Sunday, December 18, 2011

साहित्य समाज का दर्पण होता है

Saroj Mishra 
मुसलमान लेखक तो अमीर खुसरो ,रहीम और रसखान भी थे /जिन्हों ने भारतीय जन मानस को जीने की नई तहजीब दी/ जीने की कला सिखाई/....
बैठी थी पिय मिलन को खांची मन में रेख ,
अब मौनी क्यों हो गई चल नीके करि देख /अमीर खुसरो
सुरतिय नरतिय नागतिय सब चाहत यस होय ,
गोद लिए हुलसी फिरें ,तुलसी सो सूत होय/
रामचरित मानस बिमल सब ग्रंथन को सार.
हिंदुअन को बेद सम तुरकन प्रकट कुरान /रहीम
मानुष हों तो वाही रसखान बसों ब्रज गोकुल धेनु मझारन....



(सरोज मिश्रा जी  का उपरोक्त  दृष्टिकोण फेसबुक पर आया था जो एक सकारात्मक कदम है।)


 आजकल फेसबुक पर उसमे प्रयुक्त अनर्गल बातों,तसवीरों ,जातिवादी साहित्यिक खेमों आदि पर टकराहटपूर्ण चर्चाए चल रही हैं। एक ब्लाग पर इस संबंध मे प्रकाशित एक अच्छे लेख पर टिप्पणी के रूप मे मैंने लिखा था-



जैसे 'चाकू'रसोई मे भोजन सामग्री के काम आता है और आपरेशन थियेटर मे 'डॉ' के काम आता है तब उपयोगी है किन्तु 'डाकू' के हाथ मे जाकर वही गलत हो जाता है ठीक उसी प्रकार संचार माध्यम-'फेसबुक' आदि उनका प्रयोग करने वाले के अनुसार अच्छे या बुरे हो जाते हैं। जिसके जैसे संस्कार होंगे वैसी ही उसकी मानसिकता होगी। अश्लीलता का निषेध तो होना ही चाहिए।



कई ब्लाग्स मे भी लेखन छिछोरा और ढोंग-पाखंड को बल प्रदान करने वाला देखने को मिलता रहता है। फेसबुक अथवा ब्लाग्स के लेखक निश्चय ही सुशिक्षित और सुविधायुक्त हैं उनसे एक अच्छे और आदर्श लेखन की ही उम्मीद की जाती है। किन्तु कुछ समृद्ध और सुविधा-सम्पन्न लोग जिंनका कोई आदर्श या सिद्धान्त नहीं है सिर्फ अपने मनोरंजन या रौब-प्रदर्शन के लिए टिप्पणियाँ या अनर्गल कुछ भी लिखते -फिरते हैं जिनके कारण समाज का काफी कुछ अहित हो जाता है।

पुराने साहित्यकारों को भी लोक-प्रचलित धर्मों -जातियों और संप्रदाय के खांचों मे बांटने का घृणित प्रयास चल रहा है। इन सबके बीच सरोज मिश्रा जी ने अदम्य साहस के साथ उपरोक्त टिप्पणी की जो सरहनीय है। आजादी से पूर्व साहित्य-लेखन का उद्देश्य मानवीय-मूल्यों को ऊंचा उठाना होता था। साहित्य समाज का नेतृत्व करता था। आचार्य महावीर प्रसाद दिवेदी ने कहा था-


"साहित्य मे वह शक्ति छिपी रहती है जो तोप,तलवार और बम के गोलों मे भी नहीं पाई जाती। "

अकबर इलाहाबादी ने भी कहा था-

" न खींचो तीर कमानों को,न तलवार निकालो।
जब तोप मुक़ाबिल हो ,तो अखबार निकालो। । "

उस वक्त साहित्य साम्राज्यवादी शासकों से लड़ने का एक प्रभावशाली शस्त्र था तो अपने देशवासियों को एकता के सूत्र मे बांधने वाला  अमोघ अस्त्र भी। आज प्रिंट और इलेक्ट्रानिक माध्यमों से जो साहित्य प्रकाश मे आ रहा है उसमे ऐसे तत्व क्षीण हैं जबकि विध्वंसक,अलगाव वादी ,शोषणवादी तत्व प्रभावशाली। सरकारी विभाग रेलवे मे कार्यरत एक सर्जन,सरकारी उपक्रम बी एच ई एल से अवकाश प्राप्त एक इंजीनियर जो विज्ञान के विषयों के ज्ञाता हैं अपने-अपने ब्लाग्स के माध्यम से जो साहित्य परोस रहे हैं वह अवैज्ञानिक और  प्रतिगामी,गुमराह करने और मानवता को क्षति पहुंचाने वाला है और ये दो अकेले नहीं हैं इनके जैसे कई इंटरनेटी वीर मौजूद हैं  परंतु दुर्भाग्य से इंटरनेटी विद्वजन उनकी वीरता के कसीदे पढ़ने मे मशगूल हैं बजाए उनके मंसूबों को समझ कर उनसे बचने के।  यह स्थिति साहित्य और समाज के लिए शुभ नहीं है।


सन 2011 मे कुछ विदेशी शक्तियों के उकसावे पर कुछ तथाकथित समाज के स्वंयभू ठेकेदारों ने अशांति -आंदोलन किए जिनके कारण इन्टरनेट जगत मे भी खूब जूतम-पैजार चली। बड़े-बड़े विद्वान ब्लागर्स खूब बहके और इन ठेकेदारों के मकड़जाल मे फंस गए।एक अवकाश -प्राप्त वरिष्ठ पत्रकार जो विकीपीडीया  विशेषज्ञ  भी हैं तो बाकायदा अर्द्ध् सैनिक  तानाशाही हेतु चलाये गए गुमराह जलसों को जन-आंदोलन सिद्ध करने पर आमादा हैं। ये लोग भारत मे राष्ट्रीयता की भावना  को विदेशी शासन की देंन  मानते हैं।  ब्रिटिश दासता से अमेरिका को आजादी दिलाने वाले प्रथम राष्ट्रपति 'जार्ज वाशिंगटन' ने अमेरिकी ध्वज का अपमान करने वालों के संबंध मे कहा था-

Who hail the American Flag shoot him at the spot


हमारे देश मे अमेरिकी पिट्ठू भारत के राष्ट्रीय ध्वज का अपने जुलूसों मे दुरुपयोग करके खुल्लमखुल्ला अपमान कर रहे है देखिये इन चित्रों को-



(ऊपर वाला चित्र महेंद्र श्रीवास्तव जी के 'आधा सच' से साभार  तथा  नीचे वाला चित्र  हिंदुस्तान,लखनऊ,दिनांक 16-12-2011  से)
 मुझे किसी भी ब्लागर द्वारा इन निंदनीय कृत्यों की भर्त्सना  करने की भनक नहीं है। उल्टे एक ब्लागर साहब ने फेसबुक पर मुझे देश से बाहर फेंक देने की धमकी  जरूर दी और वह साहब सरकारी सेवा मे हैं। जाहिर है जब सरकार का मुखिया ही देशद्रोही आंदोलनों की पीठ पर है तो सरकारी अधिकारी तो उछलेंगे ही!लेकिन हम ब्लागर्स जो साहित्य सृजन कर रहे हैं अपने दायित्व का निर्वहन करते हुये समाज का दर्पण गंदा होने से क्यों नहीं रोकते?अन्ना की देशद्रोही मंडली का पुरजोर विरोध क्यों नहीं करते?एक ब्लागर साहब ने मेरे 'विद्रोही स्व-स्वर मे' टिप्पणी देकर मुझसे अपनी अन्ना समर्थक कविता पढ़ने को कहा-


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 हमारा लेखन आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरक और मार्गदर्शक होना चाहिए। हम उम्मीद करते हैं कि इस वर्ष की समाप्ती के साथ ही यह विद्वेषक प्रवृति भी समाप्त हो जाएगी और आने वाले नव-वर्ष मे साहित्य सृजन अपनी मूल आत्मा को पुनः प्राप्त कर लेगा।

3 comments:

  1. सार्थक विचार लिए पोस्ट ...... सहमत हूँ, साथ ही अन्ना भी राजीनीतिक खेल का ही हिस्सा हैं.... मुहे भी हैरानी हुई जब यह जाना की कई देशी और विदेश संसथान इनके अनशन को प्रायोजित कर रहे थे ....

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  2. Very Nice post our team like it thanks for sharing

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  3. वास्तव में यह गैर-सरकारी संगठनों का आंदोलन है जिसे लोकपाल बिल ड्राफ्ट करने का न्योता मनमोहन सरकार ने पता नहीं किस प्राधिकार से दिया था. नई जानकारी के लिए आभार.

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