जब किसी समाज को ध्वस्त करना होता है तब उसके पूर्वज महापुरुषों के चरित्र - हनन की कहानियाँ गढ़ी जाती हैं। ऐसा ही विदेशी शासन - काल में भारत में भी हुआ था। पुराणों के माध्यम से विदेशी शासकों ने यहाँ के पोंगा - पंथियों द्वारा जनता को भ्रमित करके विकृत ज्ञान दिलवाया था। चंद्रमा जो पृथ्वी का छाया ग्रह है को मुर्गा बन कर बांग देने का वर्णन प्रक्षेपित कराया गया है जिसके अनुसार इन्द्र ने गौतम मुनि की पत्नी अहल्या का यौन उत्पीड़न करने हेतु चंद्रमा का सहारा लिया ।
भागवत पुराण में विवाहित राधा को कृष्ण की प्रेमिका बना दिया गया है जबकि ब्रह्म पुराण में राधा कृष्ण की मामी बताई गई हैं । इस प्रकार मामी - भांजे की रास - लीला की कहानियाँ गढ़ी गई हैं।
इसी प्रकार ' दुर्गा ' - 'महिषासुर ' जैसी निरर्थक कहानियाँ देवी पुराण में मिल जाएंगी।
जब तक ऐसे निराधार कुतर्क समाज में धार्मिक चोला ओढा कर चलते रहेंगे तब तक समाज से महिला उत्पीड़न कैसे समाप्त किया जा सकता है ? आवश्यकता है समाज को चरित्र - भ्रष्ट बनाने वाले पुराणों को धार्मिकता के आडंबर से निकाल कर अश्लील एवं त्याज्य साहित्य घोषित करने और उससे दूर रहने का उपदेश देने की तभी समाज में नर - नारी समानता को पुनः बहाल किया जा सकेगा।
स्पष्ट रूप से पढ़ने के लिए इमेज पर डबल क्लिक करें (आप उसके बाद भी एक बार और क्लिक द्वारा ज़ूम करके पढ़ सकते हैं )
'नवरात्र पर्व '
अब से दस लाख वर्ष पूर्व जब इस धरती पर 'मानव जीवन ' की सृष्टि हुई तब अफ्रीका, यूरोप व त्रि वृष्टि (वर्तमान तिब्बत ) में 'युवा पुरुष' व 'युवा - नारी ' के रूप में ही। जहां प्रकृति ने राह दी वहाँ मानव बढ़ गया और जहां प्रकृति की विषमताओं ने रोका वहीं वह रुक गया। त्रि वृष्टि का मानव अफ्रीका व यूरोप के मुक़ाबले अधिक विकास कर सका और हिमालय पर्वत पार कर दक्षिण में उस 'निर्जन' प्रदेश में आबाद हुआ जिसे उसने 'आर्यावृत ' सम्बोधन दिया। आर्य शब्द आर्ष का अपभ्रंश था जिसका अर्थ है 'श्रेष्ठ ' । यह न कोई जाति है न संप्रदाय और न ही मजहब । आर्यावृत में वेदों का सृजन इसलिए हुआ था कि, मानव जीवन को उस प्रकार जिया जाये जिससे वह श्रेष्ठ बन सके। परंतु यूरोपीय व्यापारियों ने मनगढ़ंत कहानियों द्वारा आर्य को यूरोपीय जाति के रूप में प्रचारित करके वेदों को गड़रियों के गीत घोषित कर दिया और यह भी कि, आर्य आक्रांता थे जिनहोने यहाँ के मूल निवासियों को उजाड़ कर कब्जा किया था। आज मूल निवासी आंदोलन उन मनगढ़ंत कहानियों के आधार पर 'वेद' की आलोचना करता है और तथाकथित नास्तिक/ एथीस्ट भी जबकि पोंगापंथी ब्राह्मण ढोंग-पाखंड-आडंबर को धर्म के रूप में प्रचारित करते हैं व पुराणों के माध्यम से जनता को गुमराह करके वेद व पुराण को एक ही बताते हैं।
चारों वेदों में जीवन के अलग-अलग आयामों का उल्लेख है। 'अथर्व वेद ' अधिकांशतः 'स्वास्थ्य ' संबंधी आख्यान करता है। 'मार्कन्डेय चिकित्सा पद्धति ' अथर्व वेद पर आधारित है जिसका वर्णन किशोर चंद्र चौबे जी ने किया है। इस वर्णन के अनुसार 'नवरात्र ' में नौ दिन नौ औषद्धियों का सेवन कर के जीवन को स्वस्थ रखना था। किन्तु पोंगा पंथी कन्या -पूजन, दान , भजन, ढोंग , शोर शराबा करके वातावरण भी प्रदूषित कर रहे हैं व मानव जीवन को विकृत भी। क्या मनुष्य बुद्धि, ज्ञान व विवेक द्वारा मनन ( जिस कारण 'मानव' कहलाता है ) करके ढोंग-पाखंड-आडंबर का परित्याग करते हुये इन दोनों नवरात्र पर्वों को स्वास्थ्य रक्षा के पर्वों के रूप में पुनः नहीं मना सकता ?
~विजय राजबली माथुर ©
********************************************************************
फेसबुक कमेंट्स ;
No comments:
Post a Comment
इस ब्लॉग पर प्रस्तुत आलेख लोगों की सहमति -असहमति पर निर्भर नहीं हैं -यहाँ ढोंग -पाखण्ड का प्रबल विरोध और उनका यथा शीघ्र उन्मूलन करने की अपेक्षा की जाती है.फिर भी तर्कसंगत असहमति एवं स्वस्थ आलोचना का स्वागत है.किन्तु कुतर्कपूर्ण,विवादास्पद तथा ढोंग-पाखण्ड पर आधारित टिप्पणियों को प्रकाशित नहीं किया जाएगा;इसी कारण सखेद माडरेशन लागू है.