डॉ.विष्णु राजगढ़िया |
मैं शुरू से कह रहा हूं कि पद्मावत का पूरा विवाद संजय की 'लीला' है। किसी फिल्म की पूरी कहानी तो उसके कलाकारों को भी मालूम नहीं होती। तब शूटिंग की शुरुआत में ही किसने उसकी स्टोरी लीक की? शूटिंग शुरू होते ही तोड़फोड़ के खिलाफ प्राथमिकी तक नहीं दर्ज कराई।
फिर फ़िल्म को सेंसर बोर्ड से पास कराने के दस्तावेज आधे-अधूरे जमा किये। फिर दस दिन के बाद फ़िल्म रिलीज होने की घोषणा कर दी। जबकि सेंसर सर्टिफिकेट में दो महीने लगते हैं।
सेंसर बोर्ड को नियमानुसार संतुष्ट करने के बजाय कुछ विद्वानों को फ़िल्म दिखाकर उनसे हरी झंडी ली। इस तरह सेंसर बोर्ड को ठेंगा दिखाकर नया विवाद पैदा किया। जो लोग करणी सेना के नाम पर हंगामा कर रहे थे, उन्हें फ़िल्म दिखाने से मना कर दिया। जबकि उन्हें फ़िल्म दिखाई होती, तो मामला सुलझ जाता।
सबको मालूम है कि आजकल टीवी खबरें और अखबारों के फ़िल्म पेज पर प्रायोजित यानी विज्ञापन नुमा खबरें आती हैं। ढंग से छानबीन हो तो हंगामा करने वालों और मीडिया पर इस विवाद को जिंदा रखने के पीछे संजय की 'लीला' साफ नजर आएगी।
ट्राइलओ *********/ फ़िल्म के ट्रेलर में हरे झंडे लहराते घुड़सवारों की फौज के रूप में आतताई आक्रमण के दृश्य भी इस फ़िल्म को एक खास ध्रुवीकरण की कोशिश भी दिख जाएगी। यह फ़िल्म एक तरफ मुस्लिम समुदाय के खिलाफ नफरत बढ़ाती है, दूसरी ओर राजपूताना शान के झूठे गौरव के जरिये वर्तमान पीढ़ी को अतीतजीवी और अव्यावहारिक बनाती है। सिनेमाघरों में तोड़फोड़ करने वाली अराजक भीड़ पैदा करके फ़िल्म तो लाभ बटोर लेगी, लेकिन देश-समाज को गहरा नुकसान हुआ है।
फ़िल्म के एजेंडे को समझना बेहद आसान है। ऐसी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देश को नरक की ओर ले जा रही है। मैंने शुरू में ही लिखा था कि नकली विरोध के जरिये जबरदस्त पब्लिसिटी के बाद फ़िल्म खूब लाभ कमाएगी।
दुखद है कि अभी कुछ मित्र यह फ़िल्म को देखने का आग्रह कर रहे हैं ताकि लोगों की 'गलतफहमी' दूर हो जाए। मुझे तो कोई गलतफहमी थी ही नहीं। मैं ऐसी फिल्म देखने के बजाय ऐसे प्रपंची फिल्मकारों को बददुआ देना ही पसंद करूंगा। असर जो हो।
(विष्णु राजगढ़िया पत्रकार होने के साथ आरटीआई कार्यकर्ता हैं और आजकल रांची में रहते हैं।)
साभार : http://janchowk.com/ART-CULTUR-SOCIETY/sanjay-leela-padmavat-film-censor-karni/1913
189 वर्ष बाद ' पद्मावत ' के जरिये बड़ी कठिनाई से बंद हुई ' सती ' कुप्रथा को पुनः महिमामंडित करके देश को सैकड़ों वर्ष पीछे धकेलना केवल एक फ़िल्मकार का खेल नहीं है बल्कि यह एक सोची - समझी साजिश है जो सत्तारूढ़ दल और उसके नियंता के द्वारा गढ़ी गई है। ~विजय राजबली माथुर ©
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (31-01-2018) को "रचना ऐसा गीत" (चर्चा अंक-2865) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'