Monday, September 5, 2011

सत्ता-संघर्षों की दास्तान ------ विजय राजबली माथुर

आज भी मुझे याद है कि 05 सितंबर 1962 को कक्षा 06 मे रूक्स हायर सेकेन्डरी स्कूल (जो अब रवीन्द्र नाथ टैगोर इंटर कालेज हो गया है),बरेली कैंट मे कक्षाध्यापक दीना नाथ जी ने बताया था कि उस सुबह सर्व-प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने सर्व पल्ली डा राधाकृष्णन को माल्यार्पण कर अभिनंदन किया था। तब से उनका जन्मदिन प्रतिवर्ष 'शिक्षक दिवस ' के रूप मे मनाया जा रहा है। अब तो छात्रों से शिक्षकों हेतु चन्दा लिया जाता है लेकिन तब हम लोगों से नहीं लिया जाता था बल्कि शिक्षक गण बंद डिब्बे मे आम जनता से चन्दा एकत्र करते थे। दीना नाथ जी ने जिन 5 छात्रों को अपनी टीम मे साथ लिया था उनमे एक मुझे भी शामिल कर लिया था। लिहाजा छुट्टी हो जाने के बावजूद मुझे भी  उनके साथ बाजार-बाजार घूमना पड़ा। लौटते मे उन्होने बिस्कुट सब को खिलवा दिये थे। वह ही सब को उनके घर तक छोडने गए थे। एक सहपाठी के पिताजी और मेरे बाबूजी गोला बाजार मे खड़े थे हम लोगों की फिक्र मे,दीना नाथ जी ने उन दोनों को समझा दिया कि वह अपने साथ ले गए थे। तब के शिक्षकों मे आत्मीयता थी।

डा राधाकृष्णन जी को दार्शनिक राष्ट्रपति कहा गया है जबकि डा राजेन्द्र प्रसाद जी का चिंतन और लेखन भी दार्शनिक था । नेहरू जी ने उनसे मतभेद के चलते उन्हें तीसरा चांस नहीं दिया था। राधा कृष्णन जी 16 वर्ष लंदन मे अग्रेज़ी के अध्यापक रहे थे और नेहरू जी को बेहद प्रिय थे। 1962 मे चीनी आक्रमण मे भारत की फौजी पराजय के सदमे से नेहरू जी गंभीर रूप से बीमार पड़ गए तब 1963 मे राधाकृष्णन जी की महत्वाकांक्षा जाग्रत हो गई। के कामराज नाडार ,कांग्रेस अध्यक्ष जो उनके प्रांतीय भाषी थे से मिल कर उन्होने नेहरू जी को हटा कर खुद प्रधान मंत्री बनने और कामराज जी को राष्ट्रपति बनवाने की एक गुप्त स्कीम बनाई। परंतु उनका दुर्भाग्य था कि( वह नहीं जानते थे कि उनके एक बाड़ी गार्ड साहब जो तमिल भाषी न होते हुये भी अच्छी तरह तमिल समझते थे ) नेहरू जी तक उनकी पूरी स्कीम पहुँच गई जिसका खुलासा उस सैन्य अधिकारी ने अवकाश ग्रहण करने के पश्चात अपनी जीवनी मे किया है।

'कामराज प्लान' मे भ्रष्ट और वृद्ध लोगों को हटा कर नए लोगों को आगे लाने की बात थी। यू पी मे चंद्र भानू गुप्ता खुद हट गए और फैजाबाद से सांसद श्रीमती सुचेता कृपलानी को मुख्यमंत्री बनवा दिया। इसी प्रकार दूसरे प्रदेशों के मुख्यमंत्री भी बदल गए। पी एम नहरूजी ने भी हटने का प्रस्ताव इस प्रकार किया कि उसे कांग्रेस पार्टी ने रिजेक्ट कर दिया और कामराज जी मुंह देखते रह गए। यह गैर-राजनीतिक और दार्शनिक राधाकृष्णन जी की भी पराजय थी।

आज 48 वर्ष बाद कांग्रेस मे उस कहानी को दूसरे ढंग से दोहराया गया है। अब कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया जी गंभीर बीमारी का इलाज करने जब अमेरिका चली गईं तो उनकी गैर हाजिरी मे उनके द्वारा नियुक्त 4 सदस्यीय कमेटी (राहुल गांधी जिसका महत्वपूर्ण अंग हैं)को नीचा दिखाने और सोनिया जी को चुनौती देने हेतु गैर राजनीतिक और अर्थशास्त्री प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह जी ने अपने पुराने संपर्कों(I M F एवं WORLD BANK) को भुनाते हुये फोर्ड फाउंडेशन से NGOs को भारी चन्दा दिला कर और बागी इन्कम टैक्स अधिकारी अरविंद केजरीवाल तथा किरण बेदी (असंतुष्ट रही पुलिस अधिकारी) के माध्यम से पूर्व सैनिक 'अन्ना हज़ारे' को मोहरा बना कर 'भ्रष्टाचार' विरोधी सघन आंदोलन खड़ा  करवा दिया।

सोनिया समर्थक कांग्रेसी इस चाल को समझ और देख रहे थे कि किस प्रकार सुषमा स्वराज (भाजपा नेता) प्रधानमंत्री को सहयोग कर रही हैं। चाहे का गुरुदास दास गुप्ता द्वारा प्रस्तुत 'निंदा' प्रस्ताव हो चाहे अन्ना का अनशन समाप्त कराने का प्रस्ताव भाजपा सरकार के साथ खड़ी थी।

1991 मे जब रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर मनमोहन सिंह जी वित्त मंत्री बने तब उनकी नीतियों को अमेरिका जाकर आडवाणी साहब ने भाजपा की नीतियों को चुराया जाना बता कर सराहा था। भाजपा/जनसंघ तो थे ही साम्राज्यवाद संरक्षक परंतु 1980 मे इंदिराजी ने जनता पार्टी को शिकस्त देने हेतु संघ के समर्थन से जो चुनाव जीता (जिसमे भाजपा को मात्र 02 सीटें मिलीं थीं और तमाम संघी कांग्रेस के बैनर पर जीते थे) उसी का परिणाम रहा श्रमिक विरोधी नीतियों का अपनाया जाना तथा निजीकरण की भूमिका बांधना। 1984 मे भी राजीव गांधी को संघ का समर्थन था जिसका परिणाम हुआ बाबरी मस्जिद/राम जन्म भूमि का ताला खुलना।

1989 मे 'मण्डल कमीशन' की सिफ़ारिशें लागू होने पर 'कमंडल' रथ यात्राओं से आडवाणी जी ने देश को सांप्रदायिक दंगों की भट्टी मे झोंक दिया। 1992 मे पूर्व संघी स्वंय सेवक नरसिंघा राव जी के प्रधान् मंत्रित्व  मे जब मनमोहन सिंह जी वित्त मंत्री थे अयोध्या का ढांचा गिरा दिया गया। धन-बल से राव सरकार अल्पमत होते हुये भी चलायी गई। कारपोरेट घरानों को अपनी राजनीतिक शक्ति पहचानने का भरपूर अवसर मिला।

1998 से 2004 तक 06 वर्ष प्रधान मंत्री रह कर बाजपेयी जी ने सत्ता मनमोहन जी को सौंप दी। अब इनकी नीतियों ने जम कर अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया है। बंगाल मे बाम-पंथ का शासन खत्म होने की खुशी मे पेट्रोल,डीजल,गैस,के दाम अनावश्यक रूप से बढ़ा कर रेकरिंग मंहगाई बढ़ा दी गई और जनाक्रोश को दूसरी तरफ मोड़ने हेतु कुशल अर्थशास्त्री जी ने अन्ना जी को संत बना कर प्रायोजित करा दिया। नारे उछाल दिये गए 'अन्ना नहीं आंधी है,दूसरा गांधी है'। गांधी के हत्यारे ही गांधी भक्त के चोले मे अन्ना -अनुयायी बन गए। 1977 मे भी नारे उछले थे- 'यह पवन नहीं आंधी है ,छत्तीस गढ़ का गांधी है।' युवा समाजवादी सन्यासी पवन दीवान एम पी मे शिक्षा मंत्री के रूप मे एयर कंडीशन कार से सफर करते-करते कांग्रेस मे शामिल होकर अब कहाँ हैं?

इंटरनेटी समृद्ध लोग अन्ना आंदोलन की मुख्य कड़ी रहे हैं जिंनका आचरण तानाशाहीपूर्ण ,असभ्य और बर्बर रहा है। फेस बुक पर विदेश स्थित अमीर ने 'बकवास' एवं दिल्ली स्थित इंजीनियर साहब ने 'वाहियात' लिख कर अन्ना साहब की पोल खोलने की आलोचना की है। नीचे विभिन्न ब्लाग्स से उनके रेफरेंस सहित विवरण दिया जा रहा है जो अन्ना आंदोलन के सत्य को स्पष्ट करने हेतु पर्याप्त है। अंत मे प्रमाण-स्वरूप अखबारों के स्कैन भी दिये जा रहे हैं। मणिपुर की मानवाधिकार आंदोलनकारी सुश्री इरोम शर्मीला का यह वक्तव्य भी ध्यान देने योग्य है-

"वह अन्ना हज़ारे नहीं हैं ,एक साधारण कार्यकर्ता हैं,इसलिए दस साल से भूख हड़ताल पर बैठी होने के बावजूद सरकार उनके प्रति संवेदनशीलता नहीं दिखा रही है। "

इरोम शर्मीला को कारपोरेट घरानों तथा विदेशी फाउंडेशनों एवं भ्रष्ट सरकारी अधिकारियों का समर्थन प्राप्त  नहीं है इसी लिए सरकार उन्हें महत्वहीन मान रही और उनके जायज आंदोलन की उपेक्षा कर रही है। वह बाजपेयी जी के समय से अनशन पर हैं तब संघ/भाजपा कहाँ था?अन्ना जी संघ को इसलिए प्रिय हैं क्योंकि उन्होने भारतीय संविधान और संसद को चुनौती दी है और संघ इस संविधान को उखाड़ फेंकना चाहता है इसलिय उन्हें उछाल रहा है।

हमे सत्ता प्रतिष्ठानों के संघर्षों से कोई मतलब नहीं है कि मनमोहन जी सोनिया जी को उनकी अनुपस्थिति मे हिला पाये अथवा नहीं या कि 2014 मे पूर्ण बहुमत मिलने अथवा सरकार बनाने की दशा मे वह मनमोहन जी को हटा कर किसी दूसरे को  पी एम बनाना चाहेंगी तो मनमोहन जी भाजपा के समर्थन से पुनः सत्ता कब्जाना चाहेंगे अथवा नहीं। हमारी चिंता यह है कि किस प्रकार गरीब-किसान,मजदूर को न्याय मिलेगा?उनकी आवाज बुलंद करने को कोई आगे आयेगा अथवा नहीं?अन्ना जी के महाराष्ट्र मे किसान भूख से आत्म-हत्या कर रहे हैं तो करें अन्ना जी की बला से !अन्ना जी को किसान -मजदूर नहीं कारपोरेट घरानों से हमदर्दी है। 8-8 कमांडोज़ के घेरे मे चलने वाले वी वी आई पी अन्ना जी के इंटरनेटी भक्त बड़े खुश होंगे अपने गांधी की सरकारी आव-भगत से। मुझे तो इसमे आगे आने वाले समय मे नक्सल्वाद की मजबूती होती दीख रही है। जब लोकतान्त्रिक विकल्प गरीबों को न्याय नहीं दिला सकेंगे तो एकमात्र रास्ता सशस्त्र संघर्ष और हिंसा का ही बचेगा। अन्ना के पीछे लामबंद कारपोरेट जगत, इंटरनेटी उनके भ्रष्ट भक्त देश को गृह-युद्ध की ओर धकेलने की तैयारी कर रहे हैं जैसी की अमेरिकी योजना है।
22-06-2020 


'मेघनेट'मे भूषण जी के विचार-
"इन्होंने प्रत्यक्ष रूप से देश के लोकतंत्र, चुनाव प्रणाली और संविधान को ललकारा है. इन संगठनों को कई हज़ार करोड़ रुपयों की देशी-विदेशी वित्तीय सहायता शिक्षा, आदिवासी कल्याण, आदि के लिए मिलती है.
जिस प्रकार इन गैर सरकारी संगठनों ने अपने आंदोलन को धन बल से अग्रसर किया है उसे लेकर कई आशंकाएँ उत्पन्न होना स्वाभाविक है. तिस पर तुर्रा यह है कि ये स्वयं को लोकपाल के तहत लाने की बात को सिरे से नकार चुके हैं. तो क्या ऐसे संगठन केवल सिविल सोसाइटियाँ बना कर सांविधानिक ढाँचे को झटके देने का कार्य ही करेंगे. यह सर्वविदित है कि ये संगठन भ्रष्ट सरकारी तंत्र और विदेशों में काफी घुसपैठ रखते हैं. अभी तक ये किसी प्रभावी प्रशासनिक नियंत्रण में नहीं हैं. संगठन के तौर पर ये जनसाधारण के लिए किसी रहस्य से कम भी नहीं हैं.                             

'लोकसंघर्ष' मे सत्य नारायण  ठाकुर साहब कहते हैं-

"अरुंधती राय बताती हैं कि अन्ना ब्रांड को स्पोंसर करने वाली सब्सिडियरी कंपनियों (एन.जी.ओ) को कोका कोला, लेहमन ब्रदर्स जैसी बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ मुक्त हस्त से चंदा देती हैं। अन्ना टीम के संचालक अरविन्द केजरीवाल और मनीष सिसौदिया की संस्था 'कबीर' ने पिछले तीन सालों में फोर्ड फ़ाउंडेशन से चार लाख डालर अर्थात दो करोड़ रुपयों से ज्यादा दान प्राप्त किया है। इसी तरह अरुंधती ने अपने आलेख में बताया है कि इंडिया अगेंस्ट करप्सन को भारी रकम का दान देने वालों की सूची में भारत की अलुमिनियुम कम्पनियाँ, स्पेशल इकोनोमिक जोंस की दैत्याकार कंपनियों के अलावा रियल इस्टेट बिजनेस की कम्पनियाँ हैं जिन्होंने देश में विराट वित्तीय साम्राज्य खड़ा कर लिया है। इनमें से कुछ के खिलाफ जांच भी चल रही है। फिर अन्ना आन्दोलन में इनके उत्साह का क्या कारण है ?
कारण स्पष्ट है। इन्होने सरकारी भ्रष्टाचार का बड़ा हो हल्ला मचाया है और उस हो हल्ला में कार्पोरेट भ्रष्टाचार का मुद्दा दब गया है। यही इनका निहित स्वार्थी है। पानी, बिजली, स्वास्थ्य, सफाई, शिक्षा, यातायात, संचार आदि जनोपयोगी सेवाओं से सरकार अपना हाथ खींच रही है। इन सेवाओं को एन.जी.ओ और कार्पोरेट के हवाले किया जा रहा है। अन्ना सार्वजानिक सेवाओं के निजीकरण और उसके दुष्परिणामो के बारे में कुछ नहीं बोलते हैं। अरुंधती बताती हैं कि जाता लोकपाल के दायरे में एन.जी.ओ/कार्पोरेट द्वारा दिए जाने वाले घूस को 'लोबियिंग फीस' का नया नाम देकर विधि सम्मत बनाया जा सकेगा। "
"अरुंधती राय ने लोकपाल को सर्वोच्चाधिकार प्राप्त निकाय बनाने पर भी प्रश्न उठाया है। क्या वह किसी के प्रति उत्तरदायी नहीं होगा ? लोकपाल को निश्चित ही उत्तरदायित्वपूर्ण होना चाहिए। अरुंधती की राय में भारतीय चुनाव पद्धति के दोषों के चलते भारत में अल्पतंत्र का राज है। अरुंधती की राय में जनलोकपाल का वर्तमान स्वरूप को स्वीकारने से भारत में अल्पतंत्र का दूसरा स्तम्भ खड़ा हो जायेगा।
इसी तरह अन्ना के विचारों को अरुंधती राय गाँधी विरोधी बताती हैं। इसके प्रमाण में वह अन्ना के गाँव रालेगांव सिद्धि की ग्राम पंचायत और सहयोग समिति को उध्रत करती हैं, जिनका चुनाव विगत 25 वर्षों में कभी नहीं हुआ। अन्ना से सम्बंधित संस्थाओं में रुपयों की हेराफेरी और गबन की भी शिकायतें हैं। अरुंधती ने अन्ना की मानसिकता को व्यक्त करने के लिये अन्ना की निम्नांकित पंक्ति को उध्रत किया है "यह महात्मा गाँधी की द्रष्टि थी कि प्रत्येक गाँव में एक चमार, एक सुनार, एक कुम्भार आदि होना चाहिएउन लोगों को सभी काम अपने पेशे के मुताबिक करना चाहिएइस तरह गाँव स्वावलंबी होगायह वह (गांधीवादी) प्रणाली है, जिसका आचरण हम अपने गाँव रालेगांव सिद्धि में करते हैं।" निश्चय ही अन्ना के इस विचार का सम्बन्ध गांधीवादी विचारों से दूर-दूर तक नहीं है।
जो भी हो, अन्ना ब्रांड टोपी बाजार में तेजी से चल पड़ा है मीडिया इसमी क्यों पीछे रहता। टी.वी चैनलों ने तो कमाल कर दिया। उसने अन्ना इंडिया और इंडिया अन्ना घोषित कर दिया। लेकिन क्या अन्ना इंडिया सचमुच भारत है ? 20 रुपये से गुजरा करने वाले 84 करोड़ गरीबों का सच्चा भारत 'अन्ना इंडिया' में शामिल नहीं है। क्या अन्ना टीम को विदर्भ में आत्महत्या करने वाले किसानो, सिंगुर, नंदीग्राम , लालगढ़, नोयडा के प्रताड़ित किसानो की चिंता है। क्या इस नये गाँधी के एजेंडा में 43 करोड़ असंगठित मजदूरों को निर्वाह योग्य न्यूनतम मजदूरी और इनकी सामाजिक सुरक्षा शामिल है ? पुराने गाँधी समाज के अंतिम आदमी की बात करते थे। वे अन्त्योदय का सपना देखते थे। गाँधी जी के इस नए अवतार को मध्य वर्ग के तामझाम ने घेर रखा है। जाहिर है, वाचाल मध्य वर्ग सड़कों पर ज्यादा थिरकता है। "सत्य नारायण ठाकुर


'जनपक्ष ' मे ए एस वर्मा जी का लेख दिया गया है-
" अण्णा ने सत्ताधारी वर्ग के लिए आक्सीजन का काम किया है और उस आक्सीजन सिलेंडर को ढोने के लिए उन्हीं लोगों के कंधों का इस्तेमाल किया है जो सत्ताधारी वर्ग के शोषण के शिकार हैं। उन्हें नहीं पता है कि वे उसी निजाम को बचाने की कवायद में तन-मन-धन  से जुट गये जिसने उनकी जिंदगी को बदहाल किया। देश के विभिन्न हिस्सों में चल रहे जुझारू संघर्षों की ताप से झुलस रहे सत्ताधारियों को अण्णा ने बहुत बड़ी राहत पहुंचाई है। 


अगर किसी चैनल का मालिक न चाहे तो उसके पत्रकार या कैमरामेन लगातार अण्णा का कवरेज कर सकते थे? क्या कारपोरेट घराने अपनी जड़ खोदने वाले किसी आंदोलन को इस तरह मदद करते या समर्थन का संदेश देते जैसा अण्णा के साथ हुआ? भारत सरकार के गृहमंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार पिछले तीन वर्षों में यहां के एनजीओ सेक्टर को 40 हजार करोड़ रुपये मिले हैं- उसी एनजीओ सेक्टर को जिससे टीम अन्ना के प्रमुख सदस्य अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, किरन बेदी, संदीप पांडे, स्वामी अग्निवेश जैसे लोग घनिष्ठ/अघनिष्ठ रूप से जुड़े/बिछड़े रहे हैं। इस सारी जमात को उस व्यवस्था से ही यह लाभ मिल रहा है जिसमें सडांध फैलती जा रही है, जो मृत्यु का इंतजार कर रही है और जिसे दफनाने के लिए देश के विभिन्न हिस्सों में उत्पीड़ित जनता संघर्षरत है। आज इस व्यवस्था का एक उद्धारक दिखायी दे रहा है। वह भले ही 74 साल का क्यों न हो, नायकविहीन दौर में उसे जिंदा रखना जरूरी है। 


अण्णा हजारे ने 28 अगस्त को दिन में साढ़े दस बजे अनशन तोड़ने के बाद रामलीला मैदान से जो भाषण दिया उससे आने वाले दिनों के उनके एजेंडा का पता चलता है। एक कुशल राजनीतिज्ञ की तरह उन्होंने उन सारे मुद्दों को भविष्य में उठाने की बात कही है जो सतही तौर पर व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई का आभास देंगे लेकिन बुनियादी तौर पर वे लड़ाइयां शासन प्रणाली को और चुस्त-दुरुस्त करके इस व्यवस्था को पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा टिकाऊ, दमनकारी और मजबूत बना सकेंगी। अण्णा का आंदोलन 28 अगस्त को समाप्त नहीं हुआ बल्कि उस दिन से ही इसकी शुरुआत हुई है। रामलीला मैदान से गुड़गांव के अस्पताल जाते समय उनकी एंबुलेंस के आगे सुरक्षा में लगी पुलिस और पीछे पल पल की रिपोर्टिंग के लिए बेताब कैमरों से दीवाल पर लिखी इबारत को पढ़ा जा सकता है। व्यवस्था के शस्त्रागार से यह एक नया हथियार सामने आया है जो व्यवस्था बदलने की लड़ाई में लगे लोगों के लिए आने वाले दिनों में एक बहुत बड़ी चुनौती खड़ी करेगा।"

जैसे-जैसे लोगों के कष्ट बढ़ेंगे और शांतिपूर्ण समाधान के द्वार बंद होते जाएँगे मैं पूर्ण आत्म-विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि अवश्य ही कोई न कोई क्रांतिकारी आगे आ कर साम्राज्यवाद/सांप्र्दायवाद को जन-सहयोग से उखाड़ फेंकेगा और यह रक्त-पात के बिना संभव न होगा ।
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Hindustan-lucknow 03/09/2011

Hindustan-lucknow 03/09/2011
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Hindustan-Lucknow-31/08/2011

Hindustan-Lucknow-31/08/2011

Hindustan-Lucknow-31/08/2011

Hindustan-Lucknow-31/08/2011

hindustan-lucknow-03/09/2011


2 comments:

  1. कामरेड हमारा यह नजरिया हमें वक्त पर चूक जाने वाला साबित कर सकता है | अन्ना हजारे गलत हो सकते हैं पर अभी यह कहने का वक्त नहीं है |

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  2. अमरनाथ मधुर जी,

    प्रतीत होता है कि आपने यह आलेख पढ़ा नहीं है और भावावेश मे अपने उद्गार लिख दिये हैं। दूसरे तीन ब्लाग्स से भी उद्धरण उसमे लिए है ,सभी स्वतः स्पष्ट हैं। क्या आप स्वाधीनता दिवस पर ब्लैक आउट की घोषणा को ,राष्ट्र ध्वज ले कर आंदोलन चलाने को और रात्री मे राष्ट्र ध्वज फहराने को राष्ट्रद्रोह नहीं मानते?क्या आप विदेशी धन से संविधान और संसद को चुनौती देने के अभियान को चलाया जाना उचित मानते हैं?क्या आप राजनीति और राजनीतिज्ञों पर प्रहार को संसदीय लोकतन्त्र पर हमला नहीं मानते?क्या आप आर एस एस और उसके गिरोह के इन मंसूबों से नावाकिफ हैं कि गावॉ के 3 प्रतिशत एवं शहरों के 2 प्रतिशत लोगों के समर्थन से वह सत्ता पर कब्जा करके अर्ध सैनिक तानाशाही स्थापित कर सकता है?क्या आपने अन्ना आंदोलन मे उन लोगों की भूमिका को नजरंदाज कर दिया है?क्या आपने फेस बुक पर आपकी ही पार्टी के वरिष्ठ नेताओं-का जगदीश्वर चतुर्वेदी और का अरुण प्रकाश मिश्रा जी द्वारा दिये गए विचारों को गलत माना है?

    राष्ट्र हित,जन-हित मे सच बोलने से मै तो पीछे नहीं हटूँगा।

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