श्रीमद देवी भागवत की वैज्ञानिक व्याख्या पर टिप्पणी क़े रूप में डा.मोनिका शर्मा ने इसी क्रम को जारी रखने की बात की तो रंजना जी ने व्याख्याकार आचार्य जी का संपर्क सूत्र ही हासिल कर लिया.महेंद्र वर्मा जी ने तो इस प्रकार लिखने का सुझाव दिया ही था और अब रंजना ने भी मेल पर इस प्रकार की अधिकाधिक सामग्री देने को कहा है.आप सब क़े उत्साह को बनाये रखने हेतु २००५ की शिव-रात्री क़े अवसर पर दिये गये आचार्य रामरतन शास्त्री क़े प्रवचन जिन्हें मैं १७ मार्च २००५ को प्रकाशित करा चुका था (ज्यों का त्यों कलम और कुदाल में देख सकते हैं.)क़े आधार पर ७ दिनों का सार प्रस्तुत कर रहा हूँ.-
शाहपुर ब्राह्मन,बाह -आगरा क़े मूल निवासी आचार्य रामरतन शास्त्री जी ने लोनावाला (महाराष्ट्र)से पधार कर अपने सरस,सरल,सुगम और बोधगम्य प्रवचनों क़े द्वारा प्रचलित ढोंग वादी शैली से हट कर वैज्ञानिक आधार पर शिव कथाओं का विश्लेषण किया .उनकी शैली समन्वयात्मक है.पोंगापंथियों ने पुराणों की जो विकृत व्याख्या प्रस्तुत की थी उसका प्रबल विरोध प्रगतिशील धर्माचार्यों द्वारा किया गया है.आचार्य रामरतन जी द्वारा पौराणिक कथाओं की व्याख्या इं दोनों का समन्वय हैउनका कहना है जब मनुष्य का बौद्धिक स्तर समृद्ध नहीं रहा जो वैदिक मन्त्रों क़े सही अर्थों को समझ सकता हो विद्वानों ने इन कथाओं क़े माध्यम से वेद की बातों को प्रस्तुत किया है.हमें इन कथाओं क़े मर्म को समझना चाहिए न कि,कथाओं क़े कथानक में में उलझ कर भटकना चाहिए.प्रथम दिवस ही व्यास-पीठ पर बैठ कर आचार्य प्रवर ने ब्राह्मणों क़े पोंगा-पंथ पर प्रहार किया और देश क़े चारित्रिक पतन क़े लिये उन्हें उत्तरदायी ठहराया.उन्होंने कहा पंडित विद्वान होता है पुजारी क़े रूप में वकील नहीं,उनका आशय था कि भक्त को स्वंय ही भगवान् से तादात्म्य स्थापित करना चाहिए और किसी मध्यस्थ या बिचौलियों क़े बगैर भगवान् से स्तुति,प्रार्थना,पूजा,हवन,यग्य करना चाहिये.
पश्चाताप का अर्थ बताते हुये आचार्य जी ने बताया कि गलती हो जाने पर उसे स्वीकार करना चाहिए और उस दुःख क़े ताप में तप कर फिर उसे न दोहराने का संकल्प ही पश्चाताप है.दुखों से न घबराने का सन्देश शिव-पुराण में भरा पड़ा है इन कथाओं द्वारा बताया गया है कि पांडवों,अनिरुद्ध सटी,पार्वती आदि ने बाधाओं से विचलित हुये बगैर सत्मार्ग पर डटे रह कर सफलता प्राप्त की है.आचार्य जी का दृढ मत है कि,'वीर -भोग्या वसुंधरा'क़े अनुसार शक्तिशाली की मान्यता है-कमजोर को कोई नहीं पूछता है.इसलिए विपत्ती आने पर भी निडरता पूर्वक परिस्थितियों से संघर्ष करना और उन पर विजय हासिल करना चाहिये.
व्यक्ति का नहीं भक्ति का नाम नारद -आचार्य जी ने कहा कि नारद किसी व्यक्ति-विशेष का नहीं बल्कि यह देश -काल से परे भगवद-भक्ति का नाम है.भक्त कभी स्थान-विशेष से बंधता नहीं है.बल्कि वह तो जहाँ उसकी जरूरत होती है वहीं पहुँच जाता है.ऐसे ऐसे गुण चरित्र वाले किसी भी व्यक्ति को नारद कहा जाता है.
भक्ति- शब्द ढाई अक्षरों क़े मेल से बना है जिसमे भ -का अर्थ भजन से है ति -शब्द त्याग का परिचायक है और (आधा)क यह बतलाता है कि निष्काम कर्म ही भगवान् तक पहुँचने में सहायक है सकाम कर्म नहीं.इसका आशय यह हुआ कि निष्काम कर्म करते हुए त्याग पूर्वक भजन किया जाये वही भक्ति है.
ज्ञान और भक्ति क़े बिना वैराग्य नहीं-ज्ञान वह मानसिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा सत्य और असत्य,नित्य और अनित्य,क्षर और अक्षर का बोध होता है.भक्ति में भजन प्रमुख है जिसका अर्थ है सेवा करना और यह भक्ति श्रवण कीर्तन आदि नौ प्रकार की होती है.भक्ति क़े द्वारा वैराग्य अर्थात पदार्थों क़े प्रति विरक्ति होती है.आचार्य जी ने बताया संसार में दृष्टा की भांति रहने से उससे मोह नहीं होता है और मोह का न होना ही सुख की स्थिति है.
दक्ष और बाणासुर -आचार्य जी कहते हैं की शिव महापुराण में वर्णित दक्ष और बाणासुर क़े कारण श्री कृष्ण और शिव में संघर्ष की घटनाएं अहंकार करने वालों का हश्र बताने बताने क़े लिये उल्लिखित हैं.सत्ता,धन और यश का अहंकार नहीं इनका संचय करना चाहिये और दूसरों क़े हित में इनका प्रयोग करना चाहिए.इसके विपरीत आचरण करने पर अहंकारी का पतन अवश्य ही होता है.
लिंग ब्रह्म में लीन होना है-आचार्य राम रतन जी कहते हैं कि शिव की लिंग आराधना यह बताती है कि यह जो अखिल ब्रह्मांड है वह एक गोलाकार पिंड क़े समान है और सभी जीवों को उसी में फिर से मिल जाना है इस दृष्टिकोण से शिव क़े लिंग स्वरुप की कल्पना की गयी है.बारह लिंग विभिन्न शक्तियों क़े द्योतक हैं.देश भर में फैले लिंग शक्ति पीठ राष्ट्र को एकीकृत रखने की अवधारणा क़े कारण विभिन्न क्षेत्रों में स्थापित किये गये हैं.
शिवरात्रि-शिव विवाह-शिव ही परम सत्ता अर्थात परमात्मा हैं और पार्वती शिव हैं अर्थात परमात्मा की शक्ति शिव शक्ति द्वारा प्रकृति क़े संयोजन से सृष्टि करना ही शिव रात्री का पर्व है.लोक कल्याण और जन हित हेतु परमात्मा शिव ने पार्वती अर्थात प्रकृति से विवाह किया और इस प्रकार लोक मंगल किया.पार्वती को गिरिजा भी कहते हैं -पर्वत राज हिमालय की पुत्री होने क़े कारण उन्हें यह नाम मिला है.पार्वती ही उमा हैं अर्थात समृद्धि का प्रतीक.शिवरात्रि का पर्व भारत भर में सुख समृद्धि और सौभाग्य का प्रतीक है.
आचार्य रामरतन शास्त्री को लोना वाला से "शिव पुराण" पर प्रवचन हेतु ही बुलवाया गया था इस अवसर पर इन पंक्तियों क़े लेखक ने ब्रह्मा,वशिष्ठ,व्यास और भारद्वाज मुनियों द्वारा रचित स्तुतियों का पाठ कर क्षेत्रवासियों क़े कल्याण की कामना की.ढोंग,पाखण्ड और आडम्बर से दूर रहकर आचार्य जी ने समन्वयात्मक दृष्टिकोण अपनाकर जनता क़े समक्ष क्रांतिकारी विचार प्रस्तुत किये.जिनकी भूरी भूरी प्रशंसा पूर्व कुल सचिव (आगरा वि वि) एवं पूर्व प्राचार्य डाक्टर एस एन शर्मा तथा कायस्थ सभा आगरा क़े अध्यक्ष ने भी मुक्त कंठ से की.यह गौरव की बात है कि शाहपुर ब्राह्मण (बाह ) क़े मूल निवासी आचार्य राम रतन शास्त्री विश्व स्तरीय योग महा विद्यालय से संबद्द हैं और उनके छात्र विश्व भर में फैले हुए हैं यह सभी का फर्ज़ बनता है कि आचार्य प्रवर क़े विचारों से अन्य लोगों को भी ज्ञान प्राप्त कराएं.
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(इस ब्लॉग पर प्रस्तुत आलेख लोगों की सहमति -असहमति पर निर्भर नहीं हैं -यहाँ ढोंग -पाखण्ड का प्रबल विरोध और उनका यथा शीघ्र उन्मूलन करने की अपेक्षा की जाती है)
शाहपुर ब्राह्मन,बाह -आगरा क़े मूल निवासी आचार्य रामरतन शास्त्री जी ने लोनावाला (महाराष्ट्र)से पधार कर अपने सरस,सरल,सुगम और बोधगम्य प्रवचनों क़े द्वारा प्रचलित ढोंग वादी शैली से हट कर वैज्ञानिक आधार पर शिव कथाओं का विश्लेषण किया .उनकी शैली समन्वयात्मक है.पोंगापंथियों ने पुराणों की जो विकृत व्याख्या प्रस्तुत की थी उसका प्रबल विरोध प्रगतिशील धर्माचार्यों द्वारा किया गया है.आचार्य रामरतन जी द्वारा पौराणिक कथाओं की व्याख्या इं दोनों का समन्वय हैउनका कहना है जब मनुष्य का बौद्धिक स्तर समृद्ध नहीं रहा जो वैदिक मन्त्रों क़े सही अर्थों को समझ सकता हो विद्वानों ने इन कथाओं क़े माध्यम से वेद की बातों को प्रस्तुत किया है.हमें इन कथाओं क़े मर्म को समझना चाहिए न कि,कथाओं क़े कथानक में में उलझ कर भटकना चाहिए.प्रथम दिवस ही व्यास-पीठ पर बैठ कर आचार्य प्रवर ने ब्राह्मणों क़े पोंगा-पंथ पर प्रहार किया और देश क़े चारित्रिक पतन क़े लिये उन्हें उत्तरदायी ठहराया.उन्होंने कहा पंडित विद्वान होता है पुजारी क़े रूप में वकील नहीं,उनका आशय था कि भक्त को स्वंय ही भगवान् से तादात्म्य स्थापित करना चाहिए और किसी मध्यस्थ या बिचौलियों क़े बगैर भगवान् से स्तुति,प्रार्थना,पूजा,हवन,यग्य करना चाहिये.
पश्चाताप का अर्थ बताते हुये आचार्य जी ने बताया कि गलती हो जाने पर उसे स्वीकार करना चाहिए और उस दुःख क़े ताप में तप कर फिर उसे न दोहराने का संकल्प ही पश्चाताप है.दुखों से न घबराने का सन्देश शिव-पुराण में भरा पड़ा है इन कथाओं द्वारा बताया गया है कि पांडवों,अनिरुद्ध सटी,पार्वती आदि ने बाधाओं से विचलित हुये बगैर सत्मार्ग पर डटे रह कर सफलता प्राप्त की है.आचार्य जी का दृढ मत है कि,'वीर -भोग्या वसुंधरा'क़े अनुसार शक्तिशाली की मान्यता है-कमजोर को कोई नहीं पूछता है.इसलिए विपत्ती आने पर भी निडरता पूर्वक परिस्थितियों से संघर्ष करना और उन पर विजय हासिल करना चाहिये.
व्यक्ति का नहीं भक्ति का नाम नारद -आचार्य जी ने कहा कि नारद किसी व्यक्ति-विशेष का नहीं बल्कि यह देश -काल से परे भगवद-भक्ति का नाम है.भक्त कभी स्थान-विशेष से बंधता नहीं है.बल्कि वह तो जहाँ उसकी जरूरत होती है वहीं पहुँच जाता है.ऐसे ऐसे गुण चरित्र वाले किसी भी व्यक्ति को नारद कहा जाता है.
भक्ति- शब्द ढाई अक्षरों क़े मेल से बना है जिसमे भ -का अर्थ भजन से है ति -शब्द त्याग का परिचायक है और (आधा)क यह बतलाता है कि निष्काम कर्म ही भगवान् तक पहुँचने में सहायक है सकाम कर्म नहीं.इसका आशय यह हुआ कि निष्काम कर्म करते हुए त्याग पूर्वक भजन किया जाये वही भक्ति है.
ज्ञान और भक्ति क़े बिना वैराग्य नहीं-ज्ञान वह मानसिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा सत्य और असत्य,नित्य और अनित्य,क्षर और अक्षर का बोध होता है.भक्ति में भजन प्रमुख है जिसका अर्थ है सेवा करना और यह भक्ति श्रवण कीर्तन आदि नौ प्रकार की होती है.भक्ति क़े द्वारा वैराग्य अर्थात पदार्थों क़े प्रति विरक्ति होती है.आचार्य जी ने बताया संसार में दृष्टा की भांति रहने से उससे मोह नहीं होता है और मोह का न होना ही सुख की स्थिति है.
दक्ष और बाणासुर -आचार्य जी कहते हैं की शिव महापुराण में वर्णित दक्ष और बाणासुर क़े कारण श्री कृष्ण और शिव में संघर्ष की घटनाएं अहंकार करने वालों का हश्र बताने बताने क़े लिये उल्लिखित हैं.सत्ता,धन और यश का अहंकार नहीं इनका संचय करना चाहिये और दूसरों क़े हित में इनका प्रयोग करना चाहिए.इसके विपरीत आचरण करने पर अहंकारी का पतन अवश्य ही होता है.
लिंग ब्रह्म में लीन होना है-आचार्य राम रतन जी कहते हैं कि शिव की लिंग आराधना यह बताती है कि यह जो अखिल ब्रह्मांड है वह एक गोलाकार पिंड क़े समान है और सभी जीवों को उसी में फिर से मिल जाना है इस दृष्टिकोण से शिव क़े लिंग स्वरुप की कल्पना की गयी है.बारह लिंग विभिन्न शक्तियों क़े द्योतक हैं.देश भर में फैले लिंग शक्ति पीठ राष्ट्र को एकीकृत रखने की अवधारणा क़े कारण विभिन्न क्षेत्रों में स्थापित किये गये हैं.
शिवरात्रि-शिव विवाह-शिव ही परम सत्ता अर्थात परमात्मा हैं और पार्वती शिव हैं अर्थात परमात्मा की शक्ति शिव शक्ति द्वारा प्रकृति क़े संयोजन से सृष्टि करना ही शिव रात्री का पर्व है.लोक कल्याण और जन हित हेतु परमात्मा शिव ने पार्वती अर्थात प्रकृति से विवाह किया और इस प्रकार लोक मंगल किया.पार्वती को गिरिजा भी कहते हैं -पर्वत राज हिमालय की पुत्री होने क़े कारण उन्हें यह नाम मिला है.पार्वती ही उमा हैं अर्थात समृद्धि का प्रतीक.शिवरात्रि का पर्व भारत भर में सुख समृद्धि और सौभाग्य का प्रतीक है.
आचार्य रामरतन शास्त्री को लोना वाला से "शिव पुराण" पर प्रवचन हेतु ही बुलवाया गया था इस अवसर पर इन पंक्तियों क़े लेखक ने ब्रह्मा,वशिष्ठ,व्यास और भारद्वाज मुनियों द्वारा रचित स्तुतियों का पाठ कर क्षेत्रवासियों क़े कल्याण की कामना की.ढोंग,पाखण्ड और आडम्बर से दूर रहकर आचार्य जी ने समन्वयात्मक दृष्टिकोण अपनाकर जनता क़े समक्ष क्रांतिकारी विचार प्रस्तुत किये.जिनकी भूरी भूरी प्रशंसा पूर्व कुल सचिव (आगरा वि वि) एवं पूर्व प्राचार्य डाक्टर एस एन शर्मा तथा कायस्थ सभा आगरा क़े अध्यक्ष ने भी मुक्त कंठ से की.यह गौरव की बात है कि शाहपुर ब्राह्मण (बाह ) क़े मूल निवासी आचार्य राम रतन शास्त्री विश्व स्तरीय योग महा विद्यालय से संबद्द हैं और उनके छात्र विश्व भर में फैले हुए हैं यह सभी का फर्ज़ बनता है कि आचार्य प्रवर क़े विचारों से अन्य लोगों को भी ज्ञान प्राप्त कराएं.
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(इस ब्लॉग पर प्रस्तुत आलेख लोगों की सहमति -असहमति पर निर्भर नहीं हैं -यहाँ ढोंग -पाखण्ड का प्रबल विरोध और उनका यथा शीघ्र उन्मूलन करने की अपेक्षा की जाती है)
आग्रह स्वीकारने का आभार ......इन बातों की वैज्ञानिक व्याख्या और इस विस्तार से कहीं पढने को कम ही मिलता है ......सार्थक पोस्ट्स का स्वागत ......
ReplyDeleteढोंग और पाखंड की पहचान ही तो मुश्किल होती है, वरना उसके उन्मूलन के पक्ष में कौन नहीं.
ReplyDeleteमनुष्य है ही इसलिए कि,वह मननशील प्राणी है.मनुष्य अपने अध्ययन,मनन एवं बुद्धी,ज्ञान व विवेक से सही और गलत की पहचान स्वंय कर सकता है.कौन ढोंगी है और कौन नहीं इस सम्बन्ध में संत कबीर की वाणी यह है-
ReplyDeleteसाधू ऐसा चाहिए जैसे सूप सुभाय,
सार सार को गहि देये थोथा देये उडाये.
डा. मोनिका जी से मैं भी सहमत हूँ कि लोग सही बात लिखते-बताते नहीं हैं.सही बताने वाले बहुत कम ही हैं स्वंय ब्रह्मण होते हुए भी शस्त्री जी ने सच्चाई बयां की इसी लिए मैंने उन्हें उद्धृत किया.शीघ्र ऐसे कथावाचक के विचार दूंगा जो वास्तव में बहुत अच्छे हैं परन्तु उसका खुद का आचरण ठीक उल्टा है.
आचार्य रामरतन शास्त्री जी के विचार स्वागतेय है।
ReplyDeleteउनका यह विचार क्रांतिकारी है- मनुष्य को ईश्वर से तादात्म्य स्थापित करने के लिए किसी बिचौलिए की जरूरत नहीं। भक्त को स्वयं प्रयास करना चाहिए।
इस श्रेष्ठ लेख के लिए आपके प्रति आभार।
आपके ब्लॉग शीर्षक को सार्थक करता एक आलेख और इसमें वर्णित शास्त्री जी के क्रांतिकारी विचार एक प्रचलित धारणा पर पुनर्विचार के लिये प्रेरित करती है!!
ReplyDeleteउत्तम ज्ञानोपदेश दिए आचार्य शास्त्री जी ने ! शिक्षित और अर्ध शिक्षित का यही फर्क है. एक यथार्थ को पेश करता है जबकि दूर्सरा उसी बात को ढोंग-पाखण्ड के लिए प्रस्तुत करता है !
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