05 अगस्त 2011 (श्रावण शुक्ल सप्तमी)-तुलसी जयंती पर-
गोस्वामी तुलसीदास मानव जीवन के पारखी थे,
सच्चे इतिहासकार,कुशल राजनीतिज्ञ और विचारों के सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक विश्लेषक भी थे । जिस समय उनका आविर्भाव हुआ,भारतीय जन-जीवन क्षत-विक्षत हो चुका था । मानवीय विचारधाराओं का संगम साहित्य लुप्तप्राय हो चुका था । भारत मे एक विदेशी सत्ता-मुगल साम्राज्य की स्थापना हो चुकी थी । धन-वैभव मे मुगल शासक भोग-विलास मे लिप्त रहते थे । दूसरी ओर भारतीय दर्शन मृतप्राय हो चुका था । निर्गुणोपासक निराकार सर्वव्याप्त ईश्वर -प्रचार मे निमग्न थे,तो वैष्णव कर्मकाण्ड और आडंबर का राग आलाप रहे थे । ऐसे विषम समय मे तुलसीदास ने 'रामचरितमानस'की रचना करके समाज,धर्म और राष्ट्र मे एक नूतन क्रांति की सृष्टि कर दी ।
रामचरितमानस कोई नरकाव्य नहीं है । यह कोई छोटा-मोटा ग्रन्थ नहीं है । यह मानव जीवन का विज्ञान(ह्यूमन साइन्स )है । विज्ञान किसी भी विषय के क्रमबद्ध एवं नियमबद्ध (श्रंखलाबद्ध) अध्ययन का नाम है । इसमे मानव-जीवन के आचार-विचार,रहन-सहन ,परिवार,राज्य और राष्ट्र के प्रति कर्तव्यों पर विशद,गूढ एवं व्यापक प्रकाश डाला गया है । गोस्वामी जी ने इस ग्रन्थ की रचना 'सर्वजन हिताय' की है । किसी भी लेखक या साहित्यकार पर सामयिक परिस्थितियों का प्रभाव न्यूनाधिक रूप मे अवश्य ही पड़ता है । फिर गोस्वामी जी ने इसे 'स्वांतःसुखाय'लिखने की घोषणा कैसे की?दरअसल बात यह है कि तत्कालीन शासक अपने दरबार मे चाटुकार कवियों को रखते थे और उनकी आर्थिक समस्या का समाधान कर दिया करते थे । इसके विनिमय मे ये राज्याश्रित दरबारी कवि अपने आश्रयदाता की छत्र छाया मे इन शासकों की प्रशंसा मे क्लिष्ट साहित्य की रचना करते थे । अर्थात जब गोस्वामी तुलसीदास के समकालीन कवि 'परानतःसुखाय'साहित्य का सृजन कर रहे थे तुलसीदास ने 'रामचरितमानस'की रचना राज्याश्रय से विरक्त होकर 'सर्वजन सुखाय-सर्वजन हिताय'की । 'सब के भला मे हमारा भला' के वह अनुगामी थे । एतदर्थ रामचरितमानस को 'स्वांतः सुखाय'लिखने की घोषणा करने मे गोस्वामी जी ने कोई अत्युक्ति नहीं की ।
रामचरितमानस तुलसीदास की दिमागी उपज नहीं है और न ही यह एक-दो दिन मे लिखकर तैयार किया गया है । इस ग्रंथ की रचना आरम्भ करने के पूर्व गोस्वामी जी ने देश,जाति और धर्म का भली-भांति अध्ययन कर सर्वसाधारण की मनोवृति को समझने की चेष्टा की और मानसरोवर से रामेश्वरम तक इस देश का पर्यटन किया ।
तुलसीदास ने अपने विचारों का लक्ष्य केंद्र राम मे स्थापित किया । रामचरित के माध्यम से उन्होने भाई-भाई और राजा-प्रजा का आदर्श स्थापित किया । उनके समय मे देश की राजनीतिक स्थिति सोचनीय थी । राजवंशों मे सत्ता-स्थापन के लिए संघर्ष हो रहे थे । पद-लोलुपता के वशीभूत होकर सलीम ने अकबर के विरुद्ध विद्रोह किया तो उसे भी शाहज़ादा खुर्रम के विद्रोह का सामना करना पड़ा और जिसका प्रायश्चित उसने भी कैदी की भांति मृत्यु का आलिंगन करके किया । राजयोत्तराधिकारी 'दारा शिकोह'को शाहज़ादा 'मूहीजुद्दीन 'उर्फ 'आलमगीर'के रंगे हाथों परास्त होना पड़ा । इन घटनाओं से देश और समाज मे मुरदनी छा गई ।
ऐसे समय मे 'रामचरितमानस' मे राम को वनों मे भेजकर और भरत को राज्यविरक्त (कार्यवाहक राज्याध्यक्ष)सन्यासी बना कर तुलसीदास ने देश मे नव-चेतना का संचार किया,उनका उद्देश्य सर्वसाधारण
मे राजनीतिक -चेतना का प्रसार करना था । 'राम'और 'भरत 'के आर्ष चरित्रों से उन्होने जनता को 'बलात्कार की नींव पर स्थापित राज्यसत्ता'से दूर रहने का स्पष्ट संकेत किया । भरत यदि चाहते तो राम-वनवास के अवसर का लाभ उठा कर स्वंय को सम्राट घोषित कर सकते थे राम भी 'मेजॉरिटी हेज अथॉरिटी'एवं 'कक्की-शक्की मुर्दाबाद'के नारों से अयोध्या नगरी को कम्पायमानकर सकते थे । पर उन्होने ऐसा क्यों नहीं किया?उन्हें तो अपने राष्ट्र,अपने समाज और अपने धर्म की मर्यादा का ध्यान था अपने यश का नहीं,इसीलिए तो आज भी हम उनका गुणगान करते हैं । ऐसा अनुपमेय दृष्टांत स्थापित करने मे तुलसीदास की दूरदर्शिता व योग्यता की उपेक्षा नहीं की जा सकती । क्या तुलसीदास ने राम-वनवास की कथा अपनी चमत्कारिता व बहुज्ञता के प्रदर्शन के लिए नहीं लिखी?उत्तर नकारात्मक है । इस घटना के पीछे ऐतिहासिक दृष्टिकोण छिपा हुआ है । (राष्ट्र-शत्रु 'रावण-वध की पूर्व-निर्धारित योजना' को सफलीभूत करना)।
इतिहासकार सत्य का अन्वेषक होता है । उसकी पैनी निगाहें भूतकाल के अंतराल मे प्रविष्ट होकर तथ्य के मोतियों को सामने रखती हैं । वह ईमानदारी के साथ मानव के ह्रास-विकास की कहानी कहता है । संघर्षों का इतिवृत्त वर्णन करता है । फिर तुलसीदास के प्रति ऐसे विचार जो कुत्सित एवं घृणित हैं (जैसे कुछ लोग गोस्वामी तुलसीदास को समाज का पथ-भ्रष्टक सिद्ध करने पर तुले हैं ) लाना संसार को धोखा देना है ।
तुलसीदास केवल राजनीति के ही पंडित न थे ,वह 'कट्टर क्रांतिकारी समाज सुधारक'भी थे । उनके समय मे कर्मकाण्ड और ब्राह्मणवाद प्राबल्य पर था । शूद्रों की दशा सोचनीय थी,उन्हें वेद और उपनिषद पढ़ने का अधिकार न था ,उन्हें हरि-स्मरण करने नहीं दिया जाता था । उनके हरि मंदिर प्रवेश पर बावेला मच जाता था। शैव और वैष्णव परस्पर संघर्ष रत थे। यह संघर्ष केवल निरक्षरों तक ही सीमित न था। शिक्षित और विद्वान कहे जाने वाले पंडित और पुरोहित भी इस संघर्ष का रसास्वादन कर आत्म विभोर हो उठते थे।
तुलसी दास ने इसके विरोध मे आवाज उठाई । उन्होने रामचरित मानस मे पक्षियों मे हेय व निकृष्ट 'काग भूषण्डी'अर्थात कौआ के मुख से पक्षी-श्रेष्ठ गरुड को राम-कथा सुनवाकर जाति-पांति के बखेड़े को अनावश्यक बताया । यद्यपि वह वर्ण-व्यवस्था के विरोधी नहीं थे । वह वेदों के 'कर्मवाद'सिद्धान्त के प्रबल समर्थक थे जिसके अनुसार शरीर से न कोई ब्राह्मण होता है और न शूद्र ,उसके कर्म ही इस सम्बन्ध मे निर्णायक हैं।
राम को शिव का और शिव को राम का अनन्य भक्त बताकर और राम द्वारा शिव की पूजा कराकर एक ओर तो तुलसीदास ने शैवो और वेष्णवोंके पारस्परिक कलह को दूर करने की चेष्टा की है तो दूसरी ओर् राष्ट्र्वादी दृष्टिकोण उपस्थित किया है(शिव यह हमारा भारत देश ही तो है)।
इतने पुनीत और पवित्र राष्ट्र्वादी ऐतिहासिक दृष्टिकोण को साहित्य के क्षेत्र मे सफलता पूर्वक उतारने का श्रेय तुलसीदास को ही है। तुलसीदास द्वारा राम के राष्ट्र्वादी कृत्यों व गुणगान को रामचरित मानस मे पृष्ठांकित करने के कारण ही कविवर सोहन लाल दिवेदी को गाना पड़ा-
कागज के पन्नों को तुलसी,तुलसी दल जैसा बना गया।
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(यह लेख सर्वप्रथम सप्तदिवा साप्ताहिक,आगरा के 28 जूलाई से 03 अगस्त 1982 अंक मे प्रकाशित हुआ था जिसे अब ब्लाग मे शामिल किया है। )
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सच्चे इतिहासकार,कुशल राजनीतिज्ञ और विचारों के सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक विश्लेषक भी थे । जिस समय उनका आविर्भाव हुआ,भारतीय जन-जीवन क्षत-विक्षत हो चुका था । मानवीय विचारधाराओं का संगम साहित्य लुप्तप्राय हो चुका था । भारत मे एक विदेशी सत्ता-मुगल साम्राज्य की स्थापना हो चुकी थी । धन-वैभव मे मुगल शासक भोग-विलास मे लिप्त रहते थे । दूसरी ओर भारतीय दर्शन मृतप्राय हो चुका था । निर्गुणोपासक निराकार सर्वव्याप्त ईश्वर -प्रचार मे निमग्न थे,तो वैष्णव कर्मकाण्ड और आडंबर का राग आलाप रहे थे । ऐसे विषम समय मे तुलसीदास ने 'रामचरितमानस'की रचना करके समाज,धर्म और राष्ट्र मे एक नूतन क्रांति की सृष्टि कर दी ।
रामचरितमानस कोई नरकाव्य नहीं है । यह कोई छोटा-मोटा ग्रन्थ नहीं है । यह मानव जीवन का विज्ञान(ह्यूमन साइन्स )है । विज्ञान किसी भी विषय के क्रमबद्ध एवं नियमबद्ध (श्रंखलाबद्ध) अध्ययन का नाम है । इसमे मानव-जीवन के आचार-विचार,रहन-सहन ,परिवार,राज्य और राष्ट्र के प्रति कर्तव्यों पर विशद,गूढ एवं व्यापक प्रकाश डाला गया है । गोस्वामी जी ने इस ग्रन्थ की रचना 'सर्वजन हिताय' की है । किसी भी लेखक या साहित्यकार पर सामयिक परिस्थितियों का प्रभाव न्यूनाधिक रूप मे अवश्य ही पड़ता है । फिर गोस्वामी जी ने इसे 'स्वांतःसुखाय'लिखने की घोषणा कैसे की?दरअसल बात यह है कि तत्कालीन शासक अपने दरबार मे चाटुकार कवियों को रखते थे और उनकी आर्थिक समस्या का समाधान कर दिया करते थे । इसके विनिमय मे ये राज्याश्रित दरबारी कवि अपने आश्रयदाता की छत्र छाया मे इन शासकों की प्रशंसा मे क्लिष्ट साहित्य की रचना करते थे । अर्थात जब गोस्वामी तुलसीदास के समकालीन कवि 'परानतःसुखाय'साहित्य का सृजन कर रहे थे तुलसीदास ने 'रामचरितमानस'की रचना राज्याश्रय से विरक्त होकर 'सर्वजन सुखाय-सर्वजन हिताय'की । 'सब के भला मे हमारा भला' के वह अनुगामी थे । एतदर्थ रामचरितमानस को 'स्वांतः सुखाय'लिखने की घोषणा करने मे गोस्वामी जी ने कोई अत्युक्ति नहीं की ।
रामचरितमानस तुलसीदास की दिमागी उपज नहीं है और न ही यह एक-दो दिन मे लिखकर तैयार किया गया है । इस ग्रंथ की रचना आरम्भ करने के पूर्व गोस्वामी जी ने देश,जाति और धर्म का भली-भांति अध्ययन कर सर्वसाधारण की मनोवृति को समझने की चेष्टा की और मानसरोवर से रामेश्वरम तक इस देश का पर्यटन किया ।
तुलसीदास ने अपने विचारों का लक्ष्य केंद्र राम मे स्थापित किया । रामचरित के माध्यम से उन्होने भाई-भाई और राजा-प्रजा का आदर्श स्थापित किया । उनके समय मे देश की राजनीतिक स्थिति सोचनीय थी । राजवंशों मे सत्ता-स्थापन के लिए संघर्ष हो रहे थे । पद-लोलुपता के वशीभूत होकर सलीम ने अकबर के विरुद्ध विद्रोह किया तो उसे भी शाहज़ादा खुर्रम के विद्रोह का सामना करना पड़ा और जिसका प्रायश्चित उसने भी कैदी की भांति मृत्यु का आलिंगन करके किया । राजयोत्तराधिकारी 'दारा शिकोह'को शाहज़ादा 'मूहीजुद्दीन 'उर्फ 'आलमगीर'के रंगे हाथों परास्त होना पड़ा । इन घटनाओं से देश और समाज मे मुरदनी छा गई ।
ऐसे समय मे 'रामचरितमानस' मे राम को वनों मे भेजकर और भरत को राज्यविरक्त (कार्यवाहक राज्याध्यक्ष)सन्यासी बना कर तुलसीदास ने देश मे नव-चेतना का संचार किया,उनका उद्देश्य सर्वसाधारण
मे राजनीतिक -चेतना का प्रसार करना था । 'राम'और 'भरत 'के आर्ष चरित्रों से उन्होने जनता को 'बलात्कार की नींव पर स्थापित राज्यसत्ता'से दूर रहने का स्पष्ट संकेत किया । भरत यदि चाहते तो राम-वनवास के अवसर का लाभ उठा कर स्वंय को सम्राट घोषित कर सकते थे राम भी 'मेजॉरिटी हेज अथॉरिटी'एवं 'कक्की-शक्की मुर्दाबाद'के नारों से अयोध्या नगरी को कम्पायमानकर सकते थे । पर उन्होने ऐसा क्यों नहीं किया?उन्हें तो अपने राष्ट्र,अपने समाज और अपने धर्म की मर्यादा का ध्यान था अपने यश का नहीं,इसीलिए तो आज भी हम उनका गुणगान करते हैं । ऐसा अनुपमेय दृष्टांत स्थापित करने मे तुलसीदास की दूरदर्शिता व योग्यता की उपेक्षा नहीं की जा सकती । क्या तुलसीदास ने राम-वनवास की कथा अपनी चमत्कारिता व बहुज्ञता के प्रदर्शन के लिए नहीं लिखी?उत्तर नकारात्मक है । इस घटना के पीछे ऐतिहासिक दृष्टिकोण छिपा हुआ है । (राष्ट्र-शत्रु 'रावण-वध की पूर्व-निर्धारित योजना' को सफलीभूत करना)।
इतिहासकार सत्य का अन्वेषक होता है । उसकी पैनी निगाहें भूतकाल के अंतराल मे प्रविष्ट होकर तथ्य के मोतियों को सामने रखती हैं । वह ईमानदारी के साथ मानव के ह्रास-विकास की कहानी कहता है । संघर्षों का इतिवृत्त वर्णन करता है । फिर तुलसीदास के प्रति ऐसे विचार जो कुत्सित एवं घृणित हैं (जैसे कुछ लोग गोस्वामी तुलसीदास को समाज का पथ-भ्रष्टक सिद्ध करने पर तुले हैं ) लाना संसार को धोखा देना है ।
तुलसीदास केवल राजनीति के ही पंडित न थे ,वह 'कट्टर क्रांतिकारी समाज सुधारक'भी थे । उनके समय मे कर्मकाण्ड और ब्राह्मणवाद प्राबल्य पर था । शूद्रों की दशा सोचनीय थी,उन्हें वेद और उपनिषद पढ़ने का अधिकार न था ,उन्हें हरि-स्मरण करने नहीं दिया जाता था । उनके हरि मंदिर प्रवेश पर बावेला मच जाता था। शैव और वैष्णव परस्पर संघर्ष रत थे। यह संघर्ष केवल निरक्षरों तक ही सीमित न था। शिक्षित और विद्वान कहे जाने वाले पंडित और पुरोहित भी इस संघर्ष का रसास्वादन कर आत्म विभोर हो उठते थे।
तुलसी दास ने इसके विरोध मे आवाज उठाई । उन्होने रामचरित मानस मे पक्षियों मे हेय व निकृष्ट 'काग भूषण्डी'अर्थात कौआ के मुख से पक्षी-श्रेष्ठ गरुड को राम-कथा सुनवाकर जाति-पांति के बखेड़े को अनावश्यक बताया । यद्यपि वह वर्ण-व्यवस्था के विरोधी नहीं थे । वह वेदों के 'कर्मवाद'सिद्धान्त के प्रबल समर्थक थे जिसके अनुसार शरीर से न कोई ब्राह्मण होता है और न शूद्र ,उसके कर्म ही इस सम्बन्ध मे निर्णायक हैं।
राम को शिव का और शिव को राम का अनन्य भक्त बताकर और राम द्वारा शिव की पूजा कराकर एक ओर तो तुलसीदास ने शैवो और वेष्णवोंके पारस्परिक कलह को दूर करने की चेष्टा की है तो दूसरी ओर् राष्ट्र्वादी दृष्टिकोण उपस्थित किया है(शिव यह हमारा भारत देश ही तो है)।
इतने पुनीत और पवित्र राष्ट्र्वादी ऐतिहासिक दृष्टिकोण को साहित्य के क्षेत्र मे सफलता पूर्वक उतारने का श्रेय तुलसीदास को ही है। तुलसीदास द्वारा राम के राष्ट्र्वादी कृत्यों व गुणगान को रामचरित मानस मे पृष्ठांकित करने के कारण ही कविवर सोहन लाल दिवेदी को गाना पड़ा-
कागज के पन्नों को तुलसी,तुलसी दल जैसा बना गया।
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(यह लेख सर्वप्रथम सप्तदिवा साप्ताहिक,आगरा के 28 जूलाई से 03 अगस्त 1982 अंक मे प्रकाशित हुआ था जिसे अब ब्लाग मे शामिल किया है। )
28 जूलाई 1982 को 'सप्तदीवा'आगरा मे प्रकाशित यह लेख 30 वर्ष की आयु की समझ से लिखा था जिसे आज 29 वर्ष बाद पुनः प्रकाशित कर रहे हैं तुलसी दास जी की जयंती-श्रावण शुक्ल सप्तमी के अवसर पर ।
खेद यह है कि कुछ दूसरे ब्लागो पर आपको तुलसी दास जी का दूसरा रूप दिखाया जाएगा जो उनका था नहीं। तमाम लोग भक्ति-अध्यात्म के नाम पर महान 'ऐतिहासिक-राजनीतिक ग्रंथ' को जनता के सामने पाखंडी रूप मे प्रस्तुत करते और तमाम वाहवाही लूटते हैं। अफसोस आज के विज्ञान के युग मे भी लोग-बाग अपनी सोच को परिष्कृत नहीं करना चाहते। खैर मैंने अपना फर्ज अदा किया है। -
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बहुत अच्छा.आज उनके जन्मदिन पर बाबा के बारे में बहुत अच्छा लेख.
ReplyDeleteसुंदर दृष्टिकोण से किया गया विवेचन .....कई बातों की जानकारी नहीं थी .... आभार
ReplyDeleteगोस्वामी तुलसीदास रचित श्रीरामचरितमानस न सिर्फ़ हिन्दी साहित्य में बल्कि विश्व साहित्य में अद्वितीय स्थान रखता है। उत्तम काव्य लक्षणों से युक्त, साहित्य के सभी रूपों से भरपूर, और काव्य कला के दृष्टिकोण से इतनी उच्च कोटि की रचना देखने को कम ही मिलती है। भक्ति, ज्ञान, नीति, सदाचार, आदि तमाम विषयों पर शिक्षा देने वाली इस पुस्तक के समान दूसरा ग्रंथ हिन्दी भाषा तो क्या संसार की किसी अन्य भाषा में नहीं लिखा गया।
ReplyDeleteआज जब देश-समाज में चारों तरफ़ हाहाकार मचा है, दुःख एवं अशान्ति से मन-प्राण संकट में है, चहुं ओर मार-काट मची है, ईर्ष्या, द्वेष, घृणा का साम्राज्य है, असहिष्णुता और वैमन्स्य की भीषण ज्वाला से सारा संसार जल रहा है, संहार और विनाश का वातावरण है, ऐसे में सुख-शांति और भाई चारा, अमन-शांति और प्रेम के प्रसार के लिए श्रीरामचरितमानस का अनुशीलन परम आवश्यक है।
उनके जन्म का दोहा इस तरह याद किया था बचपन में कि आज भी याद है...
ReplyDeleteबहुत बढ़िया आलेख...
Yahan to Tulsidas ji ke bare men kafi achhi jankari di apne..Thanks !!
ReplyDeleteमुझे कई बातों की जानकारी नहीं थी ....
ReplyDeleteआभार
सादर
फेसबुक पर प्राप्त टिप्पणी---
ReplyDeleteSudhakar Adeeb: एक अत्यंत सारगर्भित, वैज्ञानिक एवं स्वागतयोग्य टिप्पणी दी है आपने अपने इस ब्लॉग में । तुलसी और उनके मानस को समझने का यह बहुत सुन्दर और तार्किक उपक्रम है । इसे हर किसी को पढना चाहिए । आज तुलसी जयंती पर आपको हार्दिक बधाई एवं साधुवाद भाई Vijai Mathur जी !
6 hours ago via mobile · Unlike · 1
सुन्दर -सुविचारित लेख के लिए आपको बधाई
ReplyDeleteबहुत सुन्दर जानकारी..आभार..
ReplyDeleteComment from Facebook:
ReplyDeleteVijai Bajpai COMPLEMENT...
AAPNE BILKUL SAHI KAHAA HAI . MUZE YAAD HAI
JAB "RAMAAYAN " T.V. PAR DIKHAAIE JAA RAHI THI
TAB MERE KUCHH MUSLIM MITRON KO BHAAIE
BHAAIE KA YE PREM BAHUT PASAND AAYAA THAA
TAB UNKO MAINE BATAAYAA THAA KI YE TO MERAA
#ITIHAAS HAI. VE AASHCHARYA SE BHAR GAYE
THEI.