दिल्ली के एक विश्वविद्यालय की अध्यापिका का जब कोई लेख 'द गार्जियन ' में छ्प जाता है तब 'हिंदुस्तान ' में उसे 'द गार्जियन ' से साभार स्थान दिया जाता है। क्यों नहीं मौलिक रूप से यह लेख हिंदुस्तान को ही मिला ? हमारे देश की यही विडम्बना है कि अपने लेखकों, कलाकारों आदि को वैसे तो कोई महत्व नहीं देते हैं लेकिन विदेशियों से उनको सराहना मिलने के बाद मजबूरी में उनके महत्व को स्वीकारते हैं। बहरहाल फिर भी इस लेख की बातों पर गंभीरता से गौर किए जाने की आवश्यकता है तब और भी जबकि 2014 का केंद्रीय चुनाव 'विकास ' के नाम पर लड़ा और जीता गया था तथा अब भी बिहार विधानसभा चुनावों में फिर से 'विकास ' को ही मुद्दा बनाया जा रहा है। जन-साधारण का ख्याल किए बगैर जो विकास योजनाएँ बनती हैं वे वस्तुतः विकास की नहीं 'विनाश ' की ध्वजावाहक होती हैं। यही चीन में हुआ है और उन जगहों पर होगा जहां-जहां ऐसा किया गया है।
गांधी जी ने एक जगह लिखा है कि यदि कोई अर्थशास्त्री किसी व्यक्ति के शरीर से उसका मांस काट कर फिर उसमें पिन चुभाये और कहे कि इससे उस व्यक्ति को कोई पीड़ा नहीं होगी तो ऐसी आर्थिक नीतियाँ उस व्यक्ति का कुछ भी भला नहीं कर सकती हैं। 1980 जब इन्दिरा गांधी आर एस एस के समर्थन से सत्ता में वापिस आईं तब से और विशेष रूप से 1991 में मनमोहन सिंह के वित्तमंत्री बनने के बाद से तो साधारण आदमी को कुचलने वाली नीतियाँ ही चल रही हैं। 'विकास ' के नारों के साथ इस उत्पीड़न में और वृद्धि होती जा रही है।आज चीन की दुर्दशा के लिए ऐसे विकास को ही प्रस्तुत लेख में जिम्मेदार माना गया है।
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संलग्न फोटो स्कैन यह दर्शाता है कि चीन में नैतिकता का भी ध्यान नहीं रखा गया है। वहाँ समृद्ध देशों के लिए अच्छे माल का उत्पादन और निर्यात किया जाता है बेहद सुविधापूर्ण परिस्थितियों के साथ। जबकि भारत जैसे देशों के लिए निकृष्ट माल बना कर और उसके जरिये इन देशों की अर्थ-व्यवस्था को कमजोर करने का प्रयास किया जाता है।
मानव हित को ध्यान में न रख कर अनैतिक रूप से 'विकास ' करने के कारण ही आज चीन की अर्थ व्यवस्था को झटका लगा है। लेकिन उन नीतियों को ही भारत में अंगीकार किया गया है और वैसी ही 'विकास धुन' चल रही है। स्वभाविक रूप से भारतीय जन साधारण के लिए 'विनाश ' की घंटी हैं ये तथाकथित विकास योजनाएँ। जन साधारण को राहत देना है तो 'कुटीर उद्योग ' पर आधारित आर्थिक नीतियों को प्रोत्साहन देना होगा। निजी क्षेत्र को समाप्त कर सार्वजनिक क्षेत्र को मजबूत करना होगा अन्यथा समझा जाये कि लक्ष्य विकास के नाम पर विनाश फिर सर्वनाश को आमंत्रित करना है।
~विजय राजबली माथुर ©
इस पोस्ट को यहाँ भी पढ़ा जा सकता है।
Wednesday, August 26, 2015
Friday, August 21, 2015
भारत पाक संघर्ष : १९६५ की लड़ाई ------ विजय राजबली माथुर
भारत पाक संघर्ष : पचास वर्ष पूर्ण होने पर पुनः स्मरण ---
( अपनी आंतरिक राजनीतिक परिस्थितियों के कारण पाक राष्ट्रपति फील्ड मार्शल अय्यूब खान ने अमेरिकी राष्ट्रपति लिंडन जानसन के इशारों पर भारतीय सीमाओं पर संघर्ष अगस्त 1965 से ही शुरू कर दिया था किन्तु भारतीय वायु सेना ने प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के निर्देश पर एक सितंबर से पाकिस्तान पर आक्रमण शुरू किया जो 23 सितंबर 1965 को युद्ध विराम होने तक चला था। इस संबंध में अपने ब्लाग 'विद्रोही स्व- स्वर में ' पूर्व में जो पोस्ट्स लिखे थे उनके कुछ युद्ध संबंधी अंशों को संयोजित कर पुनः प्रकाशित किया जा रहा है )
दिसंबर में सरकारी प्रदर्शनी पर भी भारत -पाक युद्ध की छाप स्पष्ट थी.कानपुर के गुलाब बाई के ग्रुप के एक गाने के बोल थे--
चाहे बरसें जितने गोले,चाहे गोलियां
शास्त्री जी व जनरल चौधरी जनता में बेहद लोकप्रिय हो गए थे.पहली बार कोई युद्ध जीता गया था.युद्ध की समाप्ति पर कलकत्ता की जनसभा में शास्त्री जी ने जो कहा था उसमे से कुछ अब भी याद है.पडौसी भास्करानंद मित्रा साः ने अपना रेडियो बाहर रख लिया था ताकि सभी शास्त्री जी को सुन सकें.शास्त्री जी ने जय जवान जय किसान का नारा दिया था.उन्होंने सप्ताह में एक दिन (उनका सुझाव सोमवार का था) एक समय अन्न त्यागने की जनता से अपील की थी.उन्होंने PL -४८० की अमरीकी सहायता को ठुकरा दिया था क्योंकि प्रेसीडेंट जानसन ने बेशर्मी से अय्यूब का नापाक साथ दिया था.चीनी आक्रमण के समय केनेडी से जो सहानुभूति थी वह पाक आक्रमण के समय जानसन के प्रति घृणा में बदल चुकी थी,हमारे घर शनिवार की शाम को रोटी चावल नहीं खाते थे.हल्का खाना खा कर शास्त्री जी के व्रत आदेश को माना जाने लगा था.शास्त्री जी ने अपने भाषण में यह भी बताया था की १९६२ युद्ध के बाद चीन से मुकाबले के लिए जो हथियार बने थे वे सब सुरक्षित हैं और चीन को भी मुहं तोड़ जवाब दे सकते हैं.जनता और सत्ता दोनों का मनोबल ऊंचा था.
सीमा मांग रही कुर्बानी
विकट समय में वीरों ने यहाँ अपना रक्त बहाया था
अपनी आन पे मिटने को यह देश देश हमारा है
विक्रम साराभाई आदि परमाणु वैज्ञानिकों,होशियार सिंह,जोगिन्दर सिंह,दौलत सिंह आदि वीर सैन्य अधिकारियों को भी पूर्वजों के साथ स्मरण किया गया है.आज तो बहुत से लोगों को आज के बलिदानियों के नामों का पता भी नहीं होगा.
रूस नेहरु जी के समय से भारत का हितैषी रहा है लेकिन उसके प्रधान मंत्री M.Alexi kosigan भी नहीं चाहते थे कि शास्त्री जी लाहोर को जीत लें उनका भी जानसन के साथ ही दबाव था कि युद्ध विराम किया जाए.अंतर्राष्ट्रीय दबाव पर शास्त्री जी ने युद्ध विराम की बात मान ली और कोशिगन के बुलावे पर ताशकंद अय्यूब खान से समझौता करने गए.रेलवे के एक उच्च अधिकारी ने जो ज्योतिष के अच्छे जानकार थे और बाद में जिन्होंने कमला नगर आगरा में विवेकानंद स्कूल की स्थापना की शास्त्री जी को ताशकंद न जाने के लिए आगाह किया था.संत श्याम जी पराशर ने भी शास्त्री जी को न जाने को कहा था.परन्तु शास्त्री जी ने जो वचन दे दिया था उसे पूरा किया,समझौते में जीते गए इलाके पाकिस्तान को लौटाने का उन्हें काफी धक्का लगा या जैसी अफवाह थी कुछ षड्यंत्र हुआ 10 जनवरी 1966 को ताशकंद में उनका निधन हो गया.11 जनवरी को उनके पार्थिव शरीर को लाया गया,अय्यूब खान दिल्ली हवाई अड्डे तक पहुंचाने आये थे.एक बार फिर गुलजारी लाल नंदा ही कार्यवाहक प्रधानमंत्री थे.वह बेहद सख्त और ईमानदार थे इसलिए उन्हें पूर्ण प्रधानमंत्री बनाने लायक नहीं समझा गया.
नेहरु जी और शास्त्री जी के निधन के बाद 15 -15 दिन के लिए प्रधानमंत्री बनने वाले नंदा जी जहाँ सख्त थे वहीँ इतने सरल भी थे कि मृत्यु से कुछ समय पूर्व दिल्ली के जिस फ़्लैट में वह रहते थे वहां कोई पहचानने वाला भी न था.एक बार फ़्लैट में धुआं भर गया और नंदा जी सीढ़ीयों पर बेहोश होकर गिर गए क्योंकि वह लिफ्ट से नहीं चलते थे.बड़ी मुश्किल से किसी ने पहचाना कि पूर्व प्रधानमंत्री लावारिस बेहोश पड़ा है तब उन्हें अस्पताल पहुंचाया और गुजरात में उनके पुत्र को सूचना दी जो अपने पिता को ले गए.सरकार की अपने पूर्व मुखिया के प्रति यह संवेदना उनकी ईमानदारी के कारण थी.
कामराज नाडार ने इंदिरा गांधी को चाहा और समय की नजाकत को देखते हुए वह प्रधानमंत्री बन गयीं.किन्तु गूंगी गुडिया मान कर उन्हें प्रधानमंत्री बनवाने वाले कामराज आदि सिंडिकेट के सामने झुकीं नहीं.1967 के आम चुनाव आ गए,तब सारे देश में एक साथ चुनाव होते थे.उडीसा में किसी युवक के फेके पत्थर से इंदिरा जी की नाक चुटैल हो गयी.सिलीगुड़ी वह नाक पर बैंडेज कराये ही आयीं थीं.मैं और अजय नज़दीक से सुनने के लिए निकटतम दूरी वाली रो में खड़े हो गए.मंच14 फुट ऊंचा था.सभा की अध्यक्षता पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री प्रफुल्ल चन्द्र सेन ने की थी.
इंदिरा जी के पूरे भाषण में से एक बात अभी भी याद है कि" जापानी लोग जरा सी भी चीज़ बर्बाद नहीं करते" हमें बखूबी सीखना चाहिए.आज जब कालोनी में एक रो से दूसरी रो तक स्कूटर,मोटरसाइकिल से लोगों को जाते देख कर या सड़क पर धुलती कारों में पानी की बर्बादी देख कर तो नहीं लगता की इंदिरा जी के भक्त भी उनकी बातों का पालन करते हैं जबकि शास्त्री जी की अपील का देशव्यापी प्रभाव पड़ा था.
जाकिर हुसैन साःराष्ट्रपति और वी.वी.गिरी साः उप-राष्ट्रपति निर्वाचित हुए.''सैनिक समाचार''में कैकुबाद नामक कवि ने लिखा--
ख़त्म हो गए चुनाव सारे
http://vidrohiswar.blogspot.in/2010/09/blog-post_24.html
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~विजय राजबली माथुर ©
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( अपनी आंतरिक राजनीतिक परिस्थितियों के कारण पाक राष्ट्रपति फील्ड मार्शल अय्यूब खान ने अमेरिकी राष्ट्रपति लिंडन जानसन के इशारों पर भारतीय सीमाओं पर संघर्ष अगस्त 1965 से ही शुरू कर दिया था किन्तु भारतीय वायु सेना ने प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के निर्देश पर एक सितंबर से पाकिस्तान पर आक्रमण शुरू किया जो 23 सितंबर 1965 को युद्ध विराम होने तक चला था। इस संबंध में अपने ब्लाग 'विद्रोही स्व- स्वर में ' पूर्व में जो पोस्ट्स लिखे थे उनके कुछ युद्ध संबंधी अंशों को संयोजित कर पुनः प्रकाशित किया जा रहा है )
भारत पाक संघर्ष--जी
हाँ १९६५ की लड़ाई को यही नाम दिया गया था.टैंक के एक गोले की कीमत उस समय
८० हज़ार सुनी थी.पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना साः की बहन फातिमा जिन्ना
को जनरल अय्यूब खान ने चुनाव में हेरा फेरी करके हरा भी दिया और उनकी हत्या
भी करा दी परन्तु जनता का आक्रोश न झेल पाने पर भारत पर हमला कर के अय्यूब
साः हमारे नए प्रधान मंत्री शास्त्री जी को कमजोर आंकते थे.यह पहला मौका
था जब शास्त्री जी की हुक्म अदायगी में भारतीय फ़ौज ने पाकिस्तान में घुस कर
हमला किया था.हमारी लड़ाई रक्षात्मक नहीं आक्रामक थी.पाकिस्तानी फौजें
अस्पतालों और मस्जिदों पर भी गोले बरसा रही थीं जो अंतर्राष्ट्रीय कानूनों
का उल्लंघन था.लाहौर की और भारतीय फौजों के क़दमों को रोकने के लिए
पाकिस्तानी विदेशमंत्री ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो सिक्योरिटी काउन्सिल में
हल्ला मचाने लगे.हवाई हमलों के सायरन पर कक्षाओं से बाहर निकल कर मैदान में
सीना धरती से उठा कर उलटे लेटने की हिदायत थी.एक दिन एक period खाली था,तब
तक की जानकारी को लेखनीबद्ध कर के (कक्षा ९ में बैठे बैठे ही) रख लिया था
जिसे एक साथी छात्र ने बाद में शिक्षक महोदय को भी दिखाया था.यहाँ प्रस्तुत
कर रहा हूँ:--
''लाल बहादूर शास्त्री'' -
खाने को था नहीं पैसा
केवल धोती,कुरता और कंघा ,सीसा
खदरी पोशाक और दो पैसा की चश्मा ले ली
ग्राम में तार आया,कार्य संभालो चलो देहली
जब खिलवाड़ भारत के साथ,पाकिस्तान ने किया
तो सिंह का बहादुर लाल भी चुप न रह कदम उठाया-
खदेड़ काश्मीर से शत्रु को फीरोजपुर से धकेल दिया
अड्डा हवाई सर्गोदा का तोड़,लाहोर भी ले लिया
अब स्यालकोट क्या?करांची,पिंडी को कदम बढ़ाया-
खिचड़ - पिचड़ अय्यूब ने महज़ बहाना दिखाया
''युद्ध बंद करो'' बस जल्दी करो यू -थांट चिल्लाया
चुप न रह भुट्टो भी सिक्योरिटी कौंसिल में गाली बक आया
उस में भी दया का भाव भरा हुआ था
आखिर भारत का ही तो वासी था
पाकिस्तानी के दांत खट्टे कर दिए थे
चीनी अजगर के भी कान खड़े कर दिए थे
ऐसा ही दयाशील भारतीय था जी
नाम भी तो सुनो लाल बहादुर शास्त्री जी
आज जब भी सोचता हूँ तो यह
किसी भी प्रकार से कविता नज़र नहीं आती है पर तब युद्ध के माहोल में किसी भी
शिक्षक ने इस में कोई गलती नहीं बताई.
जब जनरल चौधरी बाल बाल बचे-बरसात
का मौसम तो था ही आसमान में काला,नीला,पीला धुंआ छाया हुआ था.गर्जन-तर्जन
हो रहा था.हमारे मकान मालिक संतोष घोष साः (जिनकी हमारे स्कूल के पास
चौरंगी स्वीट हाउस नामक दुकान थी)की पत्नी माँ को समझाने लगीं कि शिव खुश
हो कर गरज रहे हैं.आश्रम पाड़ा में ही यह दूसरा मकान था.उस वक़्त बाबू जी
बाग़डोगरा एअरपोर्ट पर A G E कार्यालय में तैनात थे.उन्होंने काफी रात में
लौटने पर सारा वृत्तांत बताया कि कैसे ५ घंटे ग्राउंड में सीना उठाये उलटे
लेटे लेटे गुज़ारा और हुआ क्या था?
दोपहर में जब हल्ला मचा था
तब मैं और अजय राशन की दुकान पर थे,शोभा बाबू जी के एक S D O साः के घर
थी,घर पर माँ अकेली थीं.जब हम लोग राशन ले कर लौटे तब शोभा को बुला कर
लाये.पानी बरस नहीं रहा था,आसमान काला था,लगातार धमाके हो रहे थे.बाबू जी
एयर फ़ोर्स के अड्डे पर थे इसलिए माँ को दहशत थी,मकान मालकिन उन्हें ढांढस
बंधा रही थीं.माँ तक उन लोगों ने पाकिस्तानी हमले की सूचना नहीं पहुँचने दी
थी.
बाबू जी ने बताया कि चीफ
ऑफ आर्मी स्टाफ जनरल जतिंद्र नाथ चौधरी बौर्डर का मुआयना करने दिल्ली से
चले थे जिसकी सूचना जनरल अय्यूब तक लीक हो गयी थी.अय्यूब के निर्देश पर
पूर्वी पाकिस्तान से I A F लिखे कई ज़हाज़ उन्हें निशाना बनाने के लिए
उड़े.इधर बागडोगरा से बम वर्षक पूर्वी पाकिस्तान जाने के लिए तैयार खड़े थे.
जनरल चौधरी के आने के समय यह घटना हुई.उधर जनरल चौधरी को हांसीमारा
एअरपोर्ट पहुंचा दिया गया क्योंकि हमारी फौजों को पता चल गया था कि पाक को
खबर लीक हो गयी है.बागडोगरा एअरपोर्ट का इंचार्ज I A F लिखे पाकिस्तानी
ज़हाज़ों पर फायर का ऑर्डर नहीं कर रहा था और वे हमारे बम लदे ज़हाज़ों पर
गोले दाग रहे थे लिहाज़ा सारे बम जो पाकिस्तान पर गिरने थे बागडोगरा
एअरपोर्ट पर ही फट गये और आसमान में काला तथा रंग बिरंगा धुआं उन्हीं का
था.डिप्टी इंचार्ज एक सरदार जी ने अवहेलना करके I A F लिखे पाक ज़हाज़ों पर
फायर एंटी एयरक्राफ्ट गनों से करने का ऑर्डर दिया तब दो पाक ज़हाज़ बमों
समेत नष्ट हो गये दो भागने में सफल रहे.जनरल चौधरी को सीधे दिल्ली लौटा
दिया गया और उनकी ज़िन्दगी जो तब पूरे देश के लिए बहुत मूल्यवान हो रही थी
बचा ली गयी.
मेले और प्रदर्शनी-युद्ध
के बाद दुर्गा पूजा के पंडालों में अब्दुल हमीद आदि शहीदों की मूर्तियाँ
भी सजाई गयीं टूटे पाकिस्तानी पैटन टैंकों की भी भी झलकियाँ दिखाई
गयीं.काली पूजा के समय भी युद्ध की याद ताज़ा की गयी.
दिसंबर में सरकारी प्रदर्शनी पर भी भारत -पाक युद्ध की छाप स्पष्ट थी.कानपुर के गुलाब बाई के ग्रुप के एक गाने के बोल थे--
चाहे बरसें जितने गोले,चाहे गोलियां
अब न रुकेंगी,दीवानों की टोलियाँ
शास्त्री जी व जनरल चौधरी जनता में बेहद लोकप्रिय हो गए थे.पहली बार कोई युद्ध जीता गया था.युद्ध की समाप्ति पर कलकत्ता की जनसभा में शास्त्री जी ने जो कहा था उसमे से कुछ अब भी याद है.पडौसी भास्करानंद मित्रा साः ने अपना रेडियो बाहर रख लिया था ताकि सभी शास्त्री जी को सुन सकें.शास्त्री जी ने जय जवान जय किसान का नारा दिया था.उन्होंने सप्ताह में एक दिन (उनका सुझाव सोमवार का था) एक समय अन्न त्यागने की जनता से अपील की थी.उन्होंने PL -४८० की अमरीकी सहायता को ठुकरा दिया था क्योंकि प्रेसीडेंट जानसन ने बेशर्मी से अय्यूब का नापाक साथ दिया था.चीनी आक्रमण के समय केनेडी से जो सहानुभूति थी वह पाक आक्रमण के समय जानसन के प्रति घृणा में बदल चुकी थी,हमारे घर शनिवार की शाम को रोटी चावल नहीं खाते थे.हल्का खाना खा कर शास्त्री जी के व्रत आदेश को माना जाने लगा था.शास्त्री जी ने अपने भाषण में यह भी बताया था की १९६२ युद्ध के बाद चीन से मुकाबले के लिए जो हथियार बने थे वे सब सुरक्षित हैं और चीन को भी मुहं तोड़ जवाब दे सकते हैं.जनता और सत्ता दोनों का मनोबल ऊंचा था.
मेरी कक्षा
में बिप्रादास धर नामक एक साथी के पिता कलकत्ता में फ़ौज के J C O थे.एक
बेंच पर हमारे पास ही वह भी बैठता था.उसके साथ सम्बन्ध मधुर थे.जिन किताबों
की किल्लत सिलीगुड़ी में थी वह अपने पिता जी से कलकत्ता से मंगवा लेता था.हिन्दी निबंध की पुस्तक उससे लेकर तीन-चार दिनों में मैंने दो कापियों पर पूरी उतार ली,देर रात तक लालटेन की रोशनी में भी लिख कर.उसके
घर सेना का ''सैनिक समाचार'' साप्ताहिक पत्र आता था.वह मुझे भी पढने को
देता था.उसमे से कुछ कविताएँ मुझे बेहद पसंद आयीं मैंने अपने पास लिख कर रख
ली थीं।
सीमा मांग रही कुर्बानी
सीमा मांग रही कुर्बानी
भू माता की रक्षा करने बढो वीर सेनानी
महाराणा छत्रपति शिवाजी बूटी अभय की पिला गये
भगत सिंह और वीर बोस राग अनोखा पिला गए
शत्रु सामने शीश झुकाना हमें बड़ों की सीख नहीं,
जिन्दे लाल चुने दीवार में मांगी सुत की भी भीख नहीं,
गुरुगोविंद से सुत कब दोगी बोलो धरा भवानी
सीमा मांग रही कुर्बानी.
विकट समय में वीरों ने यहाँ अपना रक्त बहाया था
जब देश की खातिर अबलाओं ने भी अस्त्र उठाया था.
कण-कण में मिला हुआ है यहाँ एक मास के लालों का
अभी भी द्योतक जलियाना है देश से मिटने वालों का
वीरगति को प्राप्त हुई लक्ष्मी झांसी वाली रानी,
सीमा मांग रही कुर्बानी.
अपनी आन पे मिटने को यह देश देश हमारा है
मर जायेंगे पर हटें नहीं यह तेरे बड़ों का नारा है
होशियार जोगिन्दर कुछ काम हमारे लिए छोड़ गए
दौलत,विक्रम मुहं शत्रु का मुख मोड़ गए.
जगन विश्व देखेगा कल जो तुम लिख रहे कहानी
सीमा मांग रही कुर्बानी.
विक्रम साराभाई आदि परमाणु वैज्ञानिकों,होशियार सिंह,जोगिन्दर सिंह,दौलत सिंह आदि वीर सैन्य अधिकारियों को भी पूर्वजों के साथ स्मरण किया गया है.आज तो बहुत से लोगों को आज के बलिदानियों के नामों का पता भी नहीं होगा.
रूस नेहरु जी के समय से भारत का हितैषी रहा है लेकिन उसके प्रधान मंत्री M.Alexi kosigan भी नहीं चाहते थे कि शास्त्री जी लाहोर को जीत लें उनका भी जानसन के साथ ही दबाव था कि युद्ध विराम किया जाए.अंतर्राष्ट्रीय दबाव पर शास्त्री जी ने युद्ध विराम की बात मान ली और कोशिगन के बुलावे पर ताशकंद अय्यूब खान से समझौता करने गए.रेलवे के एक उच्च अधिकारी ने जो ज्योतिष के अच्छे जानकार थे और बाद में जिन्होंने कमला नगर आगरा में विवेकानंद स्कूल की स्थापना की शास्त्री जी को ताशकंद न जाने के लिए आगाह किया था.संत श्याम जी पराशर ने भी शास्त्री जी को न जाने को कहा था.परन्तु शास्त्री जी ने जो वचन दे दिया था उसे पूरा किया,समझौते में जीते गए इलाके पाकिस्तान को लौटाने का उन्हें काफी धक्का लगा या जैसी अफवाह थी कुछ षड्यंत्र हुआ 10 जनवरी 1966 को ताशकंद में उनका निधन हो गया.11 जनवरी को उनके पार्थिव शरीर को लाया गया,अय्यूब खान दिल्ली हवाई अड्डे तक पहुंचाने आये थे.एक बार फिर गुलजारी लाल नंदा ही कार्यवाहक प्रधानमंत्री थे.वह बेहद सख्त और ईमानदार थे इसलिए उन्हें पूर्ण प्रधानमंत्री बनाने लायक नहीं समझा गया.
नेहरु जी और शास्त्री जी के निधन के बाद 15 -15 दिन के लिए प्रधानमंत्री बनने वाले नंदा जी जहाँ सख्त थे वहीँ इतने सरल भी थे कि मृत्यु से कुछ समय पूर्व दिल्ली के जिस फ़्लैट में वह रहते थे वहां कोई पहचानने वाला भी न था.एक बार फ़्लैट में धुआं भर गया और नंदा जी सीढ़ीयों पर बेहोश होकर गिर गए क्योंकि वह लिफ्ट से नहीं चलते थे.बड़ी मुश्किल से किसी ने पहचाना कि पूर्व प्रधानमंत्री लावारिस बेहोश पड़ा है तब उन्हें अस्पताल पहुंचाया और गुजरात में उनके पुत्र को सूचना दी जो अपने पिता को ले गए.सरकार की अपने पूर्व मुखिया के प्रति यह संवेदना उनकी ईमानदारी के कारण थी.
कामराज नाडार ने इंदिरा गांधी को चाहा और समय की नजाकत को देखते हुए वह प्रधानमंत्री बन गयीं.किन्तु गूंगी गुडिया मान कर उन्हें प्रधानमंत्री बनवाने वाले कामराज आदि सिंडिकेट के सामने झुकीं नहीं.1967 के आम चुनाव आ गए,तब सारे देश में एक साथ चुनाव होते थे.उडीसा में किसी युवक के फेके पत्थर से इंदिरा जी की नाक चुटैल हो गयी.सिलीगुड़ी वह नाक पर बैंडेज कराये ही आयीं थीं.मैं और अजय नज़दीक से सुनने के लिए निकटतम दूरी वाली रो में खड़े हो गए.मंच14 फुट ऊंचा था.सभा की अध्यक्षता पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री प्रफुल्ल चन्द्र सेन ने की थी.
इंदिरा जी के पूरे भाषण में से एक बात अभी भी याद है कि" जापानी लोग जरा सी भी चीज़ बर्बाद नहीं करते" हमें बखूबी सीखना चाहिए.आज जब कालोनी में एक रो से दूसरी रो तक स्कूटर,मोटरसाइकिल से लोगों को जाते देख कर या सड़क पर धुलती कारों में पानी की बर्बादी देख कर तो नहीं लगता की इंदिरा जी के भक्त भी उनकी बातों का पालन करते हैं जबकि शास्त्री जी की अपील का देशव्यापी प्रभाव पड़ा था.
उत्तर
भारत में कांग्रेस का सफाया हो गया था.संविद सरकारें बन गयीं थी.केंद्र
में सिंडिकेट के प्रतिनिधि मोरार जी देसाई ने इंदिरा जी के विरूद्ध अपना
दावा पेश कर दिया था.यदि चुनाव होता तो मोरारजी जीत जाते लेकिन इंदिरा जी
ने उन्हें फुसला कर उप-प्रधानमंत्री बनने पर राजी कर लिया.
जाकिर हुसैन साःराष्ट्रपति और वी.वी.गिरी साः उप-राष्ट्रपति निर्वाचित हुए.''सैनिक समाचार''में कैकुबाद नामक कवि ने लिखा--
ख़त्म हो गए चुनाव सारे
अब व्यर्थ ये पोस्टर और नारे हैं
कोई चंदू..............................हैं,
तो कोई हजारे हैं.........
http://vidrohiswar.blogspot.in/2010/09/blog-post_24.html
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साभार गूगल |
~विजय राजबली माथुर ©
इस पोस्ट को यहाँ भी पढ़ा जा सकता है।
Wednesday, August 19, 2015
'युगावतार' : भारतेंदु हरिश्चंद्र के व्यक्तित्व-कृतित्व की महानता का प्रतीक नाटक --- डॉ सुधाकर अदीब
***
20वीं
शताब्दी के एक महान साहित्यकार अमृतलाल नागर जी (सन् 1916-1990) ने 19वीं
शाताब्दी के अपने पूर्वज महान साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र जी (सन्
1850-1885) के जीवन चरित्र पर एक नाटक लिखा। नागर जी की जन्मशताब्दी समारोह
में वह आज सफलतापूर्वक मंचित हुआ। यह हमारा परम सौभाग्य है। इस अवसर पर
नागर जी की सुपुत्री डॉ अचला नागर, उनके नाती संदीपन जी, पौत्री दीक्षा
नागर आदि अनेक परिजन भी उपस्थित हुए। यह और भी
प्रसन्नता का विषय है। नाट्य निर्देशक ललित सिंह पोखरिया जी ने अपने
निर्देशकीय में बताया कि ~ ''नागर जी ने 'युगावतार' नाटक में भारतेंदु
हरिश्चंद्र के व्यक्तित्व-कृतित्व की महानता का दर्शन कराया है जो कि एक
महासागर के समान है। जिसके किनारों पर चारों और से पारिवारिक-सामाजिक कष्ट,
क्लेश और विषमताओं के महानदों को हरिश्चंद्र अपने हृदय सागर में समाहित
करते रहते हैं। उन्हें वे राष्ट्रप्रेम, राष्ट्रगौरव, निजभाषा गौरव रूपी
रत्न भण्डारों में बदलते रहते हैं, देश और देशवासियों के कल्याण रूपी
मोतियों में बदलते रहते हैं। नागर जी ने यह नाटक सन् 1955 के आसपास लिखा
था। एक विशेष आयोजन के अंतर्गत मंचन हेतु उन्हें इस नाटक के स्वरुप को
छोटा करना पड़ा था। फिर भी उन्होंने इस आलेख में गागर में सागर भरने का महती
कार्य किया है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में मैंने नाटक के स्वरुप को कोरस के
प्रयोग से थोड़ा बड़ा करने का दुस्साहस किया है। ''
मित्रो ! निर्देशक पोखरिया जी का यह प्रयोग वास्तव में बहुत प्रभावोत्पादक लगा मुझे।
https://www.facebook.com/photo.php?fbid=943817882328632&set=p.943817882328632&type=1&theater मित्रो ! निर्देशक पोखरिया जी का यह प्रयोग वास्तव में बहुत प्रभावोत्पादक लगा मुझे।
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वरिष्ठ पत्रकार और रंगकर्मी ऊर्मिल कुमार थपलियाल जी ने यह भी बताया कि 1953 में नागर जी ने IPTA के लिए 'ईदगाह' नाटक का मंचन किया था और 1956 में एक रेडियो वार्ता के दौरान नागर जी ने कहा था कि हमारा रंग-मंच सोना है। वह फारसी रंग-मंच से बहुत प्रभावित थे। 03 अप्रैल 1968 को बनारस में रंग मण्डल के माध्यम से नागर जी ने नाटक मंचित कराया था फिर इसके बाद प्रतिवर्ष उनके पुत्र डॉ शरद नागर 03 अप्रैल को नाटक मंचित कराते रहे थे। नागर जी का कथन था कि 'साहित्य' ने रंग-मंच को 'साहित्यिक विधा' नहीं माना। नागरजी 1938 से 1960 तक उत्तर प्रदेश के रंग-मंच से सम्बद्ध रहे। थपलियाल जी द्वारा सरल सहज भाषा में प्रस्तुत जानकारी काफी शोधपरक थी ।
अमृतलाल नागर जी द्वारा लिखित नाटक 'युगावतार' भारतेंदू बाबू हरिश्चंद्र जी की जीवनी पर आधारित था जिसका मनमोहक व शिक्षाप्रद मंचन दर्शकों-श्रोताओं के लिए ज्ञानवर्द्धक रहा। इस नाटक के माध्यम से बताया गया कि भारतेंदू हरिश्चंद्र जी का जन्म 09 सितंबर 1850 को हुआ था। उनके जन्म के पाँच वर्षों बाद उनकी माता का तथा दस वर्षों के बाद उनके पिता का भी निधन हो गया था।
12 वर्ष की उम्र में उन्होने काशी नरेश की उपस्थिती में एक सवाल के जवाब में दोहे की रचना करके उनका मन मोह लिया था। हिन्दी भाषा और साहित्य के उत्थान के लिए उनका अमिट योगदान नाटक के माध्यम से काफी रोचक ढंग से प्रस्तुत किया गया था। नारी शिक्षा व स्त्री स्वातंत्र्य के भी वह प्रबल पक्षधर थे इसीलिए बंगाल की अङ्ग्रेज़ी शिक्षा में सफल छात्राओं के लिए उन्होने उपहार स्वरूप बनारसी साड़ियाँ भिजवाईं। जरूरत मन्द लोगों की सहायता करने का दृष्टांत भी प्रस्तुत किया गया जिसमें एक गरीब ब्राह्मण को कन्या की शादी हेतु पाँच सौ रुपयों की मांग किए जाने पर उन्होने मुनीम जी से सात सौ रुपए दिलवा दिये। अमीर सेठों के तानों से तंग आकर उन्होने गृह त्याग किया और बंगाल के अकाल पीड़ितों के सहायतार्थ दान की भीख भी मांगने में उन्होने शर्म न की और देश सेवा में लगे रहे। 34 वर्ष की अल्पायु में ही 1885 में उन्होने इस शरीर का परित्याग किया लेकिन फिर भी साहित्य व समाज के लिए उनका जो योगदान है वह युगों युगों तक याद किया जाएगा यही संदेश अमृतलाल नागर जी ने 'युगावतार ' नाटक के माध्यम से दिया है। उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान ने नागर जी की जन्म शती के बहाने भारतेंदू बाबू हरिश्चंद्र जी को भी जीवंत कर दिया।
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(विजय राजबली माथुर )
~विजय राजबली माथुर ©
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Monday, August 17, 2015
प्रतिवादों से अविचलित अमृतलाल नागर --- संजोग वाल्टर
अमृतलाल
नागर, 17 अगस्त, 1916 - 23 फ़रवरी, 1990) हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार
थे। इन्होंने नाटक, रेडियो नाटक, रिपोर्ताज, निबन्ध, संस्मरण, अनुवाद, बाल
साहित्य आदि के क्षेत्र में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। इन्हें
साहित्य जगत में उपन्यासकार के रूप में सर्वाधिक ख्याति प्राप्त हुई तदपि
उनका हास्य-व्यंग्य लेखन कम महत्त्वपूर्ण नहीं है।
अमृतलाल नागर का जन्म सुसंस्कृत गुजराती परिवार में 17 अगस्त, 1916 ई. को गोकुलपुरा, आगरा, उत्तर प्रदेश में इनकी ननिहाल में हुआ था। इनके पितामह पण्डित शिवराम नागर 1895 ई. से लखनऊ आकर बस गए। इनके पिता पण्डित राजाराम नागर की मृत्यु के समय नागर जी कुल 19 वर्ष के थे।
अमृतलाल नागर की विधिवत शिक्षा अर्थोपार्जन की विवशता के कारण हाईस्कूल तक ही हुई, किन्तु निरन्तर स्वाध्याय द्वारा इन्होंने साहित्य, इतिहास, पुराण, पुरातत्त्व, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान आदि विषयों पर तथा हिन्दी, गुजराती, मराठी, बांग्ला एवं अंग्रेज़ी आदि भाषाओं पर अधिकार प्राप्त किया।
अमृतलाल नागर ने एक छोटी सी नौकरी के बाद कुछ समय तक मुक्त लेखन एवं हास्यरस के प्रसिद्ध पत्र 'चकल्लस' के सम्पादन का कार्य 1940 से 1947 ई. तक कोल्हापुर में किया इसके बाद बम्बई एवं मद्रास के फ़िल्म क्षेत्र में लेखन का कार्य किया। यह हिन्दी फ़िल्मों में डबिंग कार्य में अग्रणी थे। दिसम्बर, 1953 से मई, 1956 तक आकाशवाणी, लखनऊ में ड्रामा, प्रोड्यूसर, उसके कुछ समय बाद स्वतंत्र लेखन का कार्य किया।
नागर जी अपने व्यक्तित्व और सामाजिक अनुभवों की कसौटी पर विचारों को कसते रहते हैं और जितनी मात्रा में उन्हें ख़रा पाते हैं, उतनी ही मात्रा में ग्रहण करते हैं। चाहे उन पर देशी छाप हो या विदेशी, पुरानी छाप हो या नयी। उनकी कसौटी मूलभूत रूप से साधारण भारतीय जन की कसौटी है, जो सत्य को अस्थिर तर्कों के द्वारा नहीं, साधनालब्ध श्रद्धा के द्वारा पहचानती है। अन्धश्रद्धा को काटने के लिए वे तर्कों का प्रयोग अवश्य करते हैं, किन्तु तर्कों के कारण अनुभवों को नहीं झुठलाते, फलत: कभी-कभी पुराने और नये दोनों उन पर झुँझला उठते हैं। 'एकदा नैमिषारण्यें' में पुराणों और पौराणिक चरित्रों का समाजशास्त्रीय, अर्ध ऐतिहासिक स्वच्छन्द विश्लेषण या 'मानस का हंस' में युवा तुलसीदास के जीवन में 'मोहिनी प्रसंग' का संयोजन आदि पुराण पंथियों को अनुचित दुस्साहस लगता है, तो बाबा रामजीदास और तुलसी के आध्यात्मिक अनुभवों को श्रद्धा के साथ अंकित करना बहुतेरे नयों को नागवार और प्रगतिविरोधी प्रतीत होता है। नागर जी इन दोनों प्रकारों के प्रतिवादों से विचलित नहीं होते। अपनी इस प्रवृत्ति के कारण वे किसी एक साहित्यिक खाने में नहीं रखे जा सकते।
अमृतलाल नागर हिन्दी के गम्भीर कथाकारों में सर्वाधिक लोकप्रिय हैं। इसका अर्थ ही यह है कि वे विशिष्टता और रजकता दोनों तत्वों को अपनी कृतियों में समेटने में समर्थ हुए हैं। उन्होंने न तो परम्परा को ही नकारा है, न आधुनिकता से मुँह मोड़ा है। उन्हें अपने समय की पुरानी और नयी दोनों पीढ़ियों का स्नेह समर्थन मिला और कभी-कभी दोनों का उपालंभ भी मिला है। आध्यात्मिकता पर गहरा विश्वास करते हुए भी वे समाजवादी हैं, किन्तु जैसे उनकी आध्यात्मिकता किसी सम्प्रदाय कठघरे में बन्दी नहीं है, वैसे ही उनका समाजवाद किसी राजनीतिक दल के पास बन्धक नहीं है। उनकी कल्पना के समाजवादी समाज में व्यक्ति और समाज दोनों का मुक्त स्वस्थ विकास समस्या को समझने और चित्रित करने के लिए उसे समाज के भीतर रखकर देखना ही नागर जी के अनुसार ठीक देखना है। इसीलिए बूँद (व्यक्ति) के साथ ही साथ वे समुद्र (समाज) को नहीं भूलते।
नागर जी की जगत के प्रति दृष्टि न अतिरेकवादी है, न हठाग्रही। एकांगदर्शी न होने के कारण वे उसकी अच्छाइयों और बुराइयों, दोनों को देखते हैं। किन्तु बुराइयों से उठकर अच्छाइयों की ओर विफलता को भी वे मनुष्यत्व मानते हैं। जीवन की क्रूरता, कुरूपता, विफलता को भी वे अंकित करते चले हैं, किन्तु उसी को मानव नियति नहीं मानते। जिस प्रकार संकीर्ण आर्थिक स्वार्थों और मृत धार्मिकता के ठेकेदारों से वे अपने लेखन में जूझते रहे हैं, उसी प्रकार मूल्यों के विघटन, दिशाहीनता, अर्थहीनता आदि का नारा लगाकर निष्क्रियता और आत्महत्या तक का समर्थन करने वाली बौद्धिकता को भी नकारते रहे हैं। अपने लेखक-नायक अरविन्द शंकर के माध्यम से उन्होंने कहा है, जड़-चेतन, भय, विष-अमृत मय, अन्धकार-प्रकाशमय जीवन में न्याय के लिए कर्म करना ही गति है। मुझे जीना ही होगा, कर्म करना ही होगा, यह बन्धन ही मेरी मुक्ति भी है। इस अन्धकार में ही प्रकाश पाने के लिए मुझे जीना है।[1] नागर जी आरोपित बुद्धि से काम नहीं करते, किसी दृष्टि या वाद को जस का तस नहीं लेते।
नागर जी किस्सागोई में माहिर हैं। यद्यपि गम्भीर उत्तरदायित्वों का निर्वाह करने के कारण कहीं-कहीं उनके उपन्यासों में बहसों के दौरान तात्विक विवेचन के लम्बे-लम्बे प्रंसग भी आ जाते हैं। तथापि वे अपनी कृतियों को उपदेशात्मक या उबाऊ नहीं बनने देते। रोचक कथाओं और ठोस चरित्रों की भूमिका से ही विचारों के आकाश की ओर भरी गयी इन उड़ानों को साधारण पाठक भी झेल लेते हैं। उनके साहित्य का लक्ष्य भी साधारण नागरिक है, अपने को असाधारण मानने वाला साहित्यकार या बुद्धिजीवी समीक्षक नहीं। समाज में ख़ूब घुल-मिलकर अपने देखे-सुने और अनुभव किये चरित्रों, प्रसंगों को तनिक कल्पना के पुट से वे अपने कथा साहित्य में ढालते रहे हैं। अपनी आरम्भिक कहानियों में उन्होंने कहीं-कहीं स्वछन्दतावादी भावुकता की झलक दी है। किन्तु उनका जीवन बोध ज्यों-ज्यों बढ़ता गया त्यों-त्यों वे अपने भावातिरेक को संयत और कल्पना को यथार्थाश्रित करते चले गये। अपने पहले अप्रौढ़ उपन्यास महाकाल में सामाजिक यथार्थ के जिस स्वच्छ बोध का परिचय उन्होंने दिया था, निहित स्वार्थ के विविध रूपों को साम्राज्यवादी उत्पीड़न, ज़मींदारों, व्यापारियों द्वारा साधारण जनता के शोषण, साम्प्रदायिकतावादियों के हथकंडों आदि को बेनकाब करने का जो साहस दिखाया था, वह परवर्त्ती उपन्यासों में कलात्मक संयम के साथ-साथ उत्तरोत्तर निखरता चला गया।
'बूँद और समुद्र' तथा 'अमृत और विष' जैसे वर्तमान जीवन पर लिखित उपन्यासों में ही नहीं, 'एकदा नैमिषारण्ये' तथा 'मानस का हंस' जैसे पौराणिक-ऐतिहासिक पीठिका पर रचित सांस्कृतिक उपन्यासों में भी उत्पीड़कों का पर्दाफ़ाश करने और उत्पीड़ितों का साथ देने का अपना व्रत उन्होंने बखूबी निभाया है। अतीत को वर्तमान से जोड़ने और प्रेरणा के स्रोत के रूप में प्रस्तुत करने के संकल्प के कारण ही 'एकदा नैमिषारण्ये' में पुराणकारों के कथा-सूत्र को भारत की एकात्मकता के लिए किये गये महान सांस्कृतिक प्रयास के रूप में, तथा 'मानस का हंस' में तुलसी की जीवन कथा को आसक्तियों और प्रलोभनों के संघातों के कारण डगमगा कर अडिग हो जाने वाली 'आस्था के संघर्ष की कथा' एवं उत्पीड़ित लोकजीवन को संजीवनी प्रदान करने वाली 'भक्तिधारा के प्रवाह की कथा' के रूप में प्रभावशाली ढंग से अंकित किया है।
सामाजिक परिस्थितियों से जूझते हुए व्यक्ति के अंतर्मन में कामवृत्ति के घात प्रतिघात का चित्रण भी उन्होंने विश्वसनीय रूप से किया है। काम को इच्छाशक्ति गीत और सृजन के प्रेरक के रूप में ग्रहण करने के कारण वे उसे बहुत अधिक महत्त्व देते हैं। काम अपने आधारों (व्यक्तियों) के सत, रज, तम के अंशों की न्यूनाधिकता के कारण सहस्रों रूप धारण कर सकता है। अपने निकृष्ट रूप में वह बलात्कार या इन्द्रिय भोग मात्र बनकर रह जाता है तो अपने उत्कृष्ट रूप में प्रेम की संज्ञा पाता है। नागर जी ने कंठारहित होकर किन्तु उत्तरदायित्व के बोध के साथ काम कि विकृत (विरहेश और बड़ी, लच्छू और उमा माथुर, लवसूल और जुआना आदि), स्वरूप (सज्जन और वनकन्या, रमेश और रानीवाला आदि) और दिव्य (सोमाहुति और हज्या, तुलसी और रत्नावली) एवं इनके अनेकानेक मिश्रित रूपों की छवियाँ अपनी कृतियों में आँकी हैं। पीड़िता नारी के प्रति उनकी सदा सहानुभूति रही है, चाहे वह कन्नगी के सदृश एकनिष्ठ हो, चाहे माधवी के सदृश वेश्या। स्वार्थी पुरुष की भोग-वासना ही नारी को वेश्या बनाती है। अत: पुरुष होने के कारण उनके प्रति नागर जी अपने मन में अपराध बोध का अनुभव करते हैं। जिसका आंशिक परिमार्जन उन्होंने सदभावना पूर्ण भेंटवार्ताओं पर आधारित ये कोठेवालियाँ जैसी तथ्यपूर्ण कृति के द्वारा किया है।
नागर जी की ज़िन्दादिली और विनोदी वृत्ति उनकी कृतियों को कभी विषादपूर्ण नहीं बनने देती। 'नवाबी मसनद' और 'सेठ बाँकेमल' में हास्य व्यंग्य की जो धारा प्रवाहित हुई है, वह अनन्त धारा के रूप में उनके गम्भीर उपन्यासों में भी विद्यमान है और विभिन्न चरित्रों एवं स्थितियों में बीच-बीच में प्रकट होकर पाठक को उल्लासित करती रहती है। नागर जी के चरित्र समाज के विभिन्न वर्गों से गृहीत हैं। उनमें अच्छे बुरे सभी प्रकार के लोग हैं, किन्तु उनके चरित्र-चित्रण में मनोविश्लेषणात्मकता को कम और घटनाओं के मध्य उनके व्यवहार को अधिक महत्त्व दिया गया है। अनेकानेक एकायामी सफल विश्वसनीय चरित्रों के साथ-साथ उन्होंने बूँद और समुद्र की 'ताई' जैसे जटिल चरित्रों की सृष्टि की है, जो घृणा और करुणा, विद्वेष और वात्सल्य, प्रतिहिंसा और उत्सर्ग की विलक्षण समष्टि है।
कई समीक्षकों की शिकायत रही है कि नागर जी अपने उपन्यासों में 'संग्रहवृत्ति' से काम लेते हैं, 'चयनवृत्ति' से नहीं। इसीलिए उनमें अनपेक्षित विस्तार हो जाता है। वस्तुत: नागर जी के बड़े उपन्यासों में समग्र सामाजिक जीवन को झलकाने की दृष्टि प्रघतन है। अत: थोड़े से चरित्रों पर आधारित सुबद्ध कथानक पद्धति के स्थान पर वे शिथिल सम्बन्धों से जुड़ी और एक-दूसरे की पूरक लगने वाली कथाओं के माध्यम से यथासम्भव पूरे सामाजिक परिदृश्य को उभारने की चेष्टा करते हैं। महाभारत एवं पुराणों के अनुशीलन ने उन्हें इस पद्धति की ओर प्रेरित किया है। शिल्प पर अनावश्यक बल देने को वे उचित नहीं मानते। उनका कहना है कि फ़ॉर्म के लिए मैं परेशान नहीं होता, बात जब भीतर-भीतर पकने लगती है तो वह अपना फ़ॉर्म खुद अपने साथ लाती है। मैं सरलता को लेखक के लिए अनिवार्य गुण मानता हूँ। जटिलता, कुत्रिमता, दाँव-पेंच से लेखक महान नहीं बन सकता। इसीलिए केवल 'फ़ॉर्म' के पीछे दौड़ने वाले लेखक को मैं टुटपँजिया समझता हूँ।
भाषा के क्षेत्रीय प्रयोगों को विविध वर्गों में प्रयुक्त भिन्नताओं के साथ ज्यों का त्यों उतार देने में नागर जी को कमाल हासिल है। बोलचाल की सहज, चटुल, चंचल भाषा गम्भीर दार्शनिक सामाजिक प्रसंगों की गुरुता एवं अंतरंग प्रणय प्रसंगों की कोमलता का निर्वाह करने के लिए किस प्रकार बदल जाती है, इसे देखते ही बनता है। सचमुच भाषा पर नागर जी का असाधारण अधिकार है। नागर जी शिल्प के प्रति उदासीन हैं। अपने पुराने शिल्प से आगे बढ़ने की चेष्टा बराबर करते रहे हैं। 'बूँद और समुद्र' में पौराणिक शिल्प के अभिनव प्रयोग के अनन्तर 'अमृत और विष' में अपने पात्रों की दुहरी सत्ताओं के आधार पर दो-दो कथाओं को साथ-साथ चलाना, 'मानस का हंस' में फ़्लैश बैक के दृश्य रूप का व्यापक प्रयोग करना उनकी शिल्प सजगता के उदाहरण हैं। फिर भी यह सत्य है कि उनके लिए कथ्य ही मुख्य है शिल्प नहीं।
नागर जी को 'बूँद' और 'समुद्र' पर काशी नागरी प्रचारिणी सभा का बटुक प्रसाद पुरस्कार एवं सुधाकर रचत पदक, 'सुहाग के नूपुर' पर उत्तर प्रदेश शासन का 'प्रेमचन्द पुरस्कार', 'अमृत और विष' पर साहित्य अकादमी का 1967 का पुरस्कार एवं सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार 1970 तथा साहित्यिक सेवाओं पर युगान्तर का 1972 का पुरस्कार प्रदान किया जा चुका है।
अमृतलाल नागर जी का निधन सन् 23 फ़रवरी, 1990 ई. में हुआ था। नागर जी की कृतियों ने हिन्दी साहित्य की गरिमा बढ़ायी है। नागर जी के तीन रंगमंचीय नाटक एवं 25 से अधिक रेडियो फ़ीचर और बहुत से निबन्ध हैं, जो अभी तक प्रकाशित नहीं हुए हैं।
नागर जी की हवेली लखनऊ के चौक में मिर्ज़ा टोला है जहाँ उनके परिजन रहते हैं ,श्री लालजी टंडन ने नगर विकास मंत्री के तौर ओ पर नागर जी के नाम पर प्रेक्षाग्रह के साथ एक बाज़ार लखनऊ वासियों को समर्पित किया था
प्रमुख कृतियाँ :
अमृतलाल नागर ने 1928 में छिटपुट एवं 1932 से 1933 से जमकर लिखना शुरू किया। इनकी प्रारम्भिक कविताएँ मेघराज इन्द्र के नाम से, कहानियाँ अपने नाम से तथा व्यंग्यपूर्ण रेखाचित्र-निबन्ध आदि तस्लीम लखनवी के नाम से लिखित हैं। यह कथाकार के रूप में सुप्रतिष्ठित थे। यह 'बूँद और समुद्र' (1956) के प्रकाशन के साथ हिन्दी के प्रथम श्रेणी के उपन्यासकारों के रूप में मान्य हैं।
साभार :
https://www.facebook.com/359121077501161/photos/a.493970777349523.1073741825.359121077501161/504111596335441/?type=1
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अमृतलाल नागर के ‘ मानस का हंस ‘ के अनुसार मानस की रचना के दौरान तुलसी अयोध्या भी रहे । कैसे रहे ? खुद तुलसी के शब्दों में ‘ माँग के खईबो , मसीद में सोईबो ‘ । मसीद यानी मस्जिद । कहा जाता है
http://kashivishvavidyalay.wordpress.com/2007/08/03/banarastulsi-ghatshambhoo-mallah/
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अमृतलाल नागर का जन्म सुसंस्कृत गुजराती परिवार में 17 अगस्त, 1916 ई. को गोकुलपुरा, आगरा, उत्तर प्रदेश में इनकी ननिहाल में हुआ था। इनके पितामह पण्डित शिवराम नागर 1895 ई. से लखनऊ आकर बस गए। इनके पिता पण्डित राजाराम नागर की मृत्यु के समय नागर जी कुल 19 वर्ष के थे।
अमृतलाल नागर की विधिवत शिक्षा अर्थोपार्जन की विवशता के कारण हाईस्कूल तक ही हुई, किन्तु निरन्तर स्वाध्याय द्वारा इन्होंने साहित्य, इतिहास, पुराण, पुरातत्त्व, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान आदि विषयों पर तथा हिन्दी, गुजराती, मराठी, बांग्ला एवं अंग्रेज़ी आदि भाषाओं पर अधिकार प्राप्त किया।
अमृतलाल नागर ने एक छोटी सी नौकरी के बाद कुछ समय तक मुक्त लेखन एवं हास्यरस के प्रसिद्ध पत्र 'चकल्लस' के सम्पादन का कार्य 1940 से 1947 ई. तक कोल्हापुर में किया इसके बाद बम्बई एवं मद्रास के फ़िल्म क्षेत्र में लेखन का कार्य किया। यह हिन्दी फ़िल्मों में डबिंग कार्य में अग्रणी थे। दिसम्बर, 1953 से मई, 1956 तक आकाशवाणी, लखनऊ में ड्रामा, प्रोड्यूसर, उसके कुछ समय बाद स्वतंत्र लेखन का कार्य किया।
नागर जी अपने व्यक्तित्व और सामाजिक अनुभवों की कसौटी पर विचारों को कसते रहते हैं और जितनी मात्रा में उन्हें ख़रा पाते हैं, उतनी ही मात्रा में ग्रहण करते हैं। चाहे उन पर देशी छाप हो या विदेशी, पुरानी छाप हो या नयी। उनकी कसौटी मूलभूत रूप से साधारण भारतीय जन की कसौटी है, जो सत्य को अस्थिर तर्कों के द्वारा नहीं, साधनालब्ध श्रद्धा के द्वारा पहचानती है। अन्धश्रद्धा को काटने के लिए वे तर्कों का प्रयोग अवश्य करते हैं, किन्तु तर्कों के कारण अनुभवों को नहीं झुठलाते, फलत: कभी-कभी पुराने और नये दोनों उन पर झुँझला उठते हैं। 'एकदा नैमिषारण्यें' में पुराणों और पौराणिक चरित्रों का समाजशास्त्रीय, अर्ध ऐतिहासिक स्वच्छन्द विश्लेषण या 'मानस का हंस' में युवा तुलसीदास के जीवन में 'मोहिनी प्रसंग' का संयोजन आदि पुराण पंथियों को अनुचित दुस्साहस लगता है, तो बाबा रामजीदास और तुलसी के आध्यात्मिक अनुभवों को श्रद्धा के साथ अंकित करना बहुतेरे नयों को नागवार और प्रगतिविरोधी प्रतीत होता है। नागर जी इन दोनों प्रकारों के प्रतिवादों से विचलित नहीं होते। अपनी इस प्रवृत्ति के कारण वे किसी एक साहित्यिक खाने में नहीं रखे जा सकते।
अमृतलाल नागर हिन्दी के गम्भीर कथाकारों में सर्वाधिक लोकप्रिय हैं। इसका अर्थ ही यह है कि वे विशिष्टता और रजकता दोनों तत्वों को अपनी कृतियों में समेटने में समर्थ हुए हैं। उन्होंने न तो परम्परा को ही नकारा है, न आधुनिकता से मुँह मोड़ा है। उन्हें अपने समय की पुरानी और नयी दोनों पीढ़ियों का स्नेह समर्थन मिला और कभी-कभी दोनों का उपालंभ भी मिला है। आध्यात्मिकता पर गहरा विश्वास करते हुए भी वे समाजवादी हैं, किन्तु जैसे उनकी आध्यात्मिकता किसी सम्प्रदाय कठघरे में बन्दी नहीं है, वैसे ही उनका समाजवाद किसी राजनीतिक दल के पास बन्धक नहीं है। उनकी कल्पना के समाजवादी समाज में व्यक्ति और समाज दोनों का मुक्त स्वस्थ विकास समस्या को समझने और चित्रित करने के लिए उसे समाज के भीतर रखकर देखना ही नागर जी के अनुसार ठीक देखना है। इसीलिए बूँद (व्यक्ति) के साथ ही साथ वे समुद्र (समाज) को नहीं भूलते।
नागर जी की जगत के प्रति दृष्टि न अतिरेकवादी है, न हठाग्रही। एकांगदर्शी न होने के कारण वे उसकी अच्छाइयों और बुराइयों, दोनों को देखते हैं। किन्तु बुराइयों से उठकर अच्छाइयों की ओर विफलता को भी वे मनुष्यत्व मानते हैं। जीवन की क्रूरता, कुरूपता, विफलता को भी वे अंकित करते चले हैं, किन्तु उसी को मानव नियति नहीं मानते। जिस प्रकार संकीर्ण आर्थिक स्वार्थों और मृत धार्मिकता के ठेकेदारों से वे अपने लेखन में जूझते रहे हैं, उसी प्रकार मूल्यों के विघटन, दिशाहीनता, अर्थहीनता आदि का नारा लगाकर निष्क्रियता और आत्महत्या तक का समर्थन करने वाली बौद्धिकता को भी नकारते रहे हैं। अपने लेखक-नायक अरविन्द शंकर के माध्यम से उन्होंने कहा है, जड़-चेतन, भय, विष-अमृत मय, अन्धकार-प्रकाशमय जीवन में न्याय के लिए कर्म करना ही गति है। मुझे जीना ही होगा, कर्म करना ही होगा, यह बन्धन ही मेरी मुक्ति भी है। इस अन्धकार में ही प्रकाश पाने के लिए मुझे जीना है।[1] नागर जी आरोपित बुद्धि से काम नहीं करते, किसी दृष्टि या वाद को जस का तस नहीं लेते।
नागर जी किस्सागोई में माहिर हैं। यद्यपि गम्भीर उत्तरदायित्वों का निर्वाह करने के कारण कहीं-कहीं उनके उपन्यासों में बहसों के दौरान तात्विक विवेचन के लम्बे-लम्बे प्रंसग भी आ जाते हैं। तथापि वे अपनी कृतियों को उपदेशात्मक या उबाऊ नहीं बनने देते। रोचक कथाओं और ठोस चरित्रों की भूमिका से ही विचारों के आकाश की ओर भरी गयी इन उड़ानों को साधारण पाठक भी झेल लेते हैं। उनके साहित्य का लक्ष्य भी साधारण नागरिक है, अपने को असाधारण मानने वाला साहित्यकार या बुद्धिजीवी समीक्षक नहीं। समाज में ख़ूब घुल-मिलकर अपने देखे-सुने और अनुभव किये चरित्रों, प्रसंगों को तनिक कल्पना के पुट से वे अपने कथा साहित्य में ढालते रहे हैं। अपनी आरम्भिक कहानियों में उन्होंने कहीं-कहीं स्वछन्दतावादी भावुकता की झलक दी है। किन्तु उनका जीवन बोध ज्यों-ज्यों बढ़ता गया त्यों-त्यों वे अपने भावातिरेक को संयत और कल्पना को यथार्थाश्रित करते चले गये। अपने पहले अप्रौढ़ उपन्यास महाकाल में सामाजिक यथार्थ के जिस स्वच्छ बोध का परिचय उन्होंने दिया था, निहित स्वार्थ के विविध रूपों को साम्राज्यवादी उत्पीड़न, ज़मींदारों, व्यापारियों द्वारा साधारण जनता के शोषण, साम्प्रदायिकतावादियों के हथकंडों आदि को बेनकाब करने का जो साहस दिखाया था, वह परवर्त्ती उपन्यासों में कलात्मक संयम के साथ-साथ उत्तरोत्तर निखरता चला गया।
'बूँद और समुद्र' तथा 'अमृत और विष' जैसे वर्तमान जीवन पर लिखित उपन्यासों में ही नहीं, 'एकदा नैमिषारण्ये' तथा 'मानस का हंस' जैसे पौराणिक-ऐतिहासिक पीठिका पर रचित सांस्कृतिक उपन्यासों में भी उत्पीड़कों का पर्दाफ़ाश करने और उत्पीड़ितों का साथ देने का अपना व्रत उन्होंने बखूबी निभाया है। अतीत को वर्तमान से जोड़ने और प्रेरणा के स्रोत के रूप में प्रस्तुत करने के संकल्प के कारण ही 'एकदा नैमिषारण्ये' में पुराणकारों के कथा-सूत्र को भारत की एकात्मकता के लिए किये गये महान सांस्कृतिक प्रयास के रूप में, तथा 'मानस का हंस' में तुलसी की जीवन कथा को आसक्तियों और प्रलोभनों के संघातों के कारण डगमगा कर अडिग हो जाने वाली 'आस्था के संघर्ष की कथा' एवं उत्पीड़ित लोकजीवन को संजीवनी प्रदान करने वाली 'भक्तिधारा के प्रवाह की कथा' के रूप में प्रभावशाली ढंग से अंकित किया है।
सामाजिक परिस्थितियों से जूझते हुए व्यक्ति के अंतर्मन में कामवृत्ति के घात प्रतिघात का चित्रण भी उन्होंने विश्वसनीय रूप से किया है। काम को इच्छाशक्ति गीत और सृजन के प्रेरक के रूप में ग्रहण करने के कारण वे उसे बहुत अधिक महत्त्व देते हैं। काम अपने आधारों (व्यक्तियों) के सत, रज, तम के अंशों की न्यूनाधिकता के कारण सहस्रों रूप धारण कर सकता है। अपने निकृष्ट रूप में वह बलात्कार या इन्द्रिय भोग मात्र बनकर रह जाता है तो अपने उत्कृष्ट रूप में प्रेम की संज्ञा पाता है। नागर जी ने कंठारहित होकर किन्तु उत्तरदायित्व के बोध के साथ काम कि विकृत (विरहेश और बड़ी, लच्छू और उमा माथुर, लवसूल और जुआना आदि), स्वरूप (सज्जन और वनकन्या, रमेश और रानीवाला आदि) और दिव्य (सोमाहुति और हज्या, तुलसी और रत्नावली) एवं इनके अनेकानेक मिश्रित रूपों की छवियाँ अपनी कृतियों में आँकी हैं। पीड़िता नारी के प्रति उनकी सदा सहानुभूति रही है, चाहे वह कन्नगी के सदृश एकनिष्ठ हो, चाहे माधवी के सदृश वेश्या। स्वार्थी पुरुष की भोग-वासना ही नारी को वेश्या बनाती है। अत: पुरुष होने के कारण उनके प्रति नागर जी अपने मन में अपराध बोध का अनुभव करते हैं। जिसका आंशिक परिमार्जन उन्होंने सदभावना पूर्ण भेंटवार्ताओं पर आधारित ये कोठेवालियाँ जैसी तथ्यपूर्ण कृति के द्वारा किया है।
नागर जी की ज़िन्दादिली और विनोदी वृत्ति उनकी कृतियों को कभी विषादपूर्ण नहीं बनने देती। 'नवाबी मसनद' और 'सेठ बाँकेमल' में हास्य व्यंग्य की जो धारा प्रवाहित हुई है, वह अनन्त धारा के रूप में उनके गम्भीर उपन्यासों में भी विद्यमान है और विभिन्न चरित्रों एवं स्थितियों में बीच-बीच में प्रकट होकर पाठक को उल्लासित करती रहती है। नागर जी के चरित्र समाज के विभिन्न वर्गों से गृहीत हैं। उनमें अच्छे बुरे सभी प्रकार के लोग हैं, किन्तु उनके चरित्र-चित्रण में मनोविश्लेषणात्मकता को कम और घटनाओं के मध्य उनके व्यवहार को अधिक महत्त्व दिया गया है। अनेकानेक एकायामी सफल विश्वसनीय चरित्रों के साथ-साथ उन्होंने बूँद और समुद्र की 'ताई' जैसे जटिल चरित्रों की सृष्टि की है, जो घृणा और करुणा, विद्वेष और वात्सल्य, प्रतिहिंसा और उत्सर्ग की विलक्षण समष्टि है।
कई समीक्षकों की शिकायत रही है कि नागर जी अपने उपन्यासों में 'संग्रहवृत्ति' से काम लेते हैं, 'चयनवृत्ति' से नहीं। इसीलिए उनमें अनपेक्षित विस्तार हो जाता है। वस्तुत: नागर जी के बड़े उपन्यासों में समग्र सामाजिक जीवन को झलकाने की दृष्टि प्रघतन है। अत: थोड़े से चरित्रों पर आधारित सुबद्ध कथानक पद्धति के स्थान पर वे शिथिल सम्बन्धों से जुड़ी और एक-दूसरे की पूरक लगने वाली कथाओं के माध्यम से यथासम्भव पूरे सामाजिक परिदृश्य को उभारने की चेष्टा करते हैं। महाभारत एवं पुराणों के अनुशीलन ने उन्हें इस पद्धति की ओर प्रेरित किया है। शिल्प पर अनावश्यक बल देने को वे उचित नहीं मानते। उनका कहना है कि फ़ॉर्म के लिए मैं परेशान नहीं होता, बात जब भीतर-भीतर पकने लगती है तो वह अपना फ़ॉर्म खुद अपने साथ लाती है। मैं सरलता को लेखक के लिए अनिवार्य गुण मानता हूँ। जटिलता, कुत्रिमता, दाँव-पेंच से लेखक महान नहीं बन सकता। इसीलिए केवल 'फ़ॉर्म' के पीछे दौड़ने वाले लेखक को मैं टुटपँजिया समझता हूँ।
भाषा के क्षेत्रीय प्रयोगों को विविध वर्गों में प्रयुक्त भिन्नताओं के साथ ज्यों का त्यों उतार देने में नागर जी को कमाल हासिल है। बोलचाल की सहज, चटुल, चंचल भाषा गम्भीर दार्शनिक सामाजिक प्रसंगों की गुरुता एवं अंतरंग प्रणय प्रसंगों की कोमलता का निर्वाह करने के लिए किस प्रकार बदल जाती है, इसे देखते ही बनता है। सचमुच भाषा पर नागर जी का असाधारण अधिकार है। नागर जी शिल्प के प्रति उदासीन हैं। अपने पुराने शिल्प से आगे बढ़ने की चेष्टा बराबर करते रहे हैं। 'बूँद और समुद्र' में पौराणिक शिल्प के अभिनव प्रयोग के अनन्तर 'अमृत और विष' में अपने पात्रों की दुहरी सत्ताओं के आधार पर दो-दो कथाओं को साथ-साथ चलाना, 'मानस का हंस' में फ़्लैश बैक के दृश्य रूप का व्यापक प्रयोग करना उनकी शिल्प सजगता के उदाहरण हैं। फिर भी यह सत्य है कि उनके लिए कथ्य ही मुख्य है शिल्प नहीं।
नागर जी को 'बूँद' और 'समुद्र' पर काशी नागरी प्रचारिणी सभा का बटुक प्रसाद पुरस्कार एवं सुधाकर रचत पदक, 'सुहाग के नूपुर' पर उत्तर प्रदेश शासन का 'प्रेमचन्द पुरस्कार', 'अमृत और विष' पर साहित्य अकादमी का 1967 का पुरस्कार एवं सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार 1970 तथा साहित्यिक सेवाओं पर युगान्तर का 1972 का पुरस्कार प्रदान किया जा चुका है।
अमृतलाल नागर जी का निधन सन् 23 फ़रवरी, 1990 ई. में हुआ था। नागर जी की कृतियों ने हिन्दी साहित्य की गरिमा बढ़ायी है। नागर जी के तीन रंगमंचीय नाटक एवं 25 से अधिक रेडियो फ़ीचर और बहुत से निबन्ध हैं, जो अभी तक प्रकाशित नहीं हुए हैं।
नागर जी की हवेली लखनऊ के चौक में मिर्ज़ा टोला है जहाँ उनके परिजन रहते हैं ,श्री लालजी टंडन ने नगर विकास मंत्री के तौर ओ पर नागर जी के नाम पर प्रेक्षाग्रह के साथ एक बाज़ार लखनऊ वासियों को समर्पित किया था
प्रमुख कृतियाँ :
अमृतलाल नागर ने 1928 में छिटपुट एवं 1932 से 1933 से जमकर लिखना शुरू किया। इनकी प्रारम्भिक कविताएँ मेघराज इन्द्र के नाम से, कहानियाँ अपने नाम से तथा व्यंग्यपूर्ण रेखाचित्र-निबन्ध आदि तस्लीम लखनवी के नाम से लिखित हैं। यह कथाकार के रूप में सुप्रतिष्ठित थे। यह 'बूँद और समुद्र' (1956) के प्रकाशन के साथ हिन्दी के प्रथम श्रेणी के उपन्यासकारों के रूप में मान्य हैं।
साभार :
https://www.facebook.com/359121077501161/photos/a.493970777349523.1073741825.359121077501161/504111596335441/?type=1
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अमृतलाल नागर के ‘ मानस का हंस ‘ के अनुसार मानस की रचना के दौरान तुलसी अयोध्या भी रहे । कैसे रहे ? खुद तुलसी के शब्दों में ‘ माँग के खईबो , मसीद में सोईबो ‘ । मसीद यानी मस्जिद । कहा जाता है
http://kashivishvavidyalay.wordpress.com/2007/08/03/banarastulsi-ghatshambhoo-mallah/
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आज प्रातः 11 बजे उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, हज़रत गंज, लखनऊ में 'अमृतलाल नागर जन्म शताब्दी समारोह' का प्रारम्भ दीप प्रज्वलन,माल्यार्पण और सरस्वती वंदना से हुआ। मंचस्थ अतिथियों डॉ प्रभाकर श्रोत्रिय , बंधु कुशावर्ती,डॉ दीप्ति गुप्ता,नासिरा शर्मा,डॉ सूर्य प्रसाद दीक्षित,डॉ अचला नगर ,बेकल उत्साही,उदय प्रताप सिंह का अंग वस्त्र प्रदान कर संस्थान के निदेशक डॉ सुधाकर अदीब ने स्वागत किया। गोष्ठी की अध्यक्षता संस्थान के कार्यकारी अध्यक्ष उदय प्रताप सिंह जी ने तथा कुशल संचालन डॉ अमिता दुबे जी ने किया। अतिथियों व श्रोताओं का स्वागत भाषण डॉ सुधाकर अदीब जी ने दिया।
संस्थान की त्रैमासिक पत्रिका 'साहित्य भारती' के अमृतलाल नागर विशेषांक का विमोचन भी अतिथि गण ने किया।सर्व प्रथम लखनऊ दूर दर्शन द्वारा पूर्व प्रसारित एक वृत्त -चित्र भी नागर जी पर दिखाया गया।
विद्वत जनों ने नागर जी के कहानी,उपन्यास,नाटक,रेडियो नाटक,फिल्मी पट कथा आदि विविध लेखन पर विस्तृत व विशिष्ट प्रकाश डाला। नासिरा शर्मा जी ने श्रोताओं से नागर जी की कहानी 'शकीरा की माँ' पढ़ने का विशेष आग्रह किया। उदय प्रताप जी ने अपने संस्मरण सुनाते हुये अतिथियों व श्रोताओं का धन्यवाद ज्ञापन किया।
भोजनोपरांत दिवतीय सत्र का संचालन भी डॉ अमिता दुबे जी ने किया व अध्यक्षता उदय प्रताप जी ने । प्रारम्भ में नागर जी की सुपुत्री डॉ अचला नागर जी अपने पिताजी के व्यक्तिगत संस्मरण याद करते हुये कुछ उन पत्रों को भी पढ़ कर सुनाया जिनको बचपन में उनके पिताजी ने उनको लिखा था। उनके बाद उनकी भाभीजी - विभा नगर जी ने भी नागर जी के व्यक्तिगत संस्मरणों की चर्चा की। नागर जी के पौत्र पारिजात अत्यंत भावुक हो जाने के कारण स्वम्य न बोल सके किन्तु हिन्दी संस्थान को आयोजन के लिए धन्यवाद ज्ञापन किया। अचला जी के पुत्र सन्दीपन विमलकान्त नागर ने अपने नानाजी के संस्मरण सुनाते हुये उनको नई पीढ़ी का प्रेरणादायक बताया और उनके प्रति मुलायम सिंह जी के आदर भाव का वर्णन करना भी वह न भूले तथा उदय प्रताप जी को इस आयोजन की प्रेरणा देने के लिए उन्होने कृत्यज्ञता व्यक्त की। नागर जी की पौत्री डॉ दीक्षा नागर ने बचपन से उनके साथ के संस्मरणों को बताते हुये यह दुख भी व्यक्त किया कि इस अवसर पर उनके ताऊजी(कुमुद नागर),ताई जी व उनके पिता डॉ शरद नागर जी नहीं हैं (वे पहले ही दिवंगत हो चुके हैं)। लेकिन डॉ दीक्षा ने कहा कि अमृतलाल नागर जी सिर्फ अपने निजी परिवार के ही नहीं थे। उनका परिवार विस्तृत था सारे समाज को ही वह अपना परिवार मानते थे।इस संबंध में उन्होने अपने बचपन का एक किस्सा सुनाया कि एक बार नागर जी चौक में पान खाने निकले थे वह नौ वर्षीय बालिका थीं और उनके साथ थीं। वह एक चने वाले के पास रुक गए जिसका उनको अचरज हुआ फिर नागर जी ने उनको 'शंकर' कह कर संबोधित किया जिसके जवाब में उन्होने नागर जी को 'अमृत' का सम्बोधन दिया जिससे उनको और भी आश्चर्य हुआ। परंतु बाद में पता चला कि वह उनके सहपाठी थे। नागर जी मनुष्य-मनुष्य के बीच भेद नहीं मानते थे। मोहन स्वरूप भाटिया जी व सोम ठाकुर साहब ने भी अपने संस्मरणों से श्रोताओं को अवगत कराया।
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मेरे बाबूजी (स्व. ताजराज बली माथुर ) लखनऊ के कालीचरण हाईस्कूल में जब पढ़ते थे तब खेल - कूद में सक्रिय थे। टेनिस में सीनियर ब्वायज एसोसियेशन की ओर से पंडित अमृत लाल नागर जी खेलते थे तब बाबूजी तत्कालीन छात्र की हैसियत से उनके साथ खेलते थे । पत्रकार राम पाल सिंह जी ( जो नवभारत टाईम्स , भोपाल के संपादक रहे ) भी बाबूजी के खेल के साथी थे। का.भीखा लाल जी तो बाबूजी के रूममेट और सहपाठी थे जो जब तहसीलदार बने तो बाबूजी का उनसे संपर्क टूट गया। इन तीनों का ज़िक्र अपने बाबूजी से बचपन से सुनता रहा हूँ। बाबू जी के खेल के मैदान के साथी रहे अमृतलाल नागर जी के जन्म शताब्दी समारोह का अवलोकन करने पर अपने को भाग्यशाली समझता हूँ।
(विजय राज बली माथुर )
https://www.facebook.com/vijai.mathur/posts/926781337383843?pnref=story
Friday, August 14, 2015
शिव भारत देश का पर्याय --- विजय राजबली माथुर
"ॐ नमः शिवाय च का अर्थ है-Salutation To That Lord The Benefactor of all "यह कथन है संत श्याम जी पाराशर का.अर्थात हम अपनी मातृ -भूमि भारत को नमन करते हैं.वस्तुतः यदि हम भारत का मान-चित्र और शंकर जी का चित्र एक साथ रख कर तुलना करें तो उन महान संत क़े विचारों को ठीक से समझ सकते हैं.शंकर या शिव जी क़े माथे पर अर्ध-चंद्राकार हिमाच्छादित हिमालय पर्वत ही तो है.जटा से निकलती हुई गंगा -तिब्बत स्थित (अब चीन क़े कब्जे में)मानसरोवर झील से गंगा जी क़े उदगम की ही निशानी बता रही है.नंदी(बैल)की सवारी इस बात की ओर इशारा है कि,हमारा भारत एक कृषि -प्रधान देश है.क्योंकि ,आज ट्रेक्टर-युग में भी बैल ही सर्वत्र हल जोतने का मुख्य आधार है.शिव द्वारा सिंह-चर्म को धारण करना संकेत करता है कि,भारत वीर-बांकुरों का देश है.शिव क़े आभूषण(परस्पर विरोधी जीव)यह दर्शाते हैंकि,भारत "विविधताओं में एकता वाला देश है."यहाँ संसार में सर्वाधिक वर्षा वाला क्षेत्र चेरापूंजी है तो संसार का सर्वाधिक रेगिस्तानी इलाका थार का मरुस्थल भी है.विभिन्न भाषाएं बोली जाती हैं तो पोशाकों में भी विविधता है.बंगाल में धोती-कुर्ता व धोती ब्लाउज का चलन है तो पंजाब में सलवार -कुर्ता व कुर्ता-पायजामा पहना जाता है.तमिलनाडु व केरल में तहमद प्रचलित है तो आदिवासी क्षेत्रों में पुरुष व महिला मात्र गोपनीय अंगों को ही ढकते हैं.पश्चिम और उत्तर भारत में गेहूं अधिक पाया जाता है तो पूर्व व दक्षिण भारत में चावल का भात खाया जाता है.विभिन्न प्रकार क़े शिव जी क़े गण इस बात का द्योतक हैं कि, यहाँ विभिन्न मत-मतान्तर क़े अनुयायी सुगमता पूर्वक रहते हैं.शिव जी की अर्धांगिनी -पार्वती जी हमारे देश भारत की संस्कृति (Culture )ही तो है.भारतीय संस्कृति में विविधता व अनेकता तो है परन्तु साथ ही साथ वह कुछ मौलिक सूत्रों द्वारा एकता में भी आबद्ध हैं.हमारे यहाँ धर्म की अवधारणा-धारण करने योग्य से है.हमारे देश में धर्म का प्रवर्तन किसी महापुरुष विशेष द्वारा नहीं हुआ है जिस प्रकार इस्लाम क़े प्रवर्तक हजरत मोहम्मद व ईसाईयत क़े प्रवर्तक ईसा मसीह थे.हमारे यहाँ राम अथवा कृष्ण धर्म क़े प्रवर्तक नहीं बल्कि धर्म की ही उपज थे.राम और कृष्ण क़े रूप में मोक्ष -प्राप्त आत्माओं का अवतरण धर्म की रक्षा हेतु ही,बुराइयों पर प्रहार करने क़े लिये हुआ था.उन्होंने कोई व्यक्तिगत धर्म नहीं प्रतिपादित किया था.आज जिन मतों को विभिन्न धर्म क़े नाम से पुकारा जा रहा है ;वास्तव में वे भिन्न-भिन्न उपासना-पद्धतियाँ हैं न कि,कोई धर्म अलग से हैं.लेकिन आप देखते हैं कि,लोग धर्म क़े नाम पर भी विद्वेष फैलाने में कामयाब हो जाते हैं.ऐसे लोग अपने महापुरुषों क़े आदर्शों को सहज ही भुला देते हैं.आचार्य श्री राम शर्मा गायत्री परिवार क़े संस्थापक थे और उन्होंने बहुत ही स्पष्ट शब्दों में कहा था -"उन्हें मत सराहो जिनने अनीति पूर्वक सफलता पायी और संपत्ति कमाई."लेकिन हम देखते हैं कि,आज उन्हीं क़े परिवार में उनके पुत्र व दामाद इसी संपत्ति क़े कारण आमने सामने टकरा रहे हैं.गायत्री परिवार में दो प्रबंध समितियां बन गई हैं.अनुयायी भी उन दोनों क़े मध्य बंट गये हैं.कहाँ गई भक्ति?"भक्ति"शब्द ढाई अक्षरों क़े मेल से बना है."भ "अर्थात भजन .कर्म दो प्रकार क़े होते हैं -सकाम और निष्काम,इनमे से निष्काम कर्म का (आधा क) और त्याग हेतु "ति" लेकर "भक्ति"होती है.आज भक्ति है कहाँ?महर्षि दयानंद सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना धर्म में प्रविष्ट कुरीतियों को समाप्त करने हेतु ही एक आन्दोलन क़े रूप में की थी.नारी शिक्षा,विधवा-पुनर्विवाह ,जातीय विषमता की समाप्ति की दिशा में महर्षि दयानंद क़े योगदान को विस्मृत नहीं किया जा सकता.आज उनके द्वारा स्थापित आर्य समाज में क्या हो रहा है-गुटबाजी -प्रतिद्वंदिता .
काफी अरसा पूर्व आगरा में आर्य समाज क़े वार्षिक निर्वाचन में गोलियां खुल कर चलीं थीं.यह कौन सी अहिंसा है?जिस पर स्वामी जी ने सर्वाधिक बल दिया था. स्वभाविक है कि, यह सब नीति-नियमों की अवहेलना का ही परिणाम है,जबकि आर्य समाज में प्रत्येक कार्यक्रम क़े समापन पर शांति-पाठ का विधान है.यह शांति-पाठ यह प्रेरणा देता है कि, जिस प्रकार ब्रह्माण्ड में विभिन्न तारागण एक नियम क़े तहत अपनी अपनी कक्षा (Orbits ) में चलते हैं उसी प्रकार यह संसार भी जियो और जीने दो क़े सिद्धांत पर चले.परन्तु एरवा कटरा में गुरुकुल चलाने वाले एक शास्त्री जी ने रेलवे क़े भ्रष्टतम व्यक्ति जो एक शाखा क़े आर्य समाज का प्रधान भी रह चुका था क़े भ्रष्टतम सहयोगी क़े धन क़े बल पर एक ईमानदार कार्यकर्ता पर प्रहार किया एवं सहयोग दिया पुजारी व पदाधिकारियों ने तो क्या कहा जाये कि, आज सत्यार्थ-प्रकाश क़े अनुयायी ही सत्य का गला घोंट कर ईमानदारी का दण्ड देने लगे हैं.यह सब धर्म नहीं है.परन्तु जन-समाज ऐसे लोगों को बड़ा धार्मिक मान कर उनका जय-जयकारा करता है.आज जो लोगों को उलटे उस्तरे से मूढ़ ले जाये उसे ही मान-सम्मान मिलता है.ऐसे ही लोग धर्म व राजनीति क़े अगुआ बन जाते हैं.ग्रेषम का अर्थशास्त्र में एक सिद्धांत है कि,ख़राब मुद्रा अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है.ठीक यही हाल समाज,धर्म व राजनीति क़े क्षेत्र में चल रहा है.
दुनिया लूटो,मक्कर से.
रोटी खाओ,घी-शक्कर से.
एवं
अब सच्चे साधक धक्के खाते हैं .
फरेबी आज मजे-मौज उड़ाते हैं.
आज बड़े विद्वान,ज्ञानी और मान्यजन लोगों को जागरूक होने नहीं देना चाहते(प्रस्तुत 'महादेव' संबंधी विचारों के लेखक एक 'नास्तिक 'संप्रदाय से सम्बद्ध हैं और पोंगापंथी -ब्राह्मणवादी विचारों की ही परिपुष्टि कर रहे हैं),स्वजाति बंधुओं की उदर-पूर्ती की खातिर नियमों की गलत व्याख्या प्रस्तुत कर देते हैं.राम द्वारा शिव -लिंग की पूजा किया जाना बता कर मिथ्या सिद्ध करना चाहते हैं कि, राम क़े युग में मूर्ती-पूजा थी और राम खुद मूर्ती-पूजक थे. वे यह नहीं बताना चाहते कि राम की शिव पूजा का तात्पर्य भारत -भू की पूजा था. वे यह भी नहीं बताना चाहते कि, शिव परमात्मा क़े उस स्वरूप को कहते हैं कि, जो ज्ञान -विज्ञान का दाता और शीघ्र प्रसन्न होने वाला है. ब्रह्माण्ड में चल रहे अगणित तारा-मंडलों को यदि मानव शरीर क़े रूप में कल्पित करें तो हमारी पृथ्वी का स्थान वहां आता है जहाँ मानव शरीर में लिंग होता है.यही कारण है कि, हम पृथ्वी -वासी शिव का स्मरण लिंग रूप में करते हैं और यही राम ने समझाया भी होगा न कि, स्वंय ही लिंग बना कर पूजा की होगी. स्मरण करने को कंठस्थ करना कहते हैं न कि, उदरस्थ करना.परन्तु ऐसा ही समझाया जा रहा है और दूसरे विद्वजनों से अपार प्रशंसा भी प्राप्त की जा रही है. यही कारण है भारत क़े गारत होने का.
जैसे सरबाईना और सेरिडोन क़े विज्ञापनों में अमीन सायानी और हरीश भीमानी जोर लगते है अपने-अपने उत्पाद की बिक्री का वैसे ही उस समय जब इस्लाम क़े प्रचार में कहा गया कि हजरत सा: ने चाँद क़े दो टुकड़े कर दिए तो जवाब आया कि, हमारे भी हनुमान ने मात्र ५ वर्ष की अवस्था में सूर्य को निगल लिया था अतः हमारा दृष्टिकोण श्रेष्ठ है. परन्तु दुःख और अफ़सोस की बात है कि, सच्चाई साफ़ करने क़े बजाये ढोंग को वैज्ञानिकता का जामा ओढाया जा रहा है.
यदि हम अपने देश व समाज को पिछड़ेपन से निकाल कर ,अपने खोये हुए गौरव को पुनः पाना चाहते हैं,सोने की चिड़िया क़े नाम से पुकारे जाने वाले देश से गरीबी को मिटाना चाहते हैं,भूख और अशिक्षा को हटाना चाहते हैंतो हमें "ॐ नमः शिवाय च "क़े अर्थ को ठीक से समझना ,मानना और उस पर चलना होगा तभी हम अपने देश को "सत्यम,शिवम्,सुन्दरम"बना सकते हैं.आज की युवा पीढी ही इस कार्य को करने में सक्षम हो सकती है.अतः युवा -वर्ग का आह्वान है कि, वह सत्य-न्याय-नियम और नीति पर चलने का संकल्प ले और इसके विपरीत आचरण करने वालों को सामजिक उपेक्षा का सामना करने पर बाध्य कर दे तभी हम अपने भारत का भविष्य उज्जवल बना सकते हैं.काश ऐसा हो सकेगा?हम ऐसी आशा तो संजो ही सकते हैं.
" ओ ३ म *नमः शिवाय च" कहने पर उसका मतलब यह होता है.:-
*अ +उ +म अर्थात आत्मा +परमात्मा +प्रकृति
च अर्थात तथा/ एवं / और
शिवाय -हितकारी,दुःख हारी ,सुख-स्वरूप
नमः नमस्ते या प्रणाम या वंदना या नमन ******
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'शैव' व 'वैष्णव' दृष्टिकोण की बात कुछ विद्वान उठाते हैं तो कुछ प्रत्यक्ष पोंगापंथ का समर्थन करते हैं तो कुछ 'नास्तिक' अप्रत्यक्ष रूप से पोंगापंथ को ही पुष्ट करते हैं। सार यह कि 'सत्य ' को साधारण जन के सामने न आने देना ही इनका लक्ष्य होता है। सावन या श्रावण मास में सोमवार के दिन 'शिव' पर जल चढ़ाने के नाम पर, शिव रात्रि पर भी तांडव करना और साधारण जनता का उत्पीड़न करना इन पोंगापंथियों का गोरख धंधा है।
'परिक्रमा' क्या थी ?:
वस्तुतः प्राचीन काल में जब छोटे छोटे नगर राज्य (CITY STATES) थे और वर्षा काल में साधारण जन 'कृषि कार्य' में व्यस्त होता था तब शासक की ओर से राज्य की सेना नगर राज्य के चारों ओर परिक्रमा (गश्त) किया करती थी और यह सम्पूर्ण वर्षा काल में चलने वाली निरंतर प्रक्रिया थी जिसका उद्देश्य दूसरे राज्य द्वारा अपने राज्य की व अपने नागरिकों की सुरक्षा सुनिश्चित करना था। कालांतर में जब छोटे राज्य समाप्त हो गए तब इस प्रक्रिया का औचित्य भी समाप्त हो गया। किन्तु ब्राह्मणवादी पोंगापंथियों ने अपने व अपने पोषक व्यापारियों के हितों की रक्षार्थ धर्म की संज्ञा से सजा कर शिव के जलाभिषेक के नाम पर 'कांवड़िया' प्रथा का सूत्रपात किया जो आज भी अपना तांडव जारी रखे हुये है। अफसोस की बात यह है कि पोंगापंथ का पर्दाफाश करने के बजाए 'नास्तिकवादी' विद्वान भी पोंगापंथ को ही बढ़ावा दे रहे हैं और सच्चाई का विरोध कर रहे हैं।
~विजय राजबली माथुर ©
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