Monday, December 23, 2013
सांप्रदायिक एकता के लिए स्वामी श्रद्धानन्द का बलिदान ---विजय राजबली माथुर
पुलिस विभाग के उच्चाधिकारी लाला नानकचन्द जी के पुत्र मुंशीराम जी का जन्म फाल्गुन की कृष्ण पक्ष त्रियोदशी, संवत 1913 विक्रमी अर्थात सन 1854 ई को हुआ था। बचपन में अत्यधिक लाड़-प्यार-दुलार एवं अङ्ग्रेज़ी शिक्षा-संस्कृति से बिगड़ कर वह निरंकुश हो गए थे एवं मांस,शराब,जुआ,शतरंज,हुक्का व दुराचार आदि व्यसनों में लिप्त हो गए थे। परंतु 1879 ई में बरेली में स्वामी दयानंद सरस्वती के प्रवचन सुन कर 'नास्तिक' से 'आस्तिक' बन गए ।
बरेली के कमिश्नर ने 1880 ई में उनको नायाब तहसीलदार के पद पर नियुक्त कर लिया था। एक दिन वह कमिश्नर से मिलने गए हुये थे और चपरासी ने उनको प्रतीक्षा में बैठा रखा था लेकिन उनके ही सामने बाद में आए अंग्रेज़ सौदागर को तुरंत कमिश्नर से मिलने भेज दिया। मुंशीराम जी ने तत्काल नायब तहसीलदारी से त्याग-पत्र दे दिया। फिर वकालत करने के विचार से पढ़ने 1881 ई में लाहौर पहुंचे और ज़रूरी मुखत्यारी करके मुखत्यारी परीक्षा पास की। जालंधर में उन्होने वकालत शुरू की जो खूब चली। 2 कन्याएँ और 2 पुत्र रत्न उनको प्राप्त हुये। जब छोटा पुत्र मात्र दो साल का ही था तभी उनकी पत्नी का निधन हो गया। दोबारा उन्होने विवाह नहीं किया और समाजसेवा हेतु आर्य प्रतिनिधिसभा के प्रधान बन गए। अंततः मित्रों,हितैषियों के सभी दूरदर्शितापूर्ण परामर्शों को ठुकराते हुये वकालत को तिलांजली देकर आर्यसमाज के प्रचार-प्रसार में लग गए।
प्रारम्भ में उन्होने स्वामी दयानन्द की स्मृति में लाहौर में स्थापित डी.ए.वी.कालेज की संचालन व्यवस्था में सहयोग दिया। मार्च 1902 ई में गंगा किनारे 'काँगड़ी'ग्राम में गुरुकुल प्रारम्भ किया। अपने पुत्रों को भी गुरुकुल में ही शिक्षा दी तथा अपनी जालंधर की कोठी भी गुरुकुल को सौंप दी। उन्होने जाति-बंधन तोड़ कर अपनी पुत्री का विवाह किया। उनके पिताश्री भी उनके प्रयास से ही आर्यसमाजी बने थे।
देश की आज़ादी के आंदोलनों में उनकी सक्रिय भागीदारी थी। अनेक स्थानों पर देश की जनता का नेतृत्व किया। कांग्रेस के अमृतसर अधिवेन्शन में हिन्दी में अपना स्वागत भाषण देकर हिन्दी को राष्ट्र-भाषा बनाए जाने का संदेश दिया था। गुरु का नामक ---सिखों के सत्याग्रह में भी उन्होने नेतृत्व किया था। दिल्ली के चाँदनी चौक में "चलाओ गोली पहले मेरे पर उसके बाद दूसरे लोगों पर चलाना" की सिंह गर्जना करके उन्होने अंग्रेज़ सिपाहियों को भी काँपते कदमों से पीछे हटने पर मजबूर कर दिया था।23 दिसंबर 1926 को 'जामा मस्जिद' से हिन्दू-मुस्लिम एकता का आह्वान करने एवं संस्कृत श्लोकों का पाठ करने वाले वह पहले आर्य सन्यासी थे। किन्तु इससे ब्रिटिश साम्राज्यवाद को आघात पहुंचता और उस आघात से बचने के लिए एक पुलिस अधिकारी ने उनको निशाना बना कर गोली चला दी जिससे उनका प्राणान्त हो गया एवं सांप्रदायिक एकता के लिए यह असहनीय झटका साबित हुआ।
('निष्काम परिवर्तन पत्रिका',दिसंबर 2001 ई वर्ष:12,अंक:12 में प्रकाशित 'यशबाला गुप्ता'जी एवं 'सोमदेव शास्त्री'जी के विचारों पर आधारित संकलन एवं श्रद्धानंद जी के बलिदान पर विभिन्न विभूतियों की श्रद्धांजालियाँ):
महात्मा गांधी-स्वामी श्रद्धानंद जी एक सुधारक थे। कर्मवीर थे,वाक शूर नहीं। उनका जीवित-जागृत विश्वास था। इसके लिए उन्होने अनेक कष्ट उठाए थे। वे संकट आने पर कभी घबराये नहीं थे। वे एक वीर सैनिक थे। वीर सैनिक रोग-शय्या पर नहीं,किन्तु रनांगण में मरना पसंद करता है।-----
आर्यसमाज,बल्केश्वर-कमलानगर,आगरा में विभिन्न अवसरों पर सुने प्रवचनों से स्वामी श्रद्धानंद जी के व्यक्तित्व व कृतित्व की अनेकों बातें अब भी याद हैं जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं---
जब सेवक जगन्नाथ द्वारा दिये काँच एवं विष मिश्रित दूध पीने से दीपावली के दिन स्वामी दयानन्द का प्राणोत्सर्ग हो गया तब आर्य जगत में 'नैराश्य' छा गया था और विभिन्न विद्वान किंकर्तव्य-विमूढ़ हो गए थे तब लग रहा था कि क्या आर्यसमाज भी समाप्त हो जाएगा? उस समय महात्मा मुंशी राम ने आगे बढ़ कर आर्यसमाज का नेतृत्व सम्हाल लिया और कुशलतापूर्वक संगठन को न केवल बल प्रदान किया बल्कि विस्तार भी दिया। शिक्षा के क्षेत्र में उनका योगदान अतुलनीय है। उन्होने 'कन्या-शिक्षा' का भी प्रबंध किया। 'आर्य कन्या पाठशालाएं' स्थापित करके उन्होने स्त्री-स्वातंत्र्य का झण्डा बुलंद किया। आर्यसमाज द्वारा देश भर में संचालित शिक्षा-संस्थाओं का आंकड़ा कुल सरकारी शिक्षा-संस्थाओं के बाद दूसरे नंबर पर आता है।
महाभारत काल के बाद जब वैदिक संस्कृति का पतन प्रारम्भ हुआ तो ब्राह्मणों ने 'पुराणों' की रचना करके 'कुमंत्रों' का प्रसार एवं वर्णाश्रम -व्यवस्था के स्थान पर जाति-प्रथा की जकड़न करके स्त्रियों व समाज में निम्न वर्ग के लोगों को गुलाम बना डाला था। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर भी ब्रहमनवाद और पाखंड पर प्रहार किया था। 'कायस्थ' कुल में जन्में मुंशीराम जी अर्थात स्वामी श्रद्धानंद जी ने उसी परंपरा को आगे बढ़ाया और जाति-पांति का खंडन किया। जहां आर्यसमाज के विलुप्त होने का भय आन खड़ा हुआ था वहीं श्रद्धानंद जी ने उसे न केवल बचाए-बनाए रखा वरन और मजबूत बनाया तथा फैलाव किया। परंतु खेद की बात है कि स्वामी श्रद्धानंद जी के बाद आर्यसमाज पर RSS हावी होता चला गया और श्रीराम शर्मा के नेतृत्व में पोंगा-पंथी ब्रहमनवाद ने एक अलग संगठन बना कर आर्यसमाज को अपार क्षति पहुंचाई। स्वामी दयानन्द ने 'आर्यसमाज' की स्थापना 07 अप्रैल,1875 ई में ब्रिटिश साम्राज्य से भारत को आज़ादी दिलाने के हेतु की थी किन्तु RSS को ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने यहीं के नेताओं को खरीद कर ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा हेतु करवाई थी।
स्वामी श्रद्धानंद जी को सच्ची श्रद्धांजली तभी होगी जब आर एस एस के शिकंजे से निकाल कर स्वामी दयानन्द व उनके आदर्शों पर पुनः आर्यसमाज को संगठित किया जा सकेगा।
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2 comments:
इस ब्लॉग पर प्रस्तुत आलेख लोगों की सहमति -असहमति पर निर्भर नहीं हैं -यहाँ ढोंग -पाखण्ड का प्रबल विरोध और उनका यथा शीघ्र उन्मूलन करने की अपेक्षा की जाती है.फिर भी तर्कसंगत असहमति एवं स्वस्थ आलोचना का स्वागत है.किन्तु कुतर्कपूर्ण,विवादास्पद तथा ढोंग-पाखण्ड पर आधारित टिप्पणियों को प्रकाशित नहीं किया जाएगा;इसी कारण सखेद माडरेशन लागू है.
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार २४/१२/१३ को राजेश कुमारी द्वारा चर्चा मंच पर की जायेगी,आपका वहाँ हार्दिक स्वागत है।
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर और ज्ञान वर्द्धक आलेख .. क्या कहने इतनी सामग्री स्वामी श्रद्धानन्द जी प्रस्तुत करने के लिए सादर आभार .. कभी मेरी कविताओं के ब्लॉग पर पधारें .. www.kavineeraj.blogspot.com
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