Monday, December 31, 2018

राहुल की कांग्रेस उदारीकरण की पैरोकार नहीं ------ अनिल सिन्हा

  
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अनिल सिन्हा साहब के निष्कर्ष बताते हैं कि राहुल गांधी 1991 से प्रचलित उदारीकरण की नीति के विपरीत किसानों और गरीबों के प्रति हमदर्दी के साथ चलना चाहते हैं। यदि वास्तव में राहुल इसी नीति पर चलेंगे तो अवश्य ही फासिस्ट आर एस एस को परास्त करने में सफल रहेंगे। 2014 में मोदी सरकार के सत्तारूढ़ होते ही ऐसा करने का सुझाव दिया था उस पोस्ट को ज्यों का त्यों पुनः प्रस्तुत किया जा रहा है। 
(विजय राजबली माथुर )

Tuesday, May 27, 2014

प्रियंका-राहुल को राजनीति में रहना है तो समझ लें उनके पिता व दादी के कृत्यों का प्रतिफल है नई सरकार का सत्तारोहण ---विजय राजबली माथुर

नेहरू जी की 51वीं पुण्य तिथि पर विशेष :
जिस प्रकार किसी वनस्पति का बीज जब बोया जाता है तब अंकुरित होने के बाद वह धीरे-धीरे बढ़ता है तथा पुष्पवित,पल्लवित होते हुये फल भी प्रदान करता है। उसी प्रकार जितने और जो कर्म किए जाते हैं वे भी समयानुसार सुकर्म,दुष्कर्म व अकर्म भेद के अनुसार अपना फल प्रदान करते हैं। यह चाहे व्यक्तिगत,पारिवारिक,सामाजिक,राजनीतिक क्षेत्र में हों अथवा व्यवसायिक क्षेत्रों में। पालक,गन्ना और गेंहू एक साथ बोने पर भी भिन्न-भिन्न समय में फलित होते हैं। उसी प्रकार विभिन्न कर्म एक साथ सम्पन्न होने पर भी भिन्न-भिन्न समय में अपना फल देते हैं। 16 वीं लोकसभा चुनावों में भाजपा की सफलता का श्रेय RSS को है जिसको राजनीति में मजबूती देने का श्रेय इंदिरा जी व राजीव जी को जाता है। 

आज से 50 वर्ष पूर्व 27 मई 1964 को देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू का निधन हुआ था। कार्यवाहक प्रधानमंत्री गुलज़ारी लाल नन्दा को यदि कांग्रेस अपना नेता चुन कर स्थाई प्रधानमंत्री बना देती तो कांग्रेस की स्थिति सुदृढ़ रहती किन्तु इन्दिरा जी पी एम नहीं बन पातीं। इसलिए समाजवाद के घोर विरोधी लाल बहादुर शास्त्री जी को पी एम पद से नवाजा गया था जिंनका 10/11 जनवरी 1966 को ताशकंद में निधन हो गया फिर कार्यावाहक पी एम तो नंदा जी ही बने किन्तु उनकी चारित्रिक दृढ़ता एवं ईमानदारी के चलते  उनको कांग्रेस संसदीय दल का नेता न बना कर इंदिराजी को पी एम बनाया गया। 1967 के चुनावों में उत्तर भारत के अनेक राज्यों में कांग्रेस की सरकारें न बन सकीं। केंद्र में मोरारजी देसाई से समझौता करके इंदिराजी पुनः पी एम बन गईं। अनेक राज्यों की गैर-कांग्रेसी सरकारों में 'जनसंघ' की साझेदारी थी। उत्तर प्रदेश में प्रभु नारायण सिंह व राम स्वरूप वर्मा (संसोपा) ,रुस्तम सैटिन व झारखण्डे राय(कम्युनिस्ट ),प्रताप सिंह (प्रसोपा),पांडे  जी आदि (जनसंघ) सभी तो एक साथ मंत्री थे। बिहार में ठाकुर प्रसाद(जनसंघ ),कर्पूरी ठाकुर व रामानन्द तिवारी (संसोपा ) एक साथ मंत्री थे। मध्य प्रदेश में भी यही स्थिति थी। इन्दिरा जी की नीतियों से कांग्रेस को जो झटका लगा था उसका वास्तविक लाभ जनसंघ को हुआ था। जनसंघी मंत्रियों ने प्रत्येक राज्य में संघियों को सरकारी सेवा में लगवा दिया था जबकि सोशलिस्टों व कम्युनिस्टों ने ऐसा नहीं किया कि अपने कैडर को सरकारी सेवा में लगा देते। 

1974 में जब जय प्रकाश नारायण गुजरात के छात्र आंदोलन के माध्यम से पुनः राजनीति में आए तब संघ के नानाजी देशमुख आदि उनके साथ-साथ उसमें शामिल हो गए।

1977 में मोरारजी देसाई की जनता पार्टी की केंद्र सरकार में आडवाणी व बाजपेयी साहब जनसंघ  कोटे से  तो राजनारायन संसोपा कोटे से मंत्री थे। बलराज माधोक तो मोरारजी देसाई को 'आधुनिक श्यामा प्रसाद मुखर्जी' कहते थे। जनसंघी मंत्रियों ने सूचना व प्रसारण तथा विदेश विभाग में खूब संघी प्रविष्ट करा दिये थे।  

1977 में उत्तर प्रदेश में राम नरेश यादव (वर्तमान राज्यपाल-मध्य प्रदेश) की जनता पार्टी सरकार में कल्याण सिंह(जनसंघ),मुलायम सिंह(संसोपा ) आदि सभी एक साथ मंत्री थे। पूर्व जनसंघ गुट के मंत्रियों ने संघियों को सरकारी सेवाओं में खूब एडजस्ट किया था। 
 1975 में संघ प्रमुख मधुकर दत्तात्रेय 'देवरस' ने जेल से बाहर आने हेतु इंदिराजी से एक गुप्त समझौता किया कि भविष्य में संकट में फँसने पर वह इंदिराजी की सहायता करेंगे। और उन्होने अपना वचन निभाया 1980 में संघ का पूर्ण समर्थन इन्दिरा कांग्रेस को देकर जिससे इंदिराजी पुनः पी एम बन सकीं।परंतु इसी से प्रतिगामी नीतियों पर चलने की शुरुआत भी हो गई 'श्रम न्यायालयों' में श्रमिकों के विरुद्ध व शोषक व्यापारियों /उद्योगपतियों के पक्ष में निर्णय घोषित करने की होड लग गई।इंदिराजी की हत्या के बाद 1984 में बने पी एम राजीव गांधी साहब भी अपनी माता जी की ही राह पर चलते हुये कुछ और कदम आगे बढ़ गए । अरुण नेहरू व अरुण सिंह की सलाह पर राजीव जी ने केंद्र सरकार को एक 'कारपोरेट संस्थान' की भांति चलाना शुरू कर दिया था।आज 2014 में नई सरकार कारपोरेट के हित में जाती दिख रही है तो यह उसी नीति का ही विस्तार है। 

 1989 में उन्होने सरदार पटेल द्वारा लगवाए विवादित बाबरी मस्जिद/राम मंदिर का ताला खुलवा दिया। बाद में वी पी सिंह की सरकार को बाहर से समर्थन देने के एवज में भाजपा ने स्वराज कौशल (सुषमा स्वराज जी के पति) जैसे लोगों को राज्यपाल जैसे पदों तक नियुक्त करवा लिया था। सरकारी सेवाओं में संघियों की अच्छी ख़ासी घुसपैठ करवा ली थी। 

आगरा पूर्वी विधान सभा क्षेत्र मे 1985 के परिणामों मे संघ से संबन्धित क्लर्क कालरा ने किस प्रकार भाजपा प्रत्याशी को जिताया  वह कमाल पराजित घोषित कांग्रेस प्रत्याशी सतीश चंद्र गुप्ता जी के  अलाहाबाद हाई कोर्ट में चुनौती देने से उजागर हुआ। क्लर्क कालरा ने नीचे व ऊपर कमल निशान के पर्चे रख कर बीच में हाथ का पंजा वाले पर्चे छिपा कर गिनती की थी जो जजों की निगरानी में हुई पुनः गणना में पकड़ी गई। भाजपा के सत्य प्रकाश'विकल' का चुनाव अवैध  घोषित करके सतीश चंद्र जी को निर्वाचित घोषित किया गया। 
ऐसे सरकारी संघियों के बल पर 1991 में उत्तर-प्रदेश आदि कई राज्यों में भाजपा की बहुमत सरकारें बन गई थीं।1992 में कल्याण सिंह के नेतृत्व की सरकार ने बाबरी मस्जिद ध्वंस करा दी और देश में सांप्रदायिक दंगे भड़क गए। 1998 से 2004 के बीच रही बाजपेयी साहब की सरकार में पुलिस व सेना में भी संघी विचार धारा के लोगों को प्रवेश दिया गया। 

2011 में सोनिया जी के विदेश में इलाज कराने जाने के वक्त से डॉ मनमोहन सिंह जी हज़ारे/केजरीवाल के माध्यम से संघ से संबंध स्थापित किए हुये थे जिसके परिणाम स्वरूप 2014 के चुनावों में सरकारी अधिकारियों/कर्मचारियों ने भी परिणाम प्रभावित करने में अपनी भूमिका अदा की है । 

 1967,1975 ,1980,1989 में लिए गए इन्दिरा जी व राजीव जी के निर्णयों ने 2014 में भाजपा को पूर्ण बहुमत तक पहुंचाने में RSS की भरपूर मदद की है। प्रियंका गांधी वाडरा,राहुल गांधी अथवा जो भी भाजपा विरोधी लोग राजनीति में सफलता प्राप्त करना चाहते हैं उनको खूब सोच-समझ कर ही निर्णय आज लेने होंगे जिनके परिणाम आगामी समय में ही मिलेंगे। 'धैर्य',संयम,साहस के बगैर लिए गए निर्णय प्रतिकूल फल भी दिलवा सकते हैं।  


~विजय राजबली माथुर ©

Sunday, December 30, 2018

यशपाल को भूलने का खामियाजा लखनऊ भरेगा, यशपाल के वंशज नहीं ------ आनंद

 * एक वरिष्ठ साहित्यिक ने कहा: यशपाल का कर्मक्षेत्र लखनऊ था, उनके संपूर्ण साहित्य का रचनास्थल। यह भूलने का खामियाजा लखनऊ भरेगा, यशपाल के वंशज नहीं।
**  ‘यशपाल का कोई नाम न लेने वाला’ होने का प्रमाण यह दिया गया कि लखनऊ के अन्य दिवंगत साहित्यिकों की तरह उनकी जन्म या पुण्यतिथि पर उनका परिवार उन्हें स्मरण करने के लिए लोगों को जलपान नहीं कराता।
*** एक लेखक या कलाकार की स्मृति को जीवित रखना उसके पाठकों, प्रशंसकों और समाज का दायित्व है या लेखक के परिवार का। 
**** वर्तमान सरकार यशपाल जयंती की बात तो क्या, क्रांतिकारी-स्वतंत्रता सेनानी स्मृति समारोहों के समय दुर्गा भाभी तथा यशपाल के वंशजों को पूछती तक नहीं।
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प्रसिद्ध हिंदी उपन्यासकार यशपाल की 42वीं पुण्यतिथि (26 दिसंबर) को  उनके पुत्र आनंद जी ने अपने परिवार की ओर से पिछले दिनों आए एक अप्रिय प्रसंग पर अपना पक्ष नवभारत टाइम्स के माध्यम से प्रस्तुत किया है :

मेरे पिता क्रांतिकारी और लेखक यशपाल के 42वें निधन दिवस (26 दिसंबर) के संदर्भ में दो प्रश्न सामने आए: क्या किसी लेखक को ‘भुला दिया गया’ कहा जा सकता है जब न केवल वह चाव से पढ़ा जा रहा हो वरन उसकी पुस्तकों की खूब बिक्री भी हो रही हो। दूसरा यह कि एक लेखक या कलाकार की स्मृति को जीवित रखना उसके पाठकों, प्रशंसकों और समाज का दायित्व है या लेखक के परिवार का। 

प्रश्नों के मूल में इसी वर्ष हिंदी दिवस के अवसर पर लखनऊ के एक समाचारपत्र द्वारा नगर की प्रसिद्ध साहित्यकार त्रयी - भगवतीचरण वर्मा, अमृतलाल नागर और यशपाल - को याद करते हुए यशपाल के बारे में छापी गई यह टिप्पणी थी कि ‘...यशपाल का शहर में अब कोई नाम लेने वाला भी नहीं है।’ तथा ‘...बस एक घर की शक्ल में यशपाल की याद (क्योंकि) यशपाल का परिवार यहां रहता नहीं और बाकी किसी को उन्हें याद करने की फिक्र नहीं है।’ अपना अज्ञान छिपाने के लिए किसी बात को दावे या दुस्साहस के साथ कहने का चलन हिंदी में आम हो गया है, मगर ध्यान देने लायक है कि इस मामले में ‘यशपाल का कोई नाम न लेने वाला’ होने का प्रमाण यह दिया गया कि लखनऊ के अन्य दिवंगत साहित्यिकों की तरह उनकी जन्म या पुण्यतिथि पर उनका परिवार उन्हें स्मरण करने के लिए लोगों को जलपान नहीं कराता।

यशपाल के परिवार के सामने समस्या है कि उनकी जन्मतिथि पर हिमाचल प्रदेश में पिछले 35 वर्षों से चली आ रही परंपरा के अनुसार राज्य सरकार द्वारा प्रति वर्ष आयोजित दो-दिवसीय यशपाल जयंती - जिसमें प्रदेश भर के साहित्यिक भाग लेते हैं - में सम्मिलित हो या उनके अपने नगर में उन्हीं लोगों को बुलाकर यशपाल की प्रशस्ति में वही पुरानी घिसी-पिटी बातें सुन उन्हें जलपान कराए।  उल्लेखनीय है कि प्रसिद्ध साहित्यकार और भाषाविद् विष्णुकांत शास्त्री हिमाचल के राज्यपाल रहते यशपाल जयंती समारोहों में आते थे और उत्तर प्रदेश का राज्यपाल होने पर 2003 में उन्होंने यशपाल शताब्दी के समय यथासंभव सरकारी योगदान भी दिया। उसी प्रदेश में वर्तमान सरकार यशपाल जयंती की बात तो क्या, क्रांतिकारी-स्वतंत्रता सेनानी स्मृति समारोहों के समय दुर्गा भाभी तथा यशपाल के वंशजों को पूछती तक नहीं।

लखनऊ की महानगर कॉलोनी के उसी घर में जिसके बारे में कहा गया कि ‘...यशपाल का परिवार यहां रहता नहीं’, हमारी मां प्रकाशवती न केवल अपनी मृत्यु पर्यंत 2002 तक रहीं बल्कि मेरी पत्नी तथा पुत्र पिछले बीस वर्षों से लगातार निवास कर रहे हैं और मैं स्वयं हर वर्ष (उत्तरी अमेरिका में आठ मास पत्रकारिता करने के बाद) चार मास रहता हूं। पिछले वर्षों में इसी घर से संकलन-संपादन के बाद यशपाल की 15 अप्रकाशित-असंकलित तथा अनूदित नई पुस्तकें प्रकाशित हुईं। यहां रखी यशपाल द्वारा संपादित-प्रकाशित राजनीतिक मासिक ‘विप्लव’ की फाइलें पढ़ कर तीन (लखनऊ विश्वविद्यालय से दो) डॉक्टरेट प्राप्त की गईं तथा अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्सास का प्रतिनिधि आकर ऐतिहासिक महत्त्व की इन फाइलों को डिजिटलाइज करने के लिए ले जाकर लौटा गया।

यशपाल-प्रकाशवती को लखनऊ याद करे न करे, विश्व शायद करेगा। अनेक विदेशी विश्वविद्यालयों में दक्षिण एशिया साहित्य के पाठ्यक्रम में संस्मरणों की पठन सूची में यशपाल के संस्मरण ‘सिंहावलोकन’ तथा प्रकाशवती लिखित ‘लाहौर से लखनऊ तक’ साथ-साथ मिलेंगे। अक्टूबर 2018 में न्यू यॉर्क यूनिवर्सिटी में भारत विभाजन/लाहौर संबंधी एक कॉन्फ्रेंस के दोनों दिन केवल एक पुस्तक की चर्चा हुई: यशपाल के उपन्यास ‘झूठा सच’ का अंग्रेजी तथा उर्दू अनुवाद।


इसमें दो राय नहीं कि किसी लेखक या कलाकार की प्रतिष्ठा बैठक में सजे पुरस्कारों या प्रशस्तिपत्रों से नहीं, जनमानस पर उसकी छाप तथा आगामी पीढ़ी पर उसके प्रभाव से आंकी जानी चाहिए। जैसा हिंदी दिवस पर उक्त समाचारपत्र से उद्धृत पंक्तियां पढ़ने के बाद एक वरिष्ठ साहित्यिक ने कहा: यशपाल का कर्मक्षेत्र लखनऊ था, उनके संपूर्ण साहित्य का रचनास्थल। यह भूलने का खामियाजा लखनऊ भरेगा, यशपाल के वंशज नहीं।
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 ~विजय राजबली माथुर ©

Thursday, December 20, 2018

गैर राजनैतिक लोग राजनीति में आयेंगे तो बंटाधार होगा ही ------ तुकाराम वर्मा

 



Tukaram Verma
Tukaram Verma
19-12-2018  
"राजनीति और अच्छे लोग " 
कितना प्रभावकारी और संतुष्टि प्रदायक लगता है यह वाक्य| अपने आप विचार कीजिये कि अच्छे लोगों की तलाश में आंदोलनों के गर्भ से जितने युवा राजनैतिक क्षेत्र को मिले उनमें से कितने लोग राष्ट्र को अच्छे मिले? और फिर वही प्रयास पुनः?
अच्छे लोगों की पहचान का क्या मानदंड है :-उच्च शिक्षा,प्रतिष्ठित परिवार,उच्च जाति,धन्नासेठी, राजशाही इतिहास अथवा "निष्कलंक सद्व्यवहारी समाज सेवा"|एक ऐसा राजनैतिक व्यक्ति जो जीवन पर्यंत अपने लिए छोटा-सा घर नहीं बना सका और मुख्यमंत्री केन्द्रीय मंत्री तथा भारतीय राजनीति का स्तम्भ रहा वह साहित्य नगरी में अभिनयी व्यक्ति से पराजित हुआ| कुछ समय बाद वह विजेता मैदान छोड़कर भाग खड़ा हुआ| इस हर्जाने के लिए कौन उत्तरदायी होगा?

राजनीति में यदि गैर राजनैतिक लोग आयेंगे तो बंटाधार के सिवा कुछ नहीं होगा|हाँ जनता को अनैतिक भ्रष्टाचार से मुक्ति मिलनी चाहिये और यह कार्य भी जनता ही कर सकती है| वह भलीभाँति जानती है कि उसके क्षेत्र में कौन राजनैतिक रूप से उनके लिए उपयोगी है और कौन छल बल के प्रयोग से उनके लिए समस्यायें खड़ी करता है|
राजनैतिक स्वच्छता हेतु चुनाव सुधारों की सर्वाधिक आवश्यकता है,बहुत कुछ सुधार के बाबजूद :-
१-अभी स्वतंत्र मतदान नहीं हो पाता है| 
२-मतदाताओं के नाम मतदाता सूचि से अनधिकृत रूप से कटवाये जाते है और जुड़वाए जाते हैं|
३-प्रचार का तरीका अर्थ प्रधान है इसे रोकना होगा|
४-प्रचार तंत्र विशेष रूप से चैनल्स के विज्ञापन निष्पक्ष निर्वाचन को प्रभावित करते है और चैनल्स एजेंटों -सी भूमिका का निर्वहन करते हैं इन्हें रोका जाना चाहिये क्योंकि यह स्थिति आर्थिक दृष्टि से कमजोर प्रत्याशियों के प्रतिकूल जाती है |
५-राजनैतिक दलों पर यह प्रतिबन्ध लगना चाहिये कि वे अपराध प्रवृत्ति,जातीय,धार्मिक क्षेत्रीय उन्मादियों को टिकिट न दें ऐसे प्रत्याशियों से जनता नहीं भिड़ सकती यह कार्य पार्टी अथवा सत्ता को करना होगा|
६-समाज सेवा से जुड़े युवकों को अधिकतम अवसर मिलने चाहिये और उन्हें दलीय चाटुकारिता से बचाये रखने के हर संभव प्रयासों के साथ-साथ जनसेवा एवं स्पष्टवादिता के हेतु प्रोत्साहित करके नैतिक शक्ति संपन्न बनने देना चाहिये|
७-यह सच है कि राजनीति संतवृत्ति नहीं है लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था छल,खल,और बल आधारित व्यवस्था भी नहीं है |साम,दाम,दण्ड,भेद की नीति से उभरे बिना लोकतंत्र अमानवीय ही रहेगा|

राजनैतिक दल और उनके द्वारा उगाये गये चंदा का जो २०% हिसाब जो वे देते हैं उसके अनुसार उनके पास हजारों करोड़ की बचत चुनावों में कितना व्यय कर चुके इसका कोई अनुमान नहीं, लेकिन सभी दलों के प्रत्याशियों का व्यय लगभग एक संसदीय सीट पर २५ करोड़ रुपए सभी सांसदों का अनुमानित व्यय १५००० करोड़|

यह उस भारत का चुनावी खर्च है जिसमें किसी मजदूर को २०० प्रतिदिन कमाने में ८ घंटे हड्डी तोड़ श्रम करना आदत है और कभी-कभी 
उसे यह मजदूरी मिलती भी नहीं है और यदि मिलती है तो बहुत अपमान जनक स्थिति से गुजरने की बाद| इस २०० रूपए में कम से कम चार लोगों का भोजन और अन्य खर्चे|

करोड़ों की आवादी ऐसी है जिसे मजदूरी भी सुलभ नहीं और यह राजनैतिक दल इन सबके वोट लेकर इन पर क्या व्यवहार कर रहे हैं उसको समाज के सामने लाने में पत्रकार,साहित्यकारों की चुप्पी| कभी-कभी सरकार से आर्थिक लाभ और अन्य सुविधायें लेने के लिए इनकी बेशर्म चाटुकारिता|
आखिर हम किधर जा रहे हैं ? प्रतिदिन किस हद तक इन लोगों के सम्मान में होने वाले आयोजन और इनकी जय-जयकार करते हुए बुद्धिजीवियों के द्वारा पढ़े जाने वाले कसीदे| अफ़सोस इनके लिए हम आपस में बहस करते हैं और इन्हें अपनी किस स्वार्थी प्रवृत्ति और रूचि के तहत एक दल से दूसरे दल के लोगों को श्रेष्ठ कहते हैं| कदाचित हम लोगों की इसी दुर्वृत्ति के कारण यह राजनैतिक दल आज इस स्थिति पर पहुँचे हैं| हम लोगों ने इन्हें जाति-धर्म क्षेत्र भाषा और अपने तुच्छ हितों को ध्यान में रखकर अपना अमूल्य मत बेच दिया, न राष्ट्र का ध्यान रक्खा न समाज का| यह जानते हुए कि किस प्रत्याशी का कैसा आचरण और कैसी सोच तथा समझ है उनके गुण-अवगुणों को नज़र अंदाज किया इसी का परिणाम पूरे राजनैतिक कुए में अनैतिक अर्थ की भाँग घोल दी गई, जिसके नशे ने इन्हें मदांध बना दिया|

दोस्तो! वक्त है राजनैतिक लोगों का नहीं अपना आत्मनिरीक्षण करें फिर निर्णय लें कि आने वाले चुनाव में हमें क्या भूमिका निभानी चाहिये,यदि आप देश के हितैषी होने का दावा करते हैं तो अन्यथा जड़ता की जंजीरों में बंधे हुए सिसकते रहिये और अनैतिकता की चादर को ओढ़कर घूमिये तथा सोइए|
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~विजय राजबली माथुर ©

Tuesday, December 18, 2018

क्या हम कभी राफेल का सच जान पाएंगे ? ------ राजीव रंजन तिवारी

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क्या इस फैसले से हम कभी यह जान पाएंगे कि हिंदुस्तान ऐरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) को राफेल डील से बाहर क्यों किया गया ?  


राफेल सौदे पर विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा। दरअसल सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी इससे जुड़े कुछ प्रश्न अनुत्तरित रह गए हैं। देशहित में इनका जवाब मिलना जरूरी है। लेकिन अभी तो सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या मोदी सरकार ने राफेल विमानों की कीमत को लेकर सुप्रीम कोर्ट में शपथ-पत्र देकर झूठ बोला/ यह भी कि संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) से इस मामले की जांच कराने से बच क्यों रही है सरकार/ कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने ये प्रश्न उठाए हैं। गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दिनों राफेल मामले में अपना फैसला सुनाते हुए उन सारी याचिकाओं को खारिज कर दिया, जिनमें इस सौदे की जांच कराने की मांग की गई थी। उसने विमानों की कीमत को लेकर जो फैसला सुनाया है, उसका आधार यह दिया कि विमानों की कीमत महालेखा नियंत्रक (सीएजी) के पास है और सीएजी ने इसकी रिपोर्ट संसद की लोकलेखा समिति यानी पीएसी को सौंप दी है।
राहुल गांधी ने सवाल उठाया कि सीएजी ने तो राफेल की कीमतों के लेकर कोई रिपोर्ट पीएसी को दी ही नहीं है, फिर मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में ऐसा क्यों कहा/ राफेल डील को लेकर यशवंत सिन्हा, प्रशांत भूषण और अरुण शौरी द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दाखिल याचिका में कहा गया था कि उनकी शिकायत पर सीबीआई ने एफआईआर दर्ज नहीं की है। उनका मानना था कि इस सौदे में भ्रष्टाचार हुआ है लिहाजा कोर्ट एफआईआर दर्ज करने और जांच का आदेश दे। अदालत ने इस पर निर्णय देते हुए इस बात को ध्यान में रखा कि क्या वह टेंडर और कॉन्ट्रैक्ट से संबंधित प्रशासनिक फैसलों की न्यायिक समीक्षा कर सकती है/ तीन फैसलों का उदाहरण देते हुए फैसले में लिखा गया है कि यह सड़क या पुल बनाने के टेंडर का नहीं, रक्षा से संबंधित खरीद की प्रक्रिया का मामला है इसलिए न्यायिक समीक्षा का दायरा सीमित हो जाता है। जाहिर है, अदालत रक्षा मामले के टेंडर और सड़क व पुल के टेंडर की प्रक्रिया में फर्क कर रही है। इससे दो तरह की नजीरें बन सकती हैं। आने वाले दिनों में रक्षा सौदों में कोई इसी आधार पर अदालत की समीक्षा से बच निकल सकता है, दूसरी तरफ कोई इस फैसले का हवाला देकर बेबुनियाद आरोपों से बच भी सकता है। 
अदालत ने बार-बार साफ किया है कि इस मामले में उसकी सीमा है। मगर क्या इस फैसले से हम यह जान पाएंगे कि हिंदुस्तान ऐरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) को राफेल डील से बाहर क्यों किया गया ? ?  सरकारी कागज़ात के अनुसार 126 विमानों की खरीद का अनुरोध प्रस्ताव मार्च 2015 में वापस लिया गया। 10 अप्रैल 2015 को भारत और फ्रांस के साझा घोषणा-पत्र में 36 राफेल विमान खरीदने का ऐलान होता है। इसे डीएसी, रक्षा खरीद कमेटी ने मंजूरी दी थी। जून 2015 में 126 विमान खरीदने का अनुरोध प्रस्ताव वापस ले लिया जाता है। क्या उस साझा घोषणा-पत्र में लिखा है कि 126 विमानों वाला प्रस्ताव वापस लिया जाएगा/ मार्च 2015 में 126 विमानों की खरीद का अनुरोध प्रस्ताव वापस लेने की बात अदालत के फैसले में है। अब याद कीजिए, डील होती है 10 अप्रैल 2015 को। इसके दो दिन पहले यानी 8 अप्रैल को विदेश सचिव जयशंकर कहते हैं कि एचएएल डील में शामिल है। 10 अप्रैल के 14 दिन पहले यानी मार्च 2015 में ही राफेल के सीईओ एचएएल के डील में होने की बात पर खुशी जाहिर करते हैं। क्या उन्हें पता नहीं था/ क्या उनकी जानकारी के बगैर कुछ बदल रहा था/ इसका कोई जवाब कोर्ट के फैसले से नहीं मिलता।
फैसले के तुरंत बाद प्रशांत भूषण ने कहा कि कोर्ट का फैसला एकदम गलत है। उन्होंने कहा कि एयरफोर्स से पूछे बिना ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फ्रांस जाकर समझौता कर लिया और इसके बाद तय कीमत से ज्यादा पैसा दे दिया। भूषण ने यह भी कहा कि सरकार ने राफेल मामले में कोर्ट में सीलबंद लिफाफे में रिपोर्ट दी है, जिसके बारे में हमें कोई जानकारी नहीं है। कोर्ट ने ऑफसेट पार्टनर चुनने के मामले में भी कुछ गलत नहीं माना है। सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि दसौ एविएशन को अपना ऑफसेट पार्टनर चुनना था, जबकि रक्षा सौदे में लिखा है कि बिना सरकार की सहमति के कोई फैसला नहीं लिया जा सकता। इस मामले में पिछली सुनवाई के दौरान प्रशांत भूषण ने फ्रांस की कंपनी दसौ पर साजिश करने का आरोप भी लगाया, जिसने ऑफसेट अधिकार अनिल अंबानी की नई कंपनी को दिए हैं। उन्होंने इसे भ्रष्टाचार के समान बताते हुए इसको खुद में एक अपराध कहा और दावा किया कि रिलायंस डिफेंस के पास ऑफसेट करार क्रियान्वित करने की दक्षता नहीं है।
 • ताक पर नियम 
मालूम हो कि सितंबर 2017 में भारत ने करीब 58,000 करोड़ रुपये की लागत से 36 राफेल लड़ाकू विमानों की खरीद के लिए फ्रांस के साथ अंतर-सरकारी समझौते पर दस्तखत किए थे। इससे करीब डेढ़ साल पहले 2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी पेरिस यात्रा के दौरान इस प्रस्ताव की घोषणा की थी। आरोप लगे हैं कि साल 2015 में प्रधानमंत्री द्वारा इस सौदे में किए गए बदलावों के लिए अनेक सरकारी नियमों को ताक पर रखा गया। यह विवाद इस साल सितंबर में तब और गहरा गया, जब फ्रांस के मीडिया में पूर्व फ्रांसीसी राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद का बयान आया कि राफेल करार में भारतीय कंपनी का चयन नई दिल्ली के इशारे पर किया गया था। असल सवाल यही है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस मसले पर कोई टिप्पणी नहीं की है। कांग्रेस अपने सवालों के साथ मैदान में डटी है जबकि सरकार कोर्ट के फैसले को अपनी जीत बता रही है। देखना है, यह प्रकरण कौन सा रूप लेता है।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी कई जरूरी सवाल शिद्दत के साथ अपना जवाब ढूंढ रहे हैं
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~विजय राजबली माथुर ©

Sunday, December 16, 2018

बांगलादेश का आज़ादी दिवस : 16 दिसंबर ------ विजय राजबली माथुर

  
16 दिसंबर 1971 , ढाका 


 मेरठ में रूडकी रोड क़े क्वार्टर में रहते हुए P .O .W .का जो नज़ारा  हमने देखा था  वह आज भी ज्यों का त्यों याद है। मेरठ कालेज में समाजशास्त्र परिषद की गोष्ठी में भाग लेते हुए मैंने बांगला-देश को मान्यता देने का विरोध किया था। 
नवभारत टाईम्स क़े समाचार संपादक हरी दत्त शर्मा अपने 'विचार-प्रवाह  ' में निरन्तर लिख रहे थे-"बांग्ला-देश मान्यता और सहायता का अधिकारी "। पाकिस्तानी अखबार लिख रहे थे कि,सारा बांगला देश आन्दोलन भारतीय फ़ौज द्वारा संचालित है। बांगला देश क़े घोषित राष्ट्रपति शेख मुजीबुर्रहमान को भारतीय एजेंट ,मुक्ति वाहिनी क़े नायक ताज्जुद्दीन अहमद को भारतीय फ़ौज का कैप्टन तेजा राम बताया जा रहा था। लेफ्टिनेंट जेनरल टिक्का खां का आतंक पूर्वी पाकिस्तान में बढ़ता जा रहा था और उतनी ही तेजी से मुक्ति वाहिनी को सफलता भी मिलती जा रही थी। जनता बहुमत में आने पर भी याहिया खां द्वारा मुजीब को पाकिस्तान का प्रधान-मंत्री न बनाये जाने से असंतुष्ट थी ही और टिक्का खां की गतिविधियाँ आग में घी का काम कर रही थीं। रोजाना असंख्य शरणार्थी पूर्वी पाकिस्तान से भाग कर भारत आते जा रहे थे।  उनका खर्च उठाने क़े लिये अद्ध्यादेश क़े जरिये एक रु.का अतिरिक्त रेवेन्यु स्टेम्प(रिफ्यूजी रिलीफ) अपनी जनता पर इंदिरा गांधी ने थोप दिया था। असह्य परिस्थितियें होने पर इंदिरा जी ने बांगला-देश मुक्ति वाहिनी को खुला समर्थन दे दिया और उनके साथ भारतीय फौजें भी पाकिस्तानी सेना से  टकरा गईं। टिक्का खां को पजाब क़े मोर्चे पर ट्रांसफर करके लेफ्टिनेंट जेनरल ए.ए.क़े.नियाजी को पूर्वी पाकिस्तान का मार्शल ला एडमिनिस्ट्रेटर बना कर भेजा गया । राव फरमान अली हावी था और नियाजी स्वतन्त्र नहीं थे। लेकिन जब भारतीय वायु सेना ने 16 दिसंबर 1971 को ढाका में छाताधारी सैनिकों को उतार दिया तो फरमान अली की इच्छा क़े विपरीत नियाजी ने हमारे लेफ्टिनेंट जेनरल सरदार जगजीत सिंह अरोरा क़े समक्ष आत्म-समर्पण कर दिया। ९०००० पाक सैनिकों को गिरफ्तार किया गया था।  इनमें से बहुतों को मेरठ में रखा गया था।  इनके कैम्प हमारे क्वार्टर क़े सामने भी बनाये गये थे। 

मेरठ से रूडकी जाने वाली सड़क क़े दायीं ओर क़े मिलेटरी क्वार्टर्स थे। गेट क़े पास वाले में हम लोग  रहते थे। सड़क उस पार सेना का खाली मैदान तथा शायद सिग्नल कोर की कुछ व्यवस्था थी। उसी खाली मैदान में सड़क की ओर लगभग ५ फुट का गैप देकर समानांतर विद्युत् तार की फेंसिंग करके उसमें इलेक्टिक करेंट छोड़ा गया था। उसके बाद अन्दर बल्ली,लकड़ी आदि से टेम्पोरेरी क्वार्टर्स बनाये गये थे। यह कैम्प परिवार वाले सैनिकों क़े लिये था जिसमें उन्हें सम्पूर्ण सुविधाएँ मुहैया कराई गई थीं। सैनिकों /सैन्य-अधिकारियों की पत्नियाँ मोटे-मोटे हार,कड़े आदि गहने पहने हुये थीं। यह भारतीय आदर्श था कि वे गहने पहने ही सुरक्षित वापिस गईं। यही यदि पाकिस्तानी कैम्प होता तो भारतीय सैनिकों को अपनी पत्नियों एवं उनके गहने सुरक्षित प्राप्त होने की सम्भावना नहीं होती। पंजाब तथा गोवा क़े पूर्व राज्यपाल लेफ्टिनेंट जनरल  जे.ऍफ़.जैकब ने अपनी  पुस्तक में लिखा है (हिंदुस्तान ७/ १ /२०११ ) ढाका में तैनात एक संतरी से जब उन्होंने उसके परिवार क़े बारे में पूंछा "तो वह यह कहते हुए फूट-फूट कर रो पड़ा कि एक हिन्दुस्तानी अफसर होते हुए भी आप यह पूछ रहे हैं जबकि हमारे अपने किसी अधिकारी ने यह जानने की कोशिश नहीं की "। तो यह फर्क है भारत और पाकिस्तान क़े दृष्टिकोण का। इंदिराजी ने शिमला -समझौते में इन नब्बे हजार सैनिकों की वापिसी क़े बदले में तथा प.पाक क़े जीते हुए इलाकों क़े बदले में कश्मीर क़े चौथाई भाग को वापिस न मांग कर उदारता का परिचय दिया ? वस्तुतः न तो निक्सन का अमेरिका और न ही ब्रेझनेव का यू.एस.एस.आर.यह चाहता था कि कश्मीर समस्या का समाधान हो और जैसा कि बाद में पद से हट कर पी. वी.नरसिंघा राव सा :ने कहा (दी इनसाईडर) -हम स्वतंत्रता क़े भ्रम जाल में जी रहे हैं। भारत-सोवियत मैत्री संधी से बंधी इंदिराजी को राष्ट्र हित त्यागना पड़ा, अटल जी द्वारा दुर्गा का ख़िताब प्राप्त इंदिराजी बेबस थीं। 
किन्तु 16 दिसंबर 1971 को पूर्वी पाकिस्तान के स्थान पर आज़ाद बांगलादेश के उदय होने पर एक कवि ने इंदिराजी के सम्मान में कहा था :
लोग इतिहास बदलते 
तुमने भूगोल बदल डाला। 

~विजय राजबली माथुर ©

Saturday, December 15, 2018

कई रिश्ते मिटा देगा सिंगल चाइल्ड का चलन ------ मोनिका शर्मा

*अगर किसी परिवार में इकलौता बेटा है तो उसकी आने वाली पीढ़ियां चाचा, ताऊ और बुआ जैसे रिश्तों से अनजान रहेंगी। ठीक इसी तरह इकलौती संतान अगर बेटी है तो उसकी आने वाली पीढ़ी को मामा और मौसी का रिश्ता नहीं मिलेगा। समाज में महिला-पुरुष के बिगड़ते अनुपात को भी सिंगल चाइल्ड की सोच बढ़ावा दे रही है।
**देश के दस बड़े शहरों में औद्योगिक संगठन एसोचैम की सामाजिक विकास शाखा द्वारा पिछले दिनों किए गए एक सर्वे के मुताबिक़ 35 फीसदी वर्किंग मदर्स दूसरा बच्चा नहीं चाहतीं।
*** कामकाजी महिलाओं की सिंगल चाइल्ड रखने की सोच कई मायनों में हमारे उस सामाजिक-पारिवारिक माहौल की बानगी है, जिसमें महिलाओं में संबंधों को लेकर पनप रही असुरक्षा से लेकर रोजगार के मोर्चे पर खुद को साबित करने की उनकी जद्दोजहद तक शामिल है।
**** महिलाएं आर्थिक मोर्चे पर अपनी भागीदारी दर्ज करवा रही हैं, लेकिन उनकी बदलती भूमिका के मुताबिक पारिवारिक-सामाजिक स्थितियों में बदलाव नहीं आ रहा। 
मोनिका शर्मा




देश के दस बड़े शहरों में औद्योगिक संगठन एसोचैम की सामाजिक विकास शाखा द्वारा पिछले दिनों किए गए एक सर्वे के मुताबिक़ 35 फीसदी वर्किंग मदर्स दूसरा बच्चा नहीं चाहतीं। दिल्ली, बंगलुरु, जयपुर, कोलकाता, इंदौर, अहमदाबाद, चेन्नै और हैदराबाद सहित देश के 10 मेट्रो शहरों में हुए इस सर्वे के नतीजे सिर्फ व्यक्तिगत चॉइस का मामला नहीं है।

कामकाजी महिलाओं की सिंगल चाइल्ड रखने की सोच कई मायनों में हमारे उस सामाजिक-पारिवारिक माहौल की बानगी 
है, जिसमें महिलाओं में संबंधों को लेकर पनप रही असुरक्षा से लेकर रोजगार के मोर्चे पर खुद को साबित करने की उनकी जद्दोजहद तक शामिल है।

हाल के वर्षों में लड़कियों में शिक्षा के आंकड़े बढ़े हैं और उसी के अनुरूप कामकाजी महिलाओं की संख्या भी बढ़ी है। यानी अब महिलाएं आर्थिक मोर्चे पर अपनी भागीदारी दर्ज करवा रही हैं। दिक्कत यह 


है कि उनकी इस बदलती भूमिका के मुताबिक पारिवारिक-सामाजिक स्थितियों में बदलाव नहीं आ रहा।


एसोचैम के सोशल डिवेलपमेंट फाउंडेशन की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि आज के दौर के वैवाहिक रिश्तों में तनाव, रोजगार के दबाव और बच्चों को पालने में होने वाले खर्च की वजह से कई मांएं पहले बच्चे के बाद दूसरा बच्चा लाने की इच्छुक नहीं रह जातीं। 


विचारणीय है कि हमारे देश में कामकाजी महिलाओं की संख्या तो बढ़ी है, पर उनके प्रति बुनियादी सोच में बदलाव नहीं आया है। घर-परिवार में बच्चों से जुड़ी जिम्मेदारियों को साझा करने का भाव आज भी नदारद है। ऐसे में स्वाभाविक सवाल उठता है कि परिवार की ओर से कामकाजी महिलाओं के लिए मददगार माहौल क्यों नहीं बन पाया। शायद हमारा पारंपरिक मन उन सामाजिक-आर्थिक बदलावों से तालमेल नहीं बनाए रख पा रहा जो हमारे इर्दगिर्द तेजी से घट रहे हैं। 


गौर करने की बात है कि इकलौते बच्चे का व्यवहार और कार्यशैली उन बच्चों से बिल्कुल अलग होती है जो अपने हमउम्र साथियों या भाई-बहनों के साथ बड़े होते हैं। एक बच्चे का यह चलन हमारे पारिवारिक और सामाजिक ताने-बाने को तहस-नहस कर सकता है। अगर किसी परिवार में इकलौता बेटा है तो उसकी आने वाली पीढ़ियां चाचा, ताऊ और बुआ जैसे रिश्तों से अनजान रहेंगी। ठीक इसी तरह इकलौती संतान अगर बेटी है तो उसकी आने वाली पीढ़ी को मामा और मौसी का रिश्ता नहीं मिलेगा। समाज में महिला-पुरुष के बिगड़ते अनुपात को भी सिंगल चाइल्ड की सोच बढ़ावा दे रही है।


कामकाजी अभिभावकों के इकलौते बच्चे जीवन के उतार-चढ़ाव को समझे बिना बड़े हो रहे हैं। बड़े होने पर ऐसे बच्चों को अपने ही अस्तित्व को समझने के लिए जूझना पड़ता है। वर्किंग पैरंट्स समय नहीं दे पाते और बच्चे की हर जरूरी या गैर-जरूरी मांग पूरी कर अपना अपराधबोध कम करने की राह ढूंढते हैं। अकेले बच्चों की जिंदगी का खालीपन टीवी, मोबाइल और लैपटॉप जैसे गैजट्स भरते हैं जिससे उनके शारीरिक, मानसिक और संवेदनात्मक विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। 


ऐसे में बच्चे जिद्दी और शरारती ही नहीं बनते, जीवन के कई मनोवैज्ञानिक और सामाजिक पहलू उनकी समझ से परे हो जाते हैं। उनकी न कुछ बांटने की आदत बन पाती है और न ही मन की कहने-सुनने की। हालांकि इन बातों को आज के दौर की मांएं भी समझती हैं। इस अध्ययन में भी 65 फीसदी मांओं का कहना है कि वे नहीं चाहतीं उनकी औलाद एकाकी जीवन जिए। लेकिन आज के जीवन के बदले हालात उनकी इस चाहत के रास्ते में बाधा बन रहे हैं। 



बहरहाल, यह समस्या वैयक्तिक स्तर पर नहीं सुलझने वाली। पारिवारिक, पारंपरिक रूप में हो या बिल्कुल नए रूपों में, पर ऐसा सपोर्ट सिस्टम हमें विकसित करना पड़ेगा, जिससे कामकाजी कपल्स के बच्चे अकेलेपन के शिकार न हों और इन कपल्स के लिए बच्चों को बड़ा करना असंभव सी लगने वाली जिम्मेदारी न हो जाए।



 ~विजय राजबली माथुर ©

Thursday, December 13, 2018

किसान विरोधी कारपोरेट ने साधुओं और संतों की दीवार खड़ी कर दी है ------ अरुण कुमार त्रिपाठी

  
http://epaper.navbharattimes.com/details/2587-76876-1.html






*किसान का असली टकराव कॉरपोरेट से है और कॉरपोरेट ने उसकी राह में भावनात्मक मुद्दों को जगाकर साधुओं और संतों की दीवार खड़ी कर दी है
**धर्माचार्यों का एक तबका सत्ता-सुविधा के लिए देश को बांटने में लगा है जबकि कृषक वर्ग उसे जोड़ रहा है
साधु-संत को पूजें या किसान-मजदूर को
*** किसान अगर पूरी दुनिया में डब्ल्यूटीओ की नीतियों से टकरा रहे हैं और भारत में आत्महत्या कर रहे हैं तो साधु संन्यासी और धर्मगुरु लगातार फल-फूल रहे हैं।
****आज साधु-संन्यासी परजीवी हो चले हैं। उन्हें सत्ता का चस्का लग गया है। उन्हीं को आगे करके और उन्हें आश्रम के लिए जमीनें देकर 2013 के भूमि अधिग्रहण कानून को कमजोर किया जा रहा है। यह कानून किसानों के पक्ष में और कॉरपोरेट के जमीन अधिग्रहण के विरुद्ध एक ढाल बनकर आया था और इसे लाने वाली यूपीए सरकार की पराजय में इसकी बड़ी भूमिका थी। इस तरह साधु-संन्यासी संसाधनों के अंधाधुंध दोहन का रास्ता बना रहे हैं और देश को धर्म व जाति के आधार पर बांट रहे हैं। इसे किसान-मजदूर और उनका मध्यवर्गीय समर्थक ही जोड़ सकता है। 

छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्य प्रदेश में बीजेपी सरकारों की पराजय को किसानों की नाराजगी से जोड़कर देखा जा रहा है। कहा जा रहा है कि किसानों की अनदेखी करने के कारण ही वहां बीजेपी सरकारों की यह हालत हुई। इस समय किसानों का मुद्दा हमारे बौद्धिकों और राजनेताओं को तेजी से आकर्षित कर रहा है। पिछले 29 और 30 नवंबर को जब दिल्ली की सड़कों पर देश भर के किसान उतरे तो कई विश्लेषकों को भारतीय राजनीति में सेक्युलर मुद्दों के उभरने की संभावना दिखी। 

उन्हें लगा कि राम मंदिर और गाय से हटकर समाज अब रोजी-रोटी और आमदनी के विषयों पर सोचेगा। राजधानी के मीडिया के एक हिस्से ने उसे महज ट्रैफिक जाम वाली घटना नहीं माना। लेकिन सवाल उठता है कि क्या साधु-संन्यासियों को आगे करके धर्म के बहाने राजनीति करने की योजना को किसानों और खेती के अस्तित्व की लड़ाई से विफल किया जा सकता है और उसे सद्भाव की ओर मोड़ा जा सकता है/ क्या भारतीय समाज में उभारी जा रही धर्म की छद्म चेतना का जवाब गांव, गरीब और किसान के मुद्दे से दिया जा सकता है। 

स्वराज इंडिया के अध्यक्ष योगेंद्र यादव ने किसानों की दशा पर ‘मोदी राज में किसानः डबल आमद या डबल आफत’ नामक किताब लिखी है। उनका मानना है कि मोदी सरकार के कार्यकाल में किसान सबसे ज्यादा दुखी और परेशान रहा है। माना जा सकता है कि धर्म की राजनीति करने वाली और साधु-संन्यासियों को किसानों के मुकाबले ज्यादा अहमियत देने वाली इस सरकार के राज में किसानों को छला जाना आसान हो गया है। इस राज में यह जानते हुए उस पर गोलियां चलाई जाती हैं कि वैसा करने वाली पश्चिम बंगाल की वाममोर्चा सरकार अपनी तीन दशक की सत्ता से हाथ धो बैठी थी। लेकिन यह दक्षिणपंथी राजनीति वामपंथियों से ज्यादा चतुर है। वह कभी राम के नाम पर, कभी गाय के नाम पर तो कभी गंगा के नाम पर लोगों को छलती है और असल में कॉरपोरेट के अजेंडा को लागू करती है। किसान दिल्ली में दो दिन की रैली करके वापस नहीं लौट पाए होंगे कि नौ दिसंबर को दिल्ली में राम मंदिर के लिए विशाल धर्म सभा की तैयारी जोर पकड़ने लगी। निश्चित तौर पर किसानों की दुर्दशा और साधु-संन्यासियों का वैश्विक बाजार पिछले 30 सालों से चल रहे उदारीकरण और वैश्वीकरण के प्रमुख लक्षण के तौर पर उभरा है। 

किसान अगर पूरी दुनिया में डब्ल्यूटीओ की नीतियों से टकरा रहे हैं और भारत में आत्महत्या कर रहे हैं तो साधु संन्यासी और धर्मगुरु लगातार फल-फूल रहे हैं। मीरा नंदा अपनी पुस्तक ‘द गॉड मार्केट’ में बताती हैं कि किस तरह वैश्वीकरण भारत को ज्यादा हिंदू बना रहा है और साधु व संन्यासियों का धंधा चल निकला है। यह सरकार साधुओं को भी सबक सिखाती है। इसके कुछ उदाहरण आसाराम, बाबा रामपाल और बाबा राम रहीम के रूप में देखे जा सकते हैं। लेकिन सरकार उन्हीं बाबाओं को सबक सिखाती है जो सरकार और उसके राजनीतिक इकबाल के लिए चुनौती खड़ी करते हैं। आम तौर पर यह गवर्नमेंट उन्हें फलने-फूलने का भरपूर मौका देती है जो उसके लिए नोट और वोट का इंतजाम करते हैं। इसका सबसे सुंदर प्रमाण प्रियंका पाठक नारायण अपनी पुस्तक ‘गॉडमैन टू टाइकून’ में पेश करती हैं। बाबा रामदेव की तरक्की की कहानी कहने वाली इस किताब को हाईकोर्ट ने प्रतिबंधित कर रखा है और इस पर सुप्रीम कोर्ट में अपील की गई है। 

किसान का असली टकराव कॉरपोरेट से है और कॉरपोरेट ने उसकी राह में भावनात्मक मुद्दों को जगाकर साधुओं और संतों की दीवार खड़ी कर दी है। जो साधु संत कॉरपोरेट और उसके अनुकूल राजनीति का समर्थन करेंगे वे फलेंगे-फूलेंगे और जो उसका विरोध करेंगे उन्हें मरने के लिए छोड़ दिया जाएगा। स्वामी ज्ञानस्वरूपानंद का गंगा के लिए आमरण अनशन करके जान देने की घटना इसका प्रमाण है। वे कोई और नहीं बल्कि आईआईटी कानपुर के जाने माने प्रफेसर और भारत के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के पहले सचिव जीडी अग्रवाल थे। उनका कहना था कि जब मोदी बनारस गए और कहा कि उन्हें मां गंगा ने बुलाया है तो उनको बहुत उम्मीद बनी थी। लेकिन अब उन्हें साफ लगता है कि गंगा के नाम पर जो कुछ हो रहा है वह कंपनियों का भला करने के लिए किया जा रहा है।• सरकार के साथ 

साधु-संन्यासियों और किसानों का आज छत्तीस का रिश्ता कभी बड़ा घनिष्ठ रहा है। लाल बहादुर शास्त्री ने जय जवान जय किसान का नारा दिया था तो यह समाज साधु और किसान की लंबे समय से जय-जयकार भी करता रहा है। अगर 1780 में बंगाल और बिहार में संन्यासियों और फकीरों का विद्रोह ईस्ट इंडिया कंपनी के विरुद्ध हुआ था तो उसमें किसानों का शोषण भी मुद्दा था। इसी तरह 1857 में भी किसानों, सिपाहियों और संन्यासियों ने एक साथ मिलकर ईस्ट इंडिया कंपनी और ब्रिटिश राज को हिला दिया था। बाबा रामचंद्र दास और स्वामी सहजानंद संन्यासी ही थे जिन्होंने किसान आंदोलन का नेतृत्व किया था। 


लेकिन आज साधु-संन्यासी परजीवी हो चले हैं। उन्हें सत्ता का चस्का लग गया है। उन्हीं को आगे करके और उन्हें आश्रम के लिए जमीनें देकर 2013 के भूमि अधिग्रहण कानून को कमजोर किया जा रहा है। यह कानून किसानों के पक्ष में और कॉरपोरेट के जमीन अधिग्रहण के विरुद्ध एक ढाल बनकर आया था और इसे लाने वाली यूपीए सरकार की पराजय में इसकी बड़ी भूमिका थी। इस तरह साधु-संन्यासी संसाधनों के अंधाधुंध दोहन का रास्ता बना रहे हैं और देश को धर्म व जाति के आधार पर बांट रहे हैं। इसे किसान-मजदूर और उनका मध्यवर्गीय समर्थक ही जोड़ सकता है।






~विजय राजबली माथुर ©

Wednesday, December 12, 2018

बीजेपी के लिए आगे का रास्ता आसान नहीं ------ अंबरीष कुमार

बिहार में बीजेपी लगातार कमजोर हो रही है, जबकि उत्तर प्रदेश में कानून-व्यवस्था का मुद्दा उसके लिए सिरदर्द बनता जा रहा है। दूसरे, बीएसपी और एसपी के बीच गठजोड़ होना तय है। ऐसे में बीजेपी को सबसे बड़ी चुनौती यूपी से ही मिलेगी। इस प्रदेश से बीजेपी ने सबसे ज्यादा सीटें जीती हैं। राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के चुनावी नतीजों का असर उत्तर प्रदेश की राजनीति पर भी पड़ना तय है। हालांकि दिल्ली में विपक्ष की राजनीति से समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने जिस तरह दूरी बना रखी है, वह समझ से बाहर है। क्षेत्रीय दल अब धीरे-धीरे सीबीआई के खौफ से मुक्त होते जा रहे हैं। ऐसे में बीजेपी के लिए आगे का रास्ता आसान नहीं होगा।

http://epaper.navbharattimes.com/details/2412-76946-1.html

~विजय राजबली माथुर ©

Monday, December 10, 2018

आर बी आई कैश रिजर्व का इस्तेमाल खजाने की लूट ------ अरविंद सुब्रमण्यम

जब संस्थान मजबूत होते हैं तभी देश को भी फायदा होता है।'
अरविंद ने कहा कि राजकोषीय घाटा कम करने के लिए आरबीआई के रिजर्व का इस्तेमाल बैंक के खजाने की लूट होगी। सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक के बीच विवाद की खबरें सामने आई थीं। इस मामले में अरविंद ने आरबीआई की स्वायत्ता को देशहित में बताया है। उन्होंने कहा कि जब संस्थान मजबूत होते हैं तभी देश को भी फायदा होता है। देश में बढ़ती असहिष्णुता पर बोले, ‘दुनियाभर के देशों में देखा गया है कि अधिक सामाजिक शांति होने पर आर्थिक विकास भी बेहतर होता है।'

पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम ने उठाए सवाल

‘नोटबंदी से इतना कम असर कैसे/ कुछ तो गड़बड़ है’


NewsClickin
Published on Dec 10, 2018


Tensions between the country's central bank and the Narendra Modi government had been building up for months. Urjit Patel's dramatic decision to put in his papers will sully the image of the government, which is destroying institution after institution.





11-12-2018 : 



 ~विजय राजबली माथुर ©

Monday, November 26, 2018

लोकतान्त्रिक प्रक्रिया का आभाव आतंकवाद को मदद पहुंचाता है ------ अनिल सिन्हा


नवभारत टाईम्स, लखनऊ, 26-11-2018, पृष्ठ- 12  





अनिल सिन्हा साहब का कहना है कि राज्यपाल सत्यपाल मलिक साहब  ने अपने दिलाये भरोसे का ही पालन नहीं किया । 
वस्तुतः राज्यपाल के रूप में सत्यपाल मलिक और मेरठ कालेज छात्रसंघ के अध्यक्ष रहे सत्यपाल मलिक का अंतर ही इस भरोसे को तोड़ने का कारण है। जब मलिक साहब छात्र नेता थे तब SYS - समाजवादी युवजन सभा से जुड़े थे तब उनके आदर्श नेता थे मधु लिमये और राजनारायन। छात्र संसद में उनके द्वारा निभाई गई राजनारायन जी की भूमिका की तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष सरदार हुकुम सिंह द्वारा भूरी - भूरी प्रशंसा की गई थी। चौधरी चरण सिंह द्वारा छात्र संघों की सदस्यता को ऐच्छिक किए जाने का  पूर्व छात्रसंघ अध्यक्ष के नाते उनके द्वारा प्रबल विरोध किया गया था। 
अब बिहार का राज्यपाल बनने से पूर्व तक वह भाजपा के उपाध्यक्ष रहे थे। 180 डिग्री का परिवर्तन उनकी राजनीतिक सोच में हो चुका था। अब उनके अपने पारिवारिक व्यापारिक हितों का संरक्षण केंद्र की मोदी सरकार के हितों के संरक्षण पर आधारित था अतः उसी अनुरूप कदम उठाया न की देश व प्रदेश के हितार्थ। 
~विजय राजबली माथुर ©
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28-11-2018  : 


सरदार पटेल का व्यक्तित्व अनन्त ऊंचाई लिए हुये था


यह एक सरकारी विज्ञापन छपा है जिसके अनुसार यह --- " सरदार पटेल के विशाल व्यक्तित्व जितनी विशाल प्रतिमा " और इसकी ऊंचाई 182 मीटर बताई गई है। 
वर्तमान केंद्र सरकार सरदार पटेल के व्यक्तित्व को मात्र 182 मीटर ऊंचा ही मान रही है जबकि जनता की नजरों में सरदार पटेल का व्यक्तित्व अनन्त ऊंचाई लिए हुये था जिसकी कोई माप नहीं की जा सकती है। 

यह मोदी सरकार द्वारा सरदार पटेल का घोर अपमान है कि उनके व्यक्तित्व को एक पैमाने में बांध कर छोटा कर दिया गया है ।











 
~विजय राजबली माथुर ©

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