सन 1991 मे राजनीतिक परिस्थितिए कुछ इस प्रकार तेजी से मुड़ी कि हमारे लेख जो एक अंक मे एक से अधिक संख्या मे 'सप्त दिवा साप्ताहिक',आगरा के प्रधान संपादक छाप देते थे उन्हें उनके फाइनेंसर्स जो फासिस्ट समर्थक थे ने मेरे लेखों मे संशोधन करने को कहा। मैंने अपने लेखों मे संशोधन करने के बजाए उनसे वापिस मांग लिया जो अब तक कहीं और भी प्रकाशित नहीं कराये थे उन्हें अब इस ब्लाग पर सार्वजनिक कर रहा हूँ और उसका कारण आज फिर देश पर मंडरा रहा फासिस्ट तानाशाही का खतरा है। जार्ज बुश,सद्दाम हुसैन आदि के संबंध मे उस वक्त के हिसाब से लिखे ये लेख ज्यों के त्यों उसी रूप मे प्रस्तुत हैं-
दुर्भाग्य से 17 जनवरी 1991 की प्रातः खाड़ी मे अमेरिका ने युद्ध छेड़ ही दिया है । दोषी ईराक है अथवा अमेरिका इस विषय मे मतभेद हो सकते हैं। परन्तु अमेरिकी कारवाई न्यायसंगत न होकर निजी स्वार्थ से प्रेरित है। जार्ज बुश (जो तेल कंपनियों मे नौकरी कर चुके हैं) अनेकों बार ईराकी सेना को नष्ट करने की धम्की दे चुके थे। उनके पूर्ववर्ती रोनाल्ड रीगन लीबिया के कर्नल गद्दाफ़ी को नष्ट करने का असफल प्रयास कर चुके थे। बुश पनामा के राष्ट्रपति का अपहरण करने मे कामयाब रहे । ईराक पर अमेरिकी आक्रमण का उद्देश्य कुवैत को मुक्त कराना नहीं अमेरिकी साम्राज्यवाद को पुख्ता कराना है।
जब खाड़ी समस्या प्रारम्भ हुई तो वी पी सरकार के कुशल कदम से ईराक और कुवैत मे फंसे भारतीयों को स्वदेश ले आया गया। परन्तु जब युद्ध के बादल मंडराने लगे तो राजीव गांधी-समर्थित चंद्रशेखर सरकार ने खाड़ी क्षेत्र मे फंसे 12-13 लाख भारतीयों को स्वदेश लाने का कोई प्रयत्न नहीं किया। प्रधानमंत्री चंद्रशेखर सफाई देते हैं कि वे प्रवासी भारतीय लौटना नहीं चाहते थे और अब युद्ध काल मे उन्हें बुलाया नहीं जा सकता।
युद्ध का लाभ-
एक ओर जहां लाखों भारतीयों का जीवन दांव पर लगा है। हमारे देश के जमाखोर व्यापारी खाड़ी संकट की आड़ मे खाद्यान ,खाद्य-तेल और पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतें बढ़ा कर अपना काला व्यापार बढ़ा कर लाभ उठाने मे लगे हुये हैं। प्रधानमंत्री कोरी धमकियाँ दाग कर जनता को दिलासा दे रहे हैं। बाज़ार मे कीमतें आसमान छू रही हैं। राशन की दुकानों मे चीनी और गेंहू चिराग लेकर ढूँढने से भी नहीं मिल रहा है।
गरीब जनता विशेष कर रोज़ कमाने-खाने वाले भुखमरी के कगार पर पहुँचने वाले हैं। सरकार ऐययाशी मे व्यस्त है। उप-प्रधानमंत्री और किसानों के तथाकथित ताऊ चौ. देवीलाल कहते हैं मंहगाई बढ़ाना उनकी सरकार का लक्ष्य है जिससे किसानों को लाभ हो। वह सोने के मुकुट और चांदी की छड़ियाँ लेकर अट्हास कर रहे हैं।
लुटेरा कौन?
लेकिन निश्चित रूप से बढ़ती हुई कीमतों का लाभ किसानों को नहीं मिल रहा है। किसान कम दाम पर फसल उगते ही व्यापारियों को बेच देता है। जमाखोर व्यापारी कृत्रिम आभाव पैदा कर जनता को उल्टे उस्तरे से मूढ़ रहे हैं और उन्हें सरकारी संरक्षण मिला हुआ है।
गाँव के कृषि मजदूर को राशन मे उपलब्ध गेंहू नहीं मिल रहा ,अधिक दाम देकर वह खरीद नहीं सकता। खेतिहर मजदूर भूखा रह कर मौत के निकट पहुँच रहा है। प्रदेश और केंद्र की सरकारें अपना अस्तित्व बचाने के लिए पूँजीपतियों के आगे घुटने टेके हुये हैं। पूंजीपति वर्ग और व्यापारी वर्ग मिल कर जनता का शोषण कर रहे हैं और गरीब जनता को भूखा मारने की तैयारी कर रहे हैं और वह भी सरकारी संरक्षण मे।
भूखे भजन होही न गोपाला-
मध्यम वर्गीय जमाखोर व्यापारियों की पार्टी भाजपा हिन्दुत्व की ठेकेदार बन कर मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के नाम का दुरुपयोग कर जनता को बेवकूफ बनाने मे लगी हुई है उसका उद्देश्य जनता को गुमराह कर व्यापारियों की सत्ता कायम करना है। उधर पूँजीपतियों की पार्टी इंका अवसरवादी सरकारों को टिका कर शोषक वर्ग की सेवा कर रही है। ये दोनों पार्टियां मण्डल आयोग द्वारा घोषित पिछड़ा वर्ग को 27 प्रतिशत आरक्षण देने की विरोधी हैं इसलिए मंदिर-मस्जिद के थोथे झगड़े खड़े करके भूखी,त्रस्त जनता को आपस मे लड़ा कर मार देना चाहती हैं।
क्रान्ति होगी-
यदि हालात ऐसे ही चलते रहे और खाड़ी युद्ध लम्बा चला जिसकी कि प्रबल संभावना है तो निश्चय ही शोषित ,दमित,पीड़ित और भूखी जनता एक न एक दिन (चाहे वह जब भी आए)भारत मे भी वैसी ही 'क्रान्ति'कर देगी जैसी 1917 मे रूस मे और 1949 मे चीन की भूखी जनता ने की थी उसे तलाश है किसी 'लेनिन' अथवा 'माओ' की जिसे भारत -भू पर अवतरित होना ही होगा।
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(एक तो हमारे देश के शोषक वर्ग ने 'पुरोहितवाद'की आड़ मे 'फूट' फैलाकर जनता के एकीकरण मे बाधा खड़ी कर रखी है दूसरे शासक वर्ग असंतोष की चिंगारी देखते ही अपने लोगों को बीच मे घुसा कर जन-असंतोष को दूसरी ओर कामयाबी से मोड देता है जैसा कि 2011 मे 'अन्ना' के माध्यम से किया गया है। अफसोस यह कि साम्यवादी और प्रगतिशील लोग शोषकों द्वारा परिभाषित 'पुरोहितवाद' को ही 'धर्म' मान कर "धर्म" का विरोध कर डालते हैं। "धर्म" का अर्थ है -'धारण'करना जो वह नहीं है जैसा पोंगा-पंथी बताते हैं। भारत के लेनिन और माओ को 'धर्म'(वास्तविक =वेदिक/वैज्ञानिक)का सहारा लेकर पोंगा-पंथी 'पुरोहितवाद पर प्रहार करना होगा तभी भारत मे 'क्रान्ति'सफल हो सकेगी अन्यथा 1857 की भांति ही कुचल दी जाएगी। )
3 comments:
युद्ध के भावी परिणाम में भी बलशाली ही लाभ पाते हैं.....
युद्ध कहीं भी हो भावी परिणाम तो बुरा ही होगा..विचारणीय लेख...आभार...
भारत में मार्क्सवाद के साथ एक खोखला-सा सरकारी प्रयोग करके उसे और खोखला साबित किया गया. यहाँ हमारे यहाँ धर्म जनित अज्ञान ग़रीबों को जल्दी उठने नहीं देता. आज मँहगाई के कारण जनता फिर से सोच में पड़ी है. तत्कालीन परिस्थितियों पर बढ़िया आलेख.
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