Saturday, November 18, 2017

शहीद - ए - आजम के क्रांतिकारी साथी बटुकेश्वर दत्त के जन्मदिवस दिवस पर नमन्

  बटुकेश्वर दत्त (१८ नवंबर १९०८ - २० जुलाई १९६५) : 





बटुकेश्वर दत्त एक प्रसिद्ध क्रान्तिकारी हैं जिनका जन्म  18 नवम्बर, 1908 में कानपुर में हुआ था। उनका पैतृक गाँव बंगाल के 'बर्दवान ज़िले ' में था, पर पिता 'गोष्ठ बिहारी दत्त ' कानपुर में नौकरी करते थे। बटुकेश्वर ने 1925 ई. में मैट्रिक की परीक्षा पास की और तभी माता व पिता दोनों का देहान्त हो गया। इसी समय वे सरदार भगतसिंह और चन्द्रशेखर आज़ाद के सम्पर्क में आए और क्रान्तिकारी संगठन ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसियेशन’ के सदस्य बन गए। सुखदेव और राजगुरु के साथ भी उन्होंने विभिन्न स्थानों पर काम किया।
प्रतिशोध की भावना : 
विदेशी सरकार जनता पर जो अत्याचार कर रही थी, उसका बदला लेने और उसे चुनौती देने के लिए क्रान्तिकारियों ने अनेक काम किए। 'काकोरी' ट्रेन की लूट और लाहौर के पुलिस अधिकारी सांडर्स की हत्या इसी क्रम में हुई। तभी सरकार ने केन्द्रीय असेम्बली में श्रमिकों की हड़ताल को प्रतिबंधित करने के उद्देश्य से एक बिल पेश किया। क्रान्तिकारियों ने निश्चय किया कि वे इसके विरोध में ऐसा क़दम उठायेंगे, जिससे सबका ध्यान इस ओर जायेगा।
असेम्बली बम धमाका : 
8 अप्रैल, 1929 ई. को भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने दर्शक दीर्घा से केन्द्रीय असेम्बली के अन्दर बम फेंककर धमाका किया। बम इस प्रकार बनाया गया था कि, किसी की भी जान न जाए। बम के साथ ही ‘लाल पर्चे’ की प्रतियाँ भी फेंकी गईं। जिनमें बम फेंकने का क्रान्तिकारियों का उद्देश्य स्पष्ट किया गया था। दोनों ने बच निकलने का कोई प्रयत्न नहीं किया, क्योंकि वे अदालत में बयान देकर अपने विचारों से सबको परिचित कराना चाहते थे। साथ ही इस भ्रम को भी समाप्त करना चाहते थे कि काम करके क्रान्तिकारी तो बच निकलते हैं, अन्य लोगों को पुलिस सताती है।
आजीवन कारावास : 
भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त दोनों गिरफ्तार हुए, उन पर मुक़दमा चलाया गया। 6 जुलाई, 1929 को भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने अदालत में जो संयुक्त बयान दिया, उसका लोगों पर बड़ा प्रभाव पड़ा। इस मुक़दमें में दोनों को आजीवन कारावास की सज़ा हुई। बाद में लाहौर षड़यंत्र केस में भी दोनों अभियुक्त बनाए गए। इससे भगतसिंह को फ़ाँसी की सज़ा हुई, पर बटुकेश्वर दत्त के विरुद्ध पुलिस कोई प्रमाण नहीं जुटा पाई। उन्हें आजीवन कारावास की सज़ा भोगने के लिए अण्डमान भेज दिया गया।
रिहाई : 
इसके पूर्व राजबन्दियों के साथ सम्मानपूर्वक व्यवहार के लिए भूख हड़ताल में बटुकेश्वर दत्त भी सम्मिलित थे। यही प्रश्न जब उन्होंने अण्डमान में उठाया तो, उन्हें बहुत सताया गया। गांधीजी के हस्तक्षेप से वे 1938 ई. में अण्डमान से बाहर आए, पर बहुत दिनों तक उनकी गतिविधियाँ प्रतिबन्धित रहीं। 1942 के ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ में भी उन्हें गिरफ्तार किया गया था। छूटने के बाद वे पटना में रहने लगे थे।

12  जून 1929  को इन्हें आजीवन कारावास की सजा दी गयी. बटुकेश्वर दत्त को आजीवन कारावास काटने के लिए काला पानी जेल भेज दिया गया। जेल में ही उन्होंने 1933 और 1937 में ऐतिहासिक भूख हड़ताल की। सेल्यूलर जेल से 1937 में बांकीपुर केन्द्रीय कारागार, पटना में लाए गए और 1938 में रिहा कर दिए गए। काला पानी से गंभीर बीमारी लेकर लौटे दत्त फिर गिरफ्तार कर लिए गए और चार वर्षों के बाद 1945 में रिहा किए गए। बटुकेश्वर दत्त अपनी आखिरी दिनों में अभाव में गुजारे! चाहते तो वो भी अपनी पहचान का उपयोग करके आसानी से ऐश की जिंदगी जीते . पर ऐसे मतवाले क्रांतिकारियों को देश ही सब कुछ होता है और इन्हें सिद्धानतों के सिवा कुछ भी मंजूर नहीं होता
निधन : 
 एक दुर्घटना में घायल हो जाने के कारण दत्त की मृत्यु 20 जुलाई, 1965 को नई दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में हुई। मृत्यु के बाद इनका दाह संस्कार इनके अन्य क्रांतिकारी साथियों-भगत सिंह, राजगुरु एवं सुखदेव की समाधि स्थल पंजाब के हुसैनी वाला,फिरोजपुर में किया गया आज वहीं  उनकी समाधि है। 

साभार : 





~विजय राजबली माथुर ©

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