सत्य दर्शन
चरैवेति चरैवेति -पं. राहुल सांकृत्यायन
(9 अप्रैल 1893 -14 अप्रैल 1963) 125 जयंती वर्ष विशेष
’’मैं गोष्ठियों, समारोहों, सम्मेलनों, में वैसे तो बेधडक बोलता हूँ लेकिन जिस सभा, सम्मेलन या गोष्ठी में महापंडत राहुल सांकृत्यायन होते हैं, वहाँ बोलने में सहमता हूँ। उनके व्यक्तित्व एवं अगाध विद्वत्ता के समक्ष अपने को बौना महसूस करता हूँ।‘‘ ------ आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी
ऐतरेय ब्राह्मण के “चरैवेति चरैवेति” - कठोर परिश्रम करने वाले व्यक्ति को ही भांति-भांति की श्री यानी वैभव/संपदा प्राप्त होती हैं, एक ही स्थान पर निष्क्रिय बैठे रहने वाले विद्वान व्यक्ति तक को लोग तुच्छ मानते हैं। ऐसे समय में जबकि कंप्यूटर पर एक क्लिक के जरिये इंटरनेट सारी जानकारी हमारे सामने लेकर आ जाता है, ऐसे में राहुल सांकृत्यायन एक ऐसा व्यक्तित्व था, जिसने दुर्लभ ग्रंथों की खोज के लिए दुनिया के कई हिस्सों की यात्राएं की और आप आश्चर्य करेंगे की उन्हीं खोजे गए ग्रंथों को वे हजारों मील दूर पहाड़ों व नदियों के बीच भटकने के बाद, खच्चरों पर लादकर देश ले आए।
राहुलजी के व्यक्तित्व का एक महत्वपूर्ण पक्ष है-स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी भागीदारी। भारत को आजादी मिले यह उनका सपना था और इस सपने को साकार करने के लिए वे असहयोग आंदोलन में निर्भय कूद पडे। शहीदों का बलिदान उन्हें भीतर तक झकझोरता था। राहुल सांकृत्यायन ने अपने एक भाषण में कहा था- ’’चौरी-चौरा कांड में शहीद होने वालों का खून देश-माता का चंदन होगा।‘‘
राहुल आजीवन एक महान् बौद्धिक-योद्धा की तरह असत्य, अन्याय और अंधविश्वास से जूझते रहे। राहुल जी सनातनी ब्राम्हण परिवार में पैदा होने के बावजूद पंडे- पुजारियों और उनके धार्मिक आडंबरों के कट्टर विरोधी थे । वे बौद्धिकवाद के प्रबल समर्थक थे ।राहुल जी अपने एक निबंध “धर्म और ईश्वर “ में लिखते हैं - मनुष्य जाति की शैशव की मानसिक दुर्बलताओं और उससे उत्पन्न मिथ्या विश्वासों का समूह ही धर्म है । हलांकि इस पर लेखकों के गहरे मतभेद हैं । यह बातें उन्होंने अपनी बौद्धिकता के आधार पर कही । राहुल जी एक दुर्लभ एवं स्वच्छंद व्यक्तित्व वाले थे । वह अपने दायरे स्वयं बनाते एवं तोड़ते थे । जो उनकी जीवन यात्रा में स्पष्ट दिखता है
परिवार का नाम केदारनाथ पांडे था और जब वैष्णव बने तो नया नाम मिला स्वामी राम उदार दास और उसके बाद श्रीलंका यात्रा और अध्यापन के दौरान बौद्ध धर्म से प्रभावित हो बौद्ध धर्म स्वीकार किया तो वह नया नामकरण हुआ "राहुल" । सांकृत्यायन गोत्र में पैदा होने के कारन राहुल के आगे सां कृत्यायन लगाया और इस प्रकार केदारनाथ और राम अवतार दास के नाम मिला "राहुल संकृत्यायन" ।
एक घुमक्कड़ी, यायावर, महाविद्वान और जिज्ञासु भारत में हुआ, जिसका नाम था राहुल सांकृत्यायन। राहुल सांकृत्यान को भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में महापंडित की उपाधि दी जाती है। हिंदी के लेखक, साहित्यकार, यायावर, इतिहासविद्, तत्वान्वेषी, युगपरिवर्तनकार के रूप में पहचाने जाने वाले इस शख्स के आगे नेहरू से लेकर उस दौर के सभी विद्वान नतमस्तक थे।
यात्राएं जिदंगी की रवानगी को तरोताजा करती हैं और उसकी रहस्यों की परतों को खोलने का सबसे बेहतरीन और अलहदा जरिया होती हैं। यदि किताब के चंद पन्ने दिल और दिमाग के अंदर हलचल पैदा करते हैं, तो वहीं एक छोटी सी यात्रा अनुभव बनकर किताबी ज्ञान को सबसे परिपक्व और गहरा बनाती है।
वैसे भी घुम्मकड़ी और यायावरी जिंदगी किसे पसंद नहीं। देश, दुनिया, जंगल, शहर, नगर, ग्राम घूमते हुए, कई तरह के समाज, संस्कृति, साहित्य, धर्म, दर्शन को जानना उसे समझना यह सब यात्राओं और घुमक्कड़ी के जरिये ही तो हो सकता है। यात्राएं अलग-अलग तरह लोगों के आचार-विचार, जीवन शैली और रहन-सहन से परिचित कराती है। यही वजह है कि दुनिया में यात्रियों ने ही अपने रोमांच, साहस, हिम्मत और जिज्ञासा के बूते दुनिया को खोजने और जोड़ने का काम किया।
फिर चाहे वह पुर्तगाली यात्री वास्कोडिगामा हो, जो अपनी अदम्य इच्छाशक्ति, जिज्ञासा के बूते सीधे समुद्री रास्ते से भारत पहुंचा और भारत की महान सभ्यता, संस्कृति की जानकारी दुनिया को दी, या फिर क्रिस्टोफर कोलंबस हो, जो भीषण समुद्री लहरों में अपनी हिम्मत और साहस के बूते यूरोप को अमेरिका से परिचित करा पाया। ऐसे ही चीन यात्री ह्यान सांग था, जिसने भारतीय संस्कृति को बेहद गहराई से जाना, समझा और उसकी एक मुकम्मल तस्वीर अपनी तरह से पूरी दुनिया के सामने रखी।
अगस्तीन ने कहा है कि “संसार एक महान पुस्तक है। जो घर से बाहर नहीं निकलते वे केवल इस पुस्तक का एक पृष्ठ ही पढ़ पाते है।“ यात्रा से कौतूहल एवं जिज्ञासा जैसी स्वस्थ मनोवृतियों का उदय होता है जो मानव को विकासोन्मुख बनाती है, नवीन विचारों का संचार करती है, तथा सहिष्णुता, स्नेह, भातृत्व एवं उदारता की भावनाओं को जागृत करती है।
व्यवहारकुशलता के साथ-साथ मनुष्य के व्यक्तित्व में मौलिकता तथा विचारों में दृढ़ता प्रदान करती है। उसमें मनुष्य पूर्वाग्रहों से मुक्त हो जाता है। राहुलजी स्वभाव से यायावर थे। अनवरत यात्रा ही उनका उद्वेश्य था न कि कोई मंजिल। उनकी यात्रा मात्र भूगोल की नहीं वरन् मन, विचार, अवचेतन एवं चेतना के स्थानान्तरण की है। सचमुच राहुलजी का संपूर्ण साहित्य यायावरी का चलचित्र ही है।
“सैर कर दुनिया में गाफिल, जिंदगानी फिर कहाँ?
जिंदगी गर कुछ रही तो, नौजवानी फिर कहाँ?“
पढ़कर केदारनाथ (राहुलजी का बचपन का नाम) के किशोर-मन में दुनिया को देखने की अदम्य लालसा जगी जो जीवन-पर्यन्त कायम रही। नियमित शिक्षा से वंचित एवं अत्यल्प औपचारिक शिक्षा (मात्र 8वीं कक्षा तक) के बावजूद स्वाध्याय के बल पर राहुलजी भारतीय संस्कृति, इतिहास, वेद, दर्शन एवं विश्व की अनेक भाषाओं के मर्मज्ञ विद्वान बने तथा 150 पुस्तकों की रचना की। वर्णन की कला में उन्हें महारथ हासिल था।
उनकी अद्भुत तर्कशक्ति, विश्लेषण की निपुणता और अनुपम ज्ञान भंडार से प्रभावित होकर काशी के पंडितों ने उन्हें महापण्डित की उपाधि दी। संस्कृत और पालि भाषा का गहरा ज्ञान तथा नैपुण्य प्रवीणता के लिए श्रीलंका के बौद्ध संघ ने उन्हें कृपिटकाचार्य की उपाधि से विभूषित किया। लेकिन कैसी विडंवना है कि उन्हें किसी भी भारतीय विश्वविद्यालय द्वारा पढ़ाने के लिए आमंत्रित नहीं किया गया मात्र इस कारण से की उन्हें कोई औपचारिक डिग्री नहीं थी!
1958 में उन्हें मध्य ’एशिया का इतिहास‘ पुस्तक के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा 1963 मे ‘पदमभूषण‘ से नवाजा गया। बौद्ध दर्शन के उद्भट रूसी विद्वान प्रो0 स्करवास्तकी ने लेनिनग्राड विश्वविद्यालय से संबंधित अपने संस्मरण में लिखा है कि विश्व में एकमात्र राहुल सांकृत्यायन ही ऐसे विद्वान है जो मेरे बाद उस विषय को विश्वसनीयता एवं दक्षता के साथ पढ़ा सकते है। उन्हें लेनिनग्राड विश्वविद्यालय दो बार 1937-38 एवं 1947-48 में प्रोफेसर के पद पर नियुक्त कर उनकी सुयोग्यता एवं अतुल ज्ञान को विश्वस्तरीय मान्यता प्रदान किया।
21 वीं सदी में जब सूचना क्रांति के माध्यम से समग्र विश्व सिमटकर एक वैश्विक गाँव का आकार ले रहा है और इंटरनेट की सुविधा से माउस के क्लिक करते ही विश्व का विपुल ज्ञान भंडार सामने स्क्रीन पर उपलब्ध हो जाता है, यह अविश्वसनीय एवं विस्मयकारी प्रतीत होगा कि 20 वीं सदी के पूर्वाद्ध में हजारों मील दुर्गम एवं खतरनाक पहाडि़यों, जंगलों एवं नदियों के रास्ते पैदल कष्टसा ध्य यात्रा कर राहुल जी तिब्बत की राजधानी लहासा से दुलर्भ ग्रंथों एवं पाडुलिपियों को खच्चरों पर लादकर अपने देश लाये, जो आज भी पटना म्यूजियम में संरक्षित है।
यह एक प्रीतिकर समाचार है कि 4 मार्च, 2015 को सेंट्रल यूनिवर्सिटी आँफ तिब्बतीयन स्टडीज, सारनाथ एवं पटना म्यूजियम के बीच एम0ओ0यू0 हस्ताक्षरित किया गया है जिसके तहत राहुल सांकृत्यायन द्वारा लगभग तिब्बत से भारत लाई गयी और तिब्बती भाषा में लिखी लगभग 800 वर्ष पुराना 7.28 लाख पांडुलिपियों के डिजिटलाइजेशन के साथ उनका हिन्दी में अनुवाद किया जायगा। इससे निःसंदेह शोध और अध्ययन के नये क्षितिज खुलेंगे। बिहार सरकार द्वारा दुर्लभ एवं काफी पुरानी पांडुलिपियों के संरक्षण संबंधी पहल सराहनीय है तथा महापण्डित राहुल सांकृत्यायन के प्रति सच्ची श्रद्धाजंलि है।
राहुलजी ओजस्वी वक्ता थे। उनका भाषणचार्तुय विख्यात है। उनका भाषण तथ्यपरक, प्रवाहपूर्ण तथा प्रभावी होता था। सरल शब्दों के सटीक प्रयोग से संप्रेषण पूर्ण और सहज हो जाता था और श्रोताओं के अन्तःकरण में समावेश कर जाता था। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, जो हिन्दी के प्रखर वक्ता थे, राहुलजी की भाषण कला की प्रशंसा करते कहा थाः “मैं गोष्ठियों, समारोहों, सम्मेलनों में वैसे बेधड़क बोलता हूँ लेकिन जिस सभा, सम्मेलन या गोष्ठी में महापंडित राहुल सांकृत्यायन होते हैं, वहाँ बोलने में सहमता हूँ।
उनके व्यक्तित्व एवं अगाध विद्वता के समक्ष में अपने को बौना महसूस करता हूँ।“ वे शब्द-सामथ्र्य एवं सार्थक अभिव्यक्ति के मूर्तिमान रूप में थे। आत्म-नियंत्रण एवं आत्मानुशासन में वे अपनी उपमा आप थे। वे मृदुभाषी थे लेकिन उनकी लेखनी आक्रोश एवं बल उगलती थी। उनका अध्यवसाय अनुपम था। वे लगातार 18 घंटे तक साहित्य सर्जना में लीन रहते थे।इस प्रज्ञाशील मनीषी के व्यक्तित्व की आणविक शक्ति, सार्वदेशिक दृष्टि तथा ऐतिहासिक ज्ञान, दर्शन, संस्कृति, भाषा एवं यात्रा-साहित्य के क्षेत्र में रचनात्मक अवदान सदैव स्मरणीय रहेगा।
1919 में जलियाँवाला बाग कांड ने उनके अंदर राष्ट्रीयता की भावना को उद्वेलित किया। ब्रिटिश शासन के खिलाफ लिखने और भाषण देने के लिए उन्हें कई बार गिरफ्तार किया गया था। राहुल सांकृत्यायन उस दौर की उपज थे जब ब्रिटिश शासन के कारण भारतीय समाज, संस्कृति, राजनीति एवं अर्थव्यवस्था सभी संक्रमणकाल की दुःस्थिति को झेल रहे थे।
तीन साल तक कैद की सजा भोगते हुए उन्होंने कुरान का संस्कृत में अनुवाद कर डाला। जेल से छुटने के बाद वे डा0 राजेन्द्र प्रसाद के साथ स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया। 1927 में इंडियन नेशनल कांग्रेस अधिवेशन के बाद जब डा0 राजेन्द्र प्रसाद श्रीलंका गये थे तो राहुल जी उनके गाइड की भूमिका निभाए थे। बिहार के किसान आन्दोलन में भी राहुल जी ने अहम भूमिका निभायी थी। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के बाद किसान आंदोलन के शीर्ष नेता सहजानंद सरस्वती द्वारा प्रकाशित साप्ताहिक ‘हुंकार‘ का उन्होंने संपादन भी किया ।
डा0 श्रीराम शर्मा ने अपने निबंध “राहुलजी रोगशैया पर“, में लिखा है कि उनके मस्तिष्क में वृहस्पति और पाँवों में शनीचर का निवास रहा है। उनकी रचनाधर्मिता मात्र कलात्मकता को प्रदर्शित न कर समाज, सभ्यता, संस्कृति, इतिहास, विज्ञान, धर्म एवं दर्शन इत्यादि के रूढ़ धारणाओं पर कुठाराघात करती है और जीवन-सापेक्ष बन कर तमाम प्रगतिशील शक्तियों को संघर्ष और गतिशीलता की ओर प्रवृत करती है।
जिस प्रकार उनके पैर अनवरत बढ़ते रहे, उसी प्रकार हाथ की लेखनी भी कभी नहीं रूकी। लिखने के लिए वे अनुकूल मानसिक अवस्था या शांत वातावरण का कभी इंतजार नहीं किया बल्कि ट्रेन में, जहाज पर, बस पड़ाव पर, रास्ते में, सराय में, शिविर एवं जेल में भी उनकी लेखनी अविराम चलती रही। उनकी प्रसिद्ध कीर्ति, ‘वोल्गा से गंगा तक‘ जो 22 लघु कहानियों का संग्रह है 6000 (ईसा पूर्व) से 1942 तक दो महान नदियों के बेसिनों के बीच पनपी सभ्यताओं, मानव समाज का आर्थिक एवं सामाजिक अध्ययन तथा लगभग 7500 साल के ऐतिहासिक परिस्थितियों का काल्पिनक विवरण प्रस्तुत करता है।
भाषा और साहित्य के संबंध में राहुल जी कहते हैं-“भाषा और साहित्य, धारा के रूप में चलता है फर्क इतना ही है कि नदी को हम देश की पृष्ठभूमि में देखते हैं जब कि भाषा देश और भूमि दोनों की पृष्ठभूमि को लिए आगे बढ़ती है।“ स्थानीय बोलियों एवं जनपदीय भाषाओं का सम्मान करना राहुल जी की नैसर्गिक विशेषता थी।
लोकनाट्य परंपरा उनके लिए संस्कृति का सक्षम वाहक था। इसलिए उन्होंने भोजपुरी नाटकों की रचना की। वे नियमित रूप से संस्कृत में अपनी डायरी लिखते थे। जिसका उपयोग उन्होंने आत्मकथा में किया है।राहुलजी भाषात्मक एकता के प्रबल पोषक थे। अपने राष्ट्र के लिए एक राष्ट्रभाषा को अनिवार्य मानते थे। बिना भाषा के राष्ट्र गूंगा है, ऐसा उनका मत था। वे राष्ट्रभाषा एवं अन्य जनपदीय भाषाओं के उन्नयन में कोई अन्र्तविरोध नहीं देखते थे।
पहले हिंदू बैरागी, फिर आर्यसमाजी ,फिर बौद्ध और फिर 1939 में कम्युनिस्ट ।विवेकानंद की तरह राहुल जी भी नवजागरण के शिखर पुरूष थे । राहुल जी रूढ़िवादी ब्राह्मण परिवार में पैदा होकर भी धर्मांधता का विरोध करते रहे । जो राहुल जी की बड़ी विशेषता थी। राहुल जी के चरित्र में सादगी, स्वध्याय, निर्भीकता, त्याग ,लोकोन्मुखता, दिमागी खुलापन, बहुआयामिता, विवेकपरकता, कला प्रेम, देशभक्ति ,स्वच्छंद भ्रमण, पुरातत्व इतिहास से लगाव एवं क्षमा जैसे गुण समाहित थे । यही सब मिलाकर उनके व्यक्तित्व को महान व बहुआयामी बनाते हैं ।
किसानों के सच्चे हिमायती थे। साहित्य व घुमक्कड़ीपन से इतर जब जमींदारों द्वारा किसानों के हक़ों पर बर्बरतापूर्वक कब्जा किया जा रहा था । तब राहुल जी किसानों की लड़ाई लड़ने के लिए नागार्जुन जी व अन्य सहयोगियों के साथ 20 जनवरी 1939 को छपरा पहुंचे । सभी प्रभावशाली लोगों से मिले किसानो की व्यथा सुनाई । किन्तु सुनवाई न होते देख स्वयं हँसिया लेकर गन्ना काटने के लिए खेत में खुद उतर गए ।
जमींदारों की तरफ से राहुल जी पर लाठी से हमला कराया गया । राहुल जी का सिर फट गया । खून से लथपथ हो गए और उल्टा गिरफ्तार कर उन्हें छपरा जेल भेज दिया गया ।इस आंदोलन में नागार्जुन जी भी उनके साथ थे । राहुल जी डटे रहे ।राहुल जी को चोट लगने की खबर जब अखबारों में छपी । तो पूरा बिहार आंदोलित हो उठा। इसी घटना पर प्रसिद्ध हिंदी अख़बार “साप्ताहिक जनता” में मनोरंजन जी की कविता छपी ।
राहुल के सिर से खून गिरे,
फिर क्यों वह खून न उबल उठे
साधु के शोणित से फिर क्यों ?
सोने की लंका जल उठे ।
उस समय यह कविता लोगों की जुबान पर चढ़ गई ।
राहुल जी को स्वस्थ होने में लंबा समय लगा। क्योंकि घाव गंभीर थी। फिर भी वह लड़ते रहे । आखिरकार 1 अप्रैल 1939 को पूरे बिहार में राहुल पर प्रहार विरोधी दिवस मनाया गया । जेल में रहते हुए ही राहुल जी ने 14 मार्च 1939 को चर्चित पुस्तक “तुम्हारी क्षय” लिखना आरंभ किया । दूसरी तरफ केस चलता रहा।
7 अप्रैल 1939 को सीवान अदालत ने धारा 379 के तहत 3 माह की कैद और 30 का जुर्माना राहुल जी सहित आंदोलनकारियों पर लगाया । उस वक्त के “जनता साप्ताहिक” के संपादक व प्रसिद्ध साहित्यकार रामवृक्ष बेनीपुरी ने जोरदार संपादकीय लिखा। उन्होंने अदालत के फैसले को अविवेकपूर्ण बताते हुए लिखा कि - “एक विश्वविख्यात महात्मा की कीमत 10 रुपये आंकी गई” ।ऐसे थे राहुल सांकृत्यायन ।राहुल जी ने वास्तव में किसानों की लड़ाई पूरी निष्ठा से लड़ी। इसमें राहुल जी का बराबर साथ दिया नागार्जुन जी ने ।
आज़ादी की लड़ाई में चार बार जेल जाने वाले जिस महान स्वतंत्रता सेनानी लेखक यायावर इतिहासकार हिंदी सेवी महापंडित राहुल सांकृत्यायन की विद्वत्ता का लोहा प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने माना था उन राहुल जी की 125वीं जयंती मनाने का प्रस्ताव गत एक साल से मोदी सरकार के पास लंबित है और अभी तक इस संबंध में कोई निर्णय नहीं लिया गया है ।
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~विजय राजबली माथुर ©
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