लेखिका-श्रीमती पूनम माथुर
इंसान भगवान को ढूँढता है.परन्तु असल में भगवान कहाँ छुपा हुआ है,किसी को पता नहीं है.परन्तु भगवान तो प्रत्येक व्यक्ति के अन्दर समाया हुआ है.प्रसिद्ध साहित्यकार राजा राधिका रमण की कहानी -''दरिद्र नारायण'' में राजा भगवान की खोज करता है.ताज उसके सिर पर बोझ या भार हो चला है.मंदिर,जंगलों,कहाँ-कहाँ नहीं उसने भगवान को ढूँढा पर भगवान उसे प्राप्त नहीं होते हैं.महर्षि के आश्रम में जब वह जाता है,भगवान की खोज करता है तो उसे महर्षि के आसन पर एक काला कलूटा कंकाल वही भिखारी बैठा दिखाई देता है जिसे उसके सिपाहियों ने पीटा था यह कह कर कि राजा की सवारी निकल रही है और तुमने अपशकुन कर दिया.
जब राजा ने उसे वहां बैठा हुआ देखा तो राजा के दिमाग में यह बात आई कि सच्ची प्रार्थना ,सच्ची पूजा,सच्ची सेवा तो मानवता की करनी चाहिए.सेवा दीन-हीन व्यक्तियों की करनी चाहिए.तभी नर में नारायण के दर्शन होंगे.अगर अपने अन्दर मानव की सेवा करने की भावना है तो आप परमात्मा के सच्चे सेवक हैं.वही परमात्मा की सेवा है.प्राणिमात्र से प्यार करो,घृणा के भाव को ख़त्म करो ,ईर्ष्या द्वेष को मिटा दो.
इस शरीर रूपी मंदिर में परमात्मा स्वंय आ जायेगा.कबीर जी कहते हैं स्वयं को पहचानो,अपनी जांच स्वयं करो तब और जब आप स्वयं ऐसा करने में सफल हो जायेंगे तो स्वतः ही आप अपने उद्धारक बन जायेंगे.अगर संसार का प्रत्येक प्राणी इन विचारों से ओत प्रोत हो जाए तो फिर संसार स्वर्ग की तरह हो जायेगा.संसार सुधरने लगेगा और सुन्दर लगेगा.विकार ख़त्म होने लगेंगे.
वैसे सुखद संसार के लिए धन नहीं,अच्छा व्यक्ति चाहिए.अगर मानव विकास चाहता है तो अपने अन्दर मानवता को जगाए.अगर हम सफल जीवन की कामना करते हैं तो प्रेम और सौहार्द्र ,भाईचारे की भावना को अपने अन्दर लाना होगा.एक बार फिर अपने में सच्ची श्रद्धा की भावना लानी होगी.आत्म विश्वास को पुनः जगाना होगा.तभी हम सारी समस्याओं का सामना कर उन्हें सुलझा पाएँगे.आज हमें इसी श्रद्धा की भावना की आवश्यकता है.मनुष्य में तो इसी श्रद्धा की भावना का अंतर है कि कोई अपने से बड़ा और कोई अपने से छोटा समझता है.
हमारे पूर्वजों ने अपने आत्मविश्वासी प्रेरणा शक्ति के आधार पर हमारी सभ्यता को इतनी ऊंची सीढ़ियों पर चढ़ाया था परन्तु अब इसका पतन हो गया है,अवनति हो गयी है.अवनति तभी से शुरू हुई जब से हमने श्रद्धा और आत्मविश्वास को खोना शुरू कर दिया.हम अपने अंदर आत्मविश्वास को जगाएं और फिर मानवता को उसी जगह से ले चलें जहाँ हमारे पूर्वजों ने ला कर खड़ा किया था.किसी ने कहा है कि मानव की पूजा कौन करे? मानवता पूजी जाती है.हम सबसे पहले तो मानव बनने की कोशिश करें.अगर हम सच्चे अर्थों में मानव बन गए तो हमने मानवता की सेवा कर ली.संसार के प्राणिमात्र से प्यार करना प्रभु के विराट रूप का दर्शन करना है.जैसे जितने पदार्थ हैं सब उसी परमेश्वर के प्रतिरूप हैं.सभी शरीर उसी के हैं पशुओं व पक्षियों की भी सेवा करनी चाहिए.
जैसे सूर्य अच्छे बुरे सभी व्यक्तियों को या प्राणिमात्र को सामान रूपसे प्रकाश प्रदान करता है.गंगा का जल दुष्ट और संत सभी के लिए सामान रूप से है,समस्त प्राणिमात्र के लिए है.वृक्ष रखवाले और पेड़ काटने वाले सभी को सामान रूप से फल प्रदान करता है,उसी तरह से आप अपनी सम-दृष्टि का विकास करें.नाम और रूप भले ही अलग-अलग हैं पर उसमे जो तत्व हैं वह समान और एक ही हैं.ये सारे नाम और रूप ,संसार और वस्तु उसी पर अवलंबित हैं उसी का प्रतिबिम्ब है.
हम सभी को परमात्मा ने एक समान आधार पर जोड़ा है,इसी एकता की स्थापना पर विश्वमात्र निर्भर है.सब से प्रेम एक रूप हो कर करो.सब के सुख-दुःख साथ-साथ बांटो.चारों ओर प्रसन्नता की किरणें फूट पड़ेंगी,तभी मानवता की सच्ची सेवा होगी. राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त जी के अनुसार-
अनर्थ है कि बन्धु ही न बन्धु की व्यथा हरे
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे
यही पशु प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे
(विशेष- यह लेख २००४ ई.में आगरा की एक त्रैमासिक पत्रिका में प्रकाशित हो चुका है.आज भी इस लेख की उपयोगिता बढ़ गयी है जब पूजा -स्थल को ले कर एक बार फिर इंसान -इंसान के बीच नफरत पैदा करने की कोशिश कुछ लोग कर रहे हैं.अतः इसे यहाँ पुनः प्रकाशित किया जा रहा है.)
Typist -यशवंत
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ReplyDeleteपूनम जी,
नमस्ते !
आपका लेख पढ़ा। बहुत ही सार्थक एवं सामयिक पोस्ट है। इस लेख को दुबारा प्रकाशित करना भी बहुत ज़रूरी था। आज के परिपेक्ष्य में मानवता ही हमारा धर्म होना चाहिए।
बहुत सुन्दर पंक्तियाँ कही गयी हैं...
-- मनुष्य वही की जो मनुष्य के लिए मरे --
इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए आपका आभार।
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दिव्या जी
ReplyDeleteइतनी सुन्दर अभिव्यक्ति के लिए धन्यवाद!
पूनम