Hemant Kumar Jha
55 mins (19-07-2019 )
वे अपने राजनीतिक इतिहास के सबसे खुशनुमा दौर से गुजर रहे हैं। अपेक्षाओं से भी अधिक जनसमर्थन मिला है उन्हें। केंद्र के साथ ही अधिकतर राज्यों में उन्हीं की सरकारें हैं। फिर...वे इतने हलकान क्यों हैं? न्यूनतम राजनीतिक शुचिता और लोकलाज को भी ताक पर रख वे क्यों खुला खेल फर्रुखाबादी खेलने में लगे हैं?
आखिर क्यों...?
क्या ये कुछ और राज्यों में महज सत्ता हासिल करने के लिये है?
उन्हें क्या हासिल हो जाएगा अगर वे तमाम राजनीतिक नैतिकताओं को दरकिनार कर कर्नाटक में भी अपनी सरकार बना लें? या...भविष्य में इसी खेल के सहारे मध्य प्रदेश या राजस्थान में?
दरअसल, इसे सिर्फ भाजपा की राजनीति से जोड़ना इस खेल के बृहत्तर उद्देश्यों को समझने में चूक करना है। भाजपा नामक राजनीतिक दल को ऐसे फूहड़ और अनैतिक कृत्यों से तात्कालिक तौर पर जो कुछ लाभ हो जाए, दीर्घकालिक तौर पर नुकसान ही है। आखिर...खुद को "पार्टी विद डिफरेंस" कहते हुए ही इसने जनता के दिलों में अपनी अलग पहचान बनाने की कोशिश की थी।
भाजपा को जब इतिहास से साक्षात्कार करना होगा तो आज की उसकी राजनीतिक दुरभिसन्धियों और अनैतिकताओं पर उसे जवाब देते नहीं बनेगा।
लेकिन, बात भाजपा की नहीं रह गई है। पार्टी तो नेपथ्य में चली गई है और उसके पारंपरिक थिंक टैंक सदस्य 'साइलेंट मोड' में हैं या अप्रासंगिक बना दिये गए हैं।
जो प्रभावी भूमिका में हैं उनके उद्देश्य कुछ और हैं। इन उद्देश्यों तक पहुंचने के लिये साधनों की शुचिता का उनके लिये कोई मतलब नहीं। क्योंकि...उनके उद्देश्य भी शुचिता के धरातल पर कहीं नहीं ठहरते।
वे और ताकतवर...और ताकतवर होना चाहते हैं। जितने राज्यों में उनकी सरकारें होंगी, उनकी ताकत उतनी बढ़ेगी। इसके लिये लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं की प्रतीक्षा करने का धैर्य उनमें नहीं।
वे कैसे धैर्य रख सकते हैं? वे जानते हैं कि पार्टी कल भी रहेगी, परसों भी रह सकती है, लेकिन वे कल नहीं रहेंगे।
जो करना है अभी करना है।
भारत को दुनिया की सर्वाधिक मुक्त अर्थव्यवस्था बनाना है। वक्त कम है, उद्देश्य बड़ा है। इसके लिये अधिक से अधिक ताकतवर बनना है, चाहे जैसे भी हो।
लोकतंत्र में ताकत की परिभाषा संख्याबल से निर्धारित होती है तो...हम चुनाव से ही नहीं, थैली खोल कर भी संख्या बल बढाएंगे। धमकियों से, षड्यंत्रों से, पैसों से...जब जहां जो प्रभावी हो जाए।
कौन है वे लोग जो इनके लिये थैलियां खोल कर बैठे हैं?
वही...जिन्हें सरकारी संपत्ति खरीदनी है।
प्रतीक्षा कीजिये...वे सब खरीद लेंगे, ये सब बेच देंगे।
संविधान के अनेक प्रावधानों को बदलने में विधान सभाओं की भी भूमिकाएं होती हैं, राज्यसभा में संख्या बल बढाने के लिये विधान सभाओं में मजबूत होना जरूरी है।
तो...चाहे जिस रास्ते हो, वे विधानसभाओं को एक-एक कर अपने नियंत्रण में लेते जा रहे हैं।
असीमित शक्ति...एक डरावना सच। यह लोकतंत्र नहीं है।
नहीं, उनकी छाया में लम्पटों के कुछ समूह शोर चाहे जितना करें उत्पात चाहे जितना मचाएं, उन्हें हिदुत्व आदि से कोई लेना देना नहीं। चुनाव जीतने के लिये हिंदुत्व, राष्ट्रवाद, पाकिस्तान आदि थे। चुनाव खत्म...अब ये मुद्दे उनके एजेंडा में नहीं।
बस...आर्थिक उद्देश्य हैं उनके। देश को कारपोरेट राज के हवाले करना है उन्हें।
कोई और भी आता तो कारपोरेट शक्तियों के आगे दुम ही हिलाता। लेकिन, इनकी बात ही अलग है। इनमें दुर्धर्ष साहस है, अनहद बेशर्मी है, झूठ को सच और सच को झूठ बना कर जनता को भ्रमित कर देने का असीमित कौशल है।
इसलिये...ये कारपोरेट को बहुत प्यारे हैं। इसलिये, विधायको, सांसदों की खरीद-फरोख्त के लिये थैलियां खुली हैं, बोलियां लग रही हैं। आज कर्नाटक, कल बंगाल, परसों मध्यप्रदेश, फिर राजस्थान...फिर और कहीं।
अच्छा है। इनके राज में मीडिया ने दिखा दिया कि वह कितना गिर सकता है, अनेक संवैधानिक शक्तियों ने दिखा दिया कि वे कितने पालतू हो सकते हैं और...नेता लोग भी दिखा रहे हैं कि बाजार के आलू-बैंगन और उनमें कितना फर्क रह गया है।
इस दौर के अनैतिक खोखलेपन को उजागर करने के लिये इनका राज याद किया जाएगा।
खुली थैलियों के आगे कौन कितनी देर ठहर सकता है? कसौटी पर है भारतीय राजनीति, समाज, संवैधानिक प्रतिमान।
कारपोरेट उत्साह में है। थैलियों का मुंह खुला है।
क्योंकि...दांव पर बहुत कुछ है।
भूल जाइये कि रेल मंत्री ने संसद में कहा कि रेल का निजीकरण नहीं करेंगे। ये सब तो...बातें हैं बातों का क्या।स्कूल बिकेंगे, कॉलेज बिकेंगे, यूनिवर्सिटियां बिकेंगीस्कूल बिकेंगे, कॉलेज बिकेंगे, यूनिवर्सिटियां बिकेंगी
बैंक बिकेंगे, सार्वजनिक क्षेत्र की तमाम कम्पनियां बिकेंगी। नई शिक्षा नीति आ रही है। देखते जाइये...स्कूल बिकेंगे, कॉलेज बिकेंगे, यूनिवर्सिटियां बिकेंगी। देश के बेशकीमती संसाधन औने-पौने दामों पर बिकेंगे। आप रामधुन गाते रहिये। टीवी स्क्रीन पर बिके हुए बेगैरत एंकरों को हिन्दू-मुसलमान, भारत-पाकिस्तान आदि पर डिबेट करते-कराते देखते रहिये।
आपकी आंखों के सामने देश का आर्थिक स्वत्व छीना जा रहा है। हम सबको कारपोरेट का गुलाम बनाने की कवायद जोर-शोर से जारी है।
रेलवे कारपोरेट के निशाने पर है। इसकी नसों में जहर का इंजेक्शन दिया जा रहा है। धीरे-धीरे खुद ब खुद भरभरा कर गिर जाएगा यह और...संभालने के लिये कारपोरेट की शक्तियां आ जाएंगी।
कौन सी कम्पनी वास्तविक तौर पर कितने की थी, कितने में बिकी...कौन जान सकता है? वे जो बताएंगे, हम वही सुनेंगे।
वे अपने अभियान पर हैं। वे न थक रहे, न रुक रहे। उनके उद्देश्य नितांत जनविरोधी हैं, लेकिन उनके अथक प्रयत्नों की तारीफ तो बनती ही है। खास कर तब...जब विपक्ष के तमाम कर्णधार शीतनिद्रा में हों।
~विजय राजबली माथुर ©
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