Tuesday, December 17, 2013

शाने तारीख :एक प्रशासक द्वारा एक ऐतिहासिक प्रशासक की कर्म - गाथा ---विजय राजबली माथुर



 17 दिसंबर 2013 (59 वें जन्मदिवस पर )

(डॉ सुधाकर अदीब साहब सपरिवार  -1993 में फैजाबाद में सिटी मेजिस्ट्रेट रहने के दौरान)

श्रद्धा के हैं   सुमन     भावना का   चन्दन।
हम सब बंधु करते हैं आपका अभिनंदन। ।

'शाने तारीख' डॉ सुधाकर अदीब साहब का नवीनतम उपन्यास है जिसे उन्होने शहनशाह  'शेर शाह सूरी'की गौरव गाथा के रूप में प्रस्तुत किया है। अपने अल्पज्ञान से जितना मैं समझ सका इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि अपने प्रशासनिक अनुभवों एवं जनता के दुख-दर्दों को देख सुन कर लेखक ने अपने मनोभावों को शेर शाह सूरी की इस मर्म स्पर्शी गौरव गाथा के माध्यम से प्रस्तुत किया है। जैसे-प्रस्तावना में(पृष्ठ -12)पर वह कहते हैं:"प्रजा की भलाई और विकास के कार्य ही राज्य की स्थिरता की वास्तविक कुंजी हैं"।
पृष्ठ 52 और 56 पर 'लौट आओ फ़रज़ंद' शीर्षक अध्याय  के अंतर्गत फरीद उर्फ शेरशाह के गुरु मौलाना वहीद के मुख से उसे शिक्षा देते हुये कहलाते हैं-"हो सके तो उन गरीब किसानों के बारे में कुछ करना। लगान वसूलते समय गाँव के सबसे गरीब इंसान का चेहरा जब तुम अपनी निगाहो के सामने रखोगे तभी तुम अपनी जागीर की बेहबूदी के साथ-साथ रिआया के साथ भी सच्चा इंसाफ कर सकोगे। "
इसी अध्याय में आगे पृष्ठ 62 पर ठोस विचार प्रस्तुत किया गया है-"किसान ही आर्थिक विकास की जड़ हैं । जब तक किसान के जीवन-स्तर में  सुधार नहीं होगा,खेती और पैदावार में सुधार न हो पाएगा। "

ऐसा प्रतीत होता है कि लेखक ने अपने लंबे प्रशासनिक  अनुभवों में खेती और किसान की वर्तमान दुर्दशा को ध्यान में रखते हुये शेरशाह सूरी को नायक बना कर उसके समाधान का मार्ग प्रस्तुत किया है। खुद डॉ साहब ने पिछली 23 अक्तूबर को जब उन्होने अपने दो उपन्यासों-'मम  अरण्य' एवं 'शाने तारीख' की प्रतियाँ मुझे भेंट की थीं नितांत  व्यक्तिगत वार्ता में कहा था कि उन्होने अपने कार्य और जीवन में प्रत्येक व्यक्ति से चाहे वह कारीगर हो,मजदूर हो या कलाकार कुछ न कुछ सीखा और हासिल किया है। यह  कथन डॉ अदीब साहब की  विशाल हृदयता का परिचायक है।
 इसका उल्लेख पृष्ठ-44-45 पर इन शब्दों में भी मिलता है-"केवल किताबी ज्ञान ही सब कुछ नहीं है। आम लोगों की जुबान से सदियों से चले आ रहे खलां में गूँजते तराने भी बहुत कुछ सच्चाइयाँ बयान करते हैं। " और इसी व्यावहारिक ज्ञान द्वारा  इस ऐतिहासिक उपन्यास में डॉ अदीब जीवंतता लाने में कामयाब रहे हैं।

एक घर सिर्फ ईंट-गारे,सीमेंट और लोहे से बना हुआ मकान नहीं होता है । इस संबंध में उपन्यासकार ने पृष्ठ-30 पर 'एक घायल मन फरीद'अध्याय में स्पष्ट कहा है-"जिस घर में सिर्फ खाना-कपड़ा-रहना ही अपना हो मगर जहां प्यार -दुलार-मान-सम्मान -अपनापन और खून के रिश्तों की गर्माहट न हो वह घर अपना कहाँ?" इस कथन के माध्यम से वर्तमान काल में परिवारों में आई स्वार्थपरकता एवं दरारों को भी रेखांकित किया गया है साथ ही साथ उसका समाधान भी इसी में अंतर्निहित है। आज की आपाधापी तथा छल-छ्द्यं के युग में जब मानवीय संवेगों का कोई महत्व नहीं रह गया है तो उससे पार पाने  हेतु लेखक ने पृष्ठ-49 पर 'लौट आओ फरजंद' अध्याय में यह हकीकत बयानी की है-"यह दुनिया एक सराय है और ज़िंदा रहने की मुद्दत का दूसरा नाम है आजमाइश। इस आजमाइश के दौरान इंसान को अपनी राह खुद चुननी पड़ती है और कामयाबी की कोई -न -कोई मंजिल भी खुद ही तय करनी पड़ती है।"

पृष्ठ-122 पर 'चंद कदम बाबर के संग' अध्याय में लिखा है "सोने का चम्मच मुंह में लेकर पैदा होने वाले शहजादों को आमजन के दुखों और संघर्षों से मिलने वाले दर्दों का एहसास नहीं होता है । वह ऊपर से भले ही स्वम्य को जनसाधारण का कितना ही हितैषी क्यों न दर्शाएँ भीतर से वह सुविधाभोगी और स्वार्थी ही होते हैं। इसके विपरीत जो व्यक्ति जमाने की ठोकरें खा कर और राहों की धूल फांक कर एक दिन किसी लायक बनता है उसके मन में आम इंसान के दुख दर्द और तकलीफ़ों का एहसास भीतर-ही-भीतर स्वतः बना रहता है। इसी लिए ऐसा व्यक्ति बहुत जल्द ही निश्चिंत नहीं हो जाता और अपने अतीत को कभी नहीं भूलता है। "
यद्यपि ये बातें लेखक ने शेरशाह सूरी के संदर्भ में कहीं  हैं किन्तु इनका इशारा वर्तमान राजनीतिक वातावरण की ओर भी अवश्य ही प्रतीत होता है। आज जो हम कुछ उच्च स्तरीय नेताओं द्वारा जनता के साथ  स्वांग करते देखते हैं शायद उसी को ऐतिहासिक संदर्भ से उभारा गया है।

पृष्ठ-296 पर 'बर्फ और अंगारे' अध्याय में लेखक कहते हैं "शेरशाह सूरी महज एक बादशाह नहीं 'शान-ए-तारीख'था। वह अपने समय का एक ऐसा व्यक्ति था जो किसी राज-वंश में नहीं जन्मा था। एकदम धूल से उठा एक ऐसा व्यक्ति था जो संघर्ष की आंधियों में तप कर मध्यकालीन भारत के राजनैतिक आकाश पर एक तूफान की तरह छा गया। एक ऐसा अभूतपूर्व तूफान जो सिर्फ पाँच बरस चला ,मगर जो अपना असर सदियों तक के लिए इस धरती पर छोड़ गया। "
यह कथन भी वर्तमान राजनीति की इस विडम्बना जिसमें यह माना जाता है कि आज कोई भी ईमानदार व्यक्ति राजनीति में सफल नहीं हो सकता को झकझोरने वाला है तथा कर्मठ एवं ईमानदार लोगों को राजनीति में आगे आने की प्रेरणा देने वाला है।
पृष्ठ-233 पर अध्याय'शाहे हिन्द शेरशाह' में लेखक ने इस तथ्य की ओर ध्यान खींचा है कि शेरशाह के सिंहासनारूढ़ होने के समय  गोचर में बली चंद्रमा की स्थिति में मध्यान्ह 'अभिजीत'मुहूर्त था। यहाँ ज्योतिष के विरोधी आशंका व्यक्त कर सकते हैं कि फिर तब शेरशाह को निरंतर संघर्षों एवं कष्टों का सामना क्यों करना पड़ा और युद्धों में अपने एक पुत्र व एक पौत्री से हाथ क्यों धोना पड़ा और खुद भी युद्ध में घायल होकर ही मृत्यु को क्यों प्राप्त होना पड़ा?इस विषय में मैं उन ज्योतिष विरोधियों से यह कहना चाहूँगा कि सिर्फ गोचर ही नहीं व्यक्ति के जन्मकालीन ग्रहों एवं महादशा-अंतर्दशा का भी जीवन में प्रभाव पड़ता है और जो कुछ शेरशाह सूरी के साथ घटित हुआ उस पर इनका व्यापक प्रभाव पड़ा होगा।
लेकिन पृष्ठ 96 पर 'और बना वह शेर'अध्याय के अंतर्गत लेखक ने गोपी चंद के मुख से जो यह कहलाया है-"काशी की मान्यता यह है कि यहाँ आकर प्राण छोडने से मनुष्य आवागमन के चक्कर से मुक्त हो जाता है। इसी को मोक्ष कहते हैं। "

ऐतिहासिक संदर्भों में हो सकता है लेखक को यह वर्णन मिला हो या उनकी खुद की यह सोच हो किन्तु यह धारणा पोंगा-पंडितवाद द्वारा लूट एवं शोषण के संरक्षण हेतु फैलाई गई है। जन्म-जन्मांतर के संचित सदकर्मों  एवं अवशिष्ट दुष्कर्मों तथा अकर्मों के न रहने की दशा में 'आत्मा' को कुछ समय के लिए नस व नाड़ी के बंधन से मुक्ति मिल जाती है उसी को 'मोक्ष' की अवस्था कहते हैं परंतु यह स्थाई व्यवस्था नहीं है और कुछ अंतराल के बाद उस आत्मा को पुनः शरीर प्राप्त हो जाता है।

इसी अध्याय में पृष्ठ-98 पर लेखक ने शेरशाह से कहलवाया है-"हुकूमतें आखिर मुसाफिरों की आसाइशों की ओर तवज्जो क्यों नहीं देतीं?क्या सारा फर्ज आम आदमी का ही हुकूमत के वास्ते होता है ?हुकूमत का आम आदमी के लिए क्या कोई फर्ज नहीं?"

वहीं पृष्ठ-177 अध्याय :'दौलत और हुस्न'में वर्णन मिलता है-"वह अपनी क्षेत्रीय जनता का विश्वास और समर्थन अर्जित करने का हर संभव प्रयत्न कर रहा था। इसके लिए जन  कल्याणकारी कार्यों और यातायात के साधनों व सूचना तंत्र को विकसित करने पर वह बहुत ध्यान देता था। कोई कर्मचारी सैनिक या सरदार जनसाधारण से धर्म जाति या व्यवसाय के नाम पर कोई जुल्म,ज्यादती न करने पाये । कर वसूली के नाम पर  भी किसी के साथ रगा या अन्याय न हो। चोरी,लूट-पाट,डकैती का निवारण करना स्थानीय हाकिमों का सीधा उत्तरदायित्व था। वह हिन्दू-मुस्लिम जनता में विभेद करने के बिलकुल खिलाफ था। किसानों का वह सबसे बड़ा हितैषी था। अपनी इस प्रकार की सजग,न्यायपूर्ण और धर्म निरपेक्ष नीति के कारण उसने बहुत जल्द जनसाधारण में अपने प्रति सच्ची आस्था अर्जित कर ली थी। यह शेर खाँ की सबसे बड़ी शक्ति थी। "
इन संदर्भों के द्वारा लेखक ने शासित के प्रति शासक के कर्तव्यों का उल्लेख करके एक आदर्श शासन-व्यवस्था के मूलभूत सिद्धांतों को निरूपित किया है। इन नीतियों पर चल कर वर्तमान समस्याओं का समाधान भी सुचारू रूप से किया जा सकता है जिस ओर आजकल शासकों का ध्यान आमतौर पर नहीं है।

शेरशाह सूरी के व्यक्तित्व और शासन व्यवस्था की अच्छाइयों का वर्णन करने के साथ-साथ लेखक ने निष्पक्षतापूर्वक उसकी एक भारी भूल या गलती को भी इंगित किया है जिसका उल्लेख पृष्ठ-284 पर अध्याय'वे धधकते साल'में है-"शेरशाह के गौरवमय जीवन में एक यही ऐसा एकमात्र काला अध्याय है जब वह धर्मांध दरिंदों के प्रतिशोधपूर्ण क्रूर कृत्यों के समक्ष गूंगा,बहरा और तटस्थ बना रहा । ऐसा करके नाहक ही उस महान व्यक्ति ने अपने उज्ज्वल मस्तक पर एक कलंक का टीका लगवा लिया। "

यह वर्णन भी वर्तमान समय की ज्वलंत 'सांप्रदायिक समस्या' का निदान करने मे काफी सहायक सिद्ध हो सकता है। जिस प्रकार गोस्वामी तुलसी दास ने उस समय की राजनीतिक परिस्थितियों के मद्दे नज़र अपने 'रामचरितमानस' द्वारा जनता से विदेशी शासन के विरुद्ध संघर्ष करने और राम सरीखी शासन व्यवस्था लाने का आव्हान किया था;उसी प्रकार 'शाने तारीख' के माध्यम से डॉ सुधाकर अदीब साहब ने शेरशाह सूरी की आदर्श और जनोन्मुखी शासन व्यवस्था को आज के संदर्भ में व्यवहार में अपनाए जाने की राजनेताओं से अपेक्षा व जनता से तदनुरूप कदम उठाने का आह्वान किया है। जनता इससे कितना लाभ उठा सकती है या राजनीतिज्ञों का इससे कितना परिष्कार होता है यह इस बात पर निर्भर करेगा कि इस उपन्यास का जनता में किस प्रकार प्रचार होता है। वैसे यह उपन्यास एक फिल्म की भी पृष्ठ भूमि तैयार करता है।

धन्यवाद दें किन शब्दों में प्रकट करें आभार। 
लेखनी आपकी चलती रहे यूं ही सदाबहार। ।

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