****** दुनिया के लोग हमारे गणतंत्र के समानांतर चल रहे हुड़दंगतंत्र का भी मजा ले रहे होंगे। दुश्मन देश इन तत्वों का शुक्रिया अदा करते हुए राहत की साँस ले रहे होंगे कि चलो अपना कुछ तो गोला-बारूद बचा।--------------यदि हम गणतंत्र की गरिमा, उसके आदर्श और उसकी अभिलाषा के सम्मान की रक्षा में असमर्थ हैं तो फिर राजपथ में और तमाम जगह-जगह छब्बीस जनवरी का कर्मकाण्ड किसको दिखाने के लिए हर साल रचाते हैं ? ******
Jayram Shukla
गणतंत्र की पीठ पर हुड़दंगतंत्र की सवारी :
साँच कहै ता...जयराम शुक्ल
गणतंत्र दिवस के उत्सव में शामिल होने के लिए आसियान के दस देशों के राष्ट्रप्रमुख हमारे अतिथि हैं। वे राजपथ पर देश के शौर्य और सांस्कृतिक विविधता की झाँकी देखेंगे।
हुड़दंगतंत्र का मजा :
इसी के समानांतर देश के विभिन्न हिस्सों में एक और दृश्यावली चल रही है। वाहन फूँके जा रहे हैं। आज भी कहीं न कहीं तिरंगी झंडियां लिए स्कूल के समारोह में जा रहे बच्चों की बसें तोड़ी और पंचर की जा रही होंगी, सड़कों पर जलते टायरों का काला गुबार छाया होगा। दूकानदार दुबके और राहगीर सहमे होंगे।
ये सभी के सभी दृश्य राजपथ की झाँकियों के समानांतर उसी टीवी और सोशल मीडिया पर चल रहा होगा। दुनिया के लोग हमारे गणतंत्र के समानांतर चल रहे हुड़दंगतंत्र का भी मजा ले रहे होंगे। दुश्मन देश इन तत्वों का शुक्रिया अदा करते हुए राहत की साँस ले रहे होंगे कि चलो अपना कुछ तो गोला-बारूद बचा।
पिछले तीन-चार दिनों से देश खासतौर पर उत्तर भारत में जो चल रहा है वह तकलीफ़देह है। सुप्रीमकोर्ट की लाज को प्रदेश की सरकारों ने हुड़दंगियों के हवाले कर रखा है। पहली बार ऐसा हो रहा है कि चौराहों के हुजूम के बीच सार्वजनिक तौरपर गोली चलाने और आगजनी करने के ऐलान किए जा रहे हैं। पुलिस और प्रशासन निसहाय है। ऐसा लगता है कि प्रदेश की सरकारों ने हुड़दंगियों के आगे सरेंडर कर रखा है।
विवाद की जड़ बनी फिल्म पद्मावत के प्रसारण की अनुमति सरकार की ही एक संवैधानिक संस्था ने दी है। सुप्रीमकोर्ट का आदेश है कि फिल्म का प्रसारण सुनिश्चित किया जाए। जिनको नहीं देखना है वे इसका बहिष्कार कर सकते हैं। जिन टाँकीजों को अपने परदे पर इस फिल्म को नहीं दिखाना है वे इसके लिए भी पूरी तरह स्वतंत्र हैं।
फिल्म की आलोचना समालोचना, निंदा, प्रशंसा सभी के लिए लोग स्वतंत्र हैं। सुप्रीमकोर्ट ने इसके लिए कोई बाध्यकारी आदेश नहीं जारी किया है कि लोग देखने जाएं ही या सिनेमाघरों में यह फिल्म लगे ही। सुप्रीमकोर्ट ने इतना कहा है कि यदि किसी संवैधानिक संस्था ने अनुमति दी है तो यह राजाग्या है इसका निर्बाध पालन हो। कोई इसे प्रसारित करता है बलपूर्वक इसे अवरोधित करना कानूनन जुर्म है। सरकारें कार्रवाई करें।
मैं फिल्म की अच्छाई या बुराई के पचड़े में फँसे बगैर सिर्फ इतना मानता हूँ की सरकार की संस्था फिल्म प्रमाणीकरण बोर्ड ने यदि फिल्म को प्रसारणीय बताते हुए अनुमति दी है तो फिल्म प्रसारणीय ही होगी। बोर्ड में हम लोगों से ज्यादा बुद्धि और विवेक रखने वाले सदस्य और अध्यक्ष हैं।
यह बोर्ड उसी सरकार के आधीन है जिसके प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी और मुखिया श्री रामनाथ कोविद हैं,राष्ट्र के प्रति इनकी प्रतिबद्धता सामान्य नागरिकों से ज्यादा ही है। सुप्रीमकोर्ट ने प्रकारान्तर में इन्हीं की सरकार के आदेश की हिफाजत की व्यवस्था के निर्देश दिए हैं।
अब सवाल उठता है कि इन सब के बीच हुड़दंगिए क्यों चौराहों पर नंगानाच कर रहे हैं? इसके सहज दो ही कारण नजर आते हैं, पहला यह कि हुड़दंगियों को कानून और दंड का भय उसी तरह नहीं है जैसा कि गुजरात के आंदोलनकारी पाटीदारों को नहीं, रेल की पटरियां उखाड़ने वाले जाटों और सड़क के काफिले लूटने वाले गूजर आंदोलनकारियों को नहीं था।
ये समूह खुद को संविधान से ऊपर या संविधान को ही नहीं मानते। (नक्सली भी हमारा संविधान कहाँ मानते हैं) दूसरा यह कि सरकारों की ही ऐसी सह हो सकती है कि आप लोग कुछ भी करिए हम आँखें मूदे रहेंगे। दोनों ही स्थितियाँ हमारे गणतंत्र को रक्तरंजित करने वाली हैं। दुनिया के सामने ये स्थितियाँ हमारी कबीलाई चरित्र या यों कहें तालेबानी तेवर से परिचित कराती हैं।
आखिर यह क्यों? जवाब हर विवेकवान नागरिक के पास है। सरकारें राजनीतिक दलों की बनती हैं। उस तख्त-ए-ताऊस पर कब्जा करने के लिए वोट की जरूरत पड़ती है और ऐसे कबीलिआई समूहों को साधना अब वोटबैंक सुनिश्चित करना होता है।
निर्वाचित सरकारों को इसके लिए कास्ट-क्रीड-रेस के भेदभाव से ऊपर उठकर लोकमंगल के लिए ली गई शपथ को भूलना पड़े तो वह भी चलेगा। गणतंत्र इनसब भेदभावों से ऊपर ऐसी समदर्शी व्यवस्था है जिस पर चलने में दुनिया के अधिसंख्य राष्ट्र खुद को गौरवान्वित महसूस करते हैं।
क्या अपना गणतंत्र आज ऐसी स्थिति में है? ध्यान रखियेगा पैदा किए गए प्रेतों को जब शिकार नहीं मिलता तो वे पैदाकरने वाले का ही शिकार करने लगते हैं। आज नहीं चेते तो कल इसे भोगने के लिए तैयार रहिएगा।
मनुस्मृति के सातवें अध्याय में राज्य की व्यवस्था और राजा के कर्तव्यों का वृतांत है। इसमें एक श्लोक है जिसका भावार्थ है- 'यदि राजा दंडित करने योग्य व्यक्तियों के ऊपर दंड का प्रयोग नहीं करता है, तो बलशाली व्यक्ति दुर्बल लोगों को वैसे ही पकाएंगे जैसे शूल अथवा सींक की मदद से मछली पकाई जाती है'।
दंड का भय समाप्त होता जा रहा है :
बढ़ते हुए हुड़दंग और उपद्रवों का सिलसिला यह बताता है कि दंड का भय समाप्त होता जा रहा है इसलिए अब कोई कानून की परवाह नहीं करता। लेकिन यह अर्धसत्य है। सत्य यह है कि दंड समदर्शी नहीं है। उसमें आँखें उग आई हैं तथा वह भी अब चीन्ह-चीन्ह कर व्यवहार करना शुरू कर दिया है। कानून की व्याख्या वोटीय सुविधा के हिसाब से होने लगी है।
समारोहों में कास्ट-क्रीड और रेस से ऊपर उठकर लोकमंगल के लिए काम करने की जो संवैधानिक शपथें ली जाती हैं वे दिखावटी हैं। इसीलिये हमारे गणतंत्र की पीठपर बैठकर हुड़दंगतंत्र रावणी अट्टहास कर रहा है और हमारा लोकतंत्र प्रौढ़ होने के पहले ही क्षयरोग का शिकार होकर हाँफने लगा है।
यदि हम गणतंत्र की गरिमा, उसके आदर्श और उसकी अभिलाषा के सम्मान की रक्षा में असमर्थ हैं तो फिर राजपथ में और तमाम जगह-जगह छब्बीस जनवरी का कर्मकाण्ड किसको दिखाने के लिए हर साल रचाते हैं? सोचना होगा।
https://www.facebook.com/jayram.shukla/posts/1589798774468584
Jayram Shukla
साँच कहै ता...जयराम शुक्ल
गणतंत्र दिवस के उत्सव में शामिल होने के लिए आसियान के दस देशों के राष्ट्रप्रमुख हमारे अतिथि हैं। वे राजपथ पर देश के शौर्य और सांस्कृतिक विविधता की झाँकी देखेंगे।
हुड़दंगतंत्र का मजा :
इसी के समानांतर देश के विभिन्न हिस्सों में एक और दृश्यावली चल रही है। वाहन फूँके जा रहे हैं। आज भी कहीं न कहीं तिरंगी झंडियां लिए स्कूल के समारोह में जा रहे बच्चों की बसें तोड़ी और पंचर की जा रही होंगी, सड़कों पर जलते टायरों का काला गुबार छाया होगा। दूकानदार दुबके और राहगीर सहमे होंगे।
ये सभी के सभी दृश्य राजपथ की झाँकियों के समानांतर उसी टीवी और सोशल मीडिया पर चल रहा होगा। दुनिया के लोग हमारे गणतंत्र के समानांतर चल रहे हुड़दंगतंत्र का भी मजा ले रहे होंगे। दुश्मन देश इन तत्वों का शुक्रिया अदा करते हुए राहत की साँस ले रहे होंगे कि चलो अपना कुछ तो गोला-बारूद बचा।
पिछले तीन-चार दिनों से देश खासतौर पर उत्तर भारत में जो चल रहा है वह तकलीफ़देह है। सुप्रीमकोर्ट की लाज को प्रदेश की सरकारों ने हुड़दंगियों के हवाले कर रखा है। पहली बार ऐसा हो रहा है कि चौराहों के हुजूम के बीच सार्वजनिक तौरपर गोली चलाने और आगजनी करने के ऐलान किए जा रहे हैं। पुलिस और प्रशासन निसहाय है। ऐसा लगता है कि प्रदेश की सरकारों ने हुड़दंगियों के आगे सरेंडर कर रखा है।
विवाद की जड़ बनी फिल्म पद्मावत के प्रसारण की अनुमति सरकार की ही एक संवैधानिक संस्था ने दी है। सुप्रीमकोर्ट का आदेश है कि फिल्म का प्रसारण सुनिश्चित किया जाए। जिनको नहीं देखना है वे इसका बहिष्कार कर सकते हैं। जिन टाँकीजों को अपने परदे पर इस फिल्म को नहीं दिखाना है वे इसके लिए भी पूरी तरह स्वतंत्र हैं।
फिल्म की आलोचना समालोचना, निंदा, प्रशंसा सभी के लिए लोग स्वतंत्र हैं। सुप्रीमकोर्ट ने इसके लिए कोई बाध्यकारी आदेश नहीं जारी किया है कि लोग देखने जाएं ही या सिनेमाघरों में यह फिल्म लगे ही। सुप्रीमकोर्ट ने इतना कहा है कि यदि किसी संवैधानिक संस्था ने अनुमति दी है तो यह राजाग्या है इसका निर्बाध पालन हो। कोई इसे प्रसारित करता है बलपूर्वक इसे अवरोधित करना कानूनन जुर्म है। सरकारें कार्रवाई करें।
मैं फिल्म की अच्छाई या बुराई के पचड़े में फँसे बगैर सिर्फ इतना मानता हूँ की सरकार की संस्था फिल्म प्रमाणीकरण बोर्ड ने यदि फिल्म को प्रसारणीय बताते हुए अनुमति दी है तो फिल्म प्रसारणीय ही होगी। बोर्ड में हम लोगों से ज्यादा बुद्धि और विवेक रखने वाले सदस्य और अध्यक्ष हैं।
यह बोर्ड उसी सरकार के आधीन है जिसके प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी और मुखिया श्री रामनाथ कोविद हैं,राष्ट्र के प्रति इनकी प्रतिबद्धता सामान्य नागरिकों से ज्यादा ही है। सुप्रीमकोर्ट ने प्रकारान्तर में इन्हीं की सरकार के आदेश की हिफाजत की व्यवस्था के निर्देश दिए हैं।
अब सवाल उठता है कि इन सब के बीच हुड़दंगिए क्यों चौराहों पर नंगानाच कर रहे हैं? इसके सहज दो ही कारण नजर आते हैं, पहला यह कि हुड़दंगियों को कानून और दंड का भय उसी तरह नहीं है जैसा कि गुजरात के आंदोलनकारी पाटीदारों को नहीं, रेल की पटरियां उखाड़ने वाले जाटों और सड़क के काफिले लूटने वाले गूजर आंदोलनकारियों को नहीं था।
ये समूह खुद को संविधान से ऊपर या संविधान को ही नहीं मानते। (नक्सली भी हमारा संविधान कहाँ मानते हैं) दूसरा यह कि सरकारों की ही ऐसी सह हो सकती है कि आप लोग कुछ भी करिए हम आँखें मूदे रहेंगे। दोनों ही स्थितियाँ हमारे गणतंत्र को रक्तरंजित करने वाली हैं। दुनिया के सामने ये स्थितियाँ हमारी कबीलाई चरित्र या यों कहें तालेबानी तेवर से परिचित कराती हैं।
आखिर यह क्यों? जवाब हर विवेकवान नागरिक के पास है। सरकारें राजनीतिक दलों की बनती हैं। उस तख्त-ए-ताऊस पर कब्जा करने के लिए वोट की जरूरत पड़ती है और ऐसे कबीलिआई समूहों को साधना अब वोटबैंक सुनिश्चित करना होता है।
निर्वाचित सरकारों को इसके लिए कास्ट-क्रीड-रेस के भेदभाव से ऊपर उठकर लोकमंगल के लिए ली गई शपथ को भूलना पड़े तो वह भी चलेगा। गणतंत्र इनसब भेदभावों से ऊपर ऐसी समदर्शी व्यवस्था है जिस पर चलने में दुनिया के अधिसंख्य राष्ट्र खुद को गौरवान्वित महसूस करते हैं।
क्या अपना गणतंत्र आज ऐसी स्थिति में है? ध्यान रखियेगा पैदा किए गए प्रेतों को जब शिकार नहीं मिलता तो वे पैदाकरने वाले का ही शिकार करने लगते हैं। आज नहीं चेते तो कल इसे भोगने के लिए तैयार रहिएगा।
मनुस्मृति के सातवें अध्याय में राज्य की व्यवस्था और राजा के कर्तव्यों का वृतांत है। इसमें एक श्लोक है जिसका भावार्थ है- 'यदि राजा दंडित करने योग्य व्यक्तियों के ऊपर दंड का प्रयोग नहीं करता है, तो बलशाली व्यक्ति दुर्बल लोगों को वैसे ही पकाएंगे जैसे शूल अथवा सींक की मदद से मछली पकाई जाती है'।
दंड का भय समाप्त होता जा रहा है :
बढ़ते हुए हुड़दंग और उपद्रवों का सिलसिला यह बताता है कि दंड का भय समाप्त होता जा रहा है इसलिए अब कोई कानून की परवाह नहीं करता। लेकिन यह अर्धसत्य है। सत्य यह है कि दंड समदर्शी नहीं है। उसमें आँखें उग आई हैं तथा वह भी अब चीन्ह-चीन्ह कर व्यवहार करना शुरू कर दिया है। कानून की व्याख्या वोटीय सुविधा के हिसाब से होने लगी है।
समारोहों में कास्ट-क्रीड और रेस से ऊपर उठकर लोकमंगल के लिए काम करने की जो संवैधानिक शपथें ली जाती हैं वे दिखावटी हैं। इसीलिये हमारे गणतंत्र की पीठपर बैठकर हुड़दंगतंत्र रावणी अट्टहास कर रहा है और हमारा लोकतंत्र प्रौढ़ होने के पहले ही क्षयरोग का शिकार होकर हाँफने लगा है।
यदि हम गणतंत्र की गरिमा, उसके आदर्श और उसकी अभिलाषा के सम्मान की रक्षा में असमर्थ हैं तो फिर राजपथ में और तमाम जगह-जगह छब्बीस जनवरी का कर्मकाण्ड किसको दिखाने के लिए हर साल रचाते हैं? सोचना होगा।
https://www.facebook.com/jayram.shukla/posts/1589798774468584
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (27-01-2018) को "शुभकामनाएँ आज के लिये" (चर्चा अंक-2861) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
गणतन्त्र दिवस की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'