जा सकता है परन्तु १४ अक्टूबर २०१० को इसी ब्लाग में 'उठो जागो और महान बनो' शीर्षक से प्रस्तुत विचारों क़े साथ समन्वय करके डा. वर्मासा: को दिये आश्वासन को पूरा करने का प्रयास यहाँ कर रहा हूँ.
हमारे प्राचीन ऋषि -मुनी वैज्ञानिक आधार पर मनुष्य-मात्र को प्रकृति क़े साथ सामंजस्य करने की हिदायत देते थे.बदलते मौसम क़े आधार पर मनुष्य ताल-मेल बैठा सकें इस हेतु संयम-पूर्वक कुछ नियमों का पालन करना होता था.ऋतुओं क़े इस संधि-काल को नवरात्र क़े रूप में मनाने की बात थी. कोई ढोंग-पाखण्ड उन्होंने नहीं तय किया था,जिसे बाद में गुलाम भारत में कुरआन की तर्ज़ पर विदेशी शासकों द्वारा गढ़वाये गये पुराणों में जबरिया ठूंसा गया है ताकि मनुष्य का कल्याण न हो और वह दुश्चक्र में फंस कर गुलाम ही बना रहे. फिर भी उन पुराणों में भी यदि विवेक का इस्तेमाल करें तो हम वैज्ञानिक आधार सुगमता से ढूंढ सकते हैं जिन्हें पोंगा-पंथी सहजता से ठुकरा देते हैं.पोंगा-पंथ साम्राज्यवाद से ग्रस्त है वह जन-कल्याण की बात सोच भी नहीं सकता .पोंगा -पंथी तो मेरा पेट हाउ मैं न जानूं काऊ वाले सिद्धांत पर चलते हैं;वस्तुतः उनसे मनुष्यत्व की उम्मीद रखना है ही बेवकूफी.
ऋतुओं क़े आधार पर ऋषियों ने चार नवरात्र बताये थे,जिन्हें पौराणिक काल में घटा कर दो कर दिया गया.दो ज्योतिषियों एवं पुजारियों ने जनता से तो छिपा लिये परन्तु स्वंय अपने हक में पालन करते रहे.वे चारों नवरात्र इस प्रकार हैं-
१ .चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक,
२ .आषाढ़ शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक,
३ .आश्विन(क्वार)शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक,
४ .माघ शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक .
इनमें से १ और ३ तो सार्वजनिक रखे गये जिनके बाद क्रमशः राम नवमी तथा विजया दशमी(दशहरा) पर्व मनाये जाते हैं.२ और ४ को गुप्त बना दिया गया.चौथा माघ वाला गुप्त नवरात्र अभी चल रहा है,बसंत-पंचमी उसी क़े मध्य पड़ती है.डा.महेंद्र वर्माजी ने इसी मध्य सुझाव दिया है अतः उस पर अमल भी इसी क़े मध्य करते हुए देवी भागवत को चुना है.
श्री किशोर चन्द्र चौबे ने मार्कंडेय चिकित्सा -पद्धति क़े आधार पर नव-रात्र की नौ देवियों क़े असली औषधीय रूप का विषद विवेचन किया है जिसे आप 'उठो जागो और महान बनो'में देख सकते हैं,फिर भी यहाँ संक्षिप्त उल्लेख करना उचित समझता हूँ.:-
१.हरड-इसे प्रथम शैल पुत्री क़े रूप में जाना जाता है.
२.ब्राह्म्मी-दिव्तीय ब्रह्मचारिणी ..........................
३.चंद्रसूर-तृतीय चंद्रघंटा ...................................
४.पेठा-चतुर्थ कूष्मांडा ....................................
५.अलसी -पंचम स्कन्द माता .............................
६.मोइया -षष्ठम कात्यायनी ..................................
७.नागदौन -सप्तम कालरात्रि ...............................
८.तुलसी-अष्टम महागौरी ...................................
९.शतावरी-नवम सिद्धिदात्री ......................................
स्पष्ट है कि बदलते मौसम में इन चुनी हुई मानवोपयोगी औषधियों का सेवन करके और निराहार रह कर मानव-स्वाथ्य की रक्षा करने का प्राविधान हमारे ऋषियों ने किया था.लेकिन आज पौराणिक कर क्या रहें हैं करा क्या रहें हैं -केवल ढोंग व पाखण्ड जिससे ढोंगियों की रोजी तो चल जाती है लेकिन मानव-कल्याण कदापि सम्भव न होने क़े कारण जनता ठगी जाती है.गरीब जनता का तो उलटे उस्तरे से मुंडन है यह ढोंग-पाखण्ड.
रक्त-बीज ---मार्कंडेय चिकित्सा-पद्धति में कैंसर को रक्त-बीज कहते हैं.चंड रक्त कैंसर है और मुंड शरीर में बनने वाली गांठों का कैंसर है.
कालक---यह माईक रोग है जिसे आधुनिक चिकित्सा में AIDS कहते हैं.
चौबे जी क़े उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि,जिन खोजों को आधुनिक चिकित्सा वैज्ञानिक अपनी नयी खोजें बताते हैं उनका ज्ञान बहुत पहले हमारे ऋषियों-वैज्ञानिकों को था.इन सब का प्राकृतिक उपचार नियमित नवरात्र पालन में अन्तर्निहित था.परन्तु हमारे पाखंडी पौराणिकों ने अर्थ का अनर्थ करके जनता को दिग्भ्रमित कर दिया और उसका शोषण करके भारी अहित किया है.अफ़सोस और दुःख की बात यह है कि आज सच्चाई को मानने हेतु प्रबुद्ध बुद्धीजीवी तक तैयार नहीं है.
मैं पौराणिकों क़े कार्यक्रमों में शामिल नहीं होता हूँ.२६ सितम्बर से ०४ अक्टूबर २००३ में कमला नगर,आगरा में शाहपुर(ब्राह्मन) ,बाह निवासी और लोनावाला (पुणे)में योग शिक्षक आचार्य श्री राम रतन शास्त्री का देवी भगवत पर प्रवचन हुआ था.हमारे पिताजी क़े परिचित और कालोनी वासी अवकाश-प्राप्त सीनियर सुप्रिटेनडेंट पोस्ट आफिसेस - बाबूराम गुप्ता जी ने उन्हें सुना था तथा मुझे आकर कहा कि, वह पोंगा पंथ से भिन्न मत रखते हैं, गुप्ता जी ने जो बताया उसे मैंने लिख कर अख़बार में छपवा दिया था.पेशेवर कर्मकांडियों क़े विपरीत रामरतन शास्त्री जी ने पुराणों में वर्णित पात्रों की सम्यक और तर्क सांगत व्याख्या की, जैसे उन्होंने बताया कि शुम्भ और निशुम्भ और कुछ नहीं मनुष्य-मात्र में व्याप्त राग और द्वेष हैं इनका संहार करने से तात्पर्य है कि,मनुष्य अपने अन्दर व्याप्त मोह -माया और ईर्ष्या की प्रवृति का त्याग करे तभी देवी माँ का साक्षात्कार कर सकता है.इसी प्रकार उन्होंने बताया कि महिषासुर वध का आशय है कि मनुष्य में व्याप्त अहंकार का शमन करना.यह सहज स्वभाविक प्रवृति है कि,मनुष्य जिनसे कुछ हित-साधन की अपेछा करता है उनसे मोह और ममत्व रखता है और उनके प्रति गलत झुकाव भी रख लेता है और इस प्रकार दुष्कृत्यों क़े भंवर में फंस कर अन्ततः अपना ही अहित कर डालता है.इसके विपरीत मनुष्य जिन्हें अपना प्रतिद्वन्दी समझता है उनसे ईर्ष्या करने लगता है और उन्हें ठेस पहुंचाने का प्रयास करता है और इस प्रकार बुरे कर्मों में फंस कर अपने आगामी जन्मों क़े प्रारब्ध को नष्ट करता जाता है.मनुष्य में राग और द्वेष क़े समान ही अहंकार भी एक ऐसा दोष है जो उसी का प्रबल शत्रु बन जाता है.संसार में सर्वदा ही अहंकारी का विनाश हुआ है अतः उत्तम यही है कि मनुष्य स्वंय ही स्वेच्छा से अपने अहंकार को नष्ट कर डाले तभी देवी माँ की सच्ची पूजा कर सकता है.श्रीमद देवी भगवत क़े कथा प्रसंग में रामरतन जी ने स्पष्ट किया कि हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप कोई व्यक्ति-विशेष नहीं थे,बल्कि वे एक चरित्र का प्रतिनिधित्व करते हैं जो पहले भी थे और आज भी हैं और आज भी उनका संहार करने की आवश्यकता है.संस्कृत भाषा में हिरण्य का अर्थ होता है स्वर्ण और अक्ष का अर्थ है आँख अर्थात वह जो केवल अपनी आँखें स्वर्ण अर्थात धन पर गड़ाये रखता है हिरण्याक्ष कहलाता है.ऐसा व्यक्ति केवल और केवल धन क़े लिये जीता है और साथ क़े अन्य मनुष्यों का शोषण करता रहता है.आज क़े सन्दर्भ में हम कह सकते हैं कि,उत्पादक और उपभोक्ता का शोषण करने वाला व्यापारी ही हिरण्याक्ष हैं.कश्यप का अर्थ संस्कृत में बिछौना अर्थात बिस्तर से है.जिसका बिस्तर सोने का हो इसका आशय यह हुआ कि जो धन क़े ढेर पर सो रहा है अर्थात आज क़े सन्दर्भ में काला व्यापर करने वाला व्यापारी और घूस खोर अधिकारी हिर्नाकश्यप हैं.वराह अवतार से तात्पर्य शास्त्री जी ने बताया कि,वर का अर्थ है अच्छा और अह का अर्थ है दिन अर्थात वराह अवतार का मतलब हुआ अच्छा दिन अर्थात समय अवश्य हीआता है.प्रहलाद का अर्थ हुआ प्रजा का आह्लाद अर्थात जनता की खुशी .इस प्रसंग में बताया गया है कि जब जनता जागरूक हो जाती है तो अच्छा समय आता है और हिरण्याक्ष व हिरण्यकश्यप का अंत हो जाता है.रक्त-बीज की घटना यह बताती है कि,मनुष्य क़े भीतर जो कामेच्छायें हैं उनका अंत कभी नहीं होता,जैसे ही एक कामना पूरी हुई ,दूसरी कामना की इच्छा होती है और इसी प्रकार यह क्रम चलता रहता है.देवी द्वारा जीभ फैला कर रक्त सोख लेने का अभिप्राय है कि मनुष्य अपनी जिव्हा पर नियन्त्रण करके लोभ का संवरण करे तभी रक्त-बीज अर्थात अनन्त कामेच्छओं का अंत हो सकता है.
अखबार में छपवाकर मैंने गुप्ता जी को भेंट कर दिया था जिन्होंने आयोजक महोदय को दे दिया और आयोजक जी ने शास्त्री जी को डाक से भेज दिया.शास्त्री जी ने इस ताज्जुब क़े साथ कि बगैर आये -सुने मैंने उनके विचारों को ज्यों का त्यों लिपिबद्ध कर दिया आयोजक महोदय द्वारा धन्वाद ज्ञापन किया तथा पुनः आगरा आगमन पर मेरे घर मुझ से मिलने आये.तब से मेरे आगरा रहने तक उनके कार्यक्रमों का मुहूर्त आयोजक महोदय मुझसे निकलवाते रहे और मैं उनके कार्यक्रमों को सुनता रहा जिन्हें अख़बार में छपवाता भी रहा.डा.महेंद्र वर्मा जी की इच्छा एवं सुझाव क़े अनुसार समय समय पर यहाँ प्रस्तुत करता रहूँगा.
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(इस ब्लॉग पर प्रस्तुत आलेख लोगों की सहमति -असहमति पर निर्भर नहीं हैं -यहाँ ढोंग -पाखण्ड का प्रबल विरोध और उनका यथा शीघ्र उन्मूलन करने की अपेक्षा की जाती है)
प्रस्तुत लेख सन २००३ में आगरा में ब्रह्मपुत्र समाचार क़े १६-२२ अक्टूबर अंक में प्रकाशित हुआ था उसे ज्यों का त्यों तो 'कलम और कुदाल 'में देखा जा सकता है परन्तु १४ अक्टूबर २०१० को इसी ब्लाग में 'उठो जागो और महान बनो' शीर्षक से प्रस्तुत विचारों क़े साथ समन्वय करके डा. वर्मासा: को दिये आश्वासन को पूरा करने का प्रयास यहाँ कर रहा हूँ.
हमारे प्राचीन ऋषि -मुनी वैज्ञानिक आधार पर मनुष्य-मात्र को प्रकृति क़े साथ सामंजस्य करने की हिदायत देते थे.बदलते मौसम क़े आधार पर मनुष्य ताल-मेल बैठा सकें इस हेतु संयम-पूर्वक कुछ नियमों का पालन करना होता था.ऋतुओं क़े इस संधि-काल को नवरात्र क़े रूप में मनाने की बात थी. कोई ढोंग-पाखण्ड उन्होंने नहीं तय किया था,जिसे बाद में गुलाम भारत में कुरआन की तर्ज़ पर विदेशी शासकों द्वारा गढ़वाये गये पुराणों में जबरिया ठूंसा गया है ताकि मनुष्य का कल्याण न हो और वह दुश्चक्र में फंस कर गुलाम ही बना रहे. फिर भी उन पुराणों में भी यदि विवेक का इस्तेमाल करें तो हम वैज्ञानिक आधार सुगमता से ढूंढ सकते हैं जिन्हें पोंगा-पंथी सहजता से ठुकरा देते हैं.पोंगा-पंथ साम्राज्यवाद से ग्रस्त है वह जन-कल्याण की बात सोच भी नहीं सकता .पोंगा -पंथी तो मेरा पेट हाउ मैं न जानूं काऊ वाले सिद्धांत पर चलते हैं;वस्तुतः उनसे मनुष्यत्व की उम्मीद रखना है ही बेवकूफी.
ऋतुओं क़े आधार पर ऋषियों ने चार नवरात्र बताये थे,जिन्हें पौराणिक काल में घटा कर दो कर दिया गया.दो ज्योतिषियों एवं पुजारियों ने जनता से तो छिपा लिये परन्तु स्वंय अपने हक में पालन करते रहे.वे चारों नवरात्र इस प्रकार हैं-
१ .चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक,
२ .आषाढ़ शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक,
३ .आश्विन(क्वार)शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक,
४ .माघ शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक .
इनमें से १ और ३ तो सार्वजनिक रखे गये जिनके बाद क्रमशः राम नवमी तथा विजया दशमी(दशहरा) पर्व मनाये जाते हैं.२ और ४ को गुप्त बना दिया गया.चौथा माघ वाला गुप्त नवरात्र अभी चल रहा है,बसंत-पंचमी उसी क़े मध्य पड़ती है.डा.महेंद्र वर्माजी ने इसी मध्य सुझाव दिया है अतः उस पर अमल भी इसी क़े मध्य करते हुए देवी भागवत को चुना है.
श्री किशोर चन्द्र चौबे ने मार्कंडेय चिकित्सा -पद्धति क़े आधार पर नव-रात्र की नौ देवियों क़े असली औषधीय रूप का विषद विवेचन किया है जिसे आप 'उठो जागो और महान बनो'में देख सकते हैं,फिर भी यहाँ संक्षिप्त उल्लेख करना उचित समझता हूँ.:-
१.हरड-इसे प्रथम शैल पुत्री क़े रूप में जाना जाता है.
२.ब्राह्म्मी-दिव्तीय ब्रह्मचारिणी ..........................
३.चंद्रसूर-तृतीय चंद्रघंटा ...................................
४.पेठा-चतुर्थ कूष्मांडा ....................................
५.अलसी -पंचम स्कन्द माता .............................
६.मोइया -षष्ठम कात्यायनी ..................................
७.नागदौन -सप्तम कालरात्रि ...............................
८.तुलसी-अष्टम महागौरी ...................................
९.शतावरी-नवम सिद्धिदात्री ......................................
स्पष्ट है कि बदलते मौसम में इन चुनी हुई मानवोपयोगी औषधियों का सेवन करके और निराहार रह कर मानव-स्वाथ्य की रक्षा करने का प्राविधान हमारे ऋषियों ने किया था.लेकिन आज पौराणिक कर क्या रहें हैं करा क्या रहें हैं -केवल ढोंग व पाखण्ड जिससे ढोंगियों की रोजी तो चल जाती है लेकिन मानव-कल्याण कदापि सम्भव न होने क़े कारण जनता ठगी जाती है.गरीब जनता का तो उलटे उस्तरे से मुंडन है यह ढोंग-पाखण्ड.
रक्त-बीज ---मार्कंडेय चिकित्सा-पद्धति में कैंसर को रक्त-बीज कहते हैं.चंड रक्त कैंसर है और मुंड शरीर में बनने वाली गांठों का कैंसर है.
कालक---यह माईक रोग है जिसे आधुनिक चिकित्सा में AIDS कहते हैं.
चौबे जी क़े उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि,जिन खोजों को आधुनिक चिकित्सा वैज्ञानिक अपनी नयी खोजें बताते हैं उनका ज्ञान बहुत पहले हमारे ऋषियों-वैज्ञानिकों को था.इन सब का प्राकृतिक उपचार नियमित नवरात्र पालन में अन्तर्निहित था.परन्तु हमारे पाखंडी पौराणिकों ने अर्थ का अनर्थ करके जनता को दिग्भ्रमित कर दिया और उसका शोषण करके भारी अहित किया है.अफ़सोस और दुःख की बात यह है कि आज सच्चाई को मानने हेतु प्रबुद्ध बुद्धीजीवी तक तैयार नहीं है.
मैं पौराणिकों क़े कार्यक्रमों में शामिल नहीं होता हूँ.२६ सितम्बर से ०४ अक्टूबर २००३ में कमला नगर,आगरा में शाहपुर(ब्राह्मन) ,बाह निवासी और लोनावाला (पुणे)में योग शिक्षक आचार्य श्री राम रतन शास्त्री का देवी भगवत पर प्रवचन हुआ था.हमारे पिताजी क़े परिचित और कालोनी वासी अवकाश-प्राप्त सीनियर सुप्रिटेनडेंट पोस्ट आफिसेस - बाबूराम गुप्ता जी ने उन्हें सुना था तथा मुझे आकर कहा कि, वह पोंगा पंथ से भिन्न मत रखते हैं, गुप्ता जी ने जो बताया उसे मैंने लिख कर अख़बार में छपवा दिया था.पेशेवर कर्मकांडियों क़े विपरीत रामरतन शास्त्री जी ने पुराणों में वर्णित पात्रों की सम्यक और तर्क सांगत व्याख्या की, जैसे उन्होंने बताया कि शुम्भ और निशुम्भ और कुछ नहीं मनुष्य-मात्र में व्याप्त राग और द्वेष हैं इनका संहार करने से तात्पर्य है कि,मनुष्य अपने अन्दर व्याप्त मोह -माया और ईर्ष्या की प्रवृति का त्याग करे तभी देवी माँ का साक्षात्कार कर सकता है.इसी प्रकार उन्होंने बताया कि महिषासुर वध का आशय है कि मनुष्य में व्याप्त अहंकार का शमन करना.यह सहज स्वभाविक प्रवृति है कि,मनुष्य जिनसे कुछ हित-साधन की अपेछा करता है उनसे मोह और ममत्व रखता है और उनके प्रति गलत झुकाव भी रख लेता है और इस प्रकार दुष्कृत्यों क़े भंवर में फंस कर अन्ततः अपना ही अहित कर डालता है.इसके विपरीत मनुष्य जिन्हें अपना प्रतिद्वन्दी समझता है उनसे ईर्ष्या करने लगता है और उन्हें ठेस पहुंचाने का प्रयास करता है और इस प्रकार बुरे कर्मों में फंस कर अपने आगामी जन्मों क़े प्रारब्ध को नष्ट करता जाता है.मनुष्य में राग और द्वेष क़े समान ही अहंकार भी एक ऐसा दोष है जो उसी का प्रबल शत्रु बन जाता है.संसार में सर्वदा ही अहंकारी का विनाश हुआ है अतः उत्तम यही है कि मनुष्य स्वंय ही स्वेच्छा से अपने अहंकार को नष्ट कर डाले तभी देवी माँ की सच्ची पूजा कर सकता है.श्रीमद देवी भगवत क़े कथा प्रसंग में रामरतन जी ने स्पष्ट किया कि हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप कोई व्यक्ति-विशेष नहीं थे,बल्कि वे एक चरित्र का प्रतिनिधित्व करते हैं जो पहले भी थे और आज भी हैं और आज भी उनका संहार करने की आवश्यकता है.संस्कृत भाषा में हिरण्य का अर्थ होता है स्वर्ण और अक्ष का अर्थ है आँख अर्थात वह जो केवल अपनी आँखें स्वर्ण अर्थात धन पर गड़ाये रखता है हिरण्याक्ष कहलाता है.ऐसा व्यक्ति केवल और केवल धन क़े लिये जीता है और साथ क़े अन्य मनुष्यों का शोषण करता रहता है.आज क़े सन्दर्भ में हम कह सकते हैं कि,उत्पादक और उपभोक्ता का शोषण करने वाला व्यापारी ही हिरण्याक्ष हैं.कश्यप का अर्थ संस्कृत में बिछौना अर्थात बिस्तर से है.जिसका बिस्तर सोने का हो इसका आशय यह हुआ कि जो धन क़े ढेर पर सो रहा है अर्थात आज क़े सन्दर्भ में काला व्यापर करने वाला व्यापारी और घूस खोर अधिकारी हिर्नाकश्यप हैं.वराह अवतार से तात्पर्य शास्त्री जी ने बताया कि,वर का अर्थ है अच्छा और अह का अर्थ है दिन अर्थात वराह अवतार का मतलब हुआ अच्छा दिन अर्थात समय अवश्य हीआता है.प्रहलाद का अर्थ हुआ प्रजा का आह्लाद अर्थात जनता की खुशी .इस प्रसंग में बताया गया है कि जब जनता जागरूक हो जाती है तो अच्छा समय आता है और हिरण्याक्ष व हिरण्यकश्यप का अंत हो जाता है.रक्त-बीज की घटना यह बताती है कि,मनुष्य क़े भीतर जो कामेच्छायें हैं उनका अंत कभी नहीं होता,जैसे ही एक कामना पूरी हुई ,दूसरी कामना की इच्छा होती है और इसी प्रकार यह क्रम चलता रहता है.देवी द्वारा जीभ फैला कर रक्त सोख लेने का अभिप्राय है कि मनुष्य अपनी जिव्हा पर नियन्त्रण करके लोभ का संवरण करे तभी रक्त-बीज अर्थात अनन्त कामेच्छओं का अंत हो सकता है.
अखबार में छपवाकर मैंने गुप्ता जी को भेंट कर दिया था जिन्होंने आयोजक महोदय को दे दिया और आयोजक जी ने शास्त्री जी को डाक से भेज दिया.शास्त्री जी ने इस ताज्जुब क़े साथ कि बगैर आये -सुने मैंने उनके विचारों को ज्यों का त्यों लिपिबद्ध कर दिया आयोजक महोदय द्वारा धन्वाद ज्ञापन किया तथा पुनः आगरा आगमन पर मेरे घर मुझ से मिलने आये.तब से मेरे आगरा रहने तक उनके कार्यक्रमों का मुहूर्त आयोजक महोदय मुझसे निकलवाते रहे और मैं उनके कार्यक्रमों को सुनता रहा जिन्हें अख़बार में छपवाता भी रहा.डा.महेंद्र वर्मा जी की इच्छा एवं सुझाव क़े अनुसार समय समय पर यहाँ प्रस्तुत करता रहूँगा.
(इस ब्लॉग पर प्रस्तुत आलेख लोगों की सहमति -असहमति पर निर्भर नहीं हैं -यहाँ ढोंग -पाखण्ड का प्रबल विरोध और उनका यथा शीघ्र उन्मूलन करने की अपेक्षा की जाती है)
बहुत उत्तम जानकारी माथुर सहाब, मेरे लिए तो एकदम नई सी है यह !
ReplyDeleteमाथुर साहब!
ReplyDeleteचरण स्पर्श!
आपकी व्याख्या वास्तव में एक शोध है और हमारी पौराणिक धरोहर का वैज्ञानिक विश्लेषण भी हैं... अद्भुत जानकारी पढ़ने को मिली और आपका सस्वर पाठ मुझे अपने स्वर्गीय दादा जी की याद दिला गया, उनका कण्ठ भी ऐसा ही था जब वे दुर्गा सप्तशती का पाठ किया करते थे..
एक स्वर्गिक अनुभव होता है यहाँ आकर!!
कितना शोधात्मक आलेख है..... मेरे लिए बहुत सी बातें बिल्कुल नई हैं.....उन्हें इस तरह विस्तृत रूप में पढना और जानना ज्ञानवर्धक है...... सराहनीय प्रयास है आपका ......ऐसी कड़ियाँ जारी रखें ....आभार
ReplyDeleteमाथुर साहब,
ReplyDeleteविनम्रतापूर्वक पहले एक भ्रम दूर कर दूं कि मैं डॉ.महेंद्र वर्मा नहीं, केवल महेंद्र वर्मा हूं। डॉ. महेंद्र वर्मा एक अन्य व्यक्तित्व हैं जो प्रसिद्ध लेखक भी हैं।
पौराणिक कथाओं को आप वैज्ञानिक दृष्टिकोण से परखते हैं, आपकी यह चिंतन प्रक्रिया अच्छी लगी। पुराणों में वर्णित पात्रों के प्रतीकात्मक अर्थ हैं, इस तथ्य से मैं पूरी तरह से सहमत हूं।
नवरात्रि के चार पर्व हैं, यह जानकारी मेरे लिए नवीन है।
इस आलेख के लिए धन्यवाद।
सादर,
महेंद्र वर्मा