Saturday, February 29, 2020

डॉ राजेन्द्र प्रसाद जी की पुण्यतिथि पर वसुंधरा फाउंडेशन की स्मरांजली ------ विजय राजबली माथुर

अखिलेश श्रीवास्तव ' चमन ' साहब 
  
शीला पांडे जी 
डॉ विद्या बिंदू सिंह जी 
एसिड पीडिताओं का वसुंधरा फाउंडेशन की ओर से सम्मान 

एसिड पीडिताओं का वसुंधरा फाउंडेशन की ओर से सम्मान 


कल दिनांक २८ फरवरी २०२० को साँयकाल लखनऊ महोत्सव स्थित पंडाल में ' वसुंधरा फाउंडेशन ' की ओर से सदाकत के संत, संविधान निर्माता, भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद  जी की  ५८ वीं पुण्यतिथि पर एक स्मृति गोष्ठी का आयोजन किया गया जिसकी अध्यक्षता डॉ विद्या बिंदू सिंह जी ने व संचालन शुक्ल जी ने किया। संस्था के संयोजक राकेश श्रीवास्तव द्वारा संक्षिप्त परिचय के उपरांत अखिलेश श्रीवास्तव ' चमन ' द्वारा राजेन्द्र प्रसाद  के व्यक्तित्व व कृतित्व पर सुबोध प्रकाश डाला गया। उनका मत था कि राजेन्द्र प्रसाद जी की सादगी ही उनका विशिष्ट आकर्षक गुण था। अनेक उदाहरणों द्वारा उन्होंने इसकी पुष्टि की। सादगी और ईमानदारी जनित अभावों में उनकी मृत्यु होने का उल्लेख कर उन्होंने व्यवस्था की असंगती को भी इंगित किया। 
इसी प्रकार शीला पांडे जी ने भी डॉ राजेन्द्र प्रसाद जी के साथ - साथ  उनकी पत्नी राजवंशी देवी जी की सादगी पसंदगी को भी विशेष रूप से स्तुत्य बताया। शीला जी ने एक दृष्टांत द्वारा इसकी पुष्टि की जिसमें राजवंशी देवी जी द्वारा महान लेखिका / कवित्री महादेवी वर्मा जी से  ' सूप '  उपहार देने का निवेदन किया था जिसे महादेवी जी द्वारा सहर्ष  पूरा भी किया गया था। उनके कार्यकाल में राष्ट्रपति भवन  किसान भवन के रूप में था। शीला जी ने इस प्रकार की गोष्ठियों में महान नेताओं को स्मरण किए जाने को भावी पीढ़ियों के हितार्थ आवश्यक बताया। 
विजय राजबली माथुर ने ज्योतिषीय गणना से राजेन्द्र प्रसाद जी के राजनीतिक  कृतित्व  व सरल व्यक्तित्व का उल्लेख करते हुए उनको गांधी जी का सर्वप्रिय शिष्य बताया। 
अपने अध्यक्षीय सम्बोधन में डॉ विद्या बिंदू सिंह जी ने गांधी जी से जुड़ी स्मृतियों के साथ राजेन्द्र प्रसाद जी की तुलना करते हुए उनको भारत का महान सपूत बताया। उन्होंने विजय राजबली माथुर द्वारा गांधी जी के संबंध में सोहन लाल  द्विवेदी  की उद्धृत इन पक्तियों की पुष्टि की  : 

चल पड़े जिधर भी दो डग मग में , चल पड़े कोटी  पग उसी ओर । 

गड़  गई जिधर भी एक दृष्टि   , गड़  गए कोटी  दृग  उसे ओर । । 





राकेश श्रीवास्तव साहब के साथ लेखक 

विजय राजबली माथुर 





~विजय राजबली माथुर ©

Tuesday, February 25, 2020

सरकार आंदोलन को नहीं दबा सकती : असहमति देशद्रोह नहीं ------ जज दीपक गुप्ता

  



बार असोसिएशन के कार्यक्रम में सुप्रीम कोर्ट के जज दीपक गुप्ता बोले-
असहमति देशद्रोह नहीं, सरकार आंदोलन को नहीं दबा सकती

अगर किसी पार्टी को 51 फीसदी वोट मिलता है तो इसका मतलब यह नहीं है कि बाकी 49 फीसदी लोग पांच साल तक कुछ नहीं कहेंगे। -जस्टिस दीपक गुप्ता
बेखौफ न्यायपालिका के बिना कानून का शासन नहीं हो सकता। लोकतंत्र में असहमति की आजादी होनी चाहिए। आपसी बातचीत से हम बेहतरीन देश बना सकते हैं। हाल के दिनों में विरोध करने वाले लोगों को देशद्रोही बता दिया गया। उन्होंने कहा, अगर किसी पार्टी को 51 फीसदी वोट मिलता है तो इसका मतलब यह नहीं है कि बाकी 49 फीसदी लोग पांच साल तक कुछ नहीं कहेंगे। लोकतंत्र 100 फीसदी लोगों के लिए होता है। सरकार सबके लिए है। इसलिए हर किसी को लोकतंत्र में अपनी भूमिका का अधिकार है। बता दें कि सुप्रीम कोर्ट के ही जस्टिस डी. वाई चंद्रचूड़ ने हाल ही में ऐसी ही बातों को लेकर लोगों को सतर्क किया था।• एनबीटी, नई दिल्ली : सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस दीपक गुप्ता का कहना है कि जब तक कोई प्रदर्शन हिंसात्मक नहीं हो जाता, तब तक सरकार को उसे रोकने का अधिकार नहीं है। ...सरकार (सरकारें) हमेशा सही नहीं होतीं।...बहुसंख्यकवाद लोकतंत्र के खिलाफ है। मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक जस्टिस दीपक गुप्ता ने सुप्रीम कोर्ट बार असोसिएशन के एक कार्यक्रम में कहा, ...अफसोस की बात है कि आज देश में असहमति को देशद्रोह समझा जा रहा है। असहमति की आवाज को देश विरोधी या लोकतंत्र विरोधी करार देना संवैधानिक मूल्यों पर चोट है। अगर आप अलग राय रखते है तो इसका मतलब यह नहीं कि आप देशद्रोही हैं या राष्ट्र के प्रति सम्मान का भाव नहीं रखते। सरकार और देश दोनों अलग है। सरकार का विरोध करना आपको देश के खिलाफ खड़ा नहीं करता। 

जस्टिस गुप्ता ने देश के मौजूदा हालात पर चिंता जताते हुए कहा कि हम देखते हैं कि कई बार वकील किसी का केस लेने से मना कर देते हैं कि क्लाइंट या आरोपी देशद्रोही है। बार असोसिएशन इस पर अपना प्रस्ताव भी पास करते हैं। यह गलत है। आप कानूनी मदद देने से मना नहीं कर सकते। आवाज को दबाने की कोशिश करेंगे तो ये अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला होगा।

'हर संस्थान आलोचना के दायरे में ' :


जस्टिस दीपक गुप्ता ने कहा कि हर संस्थान आलोचना के दायरे में है। चाहे वो अदालतें हों, सेना या सुरक्षा बल हों। असहमति के अधिकार में ही आलोचना का अधिकार भी निहित है। लोगों को एक जगह जमा होकर शांतिपूर्ण विरोध करने का अधिकार है। उन्होंने कहा कि एक आजाद और

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~विजय राजबली माथुर ©

Thursday, February 20, 2020

हिंदुस्तान में हिंदुस्तानी ढंग की रतनबाई पेटिट उर्फ रत्ती जिन्ना ------ नाइश हसन


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आजादी की चाह लिए खामोश हो गईं रत्ती जिन्ना
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नाइश हसन                  

रियर व्यू मिरर
1928 में जब जिन्ना को सर की उपाधि देने की बात चली तो रत्ती ने यहां तक कहा था कि मेरे पति ने सर का खिताब मंजूर किया तो मैं उनसे तलाक ले लूंगी


बीसवीं शताब्दी के पहले तीन दशकों का वह दौर जब मुंबई की रगों में भारतीय आजादी आंदोलन की धड़कनें काफी तेज थीं, कई पारसी परिवार इस्लाम स्वीकार करने के दबाव से आजाद होकर ईरान से यहां आकर बस गए थे। इसी माहौल में उस वक्त के एक मशहूर पारसी उद्योगपति सर मानक जी दिनशा पेटिट के घर 20 फरवरी 1900 को रतनबाई पेटिट का जन्म हुआ। प्यार से सब उन्हें रत्ती बुलाते थे। 


रत्ती एक बेहद खूबसूरत और तेज दिमाग बच्ची थी। उस वक्त के माहौल में उनके घर दादाभाई नौरोजी, फिरोजशाह मेहता, मैडम भीकाजी कामा, बदरुद्दीन तैयबजी, गोपाल कृष्ण गोखले, श्रीमती ऐनी बेसेंट, सरोजनी नायडू, मुहम्मद अली जिन्ना, अतिया फैजी जैसे महान लोगों का आना जाना था। उनकी बातचीत का असर रत्ती पर बहुत हुआ। वह मुल्क की आजादी का ख्वाब देखने लगी। 


इसी गहमागहमी में उसकी जिंदगी में एक अनकहा मधुर संबंध आकार लेने लगा। 16 साल की रत्ती और 40 साल के जिन्ना के बीच, जो रत्ती के पिता के दोस्त थे। समाजी, सियासी, कारोबारी हलके में मुंबई के अनेक दिग्गजों के बीच जिन्ना की एक खास जगह थी। 20 फरवरी 1918 को अपने 18वें जन्मदिन पर रत्ती पिता का घर छोड़ जिन्ना के पास चली गई। रत्ती ने 1919-1920 में कांग्रेस के कलकत्ता और नागपुर अधिवेशन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। उसके बाद ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन के पहले अधिवेशन में भी धाराप्रवाह और ओजस्वी भाषण दिया। उस समय रौलट कानून का विरोध तेजी पर था। 


रत्ती की हाजिरजवाबी अंग्रेजों को बहुत चुभती थी। शिमला अधिवेशन में उन्होंने वॉयसराय लॉर्ड चेम्सफोर्ड का अभिवादन हाथ जोड़ कर किया। प्रोग्राम के खत्म होने पर चेम्सफोर्ड ने अपनी रोबीली और गुस्सैल आवाज में कहा, मिसेज जिन्ना आप के पति का सियासी मुस्तकबिल बहुत शानदार है। इसलिए आप जहां हैं उसी के मुताबिक व्यवहार करें। इन रोम यू मस्ट डू एज रोमन्स डू।’ उन्होंने बहुत नरमी और अदब से फौरन जवाब दिया, ‘ठीक वही तो किया है मैंने। हिंदुस्तान में मैंने आपका अभिवादन हिंदुस्तानी ढंग से ही तो किया।’ इस जवाब ने लॉर्ड चेम्सफोर्ड को खामोश कर दिया। 


इसी तरह 1921 में जब लॉर्ड रीडिंग हिंदुस्तान के वॉयसराय थे, उन्होंने एक बार रत्ती से कहा कि उनके मन में जर्मनी जाने की बहुत इच्छा है, पर वह वहां जा नहीं सकते। रत्ती ने पूछा ऐसा क्यों/ उन्होंने जवाब दिया कि जर्मन हम अंग्रेजों को पसंद नहीं करते। इस पर हाजिरजवाब रत्ती ने सहज भाव से लॉर्ड रीडिंग से पूछा, ‘महामहिम फिर आप यहां कैसे आ गए/’ रत्ती के इस प्रश्न का व्यंग्यार्थ रीडिंग फौरन समझ गए।


1928 में जब जिन्ना को सर की उपाधि देने की बात चली थी तो रत्ती ने यहां तक कहा था कि मेरे पति ने सर का खिताब मंजूर किया तो मैं उनसे तलाक ले लूंगी। 


शेक्सपीयर ने कहा है, ‘मर्द जब प्यार करते हैं तो बसंत होते हैं। शादी होते ही वे शीत ऋतु में बदल जाते हैं।’ कुछ ऐसा ही जिन्ना के साथ भी था। रत्ती अपनी शामें जिन्ना के साथ गुजारना चाहती थीं। लेकिन प्रेम की जो रसधार दोनों की जिंदगी में फूट पड़ी थी वह जिन्ना की बेरुखी, कड़कमिजाजी और रूखेपन से खत्म होने लगी। 



उपेक्षित रत्ती 1928 में मुंबई के ताज होटल में रहने लगीं। उस वक्त देश में सांप्रदायिक राजनीति अपने उफान पर थी। जिन्ना की जिद उन्हें रत्ती और वतनपरस्ती से कहीं दूर लेकर चली जा रही थी। रोज-बरोज रत्ती कमजोर होती जा रही थी। दबे पांव मौत रत्ती की तरफ बढ़ी चली आ रही थी। आखिर 20 फरवरी 1929 को 29 साल की उम्र में एक जहीन, हिम्मतवर, खुशदिल, प्रतिभासंपन्न युवती अपने देश को गुलामी से मुक्त देखने की ख्वाहिश मन में लिए हमेशा के लिए खामोश हो गई। मुंबई के पास ठाणे में उसकी मजार खामोश है। अब कोई वहां फातेहा पढ़ने वाला भी नहीं जाता। जमाने ने रत्ती के योगदान को जिन्ना के बड़े क़द के आगे आसानी से भुला दिया। इत्तफाकन 20 फरवरी उनकी पैदाइश और मौत दोनों का दिन है।

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 ~विजय राजबली माथुर ©
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Monday, February 17, 2020

कॉलेज की प्रिंसिपल ने पूरे मामले से पल्ला झाड़ा ------ मनीषा पांडेय





मनीषा पांडेय
और भी स्याह हुआ मर्दवाद का चेहरा



दिल्ली के गार्गी कॉलेज में छेड़खानी की घटना के विरोध में छात्राओं का प्रदर्शन
सजा औरत के साथ हुए अन्याय से नहीं, मर्द की औकात से तय हो रही है। गरीब मजदूर हुआ तो उसे फांसी और ताकतवर बाबा हुआ तो उसे माला पहनाई जाएगी


सत्ता और समाज का एक तबका अब भी औरतों को उपभोग की वस्तु समझता है
इलाहाबाद की यह घटना करीब 23 साल पुरानी है। मेरी आर्यकन्या पाठशाला की दो शिक्षिकाएं लड़कियों को भेड़-बकरियों की तरह टैंपो में ठूंसकर दूसरी कन्या पाठशाला लेकर जा रही थीं, किसी वाद-विवाद प्रतियोगिता में हिस्सा लेने के लिए। पास में ही इलाहाबाद विश्वविद्यालय का कैंपस था। टैंपो बैंक रोड पर मुड़ा तो साइकिल, मोटरसाइकिल से और पैदल चल रहे लड़कों के हुजूम में जाकर फंस गया। छात्रसंघ चुनाव सिर पर थे और सैकड़ों की तादाद में यूनिवर्सिटी के लड़के सड़क पर रैली निकाल रहे थे। तभी भीड़ में से एक लड़के ने कछुए की चाल से सरक रहे टैंपो के अंदर हाथ डाल खिड़की के पास बैठी लड़की के सीने पर हाथ मारा। लड़की की दबी हुई सी चीख निकली। 23 साल पहले छोटे शहर की डरपोक लड़कियां जोर से चीख भी नहीं पाती थीं। टीचर ने उलटे उसे ही डांट लगाई। बाकी लड़कियों को भी चुप रहने को कहा। टैंपो के अंदर एकदम सन्नाटा!
 • हम बोलते नहीं

एक-दूसरे की हथेलियां कसकर पकड़े हुए लड़कियां शोर मचाते, चिल्लाते, पैंट की जिप पर हाथ मलते, आंख मारते, लार टपकाते हिंदुस्तानी मर्दानगी के उस जुलूस के गुजर जाने का इंतजार करती रहीं। दूसरे स्कूल की प्रतियोगिता में पहुंचकर ‘आधुनिक नारी की स्वातंत्र्य चेतना’ जैसे किसी विषय पर जोरदार भाषण देकर आईं। स्कूल को फर्स्ट प्राइज मिला। सब गर्व से फूले-समाए, लेकिन असली सवाल किसी ने नहीं पूछा। जहां हमें सचमुच बोलना था, हम बोलीं क्यों नहीं/ हमारी टीचर क्यों नहीं बोलीं/ हमारे मां-बाप क्यों नहीं बोलते/ कोई सही मौके पर सही बात बोलता क्यों नहीं/ 

कुछ ऐसा ही वाकया पेश आया था 6 फरवरी को दिल्ली के गार्गी कॉलेज में, जब लड़कियों के एक सालाना जलसे में सैकड़ों की संख्या में लड़के घुस आए और अभद्रता की सारी हदें पार कर दीं। वे ‘जय श्रीराम’ के नारे लगा रहे थे, लड़कियों के सामने मास्टरबेट कर रहे थे, भीड़ में घुसकर लड़कियों को छू रहे थे। पूरी बेशर्मी और गुंडागर्दी के साथ घंटों ये सब होता रहा, लेकिन कैंपस के बाहर किसी को कानोंकान खबर नहीं हुई। मीडिया में भी घटना की रिपोर्ट हुई तीन दिन बाद। न कॉलेज प्रशासन जागा, न पुलिस आई। दिन-दहाड़े लड़कियों के कॉलेज में, उनके निजी और सुरक्षित स्पेस में घुसकर मर्दों ने सब जगह अपनी मर्दानगी के पोस्टर चिपका दिए और कोई उनका कुछ बिगाड़ नहीं पाया। 

कॉलेज की प्रिंसिपल ने जिस तरह पूरे मामले से पल्ला झाड़ा, मुझे अपनी आर्यकन्या पाठशाला की शिक्षिकाएं याद आ गईं। वह तो ऐसे बोल रही थीं कि लड़कियां ही जिम्मेदार हैं क्योंकि उन्होंने अपना दायरा तोड़ा, बाहर गईं। 23 बरस गुजर गए, लेकिन वह सवाल जस का तस है। जहां हमें सचमुच बोलना था, हम बोलीं क्यों नहीं/ हमारी टीचर क्यों नहीं बोलीं/ कॉलेज की प्रिंसिपल क्यों नहीं बोल रहीं, टीचर्स क्यों नहीं बोल रहे, मीडिया क्यों नहीं बोल रहा, संसद में बैठी औरतें क्यों नहीं बोल रहीं, ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ की बात करने वाले सत्तारूढ़ पार्टी के मर्द क्यों नहीं बोल रहे, सड़कों पर उतरकर लोग क्यों नहीं बोल रहे, पूरा देश क्यों नहीं बोल रहा/ सिर्फ चंद लड़कियां ही क्यों बोल रही हैं/ सिर्फ जिन्हें छुआ, छेड़ा, अपमानित किया गया, अकेली वही क्यों बोल रहीं, बाकी क्यों नहीं बोल रहे/ 

यूं तो औरत से जुड़े हर अहम सवाल पर न तो खुद बोलना, न किसी को बोलने देना ही इस देश की परपंरा रही है, लेकिन 8 साल पहले निर्भया वाली घटना के विरोध में जब राष्ट्रपति भवन से लेकर इंडिया गेट तक लोग सड़कों पर उतर आए, जब अखबारों के पन्ने औरत के सम्मान और सुरक्षा पर लिखे लेखों से पट गए, जब ये सवाल इतना बड़ा हो गया कि संसद से लेकर न्यायालय के गलियारों तक में हलचल होने लगी तब कानून बदला, सख्त हुआ। जब सब ओर से इस बारे में लोग बात करने लगे और अचानक औरतों की जिंदगी से जुड़े सवाल देश और राजनीति की मुख्यधारा में आ गए तो लगा कि चुप्पी टूट रही है। और अभी बोलना शुरू किए ढंग से 8 बरस भी नहीं बीते हैं कि लग रहा है अचानक सब चुप हो गए हैं। यह चुप्पी डराने वाली है, उन लड़कियों के लिए, जिन्होंने इतने सालों में लड़-लड़कर अपने लिए थोड़ी सी जगह बनाई है, थोड़ी सी आजादी कमाई है। यह चुप्पी डराने वाली है क्योंकि यह सिर्फ न बोलना भर नहीं है। यह धमकी है कि दुनिया में अभी भी मर्दों का राज है। वे कह रहे हैं कि हम जिस जय श्रीराम के नारे के साथ जमानत पर छूटे बलात्कारी बाबा का स्वागत करेंगे, उसी नारे से तुम्हारे कॉलेज में घुसकर तुम्हारे साथ जो चाहेंगे करेंगे और तुम कुछ नहीं कर पाओगी। सत्ता में बैठे लोग हमारे साथ हैं, हम मर्द हैं, हम ही सत्ता हैं। इस घटना पर हर न बोले गए शब्द, हर न उठी आवाज का अर्थ यही है कि औरतों की कोई औकात नहीं है। औकात सिर्फ मर्द की होती है क्योंकि बलात्कार से लेकर छेड़खानी तक की हर सजा औरत के साथ हुए अन्याय से नहीं, मर्द की औकात से तय हो रही है। गरीब मजदूर हुआ तो उसे फांसी पर चढ़ाया जाएगा और ताकतवर बाबा हुआ तो उसे माला पहनाई जाएगी।• वही पुरानी स्क्रिप्ट 


बीते 23 सालों में इस मर्दवादी मुल्क की लड़कियों ने शिक्षा, नौकरी, रोजगार और आत्मसम्मान हासिल करने के लिए कितना लंबा सफर तय किया है, अपने लिए बोलना और लड़ना सीखा है, लेकिन हिंदुस्तानी मर्दानगी की स्क्रिप्ट इतने सालों में भी नहीं बदली है। वह उसी बेशर्मी और अहंकार के साथ बीच चौराहे पर खड़े मास्टरबेट कर रहे हैं और लड़कियां शर्म और डर से झुकी जा रही हैं। यह स्क्रिप्ट आखिर बदलेगी कैसे/ नई कहानी कौन लिखेगा/ जाहिर है वो नहीं, जिसे सारे बेशर्म, बेलगाम अधिकार हासिल हैं। नई कहानी वही लिखेंगी, जिन्हें पहले अपमानित किया गया और फिर कहा गया- चुप रहो।
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Anand Vardhan Singh talks about the molestation and misbehaviour with the students of Gargi College affiliated to University of Delhi #DU in New Delhi. The incident happened on 6 February 2020 during the annual college fest #Reverie2020 where many of goons forcefully entered the #GargiCollege Campus and abused, harassed to students where Zubin Nautiyal was supposed perform on the last day of the fest. 
6 February was the last day of election campaign of Delhi Assembly Elections and the incident occurred in front of security personnel deployed at Gargi College. Girls have alleged that they were shouting Pro #CAA #NRC Slogans and molested, harassed, masturbated on them and followed home. After this horrific incident and college Principal Dr. Promila Kumar formed a committee to investigate and after the notice issues by Ms. Swati Maliwal, Chairperson of Delhi Commission for Women, an FIR was lodged and several people were arrested.







   ~विजय राजबली माथुर ©

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Saturday, February 8, 2020

क्या युवा अपने ठगे जाने का प्रतिरोध करेगा ------ मंजुल भारद्वाज

  
Manjul Bhardwaj
07-02-2020 
क्या युवा अपने ठगे जाने का प्रतिरोध करेगा : मंजुल भारद्वाज

क्या युवा अपने ठगे जाने का प्रतिरोध करेगा ? अपने साथ हुए छलावे के खिलाफ उठ खड़ा होगा ? विकास और रोज़गार के नाम पर वाय- फाय के झुन्झने को फैंककर , अपने खिलाफ हुई साजिश का पर्दाफाश करने के लिए संघर्ष के रास्ते को स्वीकार करेगा या व्हाट्स अप्प और ट्विटर में उलझकर आत्महत्या का इंतज़ार करेगा ?

२०१४ के लोकसभा चुनाव ने एक छद्म राष्ट्रवादी परिवार के एक ५६ इंच के जुमलेबाज़ प्रचारक को भारतीय लोकतंत्र का मसीहा बना दिया . एक सतही , फूहड़ व्यक्ति के हाथ में देश की बागडोर आ गयी ...फिरका परस्त विद्धवान , साम्राज्यवादी लेखक उसके नेतृत्व के गुणगान करने लगे ... चाय वाले की सफलता को शब्द बद्ध करके सुख सुविधा की आस लगाये मध्यमवर्गीय तबके के लिए हवाई अड्डों पर ये कशीदे सजा दिए गए , देश में जुमलेबाज़ युग की शुरुआत हो गयी , बड़े बड़े बैनर लगा दिया गए !

पूंजीपतियों ने विदेशों में सर्कस कार्यक्रम आयोजित किए भीड़ जुटाई गयी , ५६ इंच वाला करामाती सीना दिखाया गया, तालियाँ बजी , दलाल मीडिया ने लाइव कवर किया , देश की प्रजा का सीना गर्व से चौड़ा हो गया , वाह यह होता है ..होना .. और इसी का फायदा साम्राज्यवादी और पूंजीवादी ताकतें उठा रही हैं ... हर विदेशी सर्कस के तमाशे के शोर में ये मुनाफाखोर इस ५६ इंच का अंगूठा लगवाते हैं मुनाफाखोरी के सहमति पत्र पर, और उजागर तौर पर दिए ३० हजार करोड़ के चंदे को वापस लेने का इंतज़ाम करते हैं ..दलाल मीडिया दलाली की दलदल में स्नान कर रहा है और जनता इन विदेशी सर्कस के तमाशों से अनजान है की इन दौरों में पूंजीवादी किसी हिंदी फिल्म के बनिया की तरह सम्पति पर अंगूठा लगवा रहे हैं और मजे की बात ये हैं बिलकुल फ़िल्मी की एक भी करार जनता के सामने उजागर नहीं होता , यही मजबूत ५६ इंच के नेतृत्व का सच है और यही भारतीय लोकतंत्र की त्रासदी है ! और इस त्रासदी के नायक हैं १९९२ के बाबरी मस्जिद विध्वंश के बाद पैदा हुए युवा जो २०१४ में अपने वोट देने के संवैधानिक अधिकार के अधिकारी हो गए और अपनी आँखों में सुनहरे अपने लिए , स्मार्ट फ़ोन और सोशल मीडिया से लैस , इंस्टेंट सपनो की पूर्ति के लिए विकास की जुमलेबाजी में फंस गए ... और एक निहायत ही मुनाफाखोर पार्टी को लोकसभा में बहुत दे दिया ..बिना संघर्ष के ...जिसे कहते हैं ना हल्दी लगे ना फिटकड़ी और रंग आये चोखा ..जीत का मन्त्र बना ..विकास का जुमला , नव पूंजीवादी सपनों से भरा युवा वोटर , सोशल मीडिया और पूंजीवादियों के हवाई उड़ान पर हवाबाजी करतब और जुमलेबाजी ...

देश को भूमंडलीकरण के नव पूंजीवादी विकास के जाल में फंसा कर कांग्रेस के एक प्रधान मन्त्री जन्नत पहुंच गए और तबके वित्त मंत्री और आज के निवर्तमान प्रधान मन्त्री देश में कांग्रेस के सफाये के सूत्रधार बन गए . दरअसल यह पूंजीवादी अजगर है ही ऐसा की किसी को नहीं छोड़ता. इसके जनक और इसके फायदों की मोटी मलाई खाने वाले खुद इसका शिकार हैं ...इन देशों की हालत देखिये , इनकी अर्थ व्यवस्था के दिवालियेपन की खबरें हर समय सुर्ख़ियों में रहती हैं और इस व्यवस्था के पितामह और दुनिया की सुपर पॉवर अधर्म के महाभारतों के कुरुक्षेत्र में मानवी रक्त से मानवीयता और धरती को लहूलुहान कर रहे हैं ...जिसका परिणाम , युद्ध ..युद्ध ..हथियारों की बिक्री से अपनी अर्थ व्यवस्था को बचाये रखना ..और अपने बनाए भस्मासुरों यानि विश्व बैंक और आई ऍम एफ के ज़रिये दूसरे देशों की अर्थ सम्पन्नता का विध्वंश करना , झूठे विकास के लिए क़र्ज़ के नाम पर उस देश की सम्प्रभुता को नष्ट कर उससे अपने उपर आश्रित बनाकर शोषण करना इनकी अर्थ व्यवस्था को जिंदा रखने के सूत्र हैं . हमारे “ साम्यवादी” पडोसी ने तो “साम्यवाद” के सारे सूत्र बाज़ार में बेचकर अपने को ताकतवर और धनवान बनाने की लाख कोशिश की पर अब उसकी आर्थिक विकास की गति का टायर पंचर हो रहा है .

भारत में भी ये पूंजीवाद का अजगर उस समय नियन्त्रण में था जब यूपीए-१ की सरकार को वाम दलों का समर्थन था उस समय देश की संसद ने ४ ऐतिहासिक जनसरोकारी विधयेक पारित किए और पूंजीवादी व्यवस्था वाले लोकतंत्र में जन सहभागिता को मजबूत किया. इस जनसरोकारी प्रतिबद्धता को तोड़ने के लिए अमेरिका ने विशेष रणनीति बनाई और वो रणनीति है “ परमाणु संधि यानी एटॉमिक डील” .

घोर पूंजीवादी समर्थक प्रधानमंत्री ने इस डील को अपनी नाक का बाल बनाया ..खैर उनकी राजनैतिक मुर्खता समझ में आती है लेकिन अमेरिका का खेल हमारे वाम दल नहीं समझ पाए की दरअसल ये “ परमाणु संधि यानी एटॉमिक डील” ऐसा षड्यंत्र था जिससे पूंजीवादी नीति मज़बूत हों और भारत की सत्ता में वामपंथ का दखल ख़त्म हो. पर वामपंथ का राजनैतिक दिवालियापन ले डूबा देश को ..प्रतिरोध के अंधेपन में देश के राजनैतिक भविष्य को नहीं देख पाए वामपंथी . बावजूद इसके की देश की जनता उनकी राजनैतिक मज़बूरी को समझ रही थी क्योंकि कांग्रेस की नीतियों से असहमति के बावजूद ‘धर्म निरपेक्षता’ के लिए उसका साथ दे रही थी जिसका उन्हें सीधा फायदा हुआ क्योंकि छद्म राष्ट्रवादी शक्तियां प्रमुख विपक्षी दल होते हुए भी सार्वजनिक उपस्थिति दर्ज करने में नाकाम थीं और वामपंथी देश के आज़ाद होने के बाद पहली बार ऐसी अवस्था में थे की पक्ष भी उनका और विपक्ष भी ..यानि दोनों हाथों में लडडू ...उपर से पूंजीवादी अजगर पर नियन्त्रण … पर अपनी राजनैतिक मुर्खता की वजह से वो दूरगामी राजनैतिक प्रभावों को नहीं समझ पाए जिसके फल स्वरूप देश पूंजीवादी और छद्म राष्ट्रवादी ताकतों के कब्ज़े में हैं आज .

इस क्रम में और एक घटना है छद्म राष्ट्रवादी सरकार के 6 साल वाले दौर में एक पूंजीवादियों के दलाल हुआ करते थे जो संचार मंत्री भी थे और पूंजीपति गैर कांग्रेसी भारत सरकार को इस दलाल के माध्यम से पैसा मुहैया करा रहे थे . उसी समय भारतीय मध्यम वर्ग संचार क्रांति की प्रतीक्षारत था . इसलिए बिना कोई नीति बनाये “यानी पहले आओ ,पहले पाओ” के आधार पर स्पेक्ट्रम नीलाम हुए ...इंडिया शाइनिंग यानि भारत उदय वाले फरेबी नारे को जनता ने अस्वीकार किया और यूपीए-१ की सरकार बनी .

“परमाणु संधि यानी एटॉमिक डील” के विरोध में जब वामपंथियों ने यूपीए-१ से अपना समर्थन वापस लिया तो राजनैतिक विरोधियों ने वामपंथियों को विकास विरोधी करार दिया और मध्यम वर्ग ने उस पर मुहर लगा कर एक बार फिर कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए-२ की सरकार बनी जिसमें छद्म राष्ट्रवादी सरकार की अनीतियों को राजनैतिक पक्षों ने खूब भुनाया और देश की धरोहर को खूब लुटा और लुटवाया !

विज्ञान के महान वैज्ञानिकों ने सारी खोज , अन्वेषण पूंजीवाद की गोद में बैठकर की और उसके लिए की यानी पूंजीवाद के लिए की और इंसानियत के मसीहा बन गए सबको कहा विज्ञान को अपनाइए .. विज्ञान को अपनाइए .. और पूंजीवादियों ने विज्ञान के नाम पर तकनीक का बाज़ार खड़ा कर दिया . जहाँ उपभोगता विज्ञान के नाम पर कंप्यूटर का उपयोग भगवान की फोटो लगाकर करते हैं क्योंकि तकनीक से जब ‘विज्ञान’ गायब हो जाए तब वो ब्राहमणवादी कर्मकाण्ड बन जाती है ! और यही प्रथा शोषण की जननी है . इसलिए विज्ञान के नाम पर तकनीक का ब्राह्मणवादी, पूंजीवादी बाज़ार खूब उफान पर है और जनता को आधुनिकता के नाम पर छल रहा है जिसका उदाहरण है आधुनिकता के नाम पर नंगा बदन यानि देह प्रदर्शन और दक्षिणपंथी विचार का बाज़ार ..जिस बाज़ार का एक ही मन्त्र है मुनाफा ..मुनाफा और सिर्फ मुनाफा !

विज्ञान से उत्पन्न तकनीक का एक सिरा परमाणु बम से जुडा है और दूसरा स्मार्ट फ़ोन के वह्ट्स अप्प और ट्विटर से और इसे बेचने के लिए पूंजीवाद ने जन आवाज़ के नुमाइन्दों को यानी मीडिया में अपना अकूत धन लगाकर मीडिया को अपना दलाल बनाया रुपर्ट मर्डोक इसका सबसे उत्तम उदाहरण है जिसने पत्रकारिता को मंडी और पत्रकारों को सेल्समैन में बदल दिया . औपनिवैशिक देशों में पत्रकारिता का अंतिम सत्य मानने वाले बीबीसी और सीएनएन की पोल खाड़ी देशों में अस्थिरता फैलाने और इन देशों के प्राकृतिक संसाधनों पर कब्ज़े वाले षड्यंत्र के लिए गढ़े गए झूठ “नरसंहार के हथियारों” के प्रोपोगेन्डा से खुल गयी .

इस पूंजीवादी मंडी में मीडिया रोज़ जन सरोकारों की बोली लगाकर अपना मुनाफा कमाता है .. झूठ , फरेब , अर्ध सत्य , सनसनी और बेमानी के मानदंडों वाली ये मीडिया रोज़ “नेशन वांट टू नो” के नाम से अदालत लगाते हैं जहाँ पत्रकारिता की स्वतंत्रता और जन के प्रति जवाबदेही के फार्मूलों का उपयोग करके महा व्यक्तिवादी न्यूज़ एंकर यानी न्यूज़ सेल्समेन राजनेता को धमकाते हैं , संसद की तौहीन करते हैं , उद्योगपति स्वयं उस अदालत में बेशर्मी से जन संसाधनों को हथियाने की बेशर्म पैरवी करते हुए सरकार को विकास के छलावे के साथ उनके आदेश को मानने के लिए फरमान देते हैं .मजे की बात यह या निर्लज्जता
है की इस भों भों वाली अदालत को लोकतंत्र का रक्षाकवच मानते हुए अपनी तारीफ़ में टीआरपी के गोलमाल से स्वयं की तारीफ़ में कशीदे पढ़ते हैं और निर्लज्जता का शान से डंका पीटते है हम हैं ७० साल से सबसे निर्लज्ज! और आज के युवा को इस खेल में बड़ी चालाकी से शामिल करते हैं , मुनादी करते हैं हमसे जुड़िये .. ऐप डाउन लोड करके अपना सन्देश भेजिए .. ट्विटर पर ट्रेंड से जुड़िये और इस चेहरा दिखाओ और इंस्टेंट पब्लिसिटी के दौर में हमारा युवा सहर्ष इस षड्यंत्र का हिस्सा बनता है और हर रोज़ हर पल ठगा जाता है क्योंकि रूप और विचार के फर्क को नहीं समझ पाता . ये नहीं जान पाता की ये विकास और पारदर्शिता के खेवन हार हर पल उसे अपने फायदे के लिए उपयोग कर रहे हैं .

आज “युवा” को अपने जन सरोकारी विचारों से इनके चक्रव्यूह को तोड़ने की ज़रूरत है . युवाओं को जल्द यह विचार और विवेक सम्मत पहल करने की आवश्यकता है क्योंकि सत्ता के सरमायेदारों ने जैसे गरीब और किसान को एक दुसरे का पर्याय बना दिया और वर्षों से षड्यंत्र पूर्वक उनकी अनदेखी करके उनको आज आत्महत्या पर मजबूर किया है वैसा ही षड्यंत्र रोज़गार के उपलब्ध ना करवाकर ये सत्ता के सरमायेदार ‘युवाओं’ को एक ऐसी परिस्थिति में डाल रहे हैं जहाँ आत्महत्या ही एक मात्र पर्याय होगा . अपनी हालत देखिये ऍमबीए,इंजीनियर की पढाई करने के बाद आप चपरासी की भर्ती की लाइन में लगें या शिक्षामित्र बनकर नौकरी करें और कोर्ट आपको बर्खास्त करे यह कहकर की आप की नियुक्ति गैर क़ानूनी है दरअसल ये पूंजीवाद का घिनौना ब्यूटी कांटेस्ट हैं जहाँ ब्यूटी का प्रसाधन बेचने के लिए एक मिस इंडिया बनाने से काम चल जाता है उसी तरह एक गूगल सीईओ की नियुक्ति से भारत के सारे युवाओं को रोज़गार मिल जाता है ! .कल्पना कीजिये इस देश की सबसे बड़ी ताकत उसके युवाओं की फांसी पर लटकी हुई ,किसानो की तरह तसवीरें ! भयावह और भयानक होने के साथ वीभत्स ! मेरे मित्रों इस आत्म मुग्ध सेल्फी के दौर से निकलो क्योंकि यह सेल्फी खीचने वाला एक खतरनाक यमराज है जो अपने इस कदम से भी स्मार्ट फोन का विज्ञापन कर झूठे सपने बेच रहा है जहाँ आप निजी स्कूल , कॉलेज , या शिक्षण संस्थाओं में लाखों खर्च कर अपने सुनहरे भविष्य के सपने संजोय हैं और दूसरी तरफ बेरोजगार युवक को स्मार्ट फ़ोन से सेल्फी खीचने में बिजी किया जा रहा है अभी १५ महीने हुए हैं पुरानी सरकार के पाप धो रहे हैं कृपया हमारे एक करोड़ हर वर्ष रोज़गार देने के पापी वायदे के बारे में मत पूछिए बस अच्छे दिनों और विकास का इंतज़ार कीजिये. जैसे ही विदेश में सर्कस के तमाशे से कालाधन वापस आएगा वैसे ही जन धन योजना के खाताधारकों के खाते में जमा हो जाएगा .

युवाओं को अपने राजनैतिक इस्तेमाल से भी बचना होगा , उस पर पर ध्यान देना होगा नहीं तो राजनीति को एनजीओ समझने वाले तथा कथित गांधीवादी नेता भ्रष्टाचार मुक्त भारत के ढकोसले में फंसकर सत्ता लोलुपों की मदद करेंगें . ना भारत भ्रष्टाचार मुक्त होगा ना ही लोकपाल बनेगा बस कुछ अहंकारी और व्यक्तिवादी आम आदमी की आड़ में लोकतंत्र की कमजोरी का मखौल उड़ाते हुए सत्ता पर काबिज़ हो जायेगें और जनता की सेवा करने की बजाये देश के शिखर पर पहुँचने का जुगाड़ करने में लग जायेगें .

दोस्तों इनका खेल देखिये छद्म राष्ट्रवादी परिवार का षड्यंत्र, मध्यम वर्ग की त्रस्ता का उपयोग करने की चतुराई भरा प्रयोग. भ्रष्टाचार को ख़त्म करने के लिए प्रशासन के त्रस्त महत्वाकांक्षी बाबुओं की जमात को जोड़कर एक खुद को आत्म घोषित गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता को आन्दोलन का सिरमोर बनाकर मीडिया को परोस दिया और मीडिया ने अपनी देश भक्ति निभाई और दिन रात उसकी सेवा में जुट गए ... लेकिन हुआ क्या यह आपके सामने है .. बात बहुत सरल है गांधी के नाम का उपयोग आसान हैं लेकिन उनकी राजनैतिक समझ किसी के पास नहीं ! लेकिन भारत में सत्ता चलानी है तो उनके नाम का जाप ज़रूरी है इसलिए ५६ इंच का सीना भी बापू ..बापू पुकारता है विदेशी सर्कसों में ...जिसके लाइव प्रसारण से ‘राष्ट्रवाद’ का नारा बुलंद करेगें भूखे पेट .. और सत्ताधीश राष्ट्रवाद ..राष्ट्रवाद का नारा लगाते हुए , देश से सांस्कृतिक प्रदूषण खत्म करने की मांग करेंगें , और इसको खत्म करने के लिए पहला कदम - सभी युवाओं से कहा गया है १०-१० बच्चे पैदा करो .. देश की जनसंख्या बढाओ और ५६ इंच के सपने पूरा करो , विज्ञान की जगह तंत्र ,मन्त्र सीखो , देश के निर्मातों को गालियाँ दो , विद्यालयों में गीता और रामायण पढ़ाये जाएँ जिससे ये शिक्षा दी जाए की नारी एक वस्तु है उसको जुए में लगाया जाए ... नारी को हमेशा अग्नि परीक्षा देनी होगी और देश निकाले के लिए भी महिला तैयार रहे ... रास लीलाओं से देश प्रेम मय हो जाएगा और ना हो तो धर्म की रक्षा के लिए हिंसा का उपयोग जायज है अपना हो या पराया उसका वध करो .. नरसंहार करो और भगवान कहलाओ यानी राष्ट्रवाद मतलब पूरी तरह से ब्राह्मणवाद की वापसी ! और इस पर सवाल पूच्छा तो देश द्रोह करार दिए जाओगे , भक्तों की फ़ौज धमकायेगी, पार्टी के प्रवक्ता खुले आम चेतावनी और धमकी देगें दुनिया भर के कुतर्कों से अपना ज्ञान बघारेंगें ...

दरअसल १९९२ की ‘रथ यात्रा’ का आज बैठे बिठाये एक पार्टी को उसका लाभ मिल रहा है वो भी सूद समेत यानी पूर्ण बहुमत .कांग्रेस की नव उदार नीति ने एक निश्चित समय तक एक जादुई असर दिखाया . कम्पुटर क्रांति हो गयी , युवाओं को रोज़गार मिला , मिलियन एयर हुआ एक तबका , थोड़े दिन देश की जीडीपी ९-१० प्रतिशत रही ... पर पूंजीवाद को स्थायीतत्व कहाँ रास आता है वो तो विकास की गाजर दिखाकर देश के सभी संसाधनों पर कब्जा करना चाहता हैं. और उसने सरकारी सम्पतियों को विनिवेश के ज़रीये अपने नाम करा लिया , नीलामी से देश के प्राकृतिक संसाधनों यानि खनिज , जल , जंगल और जमीन की लूट जारी है . बिजली , सडक इत्यादि पहले से पूंजीपतियों के हाथ है , इतना करने पर भी पूंजीवादी संतुष्ट नहीं हुए , उनकी मुनाफाखोरी और देश के बाबुओं , राजनेताओं की कालाबाजारी ने विकास की हवा निकाल दी .. अचानक रोज़गार की आई बाढ़ सुख गयी , कालेधन की वापसी और भ्रष्टाचार खत्म करने का अभियान चला , घोटाला ..घोटाला देश में गूंजने लगा , छद्म राष्ट्रवादी ताकतों ने संवैधानिक संस्थाओं में घुसपेट कर सरकार के खिलाफ़ आकडे और बयानबाज़ी करवाई , उसके निमित संसद नहीं चलने दी और संसद नहीं चलने देना भी लोकतंत्र है के जुमले को जमकर आजमाया और क्रियान्वित किया . संसद की बजाये ‘सर्वोच्चय न्यायलय’ ने राजनैतिक दिशा निर्देश देना शुरू किया. विदेशी पत्र पत्रिकाओं को भारत की चिंता होने लगी उन्होंने अपने मुख पत्र के प्रथम पृष्ठ पर भारत के पालिसी पैरालिसिस पर लेख लिखे. उसी समय पूंजीवादी देश के राज्य की अस्मिता के नाम का व्यापारिक दोहन कर रहे थे उसको वाइब्रेंट राज्य का नाम दिया गया ..असल में पूंजीवादी अपनी मुनाफाखोरी में राष्ट्रवाद , राष्ट्रीय अस्मिता का तड़का लगाना चाहते थे और उनका ये प्रयोग ५६ इंच का सीना लेकर राष्ट्रीय पटल पर अवतरित हुआ.

असल में विदेशी ताकतों को पालिसी पैरालिसिस से क्यों तकलीफ हो रही थी उसकी वजह थी ..हथियारों की खरीद फरोक पर रोक . जिससे इन विदेशियों की अर्थ व्यवस्था चरमरा रही थी ..जिन देशों की इकॉनमी हथियारों की बिक्री पर आधारित हो वो देश इस पालिसी पैरालिसिस से दुखी थे और इसके निवारण के लिए उन्होंने भारत के विकास रुकने का हवाला दिया , प्रधान मंत्री की निर्णय क्षमता पर सवाल खड़े किए , छद्म राष्ट्रवादीयों के माध्यम से सेना के अधिकारियों से बयान दिलवाए की सेना के पास सिर्फ २१ दिन का आयुध भंडार है . जनता में देश की सुरक्षा के संदर्भ में भय निर्माण किया गया . अब इस खेल को समझें , जिस देश की नीति आत्म रक्षा हो,उसके पास परमाणु बम हों उसे ३६५ दिन लड़ने का आयुध या अस्त्र क्यों चाहिए ? आत्म रक्षा नीति वाली १० लाख की फ़ौज के लिए २१ दिन का आयुध भंडार और परमाणु बम किसी भी दुश्मन को धुल चटाने के लिए काफी हैं . असल में जिन देशों की इकॉनमी हथियारों की बिक्री पर आधारित है उन्होंने अपने फायदे के लिए ये कुप्रचार किया और करवाया और उसका प्रतिफल देखिये ५६ इंच के सीने वाली सरकार ने शपथ ग्रहण के बाद सबसे पहला निर्णय लिया और वो निर्णय है देश की रक्षा के लिए अत्य आधुनिक हथियारों की खरीद को मंजूरी दी जिसमें अमेरिका का सबसे बड़ा हिस्सा है और उसके परिणाम स्वरूप वहां के राष्ट्रपति हमारे राजपथ पर गणतंत्र दिवस पर हाजिर हुए और ५६ इंच के सीने को महान बताया अपने देश के फायदे के सारे काम किये और भारत को जुमला दिया बड़े बड़े देशों में छोटी छोटी बातें होती रहती हैं सोनू रीटा... पर उस दिन से अब तक देश की पश्चिमी सीमा पर गोलियों की बौछार है रोज़ सैनिक और आम जनता शहीद हो रहे हैं , दालों के दाम दुगने हो गए हैं महंगाई और भ्रष्टाचार चरम पर है और ५६ इंच का सीना मौन है . यह सारे खेल युवाओं को अपने सेल्फी अभियान से निकल कर समझने होंगें की किस का विकास हुआ , किसका होना है , किसके लिए पालिसी पैरालिसिस था , किसके हक़ में निर्णय हो रहे हैं ... क्यों आज पूर्व सैनिक भूख हड़ताल पर बैठें हैं और अपने आप को ‘राष्टवादी’ बताने वाले ‘मौन’ हैं .

इन छद्म राष्ट्रवादीयों को उभारने में जनवादियों की निष्क्रियता का भी बहुत बड़ा योगदान है. असल में जनवादी प्रतिरोध में ही खप्प गए . जनवादी आजतक इतनी सरल बात नहीं समझ पाए और दुःख इस बात का है की वो समझने को तैयार नहीं हैं कि प्रतिरोध के साथ ‘अग्रिम नियोजन और नीति’ निर्माण आवश्यक है . प्रतिरोध से ये जनवादी राजनैतिक पक्ष की बजाए समाज सेवा संस्था बन गए और जनता इनको इमानदार , संघर्षशील , जन हितैषी , प्रतिबद्ध , विचारवान ,मानते हुए भी इनको वोट नहीं देती क्योंकि जनवादी वोट की राजनीति नहीं करते और खुद को राजनैतिक कार्यकर्त्ता नहीं मानते और अपने पक्ष को राजनैतिक पक्ष के तौर पर पेश नहीं करते बस क्रांति के इंतज़ार में कंकाल हुए जा रहे हैं पर राजनैतिक पहल क्रान्ति का एजेंडा देश की जनता के सामने मुखर होकर नहीं रखते . आधुनिक भारत के लिए इनके पास कोई विज़न नहीं हैं और है तो उसको जनता के सामने नहीं रखते . और इनसे जुड़े तथा कथित बुद्धिजीवी , साहित्यकार , संस्कृतिकर्मी, अपने ही दम्भ , निष्क्रियता और सूडो सेक्युलर वाद , प्रतिद्वंद्वता के शिकंजे में स्वयं को जकड़े हुए हैं जो यदा कदा गुर्रा कर चुप हो जाते हैं , अपने कर्म से किसी को डरा धमका भी नहीं पाते , प्रेरणा देना तो दूर की बात !

अब इस चक्रव्यहू को ‘युवा’ समग्रता में समझे , अपने मुद्दों को स्वयं हाथ में ले अगर ऐसा युवा अभी नहीं करेगा तो उसके जायज मुद्दों को गलत दिशा देकर संविधान के खिलाफ युवाओं को ये छद्म राष्ट्रवादी ताकतें विविधता वाले देश के युवाओं को आपस में लड़वायेगी जिसका बिगुल पिछले दिनों एक ‘विकास’ के मॉडल प्रदेश में बज चुका है .

क्या मेरे देश का १९९२ के बाद पैदा हुआ युवा अपनी आँखें खोलेगा ? क्या वो अपने देश के इतिहास और आने वाली चुनौतियों को समझेगा ? और उससे समझने के लिए झूठ और फरेब से भरे विकिपीडिया और इन्टरनेट पर उपलब्ध जानकारियों तक सीमित ना रहकर इस देश के ग्रंथालयों की खाक़ छानेगा ? या भारत भ्रमण करके आधुनिक भारत को खोजेगा? या पूंजीवादी मीडिया के चकाचौंध भरे विज्ञापनों , स्मार्ट फ़ोन की सेल्फी के सुख में मस्त रहेगा और उस दिन का इंतज़ार करेगा जब सत्ता लोलुप आपको आपस में लड़वाकर सत्ता सुख भोगते रहेगें और आप ‘युवा’ किसान की तरह अपना सब कुछ बेचकर आत्म हत्या को मजबूर हो जायेगें और ५६ इंचवादी सीना जन सभाओं में विकास के नाम जुमलेबाजी अर्पित करने का पुण्य करते रहेगें . एक झूठ सौ बार बोलने पर सच हो जाता है के फरेब को आजमाते रहेगें और ऐसे वैचारिक अँधेरे में आपको रौशनी देने वाला कोई विचारक नहीं बचेगा क्योंकि तब तक दाभोलकर ,पानसरे , कुलबर्गी शहीद हो चुके होंगें और हिंदी के थोथे लेखक सरकारी अकादमियों के पुरस्कार की बंदर बाँट में अपना हिस्सा लपकने में लगे होंगें और ये लेख लिखने वाला रंगकर्मी मार दिया जाएगा और आप मोमबत्तियां जलाकर विरोध प्रदर्शन कर रहे होंगें या हो सकता है आपको पता ही ना चले की किसी रंगकर्मी की हत्या हो गयी क्योंकि ५६ इंच वादियों का एक ही मन्त्र है की हमारी आलोचना करने वाला हर व्यक्ति विकास और राष्ट्र विरोधी है!
...............
#युवा #बेरोजगार #मंजुलभारद्वाज

2016 में लिखा लेख
https://www.facebook.com/manjul.bhardwaj/posts/10222518701135622


~विजय राजबली माथुर ©
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Sunday, February 2, 2020

क्या शांतिबहाली का काम भी पीड़ितों का है? स्टेट स्पोंसर्ड वायलेंस को भी याचिकाकर्ता ही रोकेंगे? ------ श्याम मीरा सिंह




Shyam Meera Singh

'मीडिया के बाद 'न्यायपालिका' का 'शव' भी आने के लिए तैयार है. इस पूरी क्रोनोलॉजी पर आपका ध्यान नहीं गया होगा~

●12 जून, 1975 
को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इस देश की सबसे ताकतवर महिला को प्रधानमंत्री पद से बर्खास्त कर दिया!   ***

I repeat "Prime Minister Post" !

● 28 अक्टूबर, 1998
Three judges Case, में, सुप्रीम कोर्ट ने खुद को और अधिक मजबूत किया, और कोलेजियम सिस्टम को इंट्रोड्यूस किया, इससे ये हुआ कि अब जजों की नियुक्ति खुद न्यायपालिका करेगी, न कि सरकार करेगी. इससे सरकार का हस्तक्षेप कुछ कम हुआ, तो न्यायपालिका पर दबाव भी कम हुआ, कुलमिलाकर इसके बाद न्यायपालिका की स्वतंत्रता और अधिक बढ़ी. इसे न्यायपालिका की शक्ति का चर्मोत्कर्ष मान सकते हैं.

••••••••••••इसके बाद आई मोदी सरकार••••••••

●16 मई, 2014
मैं नरेंद्र मोदी शपथ लेता हूँ.......

●1 दिसम्बर 
जज लोया की मौत रहस्यमयी ढंग से हो जाती है, अमित शाह पर मर्डर और किडनैपिंग के मामले की सुनवाई इन्हीं जज लोया के अंडर हो रही थी. carvan मैगज़ीन ने इसपर डिटेल्ड स्टोरी की थी.

●13 अप्रैल, 2015
मोदी सरकार ने National Judicial Appointments Commission (NJAC) एक्ट पास किया, इसका मोटिव था कोलेजियम व्यवस्था को तोड़ना, और जजों की नियुक्ति में सरकार का हस्तक्षेप लाना था. एकतरह से न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर मोदी सरकार का ये पहला स्पष्ट हमला था.

●16 अक्टूबर, 2015 
चूंकि अभी मोदी सरकार अपने शुरुआती दिनों में थी. न्यायपालिका में भी कुछ दम बचा हुआ था. सुप्रीम कोर्ट ने 4:1 के बहुमत के साथ, NJAC कानून को अनकॉन्स्टिट्यूशनल करार देते हुए, खत्म कर दिया. इस तरह इस पहले टकराव में न्यायपालिका की जीत हुई.

● इसके बाद न्यायपालिका मोदी सरकार के निशाने पर आ गई. अब मोदी सरकार ने जजों की नियुक्तियों को मंजूरी देने में जानबूझकर देर लगाना शुरू कर दिया. पूर्व चीफ जस्टिस टी. एस. ठाकुर ने तो सार्वजनिक मंचों से कई बार इस बात के लिए नरेंद्र मोदी सरकार मुखालफत की. चूंकि मोदी सरकार प्रत्यक्ष रूप से न्यायपालिका में हस्तक्षेप नहीं कर सकती थी, इसलिए उसने बैक डोर से हस्तक्षेप करना शुरू किया. एक जज को, उनसे उम्र में 2 बड़े जजों को पास करते हुए देश का चीफ जस्टिस बना दिया.

● 11 जनवरी, 2018
अब तक न्यायपालिका की हालत वहां तक आ पहुंची थी कि सर्वोच्च न्यायालय के चार जजों को प्रेस कॉन्फ्रेंस करनी पड़ गई. ऐसा देश के न्यायिक इतिहास में पहली बार हुआ कि सुप्रीम कोर्ट के जजों ने कोई प्रेस कॉन्फ्रेंस की हो. अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार में भी ऐसा कभी नहीं हुआ. जजों ने मीडिया में आकर कहा - "All is not okay, democracy at stake"

● आज पूरे देश की हालत क्या है, सबको पता है. पूरे देश भर में प्रदर्शन हो रहे हैं, नागरिक अधिकारों का इतना स्पष्ट हनन कभी नहीं हुआ. देश में नागरिक अधिकारों का संरक्षण करने की जिम्मेदारी न्यायपालिका की है. संसद के एक कानून से लोग सहमत भी हो सकते हैं, असहमत भी हो सकते हैं. लेकिन सरकार ने एक ही विकल्प छोड़ा सिर्फ सहमत होने का, अन्यथा जेल. यदि आप No CAA का पोस्टर लेकर अपने घर के सामने भी खड़े होते हैं तो पुलिस उठाकर ले जा रही है. छात्रों के प्रदर्शन पर गोलियां बरस रही हैं. आसूं गैस, और वाटर कैनन का यूज तो आम बात हो गई. लेकिन न्यायालय एक मृत संस्था की भांति मौन हुआ पड़ा है.

सरकार के पास सबका इलाज है, पूर्व मुख्य न्यायाधीश गोगोई पर एक लड़की के साथ छेड़छाड़ का आरोप है. जिसकी जांच भी उन्होने स्वयं ही की. अंततः लड़की को ही समझौता करना पड़ा. इसके पीछे का गणित समझना उतना मुश्किल भी नहीं है. ऐसा भी अनुमान लगाया जाता है कि इसके पीछे सरकार और मुख्य न्यायाधीश के बीच कोई समझौता रहा है.

●9 जनवरी, 2020
CAA पर सुप्रीम कोर्ट में पहली सुनवाई हुई, अब आप मुख्य न्यायाधीश का बयान सुनिए 
" देश मुश्किल वक्त से गुजर रहा देश, आप याचिका नहीं शांति बहाली पर ध्यान दें! जब तक प्रदर्शन नहीं रुकते, हिंसा नहीं रुकती, किसी भी याचिका पर सुनवाई नहीं होगी."

आप अनुमान लगा सकते हैं कि उच्च न्यायालय के सबसे बड़े न्यायाधीश किस हद तक असंवेदनशील हो चुके हैं. क्या शांतिबहाली का काम भी पीड़ितों का है? सरकार की कोई जिम्मेदारी नहीं है? स्टेट स्पोंसर्ड वायलेंस को भी याचिकाकर्ता ही रोकेंगे? और जब तक हिंसा नहीं रुकती न्याय लेने का अधिकार स्थगित रहेगा? ये कैसा न्याय है?

चीफ जस्टिस बोबड़े के अगली पंक्ति पर तो आप सर पकड़ लेंगे, बोबड़े कहते हैं- "हम कैसे डिसाइड कर सकते हैं कि संसद द्वारा बनाया कानून संवैधानिक है कि नहीं?"

ऊपर वाली पंक्ति इस बात को साबित करने के लिए काफी है कि न्यायपालिका, सरकार की तानाशाही के आगे नतमस्तक हो चुकी है. अगर न्यायपालिका नहीं जाँचेगी तो कौन जाचेगा? ये कैसी बेहूदी और मूर्खाना बात है कि न्यायपालिका जांच नहीं करेगी!

सच तो ये है कि आज किसी भी जज की हिम्मत नहीं है कि जजों का "लोया" कर देने वाले अमित शाह के सामने मूंह खोलने की हिम्मत कर लें.

डेमोक्रेसी का एक फोर्थ पिलर मीडिया पहले ही गिर चुका है। आज मीडिया का प्रत्येक एंकर, सरकार का भौंपू बन चुका है. चैनल का मालिक गृहमंत्री के स्तुति गान में लगा हुआ है, ऐसे में लोकतंत्र का सबसे महत्वपूर्ण खम्बा यानी न्यायपालिका भी अब लगभग गिरने को है.

न्यायपालिका कोई बहुमंजिला इमारत नहीं है, जिसकी, ईंट, पत्थर, दरवाजे गिरते हुए दिखेंगे. न्यायपालिका एक तरह से जीवंत संविधान है. जो हर रोज आपके-हमारे सामने मर रहा है.


बीते दशकों में न्यायपालिका एक 'प्रधानमंत्री' को बर्खास्त करने से लेकर एक 'गृहमंत्री' के चरणों में लिपट जाने तक का सफर तय कर चुकी है. बस उसका शव आपके सामने आना बाकी है.

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*** Rajshekhar Dravid :  क्या 12 जून 1975 के अपने निर्णय में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के जस्टिस जगमोहन सिन्हा ने आदरणीया इंदिरा जी को प्रधानमंत्री पद से बर्खास्त किया था?

Vijai RajBali Mathur :  केवल रायबरेली से उनका निर्वाचन टेक्निकल ग्राउंड पर अवैध घोषित किया था।
https://www.facebook.com/permalink.php?story_fbid=857591754680307&id=100012884707896 )

~विजय राजबली माथुर ©