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हमारे होटल मुगल के सहकर्मी श्री हरीश छाबरा ने ( जिंनका जिक्र पूर्व मे किया जा चुका है के सहपाठी रहे) डॉ राम नाथ शर्मा ,आर एम पी से परिचय कराया था। उनके पिताजी -काली चरण वैद्य जी आगरा के काफी मशहूर वैद्य थे । एक जमाने मे स्टेशन पर रिक्शा वाले से उनका नाम लेने पर वह उनके घर लेंन गौ शाला पहुंचा देता था। वैद्य जी टाईफ़ाईड-मोतीझला के विशेज्ञ थे। एक बार मै बउआ का हाल बता कर दवा लाया था और उनकी फीस रु 2/- दे आया था। अगले दिन फिर दवा लेने जाने पर उन्होने पहचानते हुये कहा कि तुम तो बलुआ (डॉ का घर का नाम) के दोस्त हो ,तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई जो मुझे पैसे दे गए पहले अपने दिये ये रु 2/-सम्हालो फिर माँ का हाल बताओ। फायदा होने तक उन्होने पूरी दवा मुफ्त दी।
डॉ भी घर आने-जाने की फीस नहीं लेते थे केवल दी गई दवा की कीमत लेते थे। 1981 मे टूंडला बतौर पंडित उन्होने ही शादी कारवाई थी। घर से सूट-बूट पहन कर बाराती बन कर गए थे ,फेरों के वक्त कोट उतार कर पंडित की भूमिका अदा करा दी फिर उसके बाद बाराती बन गए थे। यदि वह क्लीनिक मे उपलब्ध हुये तो घंटों उनसे इधर-उधर की बातें होती रहती थीं। ज्योतिषीय सलाह भी वह हमे मुफ्त ही प्रदान करते थे।
ऐसे डॉ राम नाथ(03-11-1951) के पड़ौसी और बचपन के मित्र थे श्री विजय शर्मा(डॉ से लगभग दो वर्ष छोटे) जो संजय गांधी की यूथ कांग्रेस के नेता रहे और जनता सरकार बनने पर जनता पार्टी मे शामिल हो गए। उनके बड़े भाई राज कुमार शर्मा जी जल निगम मे सहायक अभियंता थे और उन्होने अपनी दो नंबर की कमाई को एक मे बदलने हेतु छोटे भाई से एक अखबार 'सप्तदिवा-साप्ताहिक'चलवा दिया था । वह खुद सरकारी नौकरी मे होने के कारण कबीर उपनाम से 'कलम कबीर की' व्यंग्य कालम लिखते थे। उन्हें मेरे विचार पसंद आए अतः अपने भाई विजय से मुझे अपने साथ जोड़ने को कहा। पहली बार लेन-गौ शाला से निकलते अखबार मे मै मात्र लेखक था। एक शख्स खुद को 'सरिता' का पूर्व उप-संपादक बता कर उनके अखबार मे इतना गहरा घुसा कि उन्हीं के घर पर भी डेरा डाल लिया।उसने 'श्रमजीवी पत्रकार समिति'का गठन करवाया और उस समिति को मालिक बनवा दिया। विजय जी ने उसे प्रबंध संपादक बना दिया था। मैंने उसकी गतिविधियों से उन्हें सावधान रहने को कहा था परंतु उन्होने उपेक्षा कर दी। किन्तु बाद मे उन दोनों मे मतभेद हो गए ,वह शख्स अपनी पत्नी को उन्हीं के घर छोड़ कर खुद छीपी-टोला मे अपने रिश्तेदार के घर रहने लगा। मैंने उन्हें दोबारा चेताया कि उन जनाब की श्रीमती जी दिल्ली के मिरांडा हाऊस की स्टूडेंट रही हैं ,अकेले उन्हे घर पर रखेंगे तो परेशानी मे फंस जाएँगे। उनका सवाल था कि कैसे हटाएँ? मैंने उन्हें सुझाव दिया कि श्रीमती जैन को कहें कि अपने पति को या तो बुलाएँ या उनके पास ही जाएँ । इतना सवाल उठते ही वह शर्मा जी का घर छोड़ गई। बाद मे उनकी उस चालाक शख्स से कोर्ट मे मुकद्म्मेबाजी भी चली और अखबार बंद हो गया।
मुकद्म्मा जीत कर उन्होने दूसरी बार अखबार गांधी नगर से प्रकाशित करना शुरू किया और इस बार उन्हें एक और ठग मिल गया जिसे उन्होने प्रबंध संपादक बना दिया। राज कुमार जी ने कमला नगर मे -शालीमार एंक्लेव मे-एक मकान लिया और उसमे सुधार कार्य करने का दायित्व भी उन ठग साहब को सौंप दिया। मैंने विजय जी को फिर आगाह किया परंतु उनका जवाब था कि वह भाई साहब का मुंह लगा है हम कुछ नहीं कर सकते। उस ठग ने जब राज कुमार जी का काफी पैसा साफ कर दिया तब उनकी आँखें खुलीं और उसे हटा दिया। इस प्रकार दूसरी बार फिर उन्हें अखबार बंद करना पड़ा।
तीसरी बार विजय जी ने अपने घर के निचले हिस्से मे प्रेस डालकर खुद अपने नियंत्रण मे अखबार निकालना शुरू किया ,उनके भाई साहब ने हाथ खींच लिया तो उन्होने अपनी मित्र-मंडली को अपना फाइनेंसर बना लिया।
दूसरी बार की तरह इस बार भी डॉ राम नाथ के साथ-साथ मुझे भी सह-संपादक बनाए रखा। इस बार डॉ राम नाथ के मेरे पिताजी से कहलाने के कारण मुझे भी उस समिति का एक शेयर रु 100/- का लेना पड़ा। अब व्यंग्य लेखक उनके भाई के स्थान पर एस एन मेडिकल कालेज के एक्सरे टेकनीशियन डॉ राकेश कुमार सिंह थे जिंनका संबंध 'जलेस' से था।
तीनों बार के प्रकाशन मे विजय जी ने मेरे एक साथ कई-कई लेख एक ही अंक मे निकाले थे। यहाँ तक कि कई लेख मुझे दूसरे रिशतेदारों के नाम डाल कर भी देने पड़े थे। डॉ राकेश केवल व्यंग्य कहानिया ही देते थे,बाकी समाचार और लेख मै ही लिखता था। कई बार मैंने भाकपा के मुख-पत्र 'मुक्ति संघर्ष' से अपने पसंदीदा लेख दिये उन्हें भी उन्होने छाप दिया। लेकिन 1991 आते -आते आर एस एस का आतंक इतना तीव्र हो गया था कि उसने समस्त सहिष्णुता समाप्त कर दी थी। समाज का वातावरण विषाक्त हो रहा था। वैमनस्य का बोल-बाला हो गया था। उनके फाइनेंसर अधिकांश संघी/भाजपाई थे उन्हें मेरे लेखों पर एतराज होने लगा। मेरे कई लेखों मे विजय जी ने मुझ से संशोधन करने को कहा जिससे फाइनेंसर्स का एतराज दूर हो सके। मैंने एक शब्द का भी संशोधन करना मंजूर नहीं किया। उनका तर्क था कि आखिर जो पैसा लगा रहा है वह अपने खिलाफ कैसे आपके लेखन को सह ले?मेरा तर्क था कि आप मेरे लेख मुझे वापिस कर दें और फाइनेंसर्स की दी नोटों की गड्डियाँ मशीन के सामने रख दें तो क्या आपके लेख छ्प सकते हैं?मै किसी दूसरे की संतुष्टि हेतु अपना ईमान क्यों गवाऊ?
अंततः उन्हें मेरे लेख वापिस करने पड़े और विषय-वस्तु के आभाव मे उन्हे अखबार भी बंद करना पड़ा और अपने उसी पुराने प्रतिद्वंदी के हाथों बेच देना पड़ा। उन्हें भी एक दाल मिल मे नौकरी करनी पड़ी। एक प्रकार से संपर्क टूट बराबर गया। यदा-कदा रास्ते मे मुलाक़ात हो जाया करती थी। आजकल 1991 जैसे हालात 'अन्ना','रामदेव','आडवाणी','कांग्रेस के मनमोहन गुट'ने बना कर रख दिये है;ईराक का इतिहास लीबिया मे दोहराया जा चुका है। अतः मैंने अपने उन अप्रकाशित लेखों को 'क्रांतिस्वर' पर प्रकाशित करने का सिलसिला चला रखा है।
डॉ सुब्रहमनियम स्वामी चाहते क्या हैं?http://krantiswar.blogspot.com/2011/09/blog-post_25.html
यदि मै प्रधानमंत्री होता?http://krantiswar.blogspot.com/2011/10/blog-post_21.html
खाड़ी युद्ध का भारत पर भावी परिणाम 1991 का अप्रकाशित लेख http://krantiswar.blogspot.com/2011/10/1991-1.htm
उपरोक्त तीनों लेख दे चुका हू और 'सद्दाम हुसैन','जार्ज बुश' आदि कुछ लेख क्रमशः देने हैं। इनमे से डॉ सुब्रहमनियम स्वामी वाले लेख को तो श्री शेष नारायण सिंह जी ने 'भड़ास' ब्लाग पर तथा श्री अमलेन्दू उपाध्याय जी ने 'हस्तक्षेप .काम ' पर भी प्रकाशित किया था। वैसे अधिकांश मस्त-मौला टाईप के लोगों को ये पसंद नहीं आए हैं और आ भी नहीं सकते थे क्योंकि उन्हें 'सत्य' जानने मे कोई दिलचस्पी नहीं होती है। मैंने इन विचारों को भविष्य मे वर्तमान काल का इतिहास लिखने वालों की सहूलियत के ख्याल से इन्हें देना उचित समझा है।
आपके आलेखों में 80-90 के दशकों का इतिहास प्रतिबिंबित होता है. जहाँ तक अखबारों का प्रश्न है, वे पत्रकार की स्टोरी यदि छापते भी हैं तो पहले उसे अपने मालिक की भाषा में ढाल लेते हैं. संपादक और डॉक्टर अपने नियोक्ता की भाषा बोलने के लिए विवश हैं.
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