भ्रष्टाचार के नाम पर लोकतंत्र से खिलवाड़ को रोकिए।नीतीश ने सांप्रदायिक शक्तियों के खिलाफ वोट मांगा था। अब उन्हें दोबारा चुनाव लड़ कर लालू परिवार को मिटाने के लिए जनादेश लेना चाहिए। बिहार की बीमारी से लड़ने की जिम्मेदारी कोई और लेगा। यह नीतीश जी के वश का नहीं है।
लालू परिवार को मिटाने का ही जनादेश तो ले लीजिए आदरणीय नरेन्द्र-नीतीश जी!
भ्रष्टाचार के साथ हो रहे और किये जा रहे भ्रष्टाचार को कौन रोकेगा? इस भ्रष्टाचार का क्या होगा मित्रों? ये किसी नीतीश कुमार के वश का नहीं। उनके नये सहयोगी कोई 'अपराजेय' नरेन्द्र मोदी के बूते का भी ये नहीं। क्योंकि देश ने बीते तीन सालों में देख लिया है। देख लिया है उन्हीं के अध्यक्ष की निजी संपत्ति में 300 प्रतिशत का इज़ाफ़ा होते हुए। देख लिया है लोकतांत्रिक तौर-तरीकों की सरेआम हत्या होते हुए। छोड़ भी दीजिये, बिहार की बीमारी से लड़ने का काम कोई और कर लेगा! मेरे दोस्त और वरिष्ठ पत्रकार Anil Sinha ने अपने लेख में उठाये हैं ऐसे ही कुछ बेहद ज़रूरी और मौजूं सवाल। आप भी पढिये~
।।भ्रष्टाचार बनाम लोकतंत्र।।
अब यह जरूरी हो गया है कि भारतीय लोकतंत्र में भ्रष्टाचार के हथियार की सखोल चर्चा की जाए। (पुणे में हूं और ‘व्यापक’ के बदले इस मराठी शब्द 'सखोल' को अभी ज्यादा सटीक पाता हूुं)। मुझे लगता है कि किसी लोकतंत्र में भ्रष्टाचार को भारतीय दंड संहिता के कुछ प्रावधानों के आधार पर परिभाषित नहीं किया जा सकता है। भ्रष्टाचार का मतलब सिर्फ यह नहीं है कि किसी ने बेनामी संपत्ति खरीदी और सत्ता का इस्तेमाल अपनी आमदनी बढाने के लिए किया। लोकतंत्र के खिलाफ आपका कोई भी कदम भ्रष्ट है और अक्षम्य है। चुनाव में करोड़ों खर्च करने से लेकर हजारों का लिबास पहनना भी भ्रष्टाचार है। हमारा दिमाग इतना भ्रष्ट हो चुका है कि हम ने इस तरह के सवाल करना छोड़ दिया है। जवाहर लाल नेहरू से यह सवाल डा लोहिया ने पूछा था। लेकिन इसके लिए डा लोहिया जैसी सादगी चाहिए।
देश की जनता के पैसे से खड़ी कंपनियों को व्यापारियों के हाथ बेचना भ्रष्टाचार है। बैंकों में जमा देशवासियों की मेहनत का पैसा डकारने का मौका उद्योगपतियों को देना भ्रष्टाचार है। जमीन, पानी, जंगल बड़ी कंपनियों को मुफ्त में देना भ्रष्टाचार है। देश का हजारों करोड़ खर्चने के बाद भी नौजवानों को रोजगार नहीं देना अपराध है। शिक्षा को व्यापार बनाना अपराध है। चिकित्सा को मुनाफाखोरी का साधन बनाना संगीन जुर्म है। गोरक्षा के नाम पर हो रही हत्याओं पर खामोश रहना भ्रष्टाचार है। किसानों की आत्महत्या को रोकने के लिए पैसा खर्च करने में आनाकानी करने वाली सरकार भ्रष्ट है।
पार्टियों ने इन भ्रष्टाचारों के खिलाफ लड़ना बंद कर दिया है, इसलिए छोटे अपराधों, वह भी सिर्फ विरोधी नेताओं के अपराधों, के खिलाफ लड़ाई को ही वे बढा-चढा कर पेश करती हैं। नीतीश जी लालू परिवार के भ्रष्टाचार के खिलाफ तो कमर कस कर उतर जाते हैं, लेकिन अपने इतने लंबे कार्यकाल मेे भी किसी जनविरोधी भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ते दिखाई नहीं देते हैं। जमींदारों और जातिवादी नेताओं के सहारे राजनीति चलाने से वे परहेज नहीं करते। ये तो बता दीजिए कि यह क्या भ्रष्टाचार नहीं है?
बिहार के लोग राज्य में रोजगार नहीं पाते हैं। सुशासन राज में भी नहीं पाये और देश के हर कोने में गालियां खाकर अपना जीवन चलाते हैं। राज्य के मुख्यमंत्री का इसके लिए कुछ नहीं करना भ्रष्टाचार नहीं तो और क्या है?
अपना मन इतना छोटा नहीं करें कि लालू के बदले नीतीश और नीतीश के बदले लालू ही ढूंढें। हम जनता हैं। हमारे पास विकल्प ही विकल्प हैं। मन की गांठ खोलिए, भ्रष्टाचार के नाम पर लोकतंत्र से खिलवाड़ को रोकिए।
नीतीश ने सांप्रदायिक शक्तियों के खिलाफ वोट मांगा था। अब उन्हें दोबारा चुनाव लड़ कर लालू परिवार को मिटाने के लिए जनादेश लेना चाहिए। बिहार की बीमारी से लड़ने की जिम्मेदारी कोई और लेगा। यह नीतीश जी के वश का नहीं है।
साभार :
https://www.facebook.com/navendu.kumarsinha/posts/1180141798758493
~विजय राजबली माथुर ©
Navendu Kumar
भ्रष्टाचार के साथ हो रहे और किये जा रहे भ्रष्टाचार को कौन रोकेगा? इस भ्रष्टाचार का क्या होगा मित्रों? ये किसी नीतीश कुमार के वश का नहीं। उनके नये सहयोगी कोई 'अपराजेय' नरेन्द्र मोदी के बूते का भी ये नहीं। क्योंकि देश ने बीते तीन सालों में देख लिया है। देख लिया है उन्हीं के अध्यक्ष की निजी संपत्ति में 300 प्रतिशत का इज़ाफ़ा होते हुए। देख लिया है लोकतांत्रिक तौर-तरीकों की सरेआम हत्या होते हुए। छोड़ भी दीजिये, बिहार की बीमारी से लड़ने का काम कोई और कर लेगा! मेरे दोस्त और वरिष्ठ पत्रकार Anil Sinha ने अपने लेख में उठाये हैं ऐसे ही कुछ बेहद ज़रूरी और मौजूं सवाल। आप भी पढिये~
।।भ्रष्टाचार बनाम लोकतंत्र।।
अब यह जरूरी हो गया है कि भारतीय लोकतंत्र में भ्रष्टाचार के हथियार की सखोल चर्चा की जाए। (पुणे में हूं और ‘व्यापक’ के बदले इस मराठी शब्द 'सखोल' को अभी ज्यादा सटीक पाता हूुं)। मुझे लगता है कि किसी लोकतंत्र में भ्रष्टाचार को भारतीय दंड संहिता के कुछ प्रावधानों के आधार पर परिभाषित नहीं किया जा सकता है। भ्रष्टाचार का मतलब सिर्फ यह नहीं है कि किसी ने बेनामी संपत्ति खरीदी और सत्ता का इस्तेमाल अपनी आमदनी बढाने के लिए किया। लोकतंत्र के खिलाफ आपका कोई भी कदम भ्रष्ट है और अक्षम्य है। चुनाव में करोड़ों खर्च करने से लेकर हजारों का लिबास पहनना भी भ्रष्टाचार है। हमारा दिमाग इतना भ्रष्ट हो चुका है कि हम ने इस तरह के सवाल करना छोड़ दिया है। जवाहर लाल नेहरू से यह सवाल डा लोहिया ने पूछा था। लेकिन इसके लिए डा लोहिया जैसी सादगी चाहिए।
देश की जनता के पैसे से खड़ी कंपनियों को व्यापारियों के हाथ बेचना भ्रष्टाचार है। बैंकों में जमा देशवासियों की मेहनत का पैसा डकारने का मौका उद्योगपतियों को देना भ्रष्टाचार है। जमीन, पानी, जंगल बड़ी कंपनियों को मुफ्त में देना भ्रष्टाचार है। देश का हजारों करोड़ खर्चने के बाद भी नौजवानों को रोजगार नहीं देना अपराध है। शिक्षा को व्यापार बनाना अपराध है। चिकित्सा को मुनाफाखोरी का साधन बनाना संगीन जुर्म है। गोरक्षा के नाम पर हो रही हत्याओं पर खामोश रहना भ्रष्टाचार है। किसानों की आत्महत्या को रोकने के लिए पैसा खर्च करने में आनाकानी करने वाली सरकार भ्रष्ट है।
पार्टियों ने इन भ्रष्टाचारों के खिलाफ लड़ना बंद कर दिया है, इसलिए छोटे अपराधों, वह भी सिर्फ विरोधी नेताओं के अपराधों, के खिलाफ लड़ाई को ही वे बढा-चढा कर पेश करती हैं। नीतीश जी लालू परिवार के भ्रष्टाचार के खिलाफ तो कमर कस कर उतर जाते हैं, लेकिन अपने इतने लंबे कार्यकाल मेे भी किसी जनविरोधी भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ते दिखाई नहीं देते हैं। जमींदारों और जातिवादी नेताओं के सहारे राजनीति चलाने से वे परहेज नहीं करते। ये तो बता दीजिए कि यह क्या भ्रष्टाचार नहीं है?
बिहार के लोग राज्य में रोजगार नहीं पाते हैं। सुशासन राज में भी नहीं पाये और देश के हर कोने में गालियां खाकर अपना जीवन चलाते हैं। राज्य के मुख्यमंत्री का इसके लिए कुछ नहीं करना भ्रष्टाचार नहीं तो और क्या है?
अपना मन इतना छोटा नहीं करें कि लालू के बदले नीतीश और नीतीश के बदले लालू ही ढूंढें। हम जनता हैं। हमारे पास विकल्प ही विकल्प हैं। मन की गांठ खोलिए, भ्रष्टाचार के नाम पर लोकतंत्र से खिलवाड़ को रोकिए।
नीतीश ने सांप्रदायिक शक्तियों के खिलाफ वोट मांगा था। अब उन्हें दोबारा चुनाव लड़ कर लालू परिवार को मिटाने के लिए जनादेश लेना चाहिए। बिहार की बीमारी से लड़ने की जिम्मेदारी कोई और लेगा। यह नीतीश जी के वश का नहीं है।
साभार :
https://www.facebook.com/navendu.kumarsinha/posts/1180141798758493
~विजय राजबली माथुर ©
2 comments:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (04-08-2017) को "राखी के ये तार" (चर्चा अंक 2686) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
waah bahut khoob badhiya vichar hai mai apke vicharon se sehmat hoon
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