घुमंतू समुदाय पर बुरी पड़ी लॉकडाउन की मार ------ अश्वनी शर्मा
कॉमन रूम
बावरी, बागरी, रायका और रैबारी के सामने सबसे बड़ी मुसीबत यह है कि इनके पास अपने रेवड़ को चराने के लिए कुछ भी नहीं है। ये लोग किराए पर रेवड़ चराते हैं।
लॉकडाउन का सबसे बुरा प्रभाव घुमंतुओं पर पड़ा है। हमारी आबादी में 10 फीसदी लोग घुमंतू समुदाय से हैं। इनमें से कोई जानवर चराता है, कोई जड़ी-बूटी इकट्ठा करता है। कोई पानी या मिट्टी का खास जानकार है तो कोई बहरूपिया बनकर लोगों का मनोरंजन करता है। आज भी 72 फीसदी घुमंतू टपरी या तंबू में ही रहते हैं। लॉकडाउन में अधिकतर को पकड़कर सरकारों ने एक जगह पर जमा कर दिया है, जिससे इनका जीवन पूरी तरह से रुक चुका है।
त्रासदी तो यह है कि आजादी के 73 साल बीतने के बाद भी हमें नहीं पता कि इन समुदायों की संख्या कितनी है? कोई रिपोर्ट 840 कहती तो कोई 600 बताती है। रैनके आयोग की रिपोर्ट कहती है कि इन समुदायों की जनसंख्या हमारी कुल जनसंख्या का 10 फीसदी है। इन समुदायों की संख्या कितनी भी हो, एक बात साफ है कि सभी समुदाय ज्ञान के विशिष्ट भंडार हैं। कोई समुदाय जड़ी-बूटियों का जानकार है तो किसी समुदाय के पास जानवरों के बारे में गजब का ज्ञान है। कोई समुदाय संगीत का जादूगर है, तो कोई स्टोरी टेलिंग बहुत अच्छी करता है। कोई समाज खेल-करतब वाला है तो किसी समुदाय का हस्तशिल्प अनूठा है।
सिंगीवाल, गोंड चितोड़िया, कालबेलिया ओर कंजर समुदाय जड़ी-बूटी स्पेशलिस्ट हैं। ये लोग वर्ष में दो बार ही जड़ी-बूटियां इकट्ठा करते हैं। एक बार मार्च-अप्रैल में और दूसरी बार बारिश होने के बाद। गरमुंडा, पलाश, कचनार और कदंब के फूल मार्च-अप्रैल में गिरते हैं। ये समुदाय इन फूलों को बीनते हैं, सुखाते हैं, और पीसकर पाउडर बनाते हैं। फिर उनको अन्य औषधियों के साथ मिलाकर उनका मिश्रण तैयार करके बेचते हैं।
बावरी, बागरी, रायका और रैबारी अपने पशुओं के मौसमी स्थानांतरण से न केवल मिट्टी का प्रबंधन करते हैं, बल्कि किसानों से पशुधन का साठा (अदला-बदली) भी करते हैं। लॉकडाउन के चलते अधिकांश पशुचारक अपने रेवड़ों समेत हरियाणा और मध्य प्रदेश के रतलाम, ग्वालियर जिलों में फंसे हैं। इसलिए इस बार साठा नहीं हो पाया। वहीं इनके सामने सबसे बड़ी मुसीबत यह है कि इनके पास अपने रेवड़ को चराने के लिए कुछ भी नहीं हैं। अधिकांश चरवाहे किराए पर रेवड़ चराते हैं, जिनसे ये लोग जैविक खाद भी बनाते हैं। इनकी खाद प्रयोग करने पर पानी भी कम लगता है। लॉकडाउन में यह न तो रेवड़ चरा पाए हैं और न ही खाद बना पाए हैं, जिसके चलते किसानों को खेत में खाद भी नहीं मिल पाई। कुछ शिकारी समुदाय, जैसे वन बावरिये, मोग्या, कालबेलिया आदि सुविधाओं के अभाव में वापस शिकार की तरफ रुख करेंगे। इससे वन्य जीवन पर विपरीत असर पड़ेगा, सामाजिक ताना-बाना भी टूटेगा।
बहुरूपिया, नट, कठपुतली भाट, भोपा, कलंदर, मदारी, मिरासी इत्यादि मजमे पर टिके हैं। मजमा अच्छा लगा तो इनाम अच्छा मिलता है। अब लॉकडाउन खुल जाए तो भी आने वाले कुछ महीनों तक गांवों में इन लोगों को कार्यक्रम की अनुमति नहीं मिलेगी। कला केंद्रों, शादी-विवाह आदि में लोगों की संख्या फिक्स है तो लंगा मांगणियार, ढोली, ढाढ़ी को भी कोई नहीं बुलाएगा। इनमें भी अधिकतर मुस्लिम हैं। उन पर कोरोना फैलाने की अफवाह पहले से ही उड़ी हुई है तो उन पर अत्याचार भी बढ़ेंगे। इनसे सामाजिक सहिष्णुता टूटेगी।
कुछ घुमंतू समुदाय, जिनमें कंजर, पेरना, राज नट, बेड़िया इत्यादि हैं, देह व्यापार करते हैं। मुंबई में बार डांसर भी अधिकांश नटनी या कंजर महिलाएं ही हैं। इनके इस काम के पीछे व्यवस्था की कमी से जुड़े कई कारण हैं। सरकारी और सामाजिक संस्थाओं के प्रयासों से इसमें कमी आ रही थी, लेकिन अब ये ज्यादा संभावना है कि रोजगार के अभाव में ये समुदाय वापस देह व्यापार की ओर लौटें। इससे पिछले 20 वर्षों की मेहनत पर भी पानी फिर जाएगा। अकेले राजस्थान में 52 घुमंतू समुदाय हैं जिनकी आबादी 60 लाख है। किंतु यहां सरकार ने खाद्य सुरक्षा का 5 किलो अन्न देने का जो नियम निकाला है, उससे भी इन समुदायों को बाहर कर दिया। घुमंतू समुदाय देश की अनमोल धरोहर हैं, जिन्हें लॉकडाउन ने बुरी तरह से तोड़कर रख दिया है। सरकार अगर इन्हें जल्द नहीं सहेजेगी, तो इतना तो तय है कि बहुत कुछ है जो बिखर जाएगा।
http://epaper.navbharattimes.com/details/110255-77320-2.html
~विजय राजबली माथुर ©
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