Wednesday, January 29, 2020

घंटाघर लखनऊ में गणतंत्र दिवस समारोह ------ नाईश हसन / आनंदवर्द्धन सिंह









Naish Hasan
 26-01-2020  at  11:20 pm  ·
जम्हूरियत का जश्न मनाती ये लखनऊ की बेटियां।
ऐसा गणतंत्र दिवस पहले कभी नही देखा, आज ये त्योहार 25000 लोगो के साथ मनाया।


  

~विजय राजबली माथुर ©

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Sunday, January 26, 2020

नवयुग आप नहीं आएगा नवयुग को तुम लाओगे ------ साहिर लुधयानवी


हमने सुना था एक है भारत 

Song Title: Humne Suna Tha Ek Hai Bharat 
Movie: Didi (1959) 
Singers: Mohammed Rafi, Asha Bhosle 
Lyrics: Sahir Ludhianvi 
Music: N. Dutta 
Music Label: Saregama

👉lyric

हमने सुना था एक है भारत सब मुल्कों से नेक है भारत लेकिन जब नजदीक से देखा सोच समझ कर ठीक से देखा हमने नक्शे और ही पाए बदले हुए सब तौर ही पाए एक से एक की बात जुदा है धर्म जुदा है जात जुदा है आप ने जो कुछ हम को पढाया वो तो कही भी नज़र न आया जो कुछ मैंने तुम को पढाया उसमे कुछ भी झूठ नहीं भाषा से भाषा न मिले तो इसका मतलब फूट नहीं इक डाली पर रह कर जैसे फूल जुदा है पात जुदा बुरा नहीं गर यूँ ही वतन में धर्म जुदा हो जात जुदा आपने वतन में
वही है जब कुरान का कहना जो है वेद पुरान का कहना फिर ये शोर-शराबा क्यों है इतना खून-खराबा क्यों है आपने वतन में सदियों तक इस देश में बच्चो रही हुकूमत गैरों की अभी तलक हम सबके मुँह पर धुल है उनके पैरों की लडवाओ और राज करो यह उन लोगो की हिकमत थी उन लोगों की चाल में आना हम लोगों की जिल्लत थी ये जो बैर है इक दूजे से ये जो फुट और रंजिश है उन्ही विदेशी आकाओं की सोची समझी बकशिश है अपने वतन में कुछ इन्सान ब्राह्मण क्यों है कुछ इंसान हरिजन क्यों है एक की इतनी इज्जत क्यों है एक की इतनी ज़िल्लत क्यों है

धन और ज्ञान को ताकत वालों ने अपनी जागीर कहा मेहनत और गुलामी को कमजोरों की तक़दीर कहा इन्सानों का यह बटवारा वहशत और जहालत है जो नफ़रत की शिक्षा दे वो धर्म नहीं है , लानत है जन्म से कोई नीच नहीं है जन्म से कोई महान नहीं करम से बढ़कर किसी मनुष्य की कोई भी पहचान नहीं अब तो देश में आज़ादी है अब क्यों जनता फरियादी है कब जएगा दौर पुराना कब आएगा नया जमाना सदियों की भूख और बेकारी क्या इक दिन में जाएगी इस उजड़े गुलशन पर रंगत आते आते आएगी ये जो नये मनसूबे है ये जो नई तामीरे है आने वाली दौर की कुछ धुधली-धुधली तस्वीरे है तुम ही रंग भरोगे इनमें तुम ही इन्हें चमकाओगे नवयुग आप नहीं आएगा नवयुग आप नहीं आएगा नवयुग को तुम लाओगे नवयुग आप नहीं आएगा नवयुग को तुम लाओगे|। 








 ~विजय राजबली माथुर ©

Friday, January 24, 2020

घंटाघर लखनऊ के शाहीन बाग में रवायतों को तोड़ा बेटियों ने ------ सौरभ श्रीवास्तव / ज़ेबा हसन

  








Naish Hasan
· 
उजरियांव शाहीनबाग, क्या कहती है बहने सुनिए, ये समीना किदवई हैं।






~विजय राजबली माथुर ©

Wednesday, January 22, 2020

संविधान क्यों बना जन प्रतिरोध का हथियार ------ अनिल सिन्हा / CAA-NRC संविधान विरोधी और विभाजनकारी ------ कमल जैसवाल,कनन गोपीनाथन( सेवानिवृत्त आईएएस )

  
Anil Sinha
1 hr
संविधान क्यों बना जन प्रतिरोध का हथियार

भारत के संविधान को आकार देते वक्त इसके निर्माता भीमराव आंबेडकर ने शायद ही सोचा होगा कि इसके लागू होने के 70 साल बाद लोग इसकी दुहाई एक धर्मग्रंथ की तरह देते हुए अपना अधिकार मांगेंगे। दुनिया में कहीं ऐसा नहीं हुआ कि संविधान को लोग सिर्फ शासन के नियमों की किताब मानने के बजाय प्रतिरोध का हथियार बना लें। भारतीय संविधान ऐसा महान दस्तावेज कैसे बन गया/ ऐसा इसलिए हुआ कि इसने लोकतंत्र के विकास के कई चरण एक साथ पार किए हैं। यह आजादी के आंदोलन के संघर्षों को इनकी समग्रता में अभिव्यक्त करता है। विविधता से भरे स्वाधीनता आंदोलन को हर तरह की गैर-बराबरी के खिलाफ संघर्ष करना पड़ा। यही वजह है कि दुनिया के बाकी संविधानों के विपरीत इसने न सिर्फ अपने सभी नागरिकों को बराबरी के सारे अधिकार एक साथ दिए बल्कि इससे आगे जाकर बेहतर संसार रचने का सपना भी दिया। वयस्क मताधिकार को ही लें। इंग्लैंड या अमेरिका जैसे महान लोकतंत्रों में भी यह सबको एक साथ नहीं मिला। महिलाओं को मताधिकार देने में उन्होंने लंबा वक्त लगाया। कहीं नस्ल और धर्म तो कहीं आर्थिक आधार पर लोगों को इससे वंचित रखा गया। कई लोग मानते हैं कि भारतीय संविधान को ब्रिटिश सरकार की ओर से समय-समय पर लाए गए वैधानिक परिवर्तनों का आधार मिला था। लेकिन भारत जब आजाद हुआ तो देश में सिर्फ 14 प्रतिशत लोग ही वोट दे सकते थे, जो संपत्ति वाले और पढ़े-लिखे थे। यानी जमींदार, व्यापारी, वकील, डॉक्टर आदि। अलग-अलग समुदायों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र भी थे।

भारत में एक विकलांग लोकतंत्र बन रहा था। संविधान निर्माताओं के पास इसी सीमित लोकतंत्र की औपनिवेशिक परंपरा थी और जमींदारों, पूंजीपतियों या जड़ सामाजिक सोच वाले समूहों के प्रतिनिधियों से भरी संविधान सभा। सोचिए, 1952 में जमींदार और हल जोतने वाला भूमिहीन वोट देने के लिए एक ही लाइन में खड़े हुए तो उनके मन में भाव क्या रहे होंगे/ सदियों से हर सार्वजनिक स्थान से बहिष्कृत रहता आया दलित जब लोकतंत्र के मंदिर में तथाकथित इज्जत वालों के साथ खड़ा हुआ तो उसे कैसा लगा होगा/ इसका लेखा-जोखा तो असंभव है लेकिन इस अधिकार की ताकत को जानना हो तो बिहार और उत्तर प्रदेश के राजनीतिक इतिहास को पलटना चाहिए, जहां उच्च वर्ण के लोग दलितों को वोट ही नहीं डालने देते थे। कई बार तो दलितों को जान गंवानी पड़ती थी। बूथ कैप्चरिेंग कही जाने वाली इन घटनाओं को मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन ने चुनौती के रूप स्वीकार किया और भारतीय चुनाव प्रणाली को इस बीमारी से छुटकारा दिलाया।

सभी को वोट का अधिकार देने वाले संवैधानिक अनुच्छेद को बाबा साहेब ने लिखा था। उन्होंने कहा था कि वोट देने का अधिकार नागरिकता के लिए आवश्यक है और यह लोगों को नैतिक रूप से राजकीय व्यवस्था का सदस्य बनाता है। उनके अनुसार, ‘यह उन लोगों की राजनीतिक शिक्षा का जरिया है जिन्हें राजनीतिक और सामाजिक जीवन से आज तक बाहर रखा गया है।’ उनका इशारा उनकी ओर था जिन्हें पीढ़ी-दर-पीढ़ी मंदिरों, रास्तों, कुंओं, तालाबों से दूर रखा गया था और जो इंसान होने के नैसर्गिक अधिकार से भी वंचित थे। भावी पीढ़ियां इस पर जरूर अचरज करेंगी कि ऐसा देश, जिसका विभाजन मजहब के आधार पर हुआ था और जहां दस लाख से भी ज्यादा लोग दंगों में मारे गए थे, एक सेक्युलर मुल्क कैसे बन गया। इसका श्रेय उन बलिदानों को जाता है, जो हमारे रहनुमाओं और हमारी जनता ने दिया है। हमें नोआखाली के नदी-नालों को पार कर मजहबी उन्माद की आग बुझाने में लगे महात्मा की बेचैन आंखों में झांकना होगा, या दिल्ली में मनाई जा रही आजादी की खुशियों से दूर कोलकता में आमरण उपवास पर बैठे गांधी की ओर देखना पड़ेगा, जिन्होंने नफरत की आग को मानवता की मद्धिम आंच में बदल दिया।

कई बार भारतीय संविधान को धर्मनिपरेक्ष बनाने का श्रेय हिंदू धर्म की सहिष्णुता को देने की कोशिश की जाती है। लेकिन आजादी के आंदोलन में हिंदुत्व की धारा की भूमिका को गौर से देखने पर एक अलग ही तस्वीर उभरती है। इसके सिद्धांतकार विनायक दामोदर सावरकर इस्लाम और ईसाइयत को बाहरी धर्म मानते थे और उन्हें मानने वालों को भारत की पूर्ण नागरिकता के काबिल नहीं मानते थे। मुसलमान उनके दुश्मन थे, जो यहीं के थे। नेताजी सुभाष चंद्र बोस आजाद हिंद फौज बना रहे थे, लेकिन हिंदू महासभा अंग्रेजों की फौज में भर्तियां कराने में जुटी थी। अगर संविधान-निर्माता संविधान को सेक्युलर बना पाए तो इसलिए कि उनके पास गांधी, बिस्मिल-अशफाकुल्ला और भगत सिंह की शानदार शहादत की विरासत थी, जिसने सहिष्णुता को किसी धर्म या मजहब से नहीं बंधने दिया। भारतीय संविधान की एक और कामयाबी है, भारत में लोकतंत्र की एक मजबूत नींव डालने की। भारतीय उपमहाद्वीप में हमारे साथ जन्म लेने वाले पाकिस्तान को ही देख लें। आज भी वहां एक अर्ध-लोकतंत्र ही है, क्योंकि चुनी हुई सरकार फौज की मर्जी के खिलाफ कुछ नहीं कर सकती।


पाकिस्तान में लोकतंत्र का यह हश्र इसलिए हुआ क्योंकि मुस्लिम लीग लोकतांत्रिक और सेक्युलर मूल्यों में यकीन नहीं करती थी। जिन्ना ने बंटवारा कराने में सफलता जरूर पा ली, लेकिन गांधीजी ने मुल्क बनाने में उन्हें हरा दिया। उनके वारिस जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल अगर सांप्रदायिक नफरत के बीच भी उनके मूल्यों पर न टिके होते तो डॉ. आंबेडकर जैसे विलक्षण व्यक्तित्व भी एक ऐसी किताब भारत के लोगों के हाथ में नहीं रख पाते, जो संशय की हर अंधेरी रात में लोगों को रोशनी देती है। लोकतंत्र के सामने एक चुनौती इंदिरा गांधी के आपातकाल के समय आई थी तो गांधीजी के ही एक शिष्य जयप्रकाश नारायण के आंदोलन ने उसे पटरी पर ला दिया था। ऐसा हर झटका बर्दाश्त करने की ताकत भारत के संविधान में है।

https://www.facebook.com/anil.sinha.503/posts/10221718612900592

CAA-NRC संविधान के आधारभूत मूल्यों के ख़िलाफ़ है

पिछले कुछ समय में देश के अलग-अलग हिस्सों में नागरिकता संशोधन क़ानून (CAA) और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) के ख़िलाफ़ ज़ोरदार प्रदर्शन हो रहे हैंI न्यूज़क्लिक से बात करते हुए सेवानिवृत्त आईएएस अफ़सर कमल जैसवाल ने CAA, NRC और राष्ट्रीय जनसँख्या रजिस्टर (NPR) के बीच के संबंध को स्पष्ट कियाI उन्होंने इस क़ानून की व्यावहारिकता और संवैधानिकता पर भी कुछ दिलचस्प सवाल उठायेI






 बीजेपी सिर्फ मुसलमानों को नहीं हिंदुओं को भी बाँट रही है
पूर्व IAS अफसर कनन गोपीनाथन ने HW न्यूज़ को दिए एक्सक्लूसिव इंटरव्यू में केंद्र सरकार पर जमकर निशाना साधा है. गोपीनाथन ने बताया की किस तरह केंद्र सरकार देश के लोगो को बाँट रही है



~विजय राजबली माथुर ©

Sunday, January 19, 2020

स्वर्णिम आंदोलन ------ हर्ष मंदर / रिज़्वान अंसारी

  



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हालाँकि, सरकार और पुलिस को चुनौती दे रहीं इन महिलाओं के सामने भी कई चुनौतियाँ है। चुनौतियाँ, इस प्रदर्शन को जारी रखने की और प्रदर्शन के मकसदों से न भटकने की। चुनौतियाँ, अपने परिवार को देखने की औरे बच्चों को संभालने की। लेकिन, ये औरतें हर चुनौतियों को मात दे रहीं हैं। हालाँकि, इस प्रदर्शन को उस जगह से हटाने के लिए दिल्ली हाई कोर्ट में दो याचिकाएँ दायर की गई थी जिसमें पहले को तो कोर्ट ने खारिज कर दिया। लेकिन, दूसरी याचिका में कोर्ट ने पुलिस को कानून के तहत कार्रवाई करने का निर्देश दिया है। लिहाजा, अब पुलिस के सामने चुनौती है कि वह इस प्रदर्शन को कैसे हटाए। दरअसल, ये महिलाएँ शांतिपूर्वक इस प्रदर्शन को आगे बढ़ा रहीं हैं। अभी तक किसी भी हिंसा की घटना नहीं हुई है और यही इस प्रदर्शन की सबसे बड़ी खासियत है। 
ये वही महिलाएँ हैं जिन्हें प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी मां-बहन कह कर तीन तलाक जैसी कुप्रथा से निजात दिलाने के लिए एक कानून को स्थापित किया। लेकिन, हमारे प्रधानमंत्री को उन माँ-बहनों की आवाज सुनाई नहीं दे रही है जो सर्दी की खामोश रातों में भी अपनी आवाज बुलंद कर रहीं हैं। ये वही महिलाएँ जिनमें से अधिकतर ने तीन तलाक पर सरकार के रुख की तारीफ की थी, तब भाजपा ने इन्हें अपनी मां-बहन बताया था। लेकिन, आज जब ये सीएए का विरोध कर रहीं हैं तब भाजपा सरकार का कोई प्रतिनिधि बात तक करने नहीं गया है। व्यापक स्तर पर यह अफवाह फैलाइ जा रही है कि प्रदर्शन करने वालों में अधिकांश मुस्लिम हैं। फिर सवाल है कि क्या मुस्लिमों की मांग की कोई प्रासंगिकता नहीं होती? क्या वे नागरिक नहीं हैं? अगर वे नागरिक हैं तो उनकी मांगों को अनसुना कर देना कितना मुनासिब है? सरकार भले ही इन महिलाओं की आवाज को अनसुना कर रही है। लेकिन, सबसे सुकून वाली बात यह है कि ये महिलाएँ गांधी के विचारों को सार्थक करती हुईं प्रतीत हो रही हैं।
1920 के बाद आंदोलनों में प्रमुखता से गांधी के पदार्पण के बाद महिलाओं की भूमिका निर्णायक तौर पर उभर सामने आई। असहयोग आंदोलन से लेकर भारत छोड़ो आंदोलन तक में महिलाओं की भूमिका से कोई इनकार नहीं कर सकता। 1930 के सविनय अवज्ञा आंदोलन में तो महिलाओं ने तो बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। महिलाओं को आगे करने के पीछे गांधी की सोच थी कि महिलाएँ अहिंसक और सहनशील होती हैं। सत्ता के खिलाफ आंदोलन छेड़ने के लिए इन दोनों ही गुणों का होना जरूरी है। उनका मानना था कि आंदोलनों के प्रभावी होने के लिए उसका अहिंसक होना जरूरी है और लंबे समय तक जारी रखने के लिए सहनशीलता की जरूरत है। लिहाजा, आंदोलनों को लंबे समय तक जारी रखने के लिए उन्होंने महिलाओं की भागीदारी को जरूरी समझा। ऐसा लग रहा है मानो जैसे शाहीन बाग की ये महिलाएँ गांधी की इसी सोच को सार्थक करने की मुहिम में जुट गईं हों। 

रिजवान अंसारी

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~विजय राजबली माथुर ©

Tuesday, January 7, 2020

*अपनो पे सितम गैरों पर करम* #C.A.A.# ------ रजनीश किमार श्रीवास्तव


Rajanish Kumar Srivastava 
#C.A.A.# यानी *अपनो पे सितम गैरों पर करम*
जब विभाजन का दंश झेल भारत आजाद हुआ तो बहुत सारे हिन्दू और सिखों ने इस्लामिक राष्ट्र पाकिस्तान को छोड़ कर सेकुलर भारत को तरजीह देते हुए भारत आना और भारत का नागरिक बन देश की सेवा करना स्वीकार किया और अपनी हवेली,खेत और सम्पत्ति सब कुछ पाकिस्तान में छोड़कर भारत में गरीबी का जीवन स्वीकार किया और भारत के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।लेकिन लगभग दो करोड़ हिन्दू और सिखों ने अपनी सम्पत्ति के लालच में कट्टर इस्लामिक राष्ट्र पाकिस्तान को ही अपना मादरे वतन कुबूल करना मुनासिब समझा।हालाँकि कट्टर इस्लामिक राष्ट्र पाकिस्तान से सेकुलर भारत जैसी उदारता की उम्मीद तो की भी नहीं जा सकती थी।लिहाजा उन पर अत्याचार तो हुए।अब सवाल यह है कि सम्पत्ति के लालच में कट्टर इस्लामिक राष्ट्र पाकिस्तान को अपना मादरे वतन कुबूल करने का गलत निर्णय लेने वाले लोगों को रिकार्ड बेरोजगारी और दुनिया के सबसे ज्यादा गरीबों का पहले से ही बोझ ढ़ोने वाले भारत को बोझ बर्दाश्त कर अपने मूल नागरिकों का हिस्सा उनमें बाँट देना चाहिए? इस पृष्ठभूमि में नागरिकता संशोधन विधेयक -2019 को इस कहानी से समझें-----↓
*******कहानी*****
एक गरीब व्यक्ति अपने वृद्ध माता और पिता के साथ किसी तरह अपने पाँच बच्चों को पाल रहा था।बच्चे कुपोषण के शिकार थे और बेरोजगार भी थे।तभी उस गरीब व्यक्ति के वृद्ध पिता को अपने से भी ज्यादा गरीब पड़ोसी के पाँच बच्चों पर इस कारण से दया आ गयी कि उनकी सौतेली माता उन्हें बहुत प्रताड़ित करती है।अतः उसने अपने गरीब पुत्र को दया के वशीभूत आदेश दिया कि वह पड़ोसी के इन प्रताड़ित पाँचों बच्चो को गोद ले ले।गरीब व्यक्ति घबरा गया कि जब वह अपनें ही पाँच बच्चों का ठीक से पालन पोषण नहीं कर पा रहा है और न ही उन्हें रोजगार दिला पा रहा है तो ऐसी दशा में वह पड़ोसी के पाँच और बच्चों को कैसे गोद ले ले।उधर उस गरीब व्यक्ति के पाँचों बच्चों ने भी अपने बाबा के गोद लेने वाले आदेश के खिलाफ बगावत कर दी ।क्योंकि उनको भय हो गया कि गोद लेने की दशा में पड़ोसी के ये पाँच गोद लिए बच्चे भी उनकी छोटी सी जमीन और घर के हिस्सेदार हो जाएँगे और पिता की कमाई का बहुत थोड़ा सा हिस्सा अब इनके पालन पोषण पर भी खर्च हो जाएगा।....... अब आप ही फैसला करें कि पहले से कुपोषित,गरीब और बेरोजगार पाँचो सगे पुत्रों की बगावत सही है या गलत।









~विजय राजबली माथुर ©
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