श्रीमद देवी भागवत की वैज्ञानिक व्याख्या जिस अंक में छपी थी उसे देख -पढ़ कर एक कथावाचक ने मुझसे संपर्क किया और अपने बारे में बताया जिसे मैंने उसी अखबार में छपवा दिया था परन्तु महान विचारों वाले वह कथावाचक करनी में बिलकुल फर्क दिखे इसलिए उस साक्षात्कार को ज्यों का त्यों 'कलम और कुदाल'में नहीं दे रहे हैं.पहले उनसे हुए प्रश्नोत्तर पर गौर करें फिर उनके चरित्र पर प्रकाश डालेंगे.
प्रश्न -आपको धार्मिक क्षेत्र में आने की प्रेरणा कैसे मिली?
उ.-पूर्व-जन्म के संस्कार और कुछ प्रारब्ध,धार्मिक माता-पिता का प्रभाव और कुछ हनुमान जी की विशेष कृपा.ईश्वर ने हर कार्य के लिए कोई न कोई व्यक्ति ढूंढ रखा है.यह मेरा सौभाग्य है ,ईश्वर ने इस कार्य हेतु मुझे चुना.
प्रश्न- आप अन्य प्रवाच्कों से अलग किन्तु सही व्याख्या करते हैं इस सम्बन्ध में कुछ बताएं?
उ.-स्वंय को शिष्य मान कर निरंतर गूढ़ अध्ययन एवं सज्जनशील चिंतन शैली.
प्रश्न-आपका श्रीमद भागवत कथा-वाचन का प्रथम प्रयास पूर्ण सफल रहा है,क्या आगे भी आप ऐसे और कार्यक्रम करेंगे?
उ.-जिसका जीवन ही गीता,भागवत और धर्म के प्रचार के लिए समर्पित हो,वह कैसे चुप बैठ सकता है?क्या ऐसे व्यक्ति को ऐसा नहीं करना चाहिए?
कथावाचक जी के प्रवचन में जो नयी बातें सामने आयीं उन्हें जन-हित में प्रस्तुत किया जा रहा है.---------
"श्रीमद भागवत"में प्रयुक्त "श्री"शब्द का अर्थ है-ऐश्वर्य संपन्न भगवान,"मद"शब्द स्वंय भगवान ने अपने लिए मेरा के अर्थ में प्रयोग किया है और भागवत शब्द में पंचमहाभूतों का संकेत है.भागवत=भ.अ.ग.व्.त.=भ.का अभिप्राय भूमि से,अ.का अग्नि से,ग.का गगन(आकाश)से,व.का वायु से और त.का तोर अर्थात जल से है.इसी प्रकार भगवान् में प्रयुक्त शब्दों का अभिप्राय है इसमें न शब्द का अर्थ नीर अर्थात जल है.इस प्रकार भगवान् से आशय उस शक्ति से है जो पंचमहाभूतों से निर्मित सृष्टि का नियंता है और श्रीमदभागवत से आशय उस सर्वशक्ति सम्पन्न द्वारा पञ्च महाभूतों क़े कल्याण हेतु कहे गये वचनामृत से है.कथावाचक जी ने भागवत क़े प्रयुक्त शब्दों का सूक्ष्म विवेचन करते हुए उनका भाव स्पष्ट किया.उन्होंने बताया कि,ज्ञान और वैराग्य की माँ "भक्ति"है.भक्ति का अर्थ बताते हुए उन्होंने कहा कि ये ढाई अक्षर तीन अलग -अलग भावोंको प्रदर्शित करते हैं."भ"शब्द भजन हेतु है."क"शब्द कर्म का प्रतीक है.कर्म दो प्रकार क़े होते हैं.सकाम और निष्काम.इसमें सिर्फ निष्काम कर्म की ही महत्ता है अतः 'क'शब्द आधा ही लिया गया है और "ति"शब्द त्याग की भावना दर्शाता है.अस्तु निष्काम कर्म करते हुए त्याग की भावना से जो भजन किया जाता है उसे ही भक्ति कहते हैं और भक्ति ही परमात्मा अथवा भगवान् को प्राप्त करने का माध्यम है.
श्रीमदभागवत में उल्लिखित राजा उत्तानपाद ,रानी सुरुचि और सुनीति,ध्रुव और उत्तम की व्याख्या भी कथावाचक जी ने की और स्पष्ट किया कि प्रत्येक जीवात्मा उत्तानपाद है और यह कथानक प्रत्येक जीवात्मा हेतु एक सन्देश है उन्होंने बताया कि उत्तान का अर्थ है ऊपर और पाद का अर्थ है चरण से .प्रत्येक जीवात्मा गर्भ में ऊपर पैर किये रहता है और वैसे ही ऊपर पैर किये हुए उसका जन्म होता है.प्रसव में पहले सिर बाहर आता है फिर शरीर और सबसे बाद में पैर.इस प्रकार जन्म से प्रत्येक जीवात्मा उत्तानपाद हुआ.उसकी दो पत्नियाँ सुरुचि और सुनीति का अर्थ हुआ उसमें अच्छी और बुरी दोनों प्रवृत्तियों का पाया जाना.सुरुचि का सिंहासन पर बैठना दर्शाता है कि जीवात्मा रुचिकर कार्यों को ही अपनाता है और नीति युक्त बातों को भुला देता है अर्थात सुनीति का वनवास.वनवास=वन+अवास=जिसका एकल वास हो.नीतिगत बातें व्यवहार में न चलने का अभिप्राय ही सुनीति क़े वनवास से है.उत्तम शब्द उद+तम क़े योग से बना है.उद का अर्थ है ईश्वर और तम अर्थात अज्ञान-अन्धकार है.इस प्रकार ईश्वर क़े प्रति अज्ञान ही उत्तम है और लोगों को वही प्रिय होता है.ध्रुव का अर्थ है अटल या अडिग रहना.भक्ति मार्ग पर चलने वाले जीव ध्रुव कहलाते हैं और उन्हें पग-पग पर कष्टों का सामना करना पड़ता है परन्तु वे भगवान् का सान्निध्य प्राप्त करने में सफल रहते हैं.
कथावाचक जी ने बताया कि श्रीमदभागवत में वर्णित रास-लीला कोई काम-लीला नहीं है,यह जीवात्मा क़े परमात्मा क़े साथ एकाकार होने की साधना है उन्होंने गोपी शब्द की व्याख्या करते हुए बताया कि "गो"का अर्थ होता है ज्ञान और वैराग्य,पी का अर्थ है पीना अर्थात जिसने ज्ञान और वैराग्य को पी लिया है वही जीवात्मा गोपी है और इसमें स्त्री-पुरुष का कोई भेद नहीं है."कृष्ण" का अर्थ है जो सब को आकर्षित कर ले वही कृष्ण है अर्थात परमात्मा का ही नाम कृष्ण है .कृष्ण क़े विभिन्न नामों गोपाल,गोविन्द,मोहन की भी व्याख्या उन्होंने प्रस्तुत की है."गो" का अर्थ बताया इन्द्रियाँ और पाल का अर्थ पालन करने वाला परमात्मा ही गोपाल है."विन्द" का अर्थ है घेरे में लेना अर्थात जीवात्मा की इन्द्रियों को घेरे में लेने वाला उनका संयमन करने वाला गोविन्द ही परमात्मा है."मोहन" शब्द दिवर्थी है-मोहन =मोह +न अर्थात जिसमें इस संसार क़े प्रति मोह न हो वह सृष्टि नियंता ही मोहन है."मो" का अर्थ अहंकार होता है और "हन" का अर्थ हरण करने वाला अर्थात अहंकार का हरण करने वाला मोहन ही परमात्मा है.
"राधा"का अर्थ बताया कि यह जीवात्मा है.प्रत्येक जीवात्मा ही राधा है और राधा ,कृष्ण की प्रेमिका है कहने का तात्पर्य है कि,परमात्मा,को प्रत्येक जीवात्मा प्रिय होती है वह प्रत्येक का कल्याण चाहता है.
विशेष-कथावाचक जी हिन्दी और अंगरेजी में एम.ए.होने क़े साथ-साथ संगीतग्य भी हैं.धन का लोभ और अपने ज्ञान का दुरूपयोग करने में भी माहिर हैं जिस कारण उनका नाम नहीं उजागर किया है.राम ने तो लक्ष्मण को रावण से ज्ञान प्राप्त करने हेतु भेजा था ,हम भी कथावाचक जी क़े केवल ज्ञान का ही सार्वजनिक लाभ उठाना चाहते हैं.रंजना जी ने अपने ब्लाग पर श्री कृष्ण क़े चरित्र रक्षा हेतु तर्क-संगत उत्कृष्ट पोस्ट पहले ही दी है.उनका प्रयास सराहनीय है उन्होंने भी महेंद्र वर्मा जी और डा.मोनिका शर्मा जी क़े साथ-साथ मेरे ब्लाग पर ऐसी पोस्ट देने की चाहत की थी.सलिल वर्मा जी (चला बिहारी वाले...)तो इस प्रकार क़े विश्लेषण देने क़े लिये मुझे बहुत अधिक मान देने लगे हैं.परन्तु मैं स्पष्ट करना चाहता हूँ कि मैंने तो अर्जित ज्ञान को सार्वजनिक मात्र किया है जनता क़े कल्याण हेतु.मैं केवल माध्यम बना हूँ क्योंकि अतीत में इस प्रकार क़े ज्ञान को कंजूस क़े धन की भांति छिपा कर रखने से ही पौराणिकों ने राधा,गोपी,रास,आदि को लेकर जो चट्कारेदार बातें गढ़ीं हैं उनसे जन-मानस का कल्याण नहीं मात्र मनोरंजन हुआ है और ढोंग-पाखण्ड का व्यर्थ प्रचलन हुआ है,आगे ऐसा न हो यही मेरे लेखन का अभीष्ट है.पी.सी.गोदियाल सा :ने अपनी टिप्पणी में लिखा है कि,ढोंग-पाखण्ड अर्ध-शिक्षित लोगों द्वारा किया गया है.यही तो समस्या है कि उससे आम-लोग तो गुमराह हो कर अपना अनिष्ट कर डालते हैं.पौराणिक प्रतीकों की वैज्ञानिक व्याख्या बहुत जटिल है तथा साधारण -जन क़े लिये सम्भव भी नहीं है.इसी लिये संत कबीर ,महर्षी स्वामी दयानंद आदि ने पुराणों की कड़ी आलोचना की है.दूसरी तरफ जन-मानस में पुराणों की गहरी पैठ विकृत रूप से है. अतः समन्वयात्मक दृष्टिकोण से पुराणों का बचाव करने का प्रयास प्रबुद्ध-जन करते रहते हैं,वे चाहते हैं किसी प्रकार जनता को लुटने से बचाया जाये.उनके विचारों को विभिन्न माध्यमों से प्रचारित करके मैं भी छोटा सा योगदान करना चाहता हूँ.
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(इस ब्लॉग पर प्रस्तुत आलेख लोगों की सहमति -असहमति पर निर्भर नहीं हैं -यहाँ ढोंग -पाखण्ड का प्रबल विरोध और उनका यथा शीघ्र उन्मूलन करने की अपेक्षा की जाती है)
प्रश्न -आपको धार्मिक क्षेत्र में आने की प्रेरणा कैसे मिली?
उ.-पूर्व-जन्म के संस्कार और कुछ प्रारब्ध,धार्मिक माता-पिता का प्रभाव और कुछ हनुमान जी की विशेष कृपा.ईश्वर ने हर कार्य के लिए कोई न कोई व्यक्ति ढूंढ रखा है.यह मेरा सौभाग्य है ,ईश्वर ने इस कार्य हेतु मुझे चुना.
प्रश्न- आप अन्य प्रवाच्कों से अलग किन्तु सही व्याख्या करते हैं इस सम्बन्ध में कुछ बताएं?
उ.-स्वंय को शिष्य मान कर निरंतर गूढ़ अध्ययन एवं सज्जनशील चिंतन शैली.
प्रश्न-आपका श्रीमद भागवत कथा-वाचन का प्रथम प्रयास पूर्ण सफल रहा है,क्या आगे भी आप ऐसे और कार्यक्रम करेंगे?
उ.-जिसका जीवन ही गीता,भागवत और धर्म के प्रचार के लिए समर्पित हो,वह कैसे चुप बैठ सकता है?क्या ऐसे व्यक्ति को ऐसा नहीं करना चाहिए?
कथावाचक जी के प्रवचन में जो नयी बातें सामने आयीं उन्हें जन-हित में प्रस्तुत किया जा रहा है.---------
"श्रीमद भागवत"में प्रयुक्त "श्री"शब्द का अर्थ है-ऐश्वर्य संपन्न भगवान,"मद"शब्द स्वंय भगवान ने अपने लिए मेरा के अर्थ में प्रयोग किया है और भागवत शब्द में पंचमहाभूतों का संकेत है.भागवत=भ.अ.ग.व्.त.=भ.का अभिप्राय भूमि से,अ.का अग्नि से,ग.का गगन(आकाश)से,व.का वायु से और त.का तोर अर्थात जल से है.इसी प्रकार भगवान् में प्रयुक्त शब्दों का अभिप्राय है इसमें न शब्द का अर्थ नीर अर्थात जल है.इस प्रकार भगवान् से आशय उस शक्ति से है जो पंचमहाभूतों से निर्मित सृष्टि का नियंता है और श्रीमदभागवत से आशय उस सर्वशक्ति सम्पन्न द्वारा पञ्च महाभूतों क़े कल्याण हेतु कहे गये वचनामृत से है.कथावाचक जी ने भागवत क़े प्रयुक्त शब्दों का सूक्ष्म विवेचन करते हुए उनका भाव स्पष्ट किया.उन्होंने बताया कि,ज्ञान और वैराग्य की माँ "भक्ति"है.भक्ति का अर्थ बताते हुए उन्होंने कहा कि ये ढाई अक्षर तीन अलग -अलग भावोंको प्रदर्शित करते हैं."भ"शब्द भजन हेतु है."क"शब्द कर्म का प्रतीक है.कर्म दो प्रकार क़े होते हैं.सकाम और निष्काम.इसमें सिर्फ निष्काम कर्म की ही महत्ता है अतः 'क'शब्द आधा ही लिया गया है और "ति"शब्द त्याग की भावना दर्शाता है.अस्तु निष्काम कर्म करते हुए त्याग की भावना से जो भजन किया जाता है उसे ही भक्ति कहते हैं और भक्ति ही परमात्मा अथवा भगवान् को प्राप्त करने का माध्यम है.
श्रीमदभागवत में उल्लिखित राजा उत्तानपाद ,रानी सुरुचि और सुनीति,ध्रुव और उत्तम की व्याख्या भी कथावाचक जी ने की और स्पष्ट किया कि प्रत्येक जीवात्मा उत्तानपाद है और यह कथानक प्रत्येक जीवात्मा हेतु एक सन्देश है उन्होंने बताया कि उत्तान का अर्थ है ऊपर और पाद का अर्थ है चरण से .प्रत्येक जीवात्मा गर्भ में ऊपर पैर किये रहता है और वैसे ही ऊपर पैर किये हुए उसका जन्म होता है.प्रसव में पहले सिर बाहर आता है फिर शरीर और सबसे बाद में पैर.इस प्रकार जन्म से प्रत्येक जीवात्मा उत्तानपाद हुआ.उसकी दो पत्नियाँ सुरुचि और सुनीति का अर्थ हुआ उसमें अच्छी और बुरी दोनों प्रवृत्तियों का पाया जाना.सुरुचि का सिंहासन पर बैठना दर्शाता है कि जीवात्मा रुचिकर कार्यों को ही अपनाता है और नीति युक्त बातों को भुला देता है अर्थात सुनीति का वनवास.वनवास=वन+अवास=जिसका एकल वास हो.नीतिगत बातें व्यवहार में न चलने का अभिप्राय ही सुनीति क़े वनवास से है.उत्तम शब्द उद+तम क़े योग से बना है.उद का अर्थ है ईश्वर और तम अर्थात अज्ञान-अन्धकार है.इस प्रकार ईश्वर क़े प्रति अज्ञान ही उत्तम है और लोगों को वही प्रिय होता है.ध्रुव का अर्थ है अटल या अडिग रहना.भक्ति मार्ग पर चलने वाले जीव ध्रुव कहलाते हैं और उन्हें पग-पग पर कष्टों का सामना करना पड़ता है परन्तु वे भगवान् का सान्निध्य प्राप्त करने में सफल रहते हैं.
कथावाचक जी ने बताया कि श्रीमदभागवत में वर्णित रास-लीला कोई काम-लीला नहीं है,यह जीवात्मा क़े परमात्मा क़े साथ एकाकार होने की साधना है उन्होंने गोपी शब्द की व्याख्या करते हुए बताया कि "गो"का अर्थ होता है ज्ञान और वैराग्य,पी का अर्थ है पीना अर्थात जिसने ज्ञान और वैराग्य को पी लिया है वही जीवात्मा गोपी है और इसमें स्त्री-पुरुष का कोई भेद नहीं है."कृष्ण" का अर्थ है जो सब को आकर्षित कर ले वही कृष्ण है अर्थात परमात्मा का ही नाम कृष्ण है .कृष्ण क़े विभिन्न नामों गोपाल,गोविन्द,मोहन की भी व्याख्या उन्होंने प्रस्तुत की है."गो" का अर्थ बताया इन्द्रियाँ और पाल का अर्थ पालन करने वाला परमात्मा ही गोपाल है."विन्द" का अर्थ है घेरे में लेना अर्थात जीवात्मा की इन्द्रियों को घेरे में लेने वाला उनका संयमन करने वाला गोविन्द ही परमात्मा है."मोहन" शब्द दिवर्थी है-मोहन =मोह +न अर्थात जिसमें इस संसार क़े प्रति मोह न हो वह सृष्टि नियंता ही मोहन है."मो" का अर्थ अहंकार होता है और "हन" का अर्थ हरण करने वाला अर्थात अहंकार का हरण करने वाला मोहन ही परमात्मा है.
"राधा"का अर्थ बताया कि यह जीवात्मा है.प्रत्येक जीवात्मा ही राधा है और राधा ,कृष्ण की प्रेमिका है कहने का तात्पर्य है कि,परमात्मा,को प्रत्येक जीवात्मा प्रिय होती है वह प्रत्येक का कल्याण चाहता है.
विशेष-कथावाचक जी हिन्दी और अंगरेजी में एम.ए.होने क़े साथ-साथ संगीतग्य भी हैं.धन का लोभ और अपने ज्ञान का दुरूपयोग करने में भी माहिर हैं जिस कारण उनका नाम नहीं उजागर किया है.राम ने तो लक्ष्मण को रावण से ज्ञान प्राप्त करने हेतु भेजा था ,हम भी कथावाचक जी क़े केवल ज्ञान का ही सार्वजनिक लाभ उठाना चाहते हैं.रंजना जी ने अपने ब्लाग पर श्री कृष्ण क़े चरित्र रक्षा हेतु तर्क-संगत उत्कृष्ट पोस्ट पहले ही दी है.उनका प्रयास सराहनीय है उन्होंने भी महेंद्र वर्मा जी और डा.मोनिका शर्मा जी क़े साथ-साथ मेरे ब्लाग पर ऐसी पोस्ट देने की चाहत की थी.सलिल वर्मा जी (चला बिहारी वाले...)तो इस प्रकार क़े विश्लेषण देने क़े लिये मुझे बहुत अधिक मान देने लगे हैं.परन्तु मैं स्पष्ट करना चाहता हूँ कि मैंने तो अर्जित ज्ञान को सार्वजनिक मात्र किया है जनता क़े कल्याण हेतु.मैं केवल माध्यम बना हूँ क्योंकि अतीत में इस प्रकार क़े ज्ञान को कंजूस क़े धन की भांति छिपा कर रखने से ही पौराणिकों ने राधा,गोपी,रास,आदि को लेकर जो चट्कारेदार बातें गढ़ीं हैं उनसे जन-मानस का कल्याण नहीं मात्र मनोरंजन हुआ है और ढोंग-पाखण्ड का व्यर्थ प्रचलन हुआ है,आगे ऐसा न हो यही मेरे लेखन का अभीष्ट है.पी.सी.गोदियाल सा :ने अपनी टिप्पणी में लिखा है कि,ढोंग-पाखण्ड अर्ध-शिक्षित लोगों द्वारा किया गया है.यही तो समस्या है कि उससे आम-लोग तो गुमराह हो कर अपना अनिष्ट कर डालते हैं.पौराणिक प्रतीकों की वैज्ञानिक व्याख्या बहुत जटिल है तथा साधारण -जन क़े लिये सम्भव भी नहीं है.इसी लिये संत कबीर ,महर्षी स्वामी दयानंद आदि ने पुराणों की कड़ी आलोचना की है.दूसरी तरफ जन-मानस में पुराणों की गहरी पैठ विकृत रूप से है. अतः समन्वयात्मक दृष्टिकोण से पुराणों का बचाव करने का प्रयास प्रबुद्ध-जन करते रहते हैं,वे चाहते हैं किसी प्रकार जनता को लुटने से बचाया जाये.उनके विचारों को विभिन्न माध्यमों से प्रचारित करके मैं भी छोटा सा योगदान करना चाहता हूँ.
Type setting and formatting done by yashwant mathur (responsibile for all typing errors)
(इस ब्लॉग पर प्रस्तुत आलेख लोगों की सहमति -असहमति पर निर्भर नहीं हैं -यहाँ ढोंग -पाखण्ड का प्रबल विरोध और उनका यथा शीघ्र उन्मूलन करने की अपेक्षा की जाती है)
रुचिकर तथा ज्ञानवर्धक पौराणिक चर्चा पढ़कर मन आह्लादित हुआ.
ReplyDeleteमाथुर साहब, आप सचमुच सम्मान के योग्य हैं..आपके लेख पढने के बाद लगता है कि बहुत कुछ छूट गया पढने से, बाकी रह गया.. ज्ञान तो वैसे भी एक अनंत यात्रा है.. टिप्पणियाँ करना तो बस एक उपस्थिति दर्ज़ करने भर है..वर्ना आपके लेखों पर टिप्पणी करना सामर्थ्य के बाहर है मेरे!!
ReplyDeleteश्री मद्भागवत और अन्य पौराणिक शब्दों की सटीक और तर्कयुक्त व्याख्या पढ़ने को मिली। तर्कयुक्त ज्ञान कहीं से भी मिले, ग्रहण करना उचित ही है।
ReplyDeleteकुंवर कुसुमेश जी ,सलिल वर्मा जी,महेंद्र वर्मा जी आप लोगों ने मेरे प्रस्तुतीकरण को उचित ठहराया -मैं ह्रदय से आप लोगों का आभारी हूँ.ज्ञान प्राप्ति की आप की अवधारणा से मैं पूर्ण सहमत हूँ इसी लिए ज्ञानी जनों के विचार जन-हित में सार्वजनिक करना मैंने अपना नैतिक दायित्व समझा .
ReplyDelete'विद्रोही स्व-स्वर में 'को हिंदुस्तान में स्थान देकर रवीश कुमार जी ने तथा ब्लाग पर आकर आदरणीय डॉ.डंडा लखनवी जी ने मुझे प्रोत्साहित किया ,उनका भी आभारी हूँ.
'रावन वध एक पूर्व निर्धारित योजना'मेरठ कालेज पत्रिका में तो लघु रूप में स्थान पा सका था परन्तु साप्ताहिक हिन्दुस्तान,धरम युग,सारिका,सरिता,सब ने लौटा दिया था.'नयी दुनिया'के रविवारीय अंक में छपने का डॉ.राजेन्द्र माथुर का रिमार्क होने के बावजूद वहां से भी लौट आया था.इस ब्लाग पर आप विद्व-जनों ने उसकी भी उपयुक्तता स्वीकार की.धन्यवाद.साथ-साथ मेरा आप सब से विनम्र निवेदन है कि आपने यदि इन विचारों को उचित समझा है तो अपने-अपने स्तर पर,अपने तरीके से लोगों को समझाने का प्रयत्न करें जिससे आम जन को पाखण्ड एवं ढोंग में उलझने से बचाया जा सके. इसी ढोंग -पाखण्ड ने हमारे देश को अतीत में ११००-१२०० वर्षों तक गुलामी झेलने को बाध्य किया था.एक शताब्दी के बाद सतत संघर्षों द्वारा प्राप्त राजनीतिक आजादी को बचाना एक नागरिक के नाते हम सभी का दायित्व है.
bahut sundar aur ukatipurn bichar achchhe lage. badhai ho.
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