Friday, October 17, 2025

स्वयंवर की जीत : स्त्री ने तोड़ी रूढ़ियों की जंजीर ------ डॉ. गिरीश कुमार वर्मा


Danda Lakhnavi
15 Oct 2025
 
 
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स्वयंवर की जीत : स्त्री ने तोड़ी रूढ़ियों की जंजीर
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✍🏻 डॉ. गिरीश कुमार वर्मा
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सभा  में  सैकड़ों  राजकुमार  खड़े  हैं।  सबकी  निगाहें  एक  कन्या पर टिकी हैं— हाथ में माला, मन में  साहस।  मंच पर सजी यह माला केवल वरमाला नहीं, बल्कि युगों की जंजीरों को तोड़ने का साहस है। वह न किसी कुल की कैदी है, न  किसी  परंपरा   की। आज  वह  चुनने  आई है— अपने जीवन का साथी, अपने  विवेक  से।  यह केवल  विवाह  नहीं, यह  एक घोषणा  है— “मैं चुनूंगी!” यही था— स्वयंवर।
वर्ण की दीवारें
प्राचीन भारत में समाज को चार वर्गों — ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र— में बंटा था। व्यक्ति की योग्यता नहीं, उसके  जन्म  का  कुल तय करता था कि वह क्या करेगा, कहाँ बैठेगा और किससे  विवाह  करेगा।  प्रेम करना तो दूर की बात, प्रेम  के  बारे  में  सोचना भी अपराध  समझा  जाता   था। जन्म  और  जन्मपत्री  से  जीवनपत्र  लिख  दिया  जाता  था— और समाज  उस  पर  मुहर लगा देता था। ऐसे  समय  में  स्वयंवर  प्रथा ने रूढ़ियों की दीवार पर पहली चोट की। यह वह मंच था जहाँ कन्या को वर चुनने की स्वतंत्रता दी जाती थी— न कुल-गोत्र का भय, न वर्ण की दीवार, केवल एक प्रश्न— “कौन योग्य है?”
एक कवि ने बिल्कुल ठीक कहा—
“वर्ण व्यवस्था में रहे, युवजन हृदय मसोस!
मिला स्वयंवर-प्रथा में,उनको अति संतोष!!”
दुष्यंत–शकुंतला : जब प्रेम ने वर्ण को हराया
महर्षि  कण्व  की कुटिया में जब राजा दुष्यंत ने शकुंतला  को  देखा,  वहाँ  न  कोई सभा थी, न प्रतियोगिता— वहाँ थीं भावनाएँ, संवेदनाएँ और स्वीकृति की नीरव गूँज। यह प्रेम का स्वयंवर था, जहाँ कुल या वर्ण की दीवारें पिघल गईं। दुष्यंत और शकुंतला का मिलन  भारतीय  समाज  की  पहली भावनात्मक क्रांति थी — जिसने कहा, “प्रेम न जाति पूछता है, न वंश; वह तो बस दिल की बात सुनता है।”
कालिदास–विद्योतमा : बुद्धि का स्वयंवर
इतिहास  ने  एक  और  अद्भुत  स्वयंवर  देखा— विद्योतमा नामक विदुषी ने शर्त रखी, “जो मुझे शास्त्रार्थ में पराजित करे, वही  मेरा  वर  होगा।” यहाँ न राजवंश था, न सत्ता— केवल ज्ञान और तर्क   की   परीक्षा  थी।  कहते    हैं,  भाग्यवश कालिदास चुने गए, पर बाद में उन्होंने विद्योतमा के ज्ञान को अपनी प्रेरणा बना लिया। यह स्वयंवर बुद्धि की प्रतिष्ठा था, जिसने पुरुष-प्रधान समाज में स्त्री की मेधा को मान्यता दी।
स्वयंवर – स्वतंत्रता का सामाजिक उद्घोष
चाहे  दुष्यंत–शकुंतला  का  भावनात्मक स्वयंवर हो या विद्योतमा–कालिदास का बौद्धिक स्वयंवर— दोनों  ने  समाज  को  एक  ही संदेश  दिया— “विवाह केवल संस्कार नहीं, चयन का अधिकार है।” स्वयंवर  प्रथा  में  स्त्री  को “दी जाने वाली वस्तु” नहीं, बल्कि “निर्णय लेने वाली  व्यक्ति”  के रूप में मान्यता मिली। यही भारतीय समाज में स्त्री– स्वतंत्रता का पहला सामाजिक उद्घोष था।
विश्व में स्वयंवर की गूँज
भारत  की  यह  परंपरा  अकेली नहीं थी। दुनिया  के  कई  हिस्सों में भी स्त्री–चयन के विविध रूप मिलते हैं। यूनान  में  हेलन  ऑफ  ट्रॉय  जैसी  कथाओं में राजकुमारियाँ अपने  वर  का  चुनाव  करती  थीं। नॉर्स  देशों  में  वीरांगनाएँ  युद्ध  में  विजयी  योद्धा को पति के रूप में स्वीकारती थीं। सेल्टिक समाज में स्त्रियाँ अस्थायी विवाह के बाद स्वतंत्र  रूप  से  निर्णय  कर सकती थीं। चीन में  “ब्राइड शो”  आयोजित  होते  थे, जहाँ  सम्राट देशभर  की  युवतियों  में  से चयन करता था— यद्यपि भारत के समान स्वतंत्रता वहाँ नहीं थी।
इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि स्त्री–चयन की चेतना सार्वभौमिक रही है, पर भारत ने इसे सबसे पहले “संस्कार” का रूप दिया।
स्वयंवर का नया रूप : कोर्ट मैरिज 
अब दरबार की जगह  कोर्ट है, माला की  जगह  सर्टिफिकेट,  और  साक्षी के रूप में दो गवाह। पहले वर को धनुष उठाना पड़ता था, अब बस पेन उठाना पड़ता है! फ़र्क बस इतना है— पहले  वर   को   परीक्षा   देनी   पड़ती  थी, अब  बस  शपथपत्र! जब  से कोर्ट  मैरिज  का  चलन शुरू हुआ, स्वयंवर मानो ऑनलाइन हो गया है— अब जाति, गोत्र या वर्ग कोई बाधा नहीं; वर–कन्या स्वयं तय करते हैं कि वे एक-दूसरे के योग्य हैं या नहीं।
स्वयंवर – स्वतंत्रता की शाश्वत ज्योति
वर्ण व्यवस्था ने मनुष्य को बाँटा, पर स्वयंवर ने उसे जोड़ा। दुष्यंत  और शकुंतला ने बताया कि   प्रेम   समानता   सिखाता   है,  विद्योतमा  और  कालिदास ने दिखाया कि बुद्धि बंधनों से मुक्त होती है, और आज की कोर्ट मैरिज यह प्रमाणित करती है कि समाज चाहे जैसा भी हो, चयन का अधिकार सदा अजर-अमर रहेगा।
स्वयंवर  की  यह  ज्योति  आज  भी  उतनी ही उज्ज्वल है— जब भी कोई  स्त्री  अपने  मन  से   निर्णय  लेती है, इतिहास फिर से मुस्करा उठता है।

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डाक्टर डंडा लखनवी साहब की इस पोस्ट पर मेरी  टिप्पणियाँ और डाक्टर साहब के प्रत्युत्तर :------

1)  पौराणिक-पोंगापंथी -ब्राह्मणवादी व्यवस्था मे जो छेड़-छाड़ विभिन्न वैज्ञानिक आख्याओं के साथ की गई है उससे 'कायस्थ' शब्द भी अछूता नहीं रहा है।
'कायस्थ'=क+अ+इ+स्थ
क=काया या ब्रह्मा ;
अ=अहर्निश;इ=रहने वाला;
स्थ=स्थित।
'कायस्थ' का अर्थ है ब्रह्म से अहर्निश स्थित रहने वाला सर्व-शक्तिमान व्यक्ति।

2 )  आज से दस लाख वर्ष पूर्व मानव जब अपने वर्तमान स्वरूप मे आया तो ज्ञान-विज्ञान का विकास भी किया। वेदों मे वर्णित मानव-कल्याण की भावना के अनुरूप शिक्षण- प्रशिक्षण की व्यवस्था की गई। जो लोग इस कार्य को सम्पन्न करते थे उन्हे 'कायस्थ' कहा गया। क्योंकि ये मानव की सम्पूर्ण 'काया' से संबन्धित शिक्षा देते थे अतः इन्हे 'कायस्थ' कहा गया। किसी भी अस्पताल मे आज भी जेनरल मेडिसिन विभाग का हिन्दी रूपातंरण आपको 'काय चिकित्सा विभाग' ही लिखा मिलेगा। उस समय आबादी अधिक न थी और एक ही व्यक्ति सम्पूर्ण काया से संबन्धित सम्पूर्ण जानकारी देने मे सक्षम था। किन्तु जैसे-जैसे आबादी बढ़ती गई शिक्षा देने हेतु अधिक लोगों की आवश्यकता पड़ती गई। 'श्रम-विभाजन' के आधार पर शिक्षा भी दी जाने लगी। शिक्षा को चार वर्णों मे बांटा गया। 

3 )  कालांतर मे व्यापार-व्यवसाय से संबन्धित वर्ग ने दुरभि-संधि करके शासन-सत्ता और पुरोहित वर्ग से मिल कर 'ब्राह्मण' को श्रेष्ठ तथा योग्यता आधारित उपाधि-वर्ण व्यवस्था को जन्मगत जाती-व्यवस्था मे परिणत कर दिया जिससे कि बहुसंख्यक 'क्षुद्र' सेवा-दाताओं को सदा-सर्वदा के लिए शोषण-उत्पीड़न का सामना करना पड़ा उनको शिक्षा से वंचित करके उनका विकास-मार्ग अवरुद्ध कर दिया गया।'कायस्थ' पर ब्राह्मण ने अतिक्रमण करके उसे भी दास बना लिया और 'कल्पित' कहानी गढ़ कर चित्रगुप्त को ब्रह्मा की काया से उत्पन्न बता कर कायस्थों मे भी उच्च-निम्न का वर्गीकरण कर दिया। खेद एवं दुर्भाग्य की बात है कि आज कायस्थ-वर्ग खुद ब्राह्मणों के बुने कुचक्र को ही मान्यता दे रहा है और अपने मूल चरित्र को भूल चुका है। कहीं कायस्थ खुद को 'वैश्य' वर्ण का अंग बता रहा है तो कहीं 'क्षुद्र' वर्ण का बता कर अपने लिए आरक्षण की मांग कर रहा है।
यह जन्मगत जाति-व्यवस्था शोषण मूलक है और मूल भारतीय अवधारणा के प्रतिकूल है। आज आवश्यकता है योग्यता मूलक वर्ण-व्यवस्था बहाली की एवं उत्पीड़क जाति-व्यवस्था के निर्मूलन की।'कायस्थ' वर्ग को अपनी मूल भूमिका का निर्वहन करते हुये भ्रष्ट ब्राह्मणवादी -जातिवादी -जन्मगत व्यवस्था को ध्वस्त करके 'योग्यता आधारित' मूल वर्ण व्यवस्था को बहाल करने की पहल करनी चाहिए।

स्वयंवर प्रथा के पसंग मे विस्तृत दृष्टिकोण रखने हेतु हार्दिक आभार।

माथुर साहब! आपकी भाषा वैज्ञानिक और समाज शास्त्रीय दृष्टि सही है। प्राचीन काल में आज की तरह विज्ञान की शाखाएं प्रति शाखाएं नहीं थी।‌ 'काय' आधीन ही विज्ञान की अन्य शाखाएं थीं, भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान इत्यादि।







  ~विजय राजबली माथुर ©
 

Tuesday, October 14, 2025

एक क्रांतिकारी विद्वान - लाला हरदयाल जन्म 14 अक्टूबर 1884 ------ by : Nehru Revives



एक क्रांतिकारी विद्वान - लाला हरदयाल 
जन्म 14 अक्टूबर 1884
1884 में दिल्ली के एक कायस्थ परिवार में जब लाला हरदयाल का जन्म हुआ, तो किसी ने नहीं सोचा था कि यह बालक एक दिन तीन महाद्वीपों में ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ संघर्ष का प्रतीक बनेगा। उनके पिता गौरी दयाल माथुर जिला न्यायालय में काम करते थे और फारसी व उर्दू के विद्वान थे। घर में किताबों का माहौल था, बहसों का माहौल था।
सेंट स्टीफन कॉलेज, दिल्ली में पढ़ाई के दौरान वे हर परीक्षा में अव्वल आते। लाहौर के गवर्नमेंट कॉलेज में अंग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर करते समय भी उनकी प्रतिभा चमकती रही। 1905 में उन्हें ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के सेंट जॉन्स कॉलेज में अध्ययन के लिए भारत सरकार की छात्रवृत्ति मिली। यह सम्मान की बात थी  भारत का सर्वश्रेष्ठ छात्र, ब्रिटिश साम्राज्य के सबसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में।
लेकिन ऑक्सफोर्ड में कुछ बदल गया। हरदयाल क्रांतिकारी विचारों के संपर्क में आए। श्यामजी कृष्ण वर्मा, सी.एफ. एंड्रयूज, भाई परमानंद  इन सबसे उनकी मुलाकातें हुईं। वे 'द इंडियन सोशियोलॉजिस्ट' पत्रिका में ब्रिटिश राज के खिलाफ तीखे लेख लिखने लगे। 1907 में उन्होंने वह किया जो उस दौर में लगभग अकल्पनीय था  ऑक्सफोर्ड की छात्रवृत्ति त्याग दी। उन्होंने ब्रिटिश सरकार को लिखा कि वे उस साम्राज्य से कोई एहसान नहीं लेना चाहते जो उनकी मातृभूमि को गुलाम बनाए हुए है।
1908 में वे भारत लौटे, लाहौर में राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय हो गए। 'मॉडर्न रिव्यू' और 'द पंजाबी' जैसे अखबारों में उनके लेख छपने लगे। ब्रिटिश सरकार ने उन पर नजर रखनी शुरू कर दी। जल्द ही स्थिति ऐसी हो गई कि उन्हें फिर देश छोड़ना पड़ा। 1909 में वे पेरिस पहुंचे और 'वंदे मातरम' के संपादक बने। फिर अल्जीरिया और मार्टिनिक गए। वहां उन्होंने संन्यासी जैसा जीवन अपनाया  केवल उबले अनाज और सब्जियां, जमीन पर सोना, ध्यान करना। "सादा जीवन, उच्च विचार" यह उनका सिद्धांत बन गया।
1911 में उन्होंने अमेरिका की धरती पर कदम रखा। सैन फ्रांसिस्को बंदरगाह पर उतरे तो कैलिफोर्निया के पंजाबी सिख किसानों ने उनका स्वागत किया। ये लोग बेहतर जीवन की तलाश में यहां आए थे, लेकिन कनाडा और अमेरिका में नस्लभेद का सामना कर रहे थे। अपनी ही धरती पर गुलाम थे, पराई धरती पर भी दोयम दर्जे के नागरिक। हरदयाल ने उनकी पीड़ा को समझा और उन्हें एक दिशा दी
कैलिफोर्निया में उन्होंने ओकलैंड में 'बाकुनिन इंस्टीट्यूट' की स्थापना की। वे स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय में प्रोफेसर भी बने। लेकिन उनका असली काम कहीं और था। वे स्टॉकटन, सैक्रामेंटो, फ्रेस्नो जहां भी पंजाबी किसान रहते थे, वहां जाते, उनसे मिलते, बातचीत करते उन्हें बताते कि ब्रिटिश राज कैसे भारत को लूट रहा है, कैसे भारतीय अपनी ही धरती पर पराए हैं।
1913 में ओरेगॉन के एस्टोरिया शहर में एक ऐतिहासिक बैठक हुई। लाला हरदयाल, सोहन सिंह भकना, करतार सिंह सराभा और अन्य साथियों ने मिलकर गदर पार्टी की स्थापना की। 'गदर'  1857 के विद्रोह की याद दिलाने वाला नाम। पार्टी का मुख्यालय सैन फ्रांसिस्को में बनाया गया। एक साप्ताहिक अखबार 'गदर' निकलना शुरू हुआ  गुरमुखी, उर्दू और हिंदी में। इसकी पहली पंक्ति थी: "आज का हुक्म, सरकार का महकूम, दिल्ली तख्त का मालिक, हिंदुस्तान का बादशाह, गदर दी अदालत से निकला है।"
हरदयाल केवल राजनीतिक नेता नहीं थे। वे विद्वान थे, दार्शनिक थे। गदर के दफ्तर में रात-रात भर वे साथियों के साथ बैठकर बहसें करते समाजवाद पर, अराजकतावाद पर, भारतीय दर्शन पर। लेकिन साथ ही सशस्त्र संघर्ष की योजना भी बनाते। विदेशों में रहने वाले भारतीयों से चंदा इकट्ठा करते, हथियार खरीदने की योजनाएं बनाते।
अप्रैल 1914 में अमेरिकी सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। आरोप था अराजकतावादी साहित्य फैलाना। ब्रिटिश सरकार का दबाव था। जमानत पर रिहा होने के बाद हरदयाल ने फैसला किया अमेरिका छोड़ना होगा। वे पहले स्विट्जरलैंड गए, फिर बर्लिन। प्रथम विश्व युद्ध शुरू हो चुका था। जर्मनी ब्रिटेन के खिलाफ लड़ रही थी। हरदयाल ने सोचा दुश्मन का दुश्मन दोस्त।
बर्लिन में उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता समिति के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जर्मन खुफिया विभाग के साथ मिलकर भारत में विद्रोह की योजनाएं बनाईं। हथियारों की खेप भारत भेजने की कोशिशें हुईं। लेकिन ब्रिटिश खुफिया विभाग सतर्क था। कई योजनाएं विफल हो गईं।
युद्ध खत्म हुआ, जर्मनी हार गई। हरदयाल के लिए यूरोप में रहना मुश्किल हो गया। वे लंदन गए। 1930 में लंदन विश्वविद्यालय से बौद्ध संस्कृत साहित्य पर डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की। फिर स्वीडन गए और दस साल तक भारतीय दर्शन के प्रोफेसर रहे। 1920 के दशक के अंत में फिर अमेरिका लौटे और कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, बर्कले में संस्कृत पढ़ाने लगे।
यह एक अजीब विरोधाभास था  दिन में विश्वविद्यालय में प्राचीन भारतीय ग्रंथों की व्याख्या करते, शाम को क्रांतिकारी साथियों से मिलते। उनकी किताब 'हिंट्स फॉर सेल्फ-कल्चर' लिखी, जो व्यक्तिगत विकास को सामाजिक प्रगति का माध्यम बताती थी। स्वामी राम तीर्थ ने उन्हें "अमेरिका आने वाले सबसे महान हिंदू" कहा था।
4 मार्च 1939 की शाम, फिलाडेल्फिया में उन्होंने हमेशा की तरह व्याख्यान दिया। अंतिम शब्द थे, "मैं सबके साथ शांति में हूं।" उसी रात उनका निधन हो गया। अचानक, रहस्यमय। उनके करीबी मित्र लाला हनुमंत सहाय ने जहर देने की आशंका व्यक्त की, लेकिन कोई जांच नहीं हुई।
लाला हरदयाल की जिंदगी एक विरोधाभास थी विद्वान और क्रांतिकारी, शांत और विद्रोही, संन्यासी और योद्धा। उन्होंने ऑक्सफोर्ड की छात्रवृत्ति त्यागी, लेकिन लंदन से डॉक्टरेट ली। उन्होंने सशस्त्र संघर्ष की योजना बनाई, लेकिन जीवन भर सादगी से जिए। उन्होंने तीन महाद्वीपों में भटकते हुए भारत की आजादी के लिए संघर्ष किया, लेकिन खुद कभी आजाद भारत नहीं देख पाए। 
लाला हरदयाल की विरासत है एक ऐसे व्यक्ति की जिसने सबकुछ त्याग दिया, लेकिन सपना नहीं छोड़ा।
शत शत नमन 🙏



  ~विजय राजबली माथुर ©