Sunday, June 19, 2011

गंगा के लिए निगमानंद का बलिदान ------ विजय राजबली माथुर

दरभंगा ,बिहार से इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल करके स्वरूपम कुमार मिश्रा जी हरिद्वार आकर स्वामी निगमानंद बन गये और १९ फरवरी २०११ से गंगा को प्रदूषण मुक्त करने हेतु आमरण अनशन प्रारम्भ कर दिया और अंततः १३ जून २०११ को उनका प्राणान्त हो गया.देश का एक होनहार इंजीनियर सर्व-साधारण के कल्याण हेतु बलिदान हो गया.इतने लम्बे चले स्वामी निगमानंद के अनशन को मीडिया,सरकार और ब्लॉग जगत ने भी उपेक्षित ही रखा जबकि नौटंकीबाज -ढोंगी -पाखंडी को ये सभी मिल कर आसमान पर उठाये रहे.

हिन्दुस्तान,लखनऊ,१५ जून २०११ के सम्पादकीय के इस अंश पर गौर करें-

"लेकिन यह घटना बताती है की किसी सच्चे उद्देश्य से अगर कोई अनशन बिना ढोल नगाड़े के किया जाए,तो सत्तासीन वर्ग उसके प्रति कितना संवेदनहीन होता है.भाजपा ने स्वामी रामदेव के अनशन को लेकर आसमान सिर पर उठा लिया ,लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज देहरादून जाकर उनके समर्थन में प्रेस-कान्फरेन्स कर आईं ,लेकिन स्वामी निगमानंद के बारे में जानने की शायद न उन्होंने कोशिश की ,न उनकी पार्टी के स्थानीय नेताओं को यह मुद्दा इतना महत्वपूर्ण लगा.कांग्रेस को भी उनकी सुध मृत्यु के बाद ही आई है.यह भी उल्लेखनीय है कि भाजपा अगले वर्ष हो रहे विधानसभा चुनावों में गंगा को एक मुद्दा बनाना चाहती है.उमा भारती के भाजपा में लौट आने से उनके इस मुद्दे के समर्थन में धुआंधार प्रचार करने की संभावना है.उमा भारती उत्तराखंड के श्रीनगर के एक मंदिर को डूब से बचाने के लिए सफल आन्दोलन भी कर चुकी हैं,लेकिन वह भी स्वामी निगमानंद को बचाने के लिए कुछ नहीं कर पाईं.
दरअसल ,गंगा की पवित्रता की कसम खाने वाली तमाम राजनैतिक पार्टियों का रवैया जमीनी स्तर पर एक-सा है.उत्तराखंड में अवैध खनन माफिया को संरक्षण हो या पनबिजली परियोजनाओं का गोलमाल ,इसमें किसी एक पार्टी को दोष नहीं दिया जा सकता.

उत्तराखंड ही नहीं ,सभी राज्य सरकारों और केंद्र सरकार का रवैया ऐसा ही है.गंगा के प्रदूषण के लिए जो तत्व जिम्मेदार हैं,उनके खिलाफ कोई कारवाई करना इसलिए असंभव है,क्योंकि उनसे सत्ताधारियों के राजनैतिक और आर्थिक हित जुड़े हैं."

इसी सम्पादकीय में आगे बताया गया है कि 'गंगा एक्शन प्लान' भ्रष्टाचार और कुप्रबंधन का शिकार हो गई तथा बीस वर्षों बाद और दो हजार करोड़ रूपये खर्च करके यह मालूम हुआ कि योजना की शुरुआत में गंगा जितनी प्रदूषित थी ,अब उससे कहीं ज्यादा प्रदूषित हो गई है.विश्व बैंक की मदद से ७००० करोड़ की एक नयी विशाल योजना का धन भी उसी तरह प्रदूषित पानी में बह जाने की आशंका भी प्रगट की गई है.इसका कारण सरकारों का प्रदूषण करने वाले उद्योगों ,खनन माफियाओं और भ्रष्ट नौकरशाहों के दबाव में काम करना बताया गया है. 

१९ जून २०११ के अपने सम्पादकीय में शशि शेखर ने भी लिखा है-"निगमानंद गंगा को बचाने के लिए ११५ दिन से अनशन पर थे.खुद को गंगा और गाय का भक्त बताने वाले भगवा दल और संघ परिवार को उनकी कोई फ़िक्र नहीं थी.वे मानते हैं ,गंगा के बिना यह देश नहीं .वे जानते हैं,इससे सियासी लाभ नहीं लिया जा सकता.निगमानंद के प्रति सामूहिक सियासी बेरुखी इसी का हताशाजनक परिणाम है."....................."गंगोत्री से लेकर गंगासागर तक मैंने चार दशकों में ऐसे हजारों लोग देखे हैं ,जो हर रोज गंगा का ध्यान करते हैं.उसके प्रति श्रद्धावनत और चिंतित होते हैं,पर करते कुछ भी नहीं.निगमानंद हरिद्वार में रहते-बसते अगर गंगा के लिए उठ खड़े हुए,तो यह काबिल-ए-तारीफ़ है.अफ़सोस!बाबा रामदेव या किसी अन्य राजनीतिक अथवा धार्मिक मठाधीश ने जीते जी उनका साथ नहीं दिया."
******                  ******                                       ******
शशि शेखर जी 'आज',आगरा के उस वक्त स्थानीय सम्पादक थे जब यह अखबार विश्व हिन्दू परिषद् से सब्सीडी प्राप्त कर मात्र एक रु.में बिक कर साम्प्रदायिक विद्वेष फैला रहा था.इस लिए संघ परिवार शब्द का प्रयोग करते हैं.उसी वक्त प्रो.जितेन्द्र रघुवंशी वहां 'इप्टा' के कार्यक्रमों में 'संघ गिरोह' शब्द का प्रयोग करते थे.मेरठ के वकील और कवि मुनेश त्यागी जी भी 'संघ गिरोह' शब्द ही उचित मानते हैं क्योंकि परिवार का काम जोड़ना होता है तोडना और नफरत फैलाना नहीं.जबकि वह साम्राज्यवादियों द्वारा पोषित नफरत फैलाने,शोषण करने और विपक्षियों का विनाश करने वाला संगठित गिरोह है.

'गंगा'की उत्त्पत्ति के बारे में जो किंवदंती प्रचलित है उससे भटके बगैर यदि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समझें तो हम पाते हैं कि उस समय के कुशल एवं प्रख्यात इंजीनियर 'भागीरथ' जी के अथक प्रयासों तथा दूरगामी सूझ-बूझ का नतीजा है यह गंगावतरण.हमारी प्रथ्वी जिन प्लेटों पर आधारित है वे सदा चलायमान हैं और जब आपस में टकराती हैं तो ऊपर उथल-पुथल होती है-भूकंप आते हैं,सुनामी आती है तथा ज्वाला मुखी के विस्फोट होते हैं.अनेकों बार सभ्यताएं नष्ट हुयी है और फिर बनी हैं.यदि हम अपने देश के भूगोल के इतिहास को देखें तो स्पष्ट पता चलेगा कि ,आज जहाँ हिमालय पर्वत खड़ा है वहां पहले अथाह सागर लहराता था.जहाँ आज हिंद महासागर की स्थिति है वहां पर्वत-श्रंखला थी.वैज्ञानिक खोजों एवं नासा से प्राप्त तस्वीरों से पता चलता है कि भारत और श्री लंका के मध्य समुद्र में पहाडी चट्टाने अवस्थित हैं.ये चट्टानें इसी बात का सबूत हैं कि वह पहाड़  बाद में समुद्र में डूब गया था.

इसी प्रकार हिमालय के उस पार 'मान सरोवर' झील इस बात का सबूत है कि पहले वहां समुद्र ही था.आज का हमारा भारत तब इस रूप में नहीं था.विन्ध्याचल के दक्षिण से और श्रीलंका की और के तब के (अब समुद्र में डूबे)पर्वत-माला के उत्तर के मध्य का त्रिभुजाकार क्षेत्र 'जम्बू द्वीप' था.पृथ्वी  की आतंरिक प्लेटों की हलचल से जब उत्तर का समुद्र सिकुड़ा और वहां आज का हिमालय पर्वत खडा हुआ तथा जम्बू द्वीप उत्तर की और खिसकते-खिसकते बीच के उथले क्षेत्र से जब जुड़ गया तो हिमालय के दक्षिण में बना क्षेत्र जिसे आज हम उत्तर भारत कहते हैं भी आबादी के रहने लायक हो गया.

'त्रिव्रष्टि'जिसे आज तिब्बत कहते हैं में अफ्रीका और यूरोप के साथ ही युवा-मानव (युवा पुरुष और युवा स्त्री)की सृष्टि हुई.जहाँ अफ्रीका और यूरोप की सृष्टियाँ बौधिक विकास-क्रम में पिछड़ी रहीं ;वहीं त्रिव्रष्टि में सृजित मानवों ने बौद्धिक विकास के प्रतिमानों को निरन्तर प्राप्त किया.आबादी बढ़ने के साथ-साथ त्रिव्रष्टि के मानव दक्षिण में हिमालय को लांघ कर नव-सृजित भू-प्रदेश में आ कर बसने लगे.इस क्षेत्र में उन्होंने वेदों का ज्ञान अर्जित किया और फैलाया.अपने को 'आर्ष 'अर्थात श्रेष्ठ कहा जो बाद में 'आर्य'के नाम से प्रचलित शब्द बना.

जीवन-निर्वाह हेतु जल और कृषि  की निर्भरता छोटी-छोटी पहाडी नदियों पर थी जो मौसमी थीं.आर्यों को अपनी आबादी के भविष्य के लिए अपार जल-प्रवाह की आवश्यकता थी. अध्यन और सूझ-बूझ से 'भागीरथ'जो स्वंय इंजीनियर भी थे ने अथक प्रयास द्वारा हिमालय को संतुलित एवं सुरक्षित रूप से काट कर तीन सुरंगें बनवाईं और उनमें 'मान सरोवर ' झील का पानी प्रवाहित करा दिया .पश्चिम से होकर आने वाली 'सरस्वती',मध्य से आने वाली 'गंगा' और पूर्व से आने वाली 'ब्रह्मपुत्र'नदियाँ इस प्रकार अस्तित्व में आईं.चूंकि कवियों ने अपने  देश को 'शिव'या 'शंकर' के रूप में कल्पित किया अतः देश के शीर्ष से प्रविष्ट होने के कारण शिव-जटाओं से इन नदियों का उद्गम माना  जाने लगा.

'गंगा' के मार्ग में उस स्थान पर जहाँ आज बदरीनाथ मंदिर बना लिया गया है 'गंधक'के पहाड़ों से गुजरने के कारण एंटी बैक्टेरिया तत्व पानी में मिल जाते हैं जिससे यह पानी कीटाणु-रहित रहता था और औषधीय गुण वाला हो जाता था.आज के मानव के आर्थिक स्वार्थ ने गंगा के इस गुण को समाप्त कर दिया है और गंगा समेत सभी नदियों को प्रदूषित कर दिया है.प्राचीन काल में दिल्ली से कलकत्ता तक जल मार्ग से नावों-स्टीमरों द्वारा व्यापार होता था अतः व्यापारी भी नदियों की साफ़-सफाई पर ध्यान देते थे.लेकिन आज रेल और बस-ट्रक,हवाई मार्ग का प्रयोग बढ़ने से नदियों को उपेक्षित छोड़ दिया गया है और विकास ने विनाश का द्वार खोल दिया है.इंजीनियर स्वामी निगमानंद जी इसी विनाश की संभावना को समाप्त करने हेतु अनशन-रत थे.उन्होंने गंगा के शुद्धीकरण और इसके मूल स्वरूप की बहाली के लिए 'भूख-आन्दोलन'शुरू किया था.व्यवसायिक-बानिज्यिक निहित स्वार्थों के चलते उनकी जायज मांग को अनसुना किया गया .

यदि हम भागीरथ को  इसलिए याद करते और गुण-गान करते हैं किउन्हीं के प्रयासों से उत्तर भारत एक उपजाऊ एवं समृद्ध क्षेत्र बन सका तो हमें स्वामी निगमानंद को इसलिए याद रखना चाहिए की उन्होंने गंगा के स्वरूप की मूल बहाली के लिए अपने प्राणोत्सर्ग कर दिए.यही नहीं उन्हें सच्ची श्रधान्जली देने हेतु गंगा को सच-मुच प्रदूषण मुक्त कराने हेतु व्यापक जनांदोलन छेड़ देना चाहिए .यह कार्य ढोंगियों-पाखंडियों पर नहीं छोड़ा जा सकता,अतः जनता को सावधान रह कर ऐसा करना होगा.
*******************************
फेसबुक कमेंट्स :
22 जुलाई 16 
22 जुलाई 16 

7 comments:

  1. आजकल शोमेनशिप का ज़माना है । प्रेजेंटेशन और मार्केटिंग अच्छी होना ज़रूरी है ।
    स्वामी जी इसीलिए बलिदान हो गए क्योंकि उन्होंने ये हथकंडे नहीं अपनाये ।

    लेकिन लगता है एक सही मुद्दे के लिए इस निष्ठुर संसार में उनका बलिदान भी व्यर्थ गया ।

    ReplyDelete
  2. सचमुच, चिंताजनक है एक आदमी के इतने प्रयासों का व्‍यर्थ चला जाना।

    ---------
    टेक्निकल एडवाइस चाहिए...
    क्‍यों लग रही है यह रहस्‍यम आग...

    ReplyDelete
  3. उनका बलिदान भी व्यर्थ गया|

    ReplyDelete
  4. दुर्भाग्य है इस देश का जो इस तरह होनहार युवाओं को खोना पड़ रहा है.आज के समय में बिना प्रायोजक के कार्य सिद्ध नहीं होते तो फिर एक मौन बलिदान को यहाँ कौन समझेगा?
    बेहद दुखद स्थिति है.

    ReplyDelete
  5. सच में मीडिया हो या नेता सभी को मार्केटिंग करने पर ही चीज़ नज़र आती है...... हमारी बर्फ होती संवेदनाओं को प्रतिबिम्ब है यह घटना .....

    ReplyDelete
  6. दुख होता है यहां की व्यवस्था देखकर....

    ReplyDelete

इस ब्लॉग पर प्रस्तुत आलेख लोगों की सहमति -असहमति पर निर्भर नहीं हैं -यहाँ ढोंग -पाखण्ड का प्रबल विरोध और उनका यथा शीघ्र उन्मूलन करने की अपेक्षा की जाती है.फिर भी तर्कसंगत असहमति एवं स्वस्थ आलोचना का स्वागत है.किन्तु कुतर्कपूर्ण,विवादास्पद तथा ढोंग-पाखण्ड पर आधारित टिप्पणियों को प्रकाशित नहीं किया जाएगा;इसी कारण सखेद माडरेशन लागू है.